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अज्ञानतिमिरनास्कर. बातां बहुत नही है. जो है बी तो तिनके अर्थ बदल झाले है. क्या ऐसे कल्पनाको विधान सच्ची मान लेगे, और इस कल्पनासें वेद सच्चे हो जावेगे ? इस कल्पनासे तो वेदार्थ संशयका कारण हो गया. संशय यह हुआ कि पूर्वले मुनि ऋषि, रावण, नव्हट, महीधरादि मूर्ख अज्ञानी थे कि जिनकों सच्चा वेदार्थ नही पाया वा दयानंदसरस्वती मूर्ख अज्ञानी है जिसने पूर्व विधानोंके अ. र्थकों बोमके नवीन स्वकपोलकल्पित अर्थानास रचा है ?
दयानंदसर- दयानंदजीका यहनी कहना मिथ्या है कि हम इ. स्वतीकुं उपनीषद प्रमुख शावास्य नपनीषद् और संहिताके सिवाय और पुमेंभी शंका है. स्तकोंको नही मानते है क्योंकि शतपथ ऐतरेय प्रमुख ब्राह्मण, निरुक्त, नपनीषद् आरण्यक प्रमुखका प्रमाण जो जगे जगें अपनी कल्पनाके लि६ करने वास्ते दीए है वे उपहास्यके कारण है, क्योंकि जे कर तो अन्यमत वालोंके लीये प्रमाण दीये है तो अन्यमत वालेतो प्रथम वेदोहींको सच्चे शास्त्र ईश्वरप्रगीत नही मानते है, तो प्रमाणोंकों सच्चे क्योंकर मानेगे ? जेकर प्राचीन वेदमतवालोंके बास्ते प्रमाण दीये है तबतो ननकोनी अकिंचित्कर है, वे तो ब्राह्मणनाग उपनीषद् प्राचीन भाष्यादि पुराणादिकोंको प्रमाणिक मानते है, वे दयानंदसरस्वतीके लेखकों क्यों कर सत्य मानेगे ? जेकर अपने शिष्योंके वास्ते प्रमाण दीए है सो तो पीसेका पीसणा है, वैतो आगेही स्वामीजीके लेखकों विधाताके लेख समान समजते है. प्रमाणतो प्रेक्षावानोके वास्ते दीये जाते है. प्रेक्षावानतो दयानंदसरस्वतीके लेखसे जान लेवेंगे कि स्वामीजीके दीए प्रमाण उलरुप है. क्योंकि राजा शिवप्रसादके गपे निवेदनपत्रमें तो दयानंदजी लिखते है कि में संहितायोंको वेद मानता हूं. एक श्शावास्यकों गेमके अन्य नपनीषदोंकों नहीं मानता, किंतु अन्य सब उपनीषद् ब्राह्मण ग्रंथोमें है, वे ईश्व:
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