Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 351
________________ २८८] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र एवं पुप्फवद्दलंसि पुष्फवासं वासंति, वासित्ता (से जहाणामए मालागारदारए सिआ जाव सिप्पोवगए एगं महं पुष्फछज्जिअं वा पुप्फपडलगं वा पुप्फचंगेरीअं वा गहाय रायंगणं वा जाव समन्ता कयग्गहगहिअकरयल-पब्भट्ट-विप्पमुक्केणं दसद्धवण्णेणं कुसुमेणं पुप्फपुंजोवयारकलिअंकरेति, एवमेव ताओ वि उद्धलोगवत्थव्वाओ जाव पुष्फवद्दलए विउव्वित्ता खिप्पामेव पतणतणायन्ति जाव जोअणपरिमण्डलं जलय-थलयभासुरप्पभूयस्स बिंटट्ठाइस्सदसद्धवण्णस्स कुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमित्तं वासं वासंति) कालागुरु पवर(कुंदरुक्कतुरुक्कडझंत धूवमघमघन्तगंधुद्धआभिरामं सुगंधवरगन्धिअंगंधवट्टिभूअंदिव्वं) सुरवराभिगमणजोग्गं करेंति २त्ता जेणेव भयवं तित्थयरे तित्थयरमाया य, तेणेव उवागच्छन्ति २ त्ता ( भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमायाए य अदूरसामंते) आगायमाणीओ, परिगायमाणीओ चिटुंति। [१४६] उस काल, उस समय मेघंकरा, मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, सुवत्सा, वत्समित्रा, वारिषेणा तथा बलाहका नामक, ऊर्ध्वलोकवास्तव्या-ऊर्ध्वलोक में निवास करनेवाली, महिमामयी आठ दिक्कुमारिकाओं के, जो अपने कूटों पर, अपने भवनों में, अपने उत्तम प्रासादों मे अपने चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार महत्तरिकाओं, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों, अन्य अनेक भवनपति एवं वानव्यन्तर देव-देवियों से संपरिवृत, नृत्य, गीत एवं तुमुल वाद्य-ध्वनि के बीच विपुल सुखोपभोग में अभिरत होती हैं, आसन चलित होते हैं। एतत्सम्बद्ध शेष वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए। वे दिक्कुमारिकाएँ भगवान् तीर्थंकर की माता से कहती हैं-देवानुप्रिये ! हम ऊर्ध्वलोकवासिनी विशिष्ट दिक्कुमारिकाएं भगवन् तीर्थंकर का जन्म-महोत्सव मनायेंगी। अतः आप भयभीत मत होना। यों कहकर वे उत्तर-पूर्व दिशा-भाग में-ईशान कोण में चली जाती हैं। (वहाँ जाकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालती हैं, पुनः वैसा करती हैं, वैसा कर) वे आकाश में बादलों की विकुर्वणा करती हैं, (जैसे कोई क्रिया-कुशल कर्मकर उदकवारक-मृत्तिकामय जल-भाजन विशेष, उदक-कुंभ-जलघट-पानी का घड़ा, उदक-स्थालक-कांसी आदि से बना जल-पात्र, जल का कलश या झारी लेकर राजप्रसाद के प्रांगण आदि को धीरे-धीरे सिक्त कर देता है-वहाँ पानी का छिड़काव कर देता है, उसी प्रकार, उन ऊर्ध्वलोकवास्तव्या, महिमामयी आठ दिक्कुमारिकाओं ने आकाश में जो बादल विकुर्वित किये, वे (बादल) शीघ्र ही जोर-जोर से गरजते हैं, उनमें बिजलियाँ चमकती हैं तथा वे तीर्थंकर जन्म-भवन के चारों ओर योजन-परिमित परिमंडल पर न अधिक पानी गिराते हुए, न बहुत कम पानी गिराकर मिट्टी को आसिक्त, शुष्क रखते हुए मन्द गति से, धूल, मिट्टी जम जाए, इतने से धीमे वेग से उत्तम स्पर्शयुक्त दिव्यसुगन्धयुक्त झिरमिर-झिरमिर जल बरसाते हैं। उसमें रज-धूलनिहत हो जाती है-फिर उठती नहीं, जम जाती है, नष्ट हो जाती है-सर्वथा अदृश्य हो जाती है, भ्रष्ट हो जाती है-वर्षा के साथ चलती हवा में उड़कर दूर चली जाती है, प्रशान्त हो जाती है-सर्वथा असत्-अविद्यमान की ज्यों हो जाती है, उपशान्त हो जाती है। ऐसा कर वे बादल शीघ्र ही प्रत्युपशान्त-उपरत हो जाते हैं।

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