Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रस्तुत वर्णन कवियों ने बहुत ही विस्तार से चित्रित किया है। इस चित्रण में बाहुबली के व्यक्तित्व की विशेषता का वर्णन हुआ है। पर मूल आगम में इस सम्बन्ध में किञ्चिन्मात्र भी संकेत नहीं है और न ९९ भ्राताओं के प्रव्रजित होने का ही उल्लेख है। उन्होंने किस निमित्त से दीक्षा ग्रहण की, इस सम्बन्ध में भी शास्त्रकार मौन हैं।
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में वर्णन है कि भरत आदर्शघर में जाते हैं। वहाँ अपने दिव्य रूप को निहारते हैं। शुभ अध्यवसायों के कारण उन्हें केवलज्ञान व केवलदर्शन प्राप्त हो गया। उन्होंने केवलज्ञान/केवलदर्शन होने के पश्चात् सभी वस्त्राभूषणों को हटाया और स्वयं पञ्चमुष्टि लोच कर श्रमण बने। परन्तु आवश्यकनियुक्ति २ आदि में यह वर्णन दूसरे रूप में प्राप्त है। एक बार भरत आदर्शभवन में गए। उस समय उनकी अंगुली से अंगूठी नीचे गिर पड़ी। अंगूठी रहित अंगुली शोभाहीन प्रतीत हुई। वे सोचने लगे कि अचेतन पदार्थों से मेरी शोभा है! मेरा वास्तविक स्वरूप कैसा है ? मैं जड़ पदार्थों की सुन्दरता को अपनी सुन्दरता मान बैठा हूँ। इस प्रकार चिन्तन करते हुए उन्होंने मुकुट, कुण्डल आदि समस्त आभूषण उतार दिये। सारा शरीर शोभाहीन प्रतीत होने लगा। वे चिन्तन करने लगे कि कृत्रिम सौन्दर्य चिर नहीं है, आत्मसौन्दर्य ही स्थायी है। भावना का वेग बड़ा और वे कर्ममल को नष्ट कर केवलज्ञानी बन गये।
दिगम्बर आचार्य जिनसेन ३ ने सम्राट् भरत की विरक्ति का कारण अन्य रूप से प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है कि एक बार सम्राट् भरत दर्पण में अपना मुख निहार रहे थे कि सहसा उनकी दृष्टि अपने सिर पर आए श्वेत केश पर टिक गई। उसे निहारते-निहारते ही संसार से विरक्ति हुई। उन्होंने संयम ग्रहण किया और कुछ समय पश्चात् ही उनमें मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान प्रकट हुआ।
श्रीमद्भागवत में सम्राट् भरत का जीवन कुछ अन्य रूप से मिलता है। राजर्षि भरत सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य भोगकर वन में चले गये। वहाँ पर उन्होंने तपस्या कर भगवान् की उपासना की और तीन जन्मों में भगवत्स्थिति को प्राप्त हुए।
आवश्यकचूर्णि और महापुराण में यह भी वर्णन है कि क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्गों की स्थापना भगवान् ऋषभदेव ने की और ब्राह्मण वर्ण की स्थापना सम्राट भरत ने की। आवश्यकचूर्णि के अनुसार जब सम्राट भरत के ९८ लघु भ्राता प्रव्रजित हो गए तब भरत के अन्तर्मानस में यह विचार उद्बुद्ध हुआ कि मेरे पास यह विराट् वैभव है, यह वैभव अपने स्वजनों के भी काम नहीं आया तो निरर्थक है। भरत ने अपने भाइयों को पहले भोग को लिये निमंत्रण दिया। जब उन्होंने यह स्वीकार नहीं किया तो पाँच सौ गाड़ियों में भोजन की सामग्री लेकर जहाँ भगवान् ऋषभदेव विचर रहे थे वहाँ पहुँचे और वह भोजनसामग्री ग्रहण करने के लिये प्रार्थना की। भगवान् ऋषभदेव ने कहा कि श्रमणों के लिये बना हुआ आहार श्रमण ग्रहण नहीं कर सकते और साथ ही यह राजपिण्ड है अतः श्रमण ले नहीं सकते। भरत सोचने लगे कि मेरी कोई वस्तु काम नहीं आयेगी। उस समय भरत को चिन्तित
१. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार ३ २. (क) आवश्यकनियुक्ति ४३६
(ख) आवश्यकचूर्णि पृष्ठ २२७
महापुराण ४७। ३९२-३९३ ४. श्रीमद्भागवत ११।२।१८१७११
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