Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पञ्चम वक्षस्कार]
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में रखा था, प्रतिसंहृत करता है-समेट लेता है। भगवान् तीर्थंकर की माता की अवस्वापिनी निद्रा को, जिसमें वह सोई होती है, प्रतिसंहृत कर लेता है। वैसा कर वह भगवान् तीर्थंकर के उच्छीर्षक मूल में-सिरहाने दो बड़े वस्त्र तथा दो कुण्डल रखता है। फिर वह तपनीय-स्वर्ण-निर्मित झुम्बनक-झुनझुने से युक्त, सोने के पातों से परिमण्डित-सुशोभित, नाना प्रकार की मणियों तथा रत्नों से बने तरह-तरह के हारों-अठारह लड़ें हारों, अर्धहारों-नौ लड़े हारों से उपशोभित श्रीदामगण्ड-सुन्दर मालाओं को परस्पर ग्रथित कर बनाया हुआ बड़ा गोलक भगवान् के ऊपर तनी चाँदनी में लटकाता है, जिसे भगवान् तीर्थंकर निर्निमेष दृष्टि सेबिना पलकें झपकाए उसे देखते हुए सुखपूर्वक अभिरमण करते हैं-क्रीडा करते हैं।
तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक्र वैश्रमण देव को बुलाता है। बुलाकर उसे कहता है-देवानुप्रिय ! शीघ्र ही बत्तीस करोड़ रौप्य-मुद्राएँ, बत्तीस करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ, सुभग आकार, शोभा एवं सौन्दर्ययुक्त बत्तीस वर्तुलाकार लोहासन, बत्तीस भद्रासन भगवान् तीर्थंकर के जन्म-भवन में लाओ। लाकर मुझे सूचित करो।
वैश्रमण देव (देवेन्द्र देवराज) शक्र के आदेश को विनयपूर्वक स्वीकार करता है। स्वीकार कर वह जृम्भक देवों को बुलाता है। बुलाकर उन्हें कहता है-देवानुप्रियो ! शीघ्र ही बत्तीस करोड़ रौप्य-मुद्राएँ, (बत्तीस करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ, सुभग आकार, शोभा एवं सौन्दर्ययुक्त बत्तीस वर्तुलाकार लोहासन, बत्तीस भद्रासन) भगवान् तीर्थंकर के जन्म-भवन में लाओ। लाकर मुझे अवगत कराओ।
वैश्रमण देव द्वारा यों कहे गये जृम्भक देव हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं। वे शीघ्र ही बत्तीस करोड़ रौप्य-मुद्राएँ आदि भगवान् तीर्थंकर के जन्म-भवन में ले आते हैं। लाकर वैश्रमण देव को सूचित करते हैं कि उनके आदेश के अनुसार वे कर चुके हैं। तब वैश्रमण देव जहाँ देवेन्द्र देवराज शक्र होता है, वहाँ आता है, कृत कार्य से उन्हें अवगत कराता है।
तत्पश्चात् देवेन्द्र, देवराज शक्र अपने आभियोगिक देवों को बुलाता है और उन्हें कहता है-देवानुप्रियो! शीघ्र ही भगवान् तीर्थंकर के जन्म-नगर के तिकोने स्थानों, तिराहों, चौराहों एवं विशाल मार्गों में जोर-जोर से उद्घोषित करते हुए कहो-'बहुत से भवनपति, वान्व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक देव-देवियो ! आप सुनें-आप में से जो कोई तीर्थंकर या उनकी माता के प्रति अपने मन में अशुभ भाव लायेगा-दुष्ट संकल्प करेगा, आर्यक-वनस्पति विशेष–'आजओ' की मंजरी की ज्यों उसके मस्तक के सौ टुकड़े हो जायेंगे।'
यह घोषित कर अवगत कराओ कि वैस कर चुके हैं।
(देवेन्द्र देवराज शक्र द्वारा यों कहे जाने पर) वे आभियोगिक देव 'जो आज्ञा' यों कहकर देवेन्द्र देवराज शक्र का आदेश स्वीकार करते हैं। स्वीकार कर वहाँ से प्रतिनिष्क्रान्त होते हैं-चले जाते हैं। वे शीघ्र ही भगवान् तीर्थंकर के जन्म-नगर में आते हैं । वहाँ तिकोने स्थानों, तिराहों, चौराहों और विशाल मार्गों में यों बोलते हैं 'बहुत से भवनपति (वान्व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक) देवो ! देवियो ! आप में से जो कोई तीर्थंकर या उनकी माता के प्रति अपने मन में अशुभ भाव लायेगा-दुष्ट संकल्प करेगा, आर्यक-मंजरी की ज्यों उसके मस्तक के सौ टुकड़े हो जायेंगे।'