Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सप्तम वक्षस्कार ]
में विस्तीर्ण - चौड़ी, भीतर से वृत्त - अर्ध वलयाकार तथा बहर से पृथुल- पृथुलतापूर्ण विस्तृत, भीतर अंकमुखपद्मासन में अवस्थित पुरुष के उत्संग - गोद रूप आसनबन्ध में मुख- अग्रभाग जैसी तथा बाहर गाड़ी की धुरी के अग्रभाग जैसी होती है।
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मेरु के दोनों ओर उसकी दो बाहाएँ - भुजाएँ - पार्श्व में अवस्थित हैं - नियत परिमाण हैं - उनमें वृद्धि - हानि नहीं होती। उनकी - उनमें से प्रत्येक की लम्बाई ४५००० योजन है। उसकी दो बाहाएँ अनवस्थितअनियत परिमाणयुक्त हैं । वे सर्वाभ्यन्तर तथा सर्वबाह्य के रूप में अभिहित हैं । उनमें सर्वाभ्यन्तर बाहा की परिधि मेरु पर्वत के अन्त में ९४८६९, योजन है।
भगवन् ! वह परिक्षेपविशेष - परिधि का परिमाण किस आधार पर कहा गया है ?
गौतम ! जो मेरु पर्वत की परिधि है, उसे ३ से गुणित किया जाए। गुणनफल को दस का भाग दिया जाए। उसका भागफल (मेरु पर्वत की परिधि ३१६२३ योजन x ३ - ९४८६९ - १० = ९४८६९%, ) इस परिधि का परिमाण है ।
१०
उसकी सर्वबाह्य बाहा की परिधि लवणसमुद्र के अन्त में ९४८६८४ / योजन- परिमित है । भगवन् ! इस परिधि का यह परिमाण कैसे बतलाया गया है ?
१०
गौतम ! जो जम्बूद्वीप की परिधि है, उसे ३ से गुणित किया जाए, गुणनफल को १० से विभक्त किया जाए। वह भागफल ( जम्बूद्वीप की परिधि ३१६२२८ × ३ इस परिधि का परिमाण है ।
३३३३३'/,
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९४८६८४ - १० = ९४८६८/१० )
भगवन् ! उस समय ताप - क्षेत्र की लम्बाई कितनी होती है ?
गौतम ! उस समय ताप-क्षेत्र की लम्बाई ७८३३३ / , योजन होती है, ऐसा बतलाया गया है। मेरु से लेकर जम्बूद्वीप पर्यन्त ४५००० योजन तथा लवणसमुद्र के विस्तार २००००० योजन के / भाग योजन का जोड़ ताप - क्षेत्र की लम्बाई है । उसका संस्थान गाड़ी की धुरी के अग्रभाग जैसा होता
भगवन् ! तब अन्धकार - स्थिति कैसा संस्थान - आकार लिये होती है ?
गौतम ! अन्धकार-स्थिति तब ऊर्ध्वमुखी कदम्ब पुष्पं का संस्थान लिये होती है, वैसे आकार की होती है। वह भीतर संकीर्ण-सँकड़ी, बाहर विस्तीर्ण - चौड़ी ( भीतर से वृत्त - अर्ध वलयाकार, बाहर से पृथुलता लिये विस्तृत, भीतर से अंकमुख- पद्मासन में अवस्थित पुरुष के उत्संग - गोदरूप आसन-बन्ध के 1. मुख - अग्रभाग की ज्यों तथा बाहर से गाड़ी की धुरी के अग्रभाग की ज्यों होती है।
उसकी सर्वाभ्यन्तर बाहा की परिधि मेरु पर्वत के अन्त में ६३२४, योजन - प्रमाण है। भगवन् ! यह परिधि का परिमाण कैसे है ?