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प्रश्रमखम. जब नारतका कर्ता व्यासजी नारतमें लिखता है कि धर्मात्मा मनु सर्व जंगे अहिंसाको श्रेष्ट कहता है तो फेर जीवहिंसा करनेवाले राजायोंकी प्रशंसा प्रोतके वास्ते शिकार मारके जीवांका लाना यह कश्चन और युधिष्ठिरक अश्वमेध यज्ञमें इतने पशु मारे गये कि जिनकी गिणती नही और ब्राह्मणोंने मांस खाया और घोमेका कलेजा काटके राजाने राणीके हायमें दीना लब राजाका सर्व पाप दूर हो गया; यह सर्व कथन जो नारतमें लिखा है, क्या इससे व्यासजी दयाधर्मका कथन करनेवाला सिह हो जावेगा ? जेकर कहोगे के नारतका अर्थ यथार्थ करना किसीका आता नही तो तुमारे मतमें आजतक कोश्नी सच्चे अर्थका जाननेवाला पीछे नही दूआ ? क्या यह सत्ययुगादि अच्छे युगांका माहात्म्य था और आज कालमें सच्चे अर्थ मालुम हो गये यह कलियुगका माहात्म्य होगा इसमें क्या उत्तर देना चाहिये.
तथा जो को कहते है वेदामें हिंसा करनेका नपदेश नही तो शंकरविजयमें जो आनंदगिरिने सौगतकी चर्चा में लिखा है कि जीवहिंसा अर्थात् वेदोक्त यज्ञ करणंमें जो पशुयोंका वध करा जाता है सो धर्म है, तिससे कल्याण सुखकी प्राप्ति होती है, इस हिंसाके करणेमें वेदोंकी हजारों श्रुतियांका प्रमाण है. तिस शंकर विजयका पाठ है-“ हिंसा कर्तव्येत्यत्रवेदाः सहस्रं प्रमाणं वर्तते " अब विचार करना चाहिये जव शंकरस्वामी कहता है कि हिंसा अर्थात् वैदिक यज्ञमें जो हिंसा करी जाती है सो हिंसा करणे योग्य है. इस कयनकी हजारों श्रुतियां प्रमाण देती है तो फेर वेद निर्हि सक क्योंकर माने जावे ? यातो हिंसाकी निंदा' के जो श्लोक उपनिषद स्मृति पुराणों में लिखे है बे जूते है या सूत्रकार नायकार टीकाकार व्यास शंकरस्वामी प्रमुख वैदिक हिंसाकों अनी माननेवाले जूठे है.
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