Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पञ्चम वक्षस्कार]
[३०३
तिसोवाणपडिरूवगा, वण्णओ, तेसि णं पडिरूवगाणं पुरओ पत्तेअं २ तोरणा, वण्णओ जाव पडिरूवा।
तस्स णंजाणविमाणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव दीविअचम्मेइ वा अणेगसंकुकीलकसहस्सवितते आवड-पच्चावड-सेढि-पसेढिसुत्थिअ-सोवत्थिअवद्धमाणपूसमाणव-मच्छंडग-मगरंडग-जार-मार-फुल्लावली-पउमपत्तसागर-तरंग-वसंतलयपउमलय-भत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं सप्पभेहिं समरीइएहिं सउज्जोएहिं णाणाविहपञ्चवण्णेहिं मणीहिं उवसोभिए २, तेसिणं मणीणं वण्णे गन्धे फासे अभाणिअव्वे जहा रायप्पसेणइज्जे।
___ तस्सणं भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए पिच्छाघरमण्डवेअणेगखम्भसयसण्णिविटे, वण्णओ जाव पडिरूवे, तस्स उल्लोए पउमलयभत्तिचित्ते, जाव' सव्वतवणिज्जमए जाव ३ (पासादीए, दरिसणिज्जे, अभिरूवे,) पडिरूवे।।
तस्स णं मण्डवस्स बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागंसि महं एगा मणिपेढिआ, अट्ठ जोअणाई आयामविक्खम्भेणं, चत्तारि जोअणाई बाहल्लेणं, सव्वमणिमयी वण्णओ। तीए उवरिं महं एगे सीहसणे वण्णओ, तस्सुवरि महं एगे विजयदूसे सव्वरयणामए वण्णओ, तस्स मज्झदेसभाए एगे वइरामए अंकुले, एत्थ णं महं एगे कुम्भिक्के मुत्तादामे, से णं अन्नेहिं तदधुच्चत्तप्पमाणत्तेहिं चउहिं अद्धकुम्भिक्केहिं मुत्तादामेहिं सव्वओ समन्ता संपरिक्खित्ते, तंणंदामा तवणिज्जलंबूसंगा, सुवण्णपयरगमण्डिया,णाणामणिरयणविविहहार-द्धहारउवसोभिया, समुदया ईसिं अण्णमण्णमसंपत्ता पुव्वाइएहिं वाएहिं मन्दं एइज्जमाणा २ (उत्तरेणं, मणुन्नेणं, मणहरेणं, कण्णमण-)निव्वुइकरेणं सद्देणं ते पएसे आपूरेमाणा २(सिरीए) अईव उवसोभेमाणा २ चिटुंति त्ति।
तस्स णं सीहासणस्स अवरुत्तरेणं, उत्तरेणं, उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं सक्कस्स चउरासीए सामाणिअसाहस्सीणं, चउरासीइ भद्दासणसाहस्सीओ, पुरथिमेणं अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं एवं दाहिणपुरथिमेणं अब्भिंतर-परिसाए दुवालसण्हं देवसाहस्सीणं, दाहिणेणं मज्झिमाए चउदसण्हं देवसाहस्सीणं, दाहिणपच्चत्थिमेणंबाहिरपरिसाए सोलसण्हं देवसाहस्सीणं पच्चत्थिमेणं सत्तण्हं अणिआहिवईणंति।तएणं तस्स सीहासणस्स चउद्दिसिंचउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं एवमाई विभासिअव्वं सूरिआभगमेणं जाव पच्चप्पिणन्ति त्ति।
[१४९] देवेन्द्र, देवराज शक्र द्वारा यों कहे जाने पर-आदेश दिये जाने पर पालक नामक देव हर्षित एवं परितुष्ट होता है। वह वैक्रिय समुद्घात द्वारा यान-विमान की विकुर्वणा करता है। उसकी तीन दिशाओं
१. देखें सूत्र संख्या ६ २. देखें सूत्र संख्या ४ ३. देखें सूत्र संख्या ४
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