Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय वक्षस्कार ]
पान का परित्याग किया, पादोपगत-कटी वृक्ष की शाखा की ज्यों जिसमें देह को सर्वथा निष्प्रकम्प रखा जाए, वैसा संथारा अंगीकार किया । जीवन और मरण की आकांक्षा - कामना न करते हुए वे आत्माराधना में अभिरत रहे ।
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केवली भरत सतहत्तर लाख पूर्व तक कुमारावस्था में रहे, एक हजार वर्ष तक मांडलिक राजा के रूप में रहे, एक हजार वर्ष कम छह लाख पूर्व तक महाराजा के रूप में - चक्रवर्ती सम्राट् के रूप में रहे। वेतियासी लाख पूर्व तक गृहस्थावास में रहे । अन्तर्मुहूर्त कम एक लाख पूर्व तक वे केवलिपर्यायसर्वज्ञावस्था में रहे। एक लाख पूर्व पर्यन्त उन्होंने बहु-प्रतिपूर्ण - सम्पूर्ण श्रामण्य - पर्याय - श्रमण - जीवन का, संयमी जीवन का पालन किया। उन्होंने चौरासी लाख पूर्व का समग्र आयुष्य भोगा । उन्होंने एक महीने के चौविहार - अन्न, जल आदि आहार वर्जित अनशन द्वारा वेदनीय, आयुष्य, नाम तथा गोत्रइन चार भवोपग्राही, अघाति कर्मों के क्षीण हो जाने पर श्रवण नक्षत्र में जब चन्द्र का योग था, देह त्याग किया। जन्म, जरा तथा मृत्यु के बन्धन को उन्होंने छिन्न कर डाला - तोड़ डाला । वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत, अन्तकृत्—संसार के -संसार में आवागमन के नाशक तथा सब प्रकार के दुःखों के प्रहाता हो
गये।
विवेचन - राज भरत शीशमहल में सिंहासन पर बैठा शीशों में पड़ते हुए अपने प्रतिबिम्ब को निहार रहा था। अपने सौन्दर्य, शोभा एवं रूप पर वह स्वयं विमुग्ध था । अपने प्रतिबिम्बों को निहारते - निहारते उसकी दृष्टि अपनी अंगुली पर पड़ी। अंगुली में अंगुठी नहीं थी । वह नीचे गिर पड़ी थी । भरत ने अपनी पर पुनः दृष्टिगड़ाई। अंगूठी के बिना उसे अपनी अंगुली सुहावनी नहीं लगी। सूर्य की ज्योत्स्ना में चन्द्रमा की ति जिस प्रकार निष्प्रभ प्रतीत होती है, उसे अपनी अंगुली वैसी ही लगी। उसके सौन्दर्याभिमानी मन पर एक चोट लगी। उसने अनुभव किया - अंगुली की कोई अपनी शोभा नहीं थी, वह तो अंगूठी की थी, जिसके बिना अंगुली का शोभारहित रूप उद्घाटित हो गया ।
भरत चिन्तन की गहराई में पैठने लगा । उसने अपने शरीर के अन्यान्य आभूषण भी उतार दिये । सौन्दर्य-परीक्षण की दृष्टि से अपने आभूषणरहित अंगों को निहारा । उसे लगा - चमचमाते स्वर्णाभूषणों तथा नाभूषणों के अभाव में वस्तुतः मेरे अंग फीके, अनाकर्षक लगते हैं । उनका अपना सौन्दर्य, अपनी शोभा कहाँ है ?
भरत की चिन्तन-धारा उत्तरोत्तर गहन बनती गई। शरीर के भीतरी मलीमस रूप पर उसका ध्यान गया। उसने मन ही मन अनुभव किया - शरीर का वास्तविक स्वरूप मांस, रक्त, मज्जा, विष्ठा, मूत्र एवं मलमय है। इनसे आपूर्ण शरीर सुन्दर, श्रेष्ठ कहाँ से होगा ?
भरत के चिन्तन ने एक दूसरा मोड़ लिया । वह आत्मोन्मुख बना । आत्मा के परम पावन, विशुद्ध चेतनामय तथा शाश्वत शान्तिमय रूप की अनुभूति में भरत उत्तरोत्तर मग्न होता गया । उसके प्रशस्त अध्यवसाय,
१. केवलज्ञान की उत्पत्ति से पहले अन्तर्मुहूर्त का भाव-चारित्र जोड़ देने से एक लाख पूर्व का काल पूर्ण हो जाता है।