Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र
बचाकर एक दिशा से दूसरी दिशा की ओर भागते देखा । यह देखकर सेनापति सुषेण तत्काल अत्यन्त क्रुद्ध, रुष्ट, विकराल एवं कुपित हुआ । वह मिसमिसाहट करता हुआ - तेज सांस छोड़ता हुआ कमलामेल नामक अश्वरत्न पर—अति उत्तम घोड़े पर आरूढ़ हुआ। वह घोड़ा अस्सी अंगुल ऊँचा था, निन्यानवें अंगुल मध्य परिधियुक्त था, एक सौ आठ अंगुल लम्बा था । उसका मस्तक बत्तीस अंगुल - प्रमाण था । उसके कान चार अंगुल प्रमाण थे। उसकी बाहा - मस्तक के नीचे का और घुटनों के ऊपर का भाग - प्राक्चरण - भाग बीस
- प्रमाण था । उसके घुटने चार अंगुल - प्रमाण थे। उसकी जंघा - घुटनों से लेकर खुरों तक का भागपिण्डली सोलह अंगुलप्रमाण थी। उसके खुर चार अंगुल ऊँचे थे। उसकी देह का मध्य भाग मुक्तोलीऊपर नीचे से सकड़ी, बीच से कुछ विशाल कोष्ठिका - कोठी के सदृश गोल तथा वलित था । उसकी पीठ की यह विशेषता थी, जब सवार उस पर बैठता, तब वह कुछ कम एक अंगुल झुक जाती थी । उसकी पीठ क्रमश: देहानुरूप अभिनत थी, देह-प्रमाण के अनुरूप थी - संगत थी, सुजात - जन्मजात दोषरहित थी, प्रशस्त थी, शालिहोत्रशास्त्र निरूपित लक्षणों के अनुरूप थी, विशिष्ट थी । वह हरिणी के जानु - घुटनों की ज्यों उन्नत थी, दोनों पार्श्व भागों में विस्तृत तथा चरम भाग में स्तब्ध - सुदृढ़ थी। उसका शरीर वेत्र - बेंत, लता - बाँस की पतली छडी, कशा- - चमड़े के चाबुक आदि के प्रहारों से परिवर्जित था - घुड़सवार के मनोनुकूल चलते रहने के कारण उसे बेंत, छड़ी, चाबुक आदि से तर्जित करना, ताड़ित करना सर्वथा अनपेक्षित था। उसकी लगाम स्वर्ण में जड़े दर्पण जैसा आकार लिये अश्वोचित स्वर्णाभरणों से युक्त थी । काठी बाँधने हेतु प्रयोजनीय रस्सी, जो पेट से लेकर पीठ तक दोनों पाश्र्वों में बाँधी जाती है, उत्तम स्वर्णघटित सुन्दर पुष्पों तथा दर्पणों से समायुक्त थी, विविध - - रत्नमय थी। उसकी पीठ, स्वर्णयुक्त मणि - रचित तथा केवल स्वर्णनिर्मित पत्रकसंज्ञक आभूषण जिनके बीच-बीच में जड़े थे, ऐसी नाना प्रकार की घंटियों और मोतियों की लड़ियों से परिमंडित थी— सुशोभित थी, जिससे वह अश्व बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था । मुखालंकरण हेतु कर्केतन मणि, इन्द्रनील मणि, मरकत मणि आदि रत्नों द्वारा रचित एवं माणिक के साथ आविद्ध - पिरोये गये सूत्रक थे - घोड़ों के मुख पर लगाये जाने वाले आभूषण - विशेष, से वह विभूषित था । स्वर्णमय कमल
तिलक से उसका मुख सुसज्ज था। वह अश्व देवमति से - दैवी कौशल से विकल्पित - विरचित था । वह देवराज इन्द्र की सवारी के उच्चैःश्रवा नामक अश्व के समान गतिशील तथा सुन्दर रूप युक्त था। अपने मस्तक, गले, ललाट, मौलि एवं दोनों कानों के मूल में विनिवेशित पाँच चँवरों को - कलंगियों को समवेत रूप में वह धारण किये था । वह अनभ्रचारी था - इन्द्र का घोड़ा उच्चैःश्रवा जहाँ अभ्रचारी - आकाशगामी होता है, वहाँ वह भूतलगामी था । उसकी अन्यान्य विशेषताएँ उच्चैःश्रवा जैसी ही थीं। उसकी आँखें दोष आदि से रक्षा हेतु उस पर लगाये गये प्रच्छादनपट में - झूल में स्वर्ण के तार गुंथे थे । उसका तालु तथा जिह्वा तपाये हुए स्वर्ण की ज्यों लाल थे। उसकी नासिका पर लक्ष्मी के अभिषेक का चिह्न था। जलगत कमलपत्र जैसे वायु द्वारा आहत पानी की बूँदों से युक्त होकर सुन्दर प्रतीत होता है, उसी प्रकार वह अश्व अपने शरीर के पानी - आभा या लावण्य से बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था । वह अचंचल था— अपने स्वामी का कार्य करने में सुस्थिर था। उसके शरीर में चंचलता - स्फूर्ति थी । जैसे स्नान आदि द्वारा शुद्ध हुआ भिक्षाचर संन्यासी
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