Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सप्तम वक्षस्कार]
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भगवन् ! क्या वे अणुबादररूप ऊर्ध्व क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं या अध:क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं या तिर्यक् क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं ? ____ गौतम ! वे अणुबादररूप ऊर्ध्व क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं, अध:क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं और तिर्यक् क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं-तीनों क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं।
भगवन् ! क्या वे साठ मुहूर्तप्रमाण मण्डलसंक्रमणकाल के आदि में गमन करते हैं या मध्य में गमन करते हैं या अन्त में गमन करते हैं ?
गौतम ! वे आदि में भी गमन करते हैं, मध्य में भी गमन करते हैं तथा अन्त में भी गमन करते हैं।
भगवन् ! क्या वे स्वविषय में अपने उचित-स्पृष्ट-अवगाढ-अनन्तरावगाढ रूप क्षेत्र में गमन करते हैं या अविषय में अनुचित विषय में-अस्पृष्ट-अनवगाढ-परम्परावगाढ क्षेत्र में गमन करते हैं ?
गौतम ! वे स्पृष्ट-अवगाढ-अनन्तरावगाढ रूप उचित क्षेत्र में गमन करते हैं, अस्पृष्ट-अनवगाढपरम्परावगाढ रूप अनुचित क्षेत्र में गमन नहीं करते।
भगवन् ! क्या वे आनुपूर्वीपूर्वक-क्रमशः आसन्न क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं, या अनानुपूर्वीपूर्वकक्रमशः अनासन्न क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं ?
गौतम ! वे आनुपूर्वीपूर्वक-क्रमशः आसन्न क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं, अनानुपूर्वीपूर्वक-क्रमशः अनासन्न क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं करते।
भगवन् ! क्या वे एक दिशा का एक दिशाविषयक क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं या छह दिशाओं का-छह दिशाविषयक क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं ?
गौतम ! वे नियमतः छह दिशाविषयक क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं।
इस प्रकार वे अवभासित होते हैं-ईषत्-थोड़ा-किञ्चित् प्रकाश करते हैं, जिसमें स्थूलतर वस्तुएँ दीख पाती हैं।
__ भगवन् ! क्या वे सूर्य उस क्षेत्र रूप वस्तु को स्पर्श कर प्रकाशित करते हैं या उसका स्पर्श किये बिना ही प्रकाशित करते हैं ?
प्रस्तुत प्रसंग चौथे उपांग प्रज्ञापनासूत्र के २८ वें आहारपद स्पृष्टसूत्र, अवगाढसूत्र, अनन्तरसूत्र, अणुबादर-सूत्र, ऊर्ध्व-अधःप्रभृतिसूत्र, आदि-मध्यावसानसूत्र, विषयसूत्र, आनुपूर्वीसूत्र, षड्दिश् सूत्र आदि के रूप में विस्तार से ज्ञातव्य है।
इस प्रकार दोनों सूर्य छहों दिशाओं में उद्योत करते हैं, तपते हैं, प्रभासित होते हैं-प्रकाश करते हैं।
१७१. जम्बूद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिआणं किं तोते खित्ते किरिआ कज्जइ, पडुप्पणे किरिआ कज्जइ, अणागए किरिआ कज्जइ ?