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प्रथमखं.
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नारायण वृत्ति । श्रस्य मंत्रस्य तात्पर्य नादिमांसेन तव यावती प्रीतिस्तावती तव विद्यापी जवतीत्यर्थः ॥
अर्थ - हे ! हे नि ! तुमारी बलद और गायके मांस उपर प्रीति है. तिसी तरें हमारी विद्या उपर प्रीति होवे, यज्ञको देव कहते है. गृहस्थ लोक राजा श्रोत्रिय ब्राह्मणकों धन देके यज्ञ करवाते है, वाम मार्गीयोंसे पूजन करवाते है. तिससे अपया कल्याण समजते है. श्राद्ध अर्थात् पितृयज्ञ इसमेंजी अनु स्तरणी इत्यादिकमें मांस खाते है, इसको पितृमेधजी कहते है. सर्व पूर्वोक्त ऋग्वेदी आश्वलायन ब्राह्मणका धर्मसूत्रका अर्थ नपर लिखा है. पुराणो में बहुत ठिकाने ऋषि राजा वगैरे घरमें आयें मधुपर्क सहित पूजा करके सत्कार करा ऐसा लिखा है. इस वास्ते आगे मधुपर्क करणेकी रीती बहुत थी ऐसा मालुम होता है. कितने ब्राह्मण आपस्तंव शाखाके कहाते है. तेलंग और महाराष्ट्र देशमें इस शाखा के ब्राह्मण बहुत है, तिनका आपस्तंबीय धर्मसूत्र नामक शास्त्र है. तिस उपर हरदत्त नामक टीका है, सो सूत्र सरकारी तर्फसें मुंबई में बपा है, तिसमेंसें थोडेक सूत्र नीचे लिखते है.
१ धेन्वनडुहौ भक्ष्यम् प्रश्न १ पटल ५ सूत्र ३०. २ क्याक्यभोज्यमिति हि ब्राह्मणम् २८
३ मेध्यमानडूहमिति वाजसनेयकम् ३१ ४ गोमधुपर्कार्हो वेदाध्यायः २-४-१
५ आचार्य ऋत्विक् स्नातको राजा वा धर्मयुक्तः २-४-६ ६ आचार्यायविजेच शूराय राज्ञ इति परिसंवत्सरादुपतिष्ठद्भवो गौर्मधुपर्कश्व २-४-७
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