Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पञ्चम वक्षस्कार]
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क्रिया का सम्यक् परिज्ञाता, मेधावी-बुद्धिशील-एक बार सुन लेने या देख लेने पर कार्य-विधि स्वायत्त करने में समर्थ हो, निपुणशिल्पोणगत-शिल्प क्रिया में निपुणता लिये हो-ऐसा कर्मकर लड़का खजूर के पत्तों से बनी बड़ी झाडूं को या बांस की सीकों से बनी झाडू को लेकर राजमहल के आंगन, राजान्त:पुररनवास, देव-मन्दिर, सभा, प्रपा-प्याऊ-जलस्थान, आराम-दम्पत्तियों के रमणोपयोगी नगर के समीपवर्ती बगीचे को, उद्यान-खेलकूद या लोगों के मनोरंजन के निमित्त निर्मित बाग क जल्दी न करते हुए, चपलता न करते हुए, उतावल न करते हुए लगन के साथ, चतुरतापूर्वक सब ओर से झाड़-बुहार कर साफ कर देता है, उसी प्रकार वे दिक्कुमारियाँ संवर्तक वायु द्वारा तिनके, पत्ते, लकड़ियाँ, कचरा, अशुचि-अपवित्रगन्दे, अचोक्ष-मलिन, पूतिक-सड़े हुए, दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को उठाकर, परिमण्डल से बाहर एकान्त मेंअन्यत्र डाल देती हैं-परिमण्डल को संप्रमार्जित कर स्वच्छ बना देती हैं। फिर वे दिक्कुमारिकाएँ भगवान् तीर्थंकर तथा उनकी माता के पास आती हैं । उनसे न अधिक समीप तथा न अधिक दूर अवस्थित हो आगानमन्द स्वर से गान करती हैं, फिर क्रमशः परिगान-उच्च स्वर से गान करती हैं। ऊर्ध्वलोकवासिनी दिक्कुमारियों द्वारा उत्सव
. १४६. तेणं कालेणं तेणं समएणं उद्धलोग-वत्थव्वाओ अट्ट दिसाकुमारी-महत्तरिआओ सएहिं २ कूडेहिं,सएहिं २ भवणेहिं सएहिं २ पासाय-वडेंसएहिं पत्तेअं२ चउहिं सामाणिअसाहस्सीहिं एवं तं चेव पुव्व-वण्णिअं(चउहि महत्तरिआहिं सपरिवाराहिं, सत्तहिं अणिएहिं, सत्तहिं अणिआहिवईहिं, सोलसएहिं, आयरक्खदेवसाहस्सीहिं, अण्णेहि अ बहूहिं भवणवइवाण-मन्तरेहिं देवेहिं, देवीहि असद्धिं संपरिवुडाओ महया हयणट्टगीयवाइअजाव भोगभोगाइं भुंजमाणीओ) विहरंति, तं जहा
__ मेहंकरा १ मेहवई २, सुमेहा ३ मेहमालिनी ४।
सुवच्छा ५ वच्छमित्ता य ६, वारिसेणा ७ बलाहगा॥१॥ तएणं तासिं उद्धलोगवत्थव्वाणंअट्ठण्हं दिसाकुमारीमहत्तरिआणं पत्तेअं२ आसणाइंचलन्ति, एवं तं चेव पुव्ववण्णिअं भाणिअव्वं जाव अम्हे णं देवाणुप्पिए ! उद्धलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरिआओ जे णं भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो, तेणं तुब्भेहिं ण भाइअव्वं ति कट्ट उत्तर-पुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमन्ति २ त्ता (वेउव्विअसमुग्घाएणं समोहणंति २त्ता जाव दोच्चपि वेउव्विअसमुग्घाएणं समोहणंति २ त्ता)अब्भवद्दलए विउव्वन्ति २ त्ता (से जहाणामए कम्मदारए जाव सिप्पोवगए एगं महंतंदगवारगंवा दगकुंभयं वादगथालगंवा दगकलसं वा दगभिंगारं वा गहाय रायंगणं वा अतुरियं जाव समन्ता आवरिसिज्जा, एवमेव ताओवि उद्धलोगवत्थव्वाओ अट्ठदिसाकुमारीमहत्तरिआओअब्भवद्दलए विउव्वित्ता खिप्पामेव पतणतणायंति २ त्ता खिप्पमेव विजुआयंति २ त्ता भगवओ तित्थगरस्स जम्मण-भवणस्स सव्वओ समन्ता जोअणपरिमंडलंणिच्चोअगं, नाइमट्टि,पविरलफुसिअं, रयरेणुविणासणं, दिव्वंसुरभिगन्धोदयवासं वासंति २ त्ता) तं निहयरयं, णट्ठरयं, भट्ठरयं, पसंतरयं उवसंतरयं करेंति २ खिप्पामेव पच्चुवसमन्ति