Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
[जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र
( रात बीत जाने पर, नीले तथा अन्य कमलों के सुहावने रूप में खिल जाने पर, उज्ज्वल प्रभा एवं लाल अशोक, किंशुक के पुष्प तोते की चोंच, घंघची के आधे भाग के रंग के सदृश लालिमा लिये हुए, कमल वन को उद्बोधित - विकसित करने वाले सहस्रकिरणयुक्त, दिन के प्रादुभविक सूर्य के उदित होने पर, अपने तेज से उद्दीप्त होने पर) दूसरे दिन राजा भरत, जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया । स्नान आदि कर बाहर निकला, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, सिंहासन था, वहाँ आया, पूर्व की ओर मुँह किये सिंहासन पर बैठा। सिंहासन पर बैठकर उसने सोलह हजार अभियोगिक देवों, बत्तीस हजार प्रमुख राजाओं, सेनापतिरत्न, (गाथापतिरत्न, वर्धकिरत्न), पुरोहितरत्न, तीन सौ साठ सूपकारों, अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि जनों तथा अन्य बहुत से माण्डलिक राजाओं, ऐश्वर्यशाली एवं प्रभावशील पुरुषों, राजसम्मानित विशिष्ट नागरिकों और सार्थवाहों को - अनेक छोटे व्यापारियों को साथ लिये देशान्तर में व्यापार-व्यवसाय करने वाले बड़े व्यापारियों को बुलाया। बुलाकर उसने कहा – 'देवानुप्रियो ! मैंने अपने बल, वीर्य, (पौरुष तथा पराक्रम द्वारा एक ओर लघु हिमवान् पर्वत से तथा तीन ओर समुद्रों से मर्यादित) समग्र भरतक्षेत्र को जीत लिया है । देवानुप्रियो ! तुम लोग मेरे राज्याभिषेक के विराट् समारोह की रचना करो - तैयारी करो ।
१७६ ]
राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वे सोलह हजार आभियोगिक देव ( बत्तीस हजार प्रमुख राजा, सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्धकिरत्न, पुरोहितरत्न, तीन सौ साठ सूपकार, अठारह श्रेणी - प्रश्रेणि जन तथा अन्य बहुत से माण्डलिक राजा, ऐश्वर्यशाली, प्रभावशील पुरुष, राज- सम्मानित विशिष्ट नागरिक, सार्थवाह ) आदि बहुत हर्षित एवं परितुष्ट हुए । उन्होंने हाथ जोड़े, उन्हें मस्तक से लगाया । ऐसा कर राजा भरत का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार किया ।
तत्पश्चात् राजा भरत जहाँ पौषधशाला थी, वहाँ आया, तेले की तपस्या स्वीकार की । तेले की तपस्या में प्रतिजागरिक रहा। तेले की तपस्या पूर्ण हो जाने पर उसने आभियोगिक देवों का आह्वान किया। आह्वान कर उसने कहा- 'देवानुप्रियो ! विनीता राजधानी के उत्तर-पूर्व दिशाभाग में - ईशानकोण में एक विशाल अभिषेकमण्डप की विकुर्वणा करो - वैक्रियलब्धि द्वारा रचना करो। वैसा कर मुझे अवगत कराओ।' राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वे आभियोगिक देव अपने मन में हर्षित एवं परितुष्ट हुए। "स्वामी ! जो आज्ञा । " यों कहकर उन्होंने राजा भरत का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार किया । स्वीकार कर विनीता राजधानी के उत्तर - पूर्व दिशाभाग में - ईशानकोण में गये। वहाँ जाकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकाला । आत्मप्रदेशों को बाहर निकाल कर उन्हें संख्यात योजन पर्यन्त दण्डरूप में परिणत किया। उनसे गृह्यमाण (हीरे, वैडूर्य, लोहिताक्ष, मसारगल्ल, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, ज्योतिरस, अंजन, अंजनपुलक, स्वर्ण, अंक, स्फटिक), रिष्ट - आदि रत्नों के बादर - स्थूल, असार पुद्गलों को छोड़ दिया। उन्हें छोड़कर सारभूत सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण किया। उन्हें ग्रहण कर पुनः वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकाला। बाहर निकाल कर मृदंग के ऊपरी भाग की ज्यों समतल, सुन्दर भूमिभाग की विकुर्वणा की - वैक्रियलब्धि द्वारा रचना की। उसके ठीक बीच में एक विशाल अभिषेक - मण्डप की रचना की ।
वह अभिषेक-मण्डप सैकड़ों खंभों पर टिका था । ( वह अभ्युद्गत - बहुत ऊँचा था । वह हीरों