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प्रथमखम. मुरु सच्चा है. श्रुतिका जो प्रमाण दीया सो ऐसा है कि मेरी नार्या जो कहती है गुरु सच्चा है. क्या विछानोके यही प्रमाण होते है ? जो प्रतिवादीके खंडन करनेकों अपणे शास्त्रका प्रमाण देना यहतो निकेवल अन्यायसंपन्नताका लक्षण है. क्योंकि जब प्रतिवादि अन्यमतके शास्त्रोंकोही नही मानता तो फेर वो नसके प्रमा
कों क्यों कर मानेगा ? इसी श्रानंदगिरिने अगले प्रकरणमें जैनमतका खंडन लिखा है, वो बिलकुल जूठ है. जो नसने जैनमतकी तर्फसे पूर्वपद करा है, सो उसके जैनमतके अननिझताका सूचक है. क्योंकि जो नसने पूर्वपद जैनमतकी तर्फसें करा है वो पद न तो किसी जैनी ने पीछे माना है और न वर्तमानमें मानते है, और न ननके शास्त्रोमें ऐसा लिखा है. इस वास्ते शं. कर और आनंदगिरि ये दोनो परमतके अजाण और अनिमानपूरित मालुम होते है; जो मनमें आया सो जूठा नतपटंग लिख दिया. जैसें वर्तमानमें दयानंद सरस्वतीने अपने बनाये सत्यार्थ प्रकाश ग्रंथमें चार्वाकमतके श्लोक लिखके लिख दीयाकि ये श्लोक जैनीयोंके बनाये हुये है. ऐसेदि आनंद गिरि और शंकर स्वामीने जो जैनमतका पूर्वपद लिखा है सो महा जूठ लिखा है. इस वास्ते मैंने विचाराकि ऐसे आदमीयोंका लिखा खंगन लिखके मै काहेकों अपना पत्रा बिगाडूं. __ माधवाचार्यने दूसरी शंकरदिविजय रची है शंकर और आनंदगिरिकी अझता पिाने वारते; क्योंकि माधवाचार्यने कितनीक वाते जैनमतकी पूर्वपदने लिखी है. यह शंकरदिविजय अहंकार आदिके नद्यसें बनी है ने कुमतोंके खंडन करने सें, जैसे दयानंदने दयानंद दिग्विजयार्क रचलीनी है. दयानंदने किसमतकों जीता है सो सर्व लोग जानते है. निगम प्रकाशका कर्ता लिखता है कि शंकरस्वानी वाममार्गी श्राऐ से लोक कहते है. क्योंकि
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