Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 360
________________ पञ्चम वक्षस्कार ] [२९७ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव सभाए सुहम्माए, मेघोघरसिअगंभीरमहुरयरसद्दा, जोअणपरिमंडला, सुघोसा, घण्टा, तेणेव उवागच्छइ २त्ता मेघोघरसिअगंभीरमहुरयरसद्दं, जोअण- परिमंडलं, सुघो घण्टं तिक्खुत्तो उल्लालेइ । तए णं तीसे मेघोघरसिअगंभीरमहुरयर- सद्दाए, जोअण - परिमंडलाए, सुघोसाए घण्टाए तिक्खुत्तो उल्लालिआए समाणीए सोहम्मे कप्पे अण्णेहिं एगूणेहिं बत्तीसविमाणावाससयसहस्सहिं, अण्णाई एगूणाई बत्तीसं घण्टासयसहस्साइं जमगसमगं कणकणारावं काउं पयत्ताई हुत्था इति । तए णं सोहम्मे कप्पे पासायविमाणनिक्खुडावडिअसद्दसमुट्ठिअघण्टापडेंसुआसयसहस्ससंकुले जाए आवि होत्था इति । तए णं तेसिं सोहम्मकप्पवासीणं, बहूणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य एगन्तरइपसत्तणिच्चपमत्तविसयसुहमुच्छिआणं, सूसरघण्टारसिअविउलबोलपूरिअ - चवल - पडिबोहणे कए समा घोसणकोऊहलदिण्ण-कण्णएगग्गचित्तउवउत्तमाणसाणं से पायत्ताणीआहिवई देवे तंसि घण्टारवंसि निसंतपडिसंतंसि समाणंसि तत्थ तत्थ तहिं २ देसे महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणे २ एवं वयासीति - ' हन्त ! सुणंतु भवंतो बहवे सोहम्मकप्पवासी वेमाणिअदेवा देवीओ अ सोहम्मकप्पवइणो इणमो वयणं हिअसुहत्थं - अणणवेवइ णं भो (सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो ) अंतिअं पाउब्भवहत्ति। तए णं ते देवा देवीओ अ एयमट्ठे सोच्चा हट्टतुट्ठहिअया ' अप्पे आ वन्दणवत्तिअं, एवं पूअणवत्तिअं, सक्कारवत्तिअं, सम्माणवत्तिअं दंसणवत्तिअं, जिणभत्तिरागेणं, अप्पेगइआ तं जीअमेअं एवमादि ति कट्टु जाव र पाउब्भवंति त्ति । १ तसे सक्के देविंदे, देवराया ते वेमाणिए देवे देवीओ अ अकाल-परिहीणं चेव अंतिअं पाउब्भवमाणे पासइ २ त्ता हट्ठे पालयं णामं अभिओगिअं देवं सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! अणेगखम्भसयसण्णिविट्टं, लीलट्ठिय-सालभंजिआकलिअं, ईहामिअउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं, खंभुग्गयवइवङ्गेआपरिगयाभिरामं, विज्जाहरजमलजुअलजंतजुत्तं पिव, अच्ची - सहस्समालिणीअं, रूवगसहस्सकलिअं, भिसमाणं, भिब्भिसमाणं, चक्खुल्लो अणलेसं, सुहफासं, सस्सिरीअरूवं, घण्टावलिअमहुरमणहरसरं, सुहं, कन्तं, दरिसणिज्जं, णिउणोविअमिसिमिसिंतमणिरयणघंटि आजालपरिक्खित्तं, जोयणसहस्सवित्थिण्णं, पञ्चजोअणसयमुव्विद्धं, सिग्घं, तुरिअं जइणणिव्वाहिं, दिव्वं जाणविमाणं विउव्वाहि २ त्ता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणाहि । [१४८] उस काल, उस समय शक्र नामक देवेन्द्र - देवों के परम ईश्वर - स्वामी, देवराज - देवों में सुशोभित, वज्रपाणि— हाथ में वज्र धारण किए, पुरन्दर - पुर-असुरों के नगरविशेष के दारक- विध्वंसक, शतक्रतु- पूर्व जन्म में कार्तिक श्रेष्ठी के भव में सौ बार श्रावक की पंचमी प्रतिमा के परिपालक, सहस्राक्ष -. हजार आँखों वाले - अपने पाँच सौ मन्त्रियों की अपेक्षा हजार आँखों वाले, मघवा - मेघों के-बादलों के १. देखें सूत्र संख्या ४४ २. देखें सूत्र यही

Loading...

Page Navigation
1 ... 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482