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प्रथमखम. माने नही. इस वास्ते गौतमोक्त दयानंदकी वेदोक्त मक्ति विल. क्षण है, इससे दयानंद सरस्वतीजीकी वेदोक्त मुक्तिको कुन्नी सहारा नही पहुंचता है. हम नही जानते के दयानंदजीने गौतम मतको मुक्तिका सूत्र किस वास्ते लिखे है ! फिर दयानंदजीनें वेदांत मतकी मुक्तिके सूत्र और उपनिषदकी मुक्ति लिखी है. तिनका एसा अर्थ लिखा है-पृष्ट १५ और १८६ में १७७ में दयानंद लिखता है
अब व्यासोक्त वेदांत दर्शन और नपनिषदोंमें जो मुक्तिका स्वरूप और लक्षण लिखे है सो आगे लिखते है (अनावं ) व्या
सजीके पिता जो बादरी आचार्य थे नुनका मुक्ति और अभाव विषयमें ऐसा मत है कि जब जीव मुक्त दशाको दानाहि है. प्राप्त होता है तब वह शुद्ध मनसें परमेश्वरके साथ परमानंद मोदमें रहता है और इन दोनों में जिन इंडियादि पदार्थोका अन्नाव हो जाता है ॥ १ ॥ तथा नावं ( जैमिनी ) इसी विषयमें व्यासजीके मुख्य शिप्य जो जैमिनी थे उनका ऐसा मत है कि जैसे मोदमें मन रहता है वैसेंही शह संकल्प मय शरीर तथा प्राणादि और इंडियोंकी शुरु झाक्तिनी बराबर बनी रहती है क्योंकि उपनिषदमें (स एकधा नवति द्विधा नवति त्रिधा नवति ) इत्यादि वचनोंका प्रमाण है कि मुक्त जीव संकल्पमात्रसेंही दिव्य शरीर रच लेते है और इच्छामात्रसेही शीघ्र ठोडन्नी देते है और शुरू झानका सदा बना रहता है॥२॥ (छादशाह ) इस मुक्ति विषयमें बादरायण जो व्यासजी थे ननका ऐसा मत है कि मुक्तिमें नाव और अनाव दोनोंही बने र. हते है, अर्थात् क्लेश अझान और अशुदि आदि दोषोंका सर्वथा अन्नाव हो जाता है और परमानंद ज्ञात शुक्ष्ता आदि सव सत्य
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