Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र
था। दिव्य वाद्यों की ध्वनि एवं निनाद से आकाश व्याप्त था। वह चक्ररत्न विनीता राजधानी के बीच से निकला। निकलकर गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे से होता हुआ पूर्व दिशा में मागध तीर्थ को ओर चला।
राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को गंगा महानदी के दक्षिणी तट से होते हुए पूर्व दिशा में मागध तीर्थ को ओर बढ़ते हुए देखा, वह हर्षित व परितुष्ट हुआ, (चित्त में आनन्द एवं प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ, अत्यन्त सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसित हृदय हो उठा।) उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनसे कहा-देवानुप्रियो ! आभिषेक्य-अभिषेकयोग्य-प्रधानपद पर अधिष्ठित, राजा की सवारी में प्रयोजनीय हस्तिरत्न-उत्तम. हाथी-को शीघ्र ही सुसज्ज करो। घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं-पदातियों से परिगठित चतुरंगिणी सेना को तैयार करो। यथावत आज्ञापालन कर मुझे सूचित करो।
कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा के आदेश के अनुरूप सब किया और राजा को अवगत कराया।
तत्पश्चात् राजा भरत जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया। उस ओर आकर स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। वह स्नानघर मुक्ताजालयुक्त-मोतियों की अनेकानेक लड़ियों से सजे हुए झरोखों के कारण बड़ा सुन्दर था। उसका प्रांगण विभिन्न मणियों तथा रत्नों से खचित था। उसमें रमणीय स्नान-मंडप था। स्नान-मंडप में अनेक प्रकार से चित्रात्मक रूप में जड़ी गई मणियों एवं रत्नों से सुशोभित स्नान-पीठ था। राजा सुखपूर्वक उस पर बैठा। राजा ने शुभोदक-न अधिक उष्ण, न अधिक शीतल, सुखप्रद जल, गन्धोदक-चन्दन आदि सुगंधित पदार्थों से मिश्रित जल, पुष्पोदक-पुष्प मिश्रित जल एवं शुद्ध जल द्वारा परिपूर्ण, कल्याणकारी, उत्तम स्नानविधि से स्नान किया।
स्नान के अनन्तर राजा ने दृष्टिदोष, नजर आदि के निवारण हेतु रक्षाबन्धन आदि के सैकड़ों विधिविधान संपादित किये। तत्पश्चात् रोएँदार, सुकोमल काषायित-हरीतकी, विभीतक, आमलक आदि कसैली वनौषधियों से रंगे हुए अथवा काषाय-लाल या गेरुए रंग के वस्त्र से शरीर पोंछा। सरस-रसमय-आर्द्र, सुगन्धित गोशीर्ष चन्दन का देह पर लेप किया। अहत-अदूषित-चूहों आदि द्वारा नहीं कुतरे हुए बहुमूल्य दृष्यरत्न-उत्तम या प्रधान वस्त्र भली भाँति पहने। पवित्र माला धारण की। केसर आदि का विलेपन किया। मणियों से जड़े सोने के आभूषण पहने। हार-अठारह लड़ों के हार, अर्धहार-नौ लड़ों के हार तथा तीन लड़ों के हार और लम्बे, लटकते कटिसूत्र-करधनी या कंदोरे से अपने को सुशोभित किया। गले के आभरण धारण किये। अंगुलियों में अंगूठियां पहनी। इस प्रकार सुन्दर अंगों को सुन्दर आभूषणों से विभूषित किया। नाना मणिमय कंकणों तथा त्रुटितों-तोडों-भुजबंधों द्वारा भुजाओं को स्तम्भित किया-कसा। यों राजा की शोभा और अधिक बढ़ गई। कुंडलों से मुख उद्योतित था-चमक रहा था। मुकुट से मस्तक दीप्तदेदीप्यमान था। हारों से ढका हुआ उसका वक्षःस्थल सुन्दर प्रतीत हो रहा था। राजा ने एक लम्बे, लटकते वस्त्र को उत्तरीय (दुपट्टे) के रूप में धारण किया। मुद्रिकाओं-सोने की अंगूठियों के कारण राजा की अंगुलियाँ पीली लग रही थीं। सुयोग्य शिल्पियों द्वारा नानाविध, मणि, स्वर्ण, रत्न-इनके योग से सुरचित