Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र
राजा की तेले की तपस्या जब परिपूर्ण होने को आई, तब नमि, विनमि विद्याधर राजाओं को अपनी दिव्य मति-दिव्यानुभाव-जनित ज्ञान द्वारा इसका भान हुआ। वे एक दूसरे के पास आये, परस्पर मिले और कहने लगे-जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है। अतीत, प्रत्युत्पन्न तथा अनागत-भूत, वर्तमान एवं भविष्यवर्ती विद्याधर राजाओं के लिए यह उचित है-परम्परागत व्यवहारानुरूप है कि वे राजा को उपहार भेंट करें। इसलिए हम भी राजा भरत को अपनी ओर से उपायन उपहृत करें। यह सोचकर विद्याधरराज विनमि ने अपनी दिव्य मति से प्रेरित होकर चक्रवर्ती राजा भरत को भेंट करने हेतु सुभद्रा नामक स्त्रीरत्न लिया। स्त्रीरत्न-परम सुन्दरी सुभद्रा का शरीर मानोन्मान प्रमाणयुक्त था-दैहिक फैलाव, वजन, ऊँचाईं आदि की दृष्टि से वह परिपूर्ण, श्रेष्ठ तथा सर्वांगसुन्दर था। वह तेजस्विनी थी, रूपवती एवं लावण्यमयी थी। वह स्थिर यौवन युक्त थी-उसका यौवन अविनाशी था। उसके शरीर के केश तथा नाखून नहीं बढ़ते थे। उसके स्पर्श से सब रोग मिट जाते थे। वह बल-वृद्धिकारिणी थीउसके परिभोग से परिभोक्ता का बल, कान्ति बढ़ती थी। ग्रीष्म ऋतु में वह शीतस्पर्शा तथा शीत ऋतु में उष्णस्पर्शा थी।
__ वह तीन स्थानों में-कटिभाग में, उदर में तथा शरीर में कृश थी। तीन स्थानों में-नेत्र के प्रान्त भाग में, अधरोष्ठ में तथा योनिभाग में ताम्र-लाल थी। वह त्रिवलियुक्त थी-देह के मध्य उदर स्थित तीन रेखाओं से युक्त थी। वह तीन स्थानों में-स्तन, जघन तथा योनिभाग में उन्नत थी। तीन स्थानों में-नाभि में, सत्त्व में-अन्तःशक्ति में तथा स्वर में गंभीर थी। वह तीन स्थानों में-रोमराजि में, स्तनों के चूचकों में तथा नेत्रों की कनीनिकायों में कृष्ण वर्ण युक्त थी। तीन स्थानों में-दाँतों में, स्मित में-मुस्कान में तथा नेत्रों में वह श्वेतता लिये थी। तीन स्थानों में-केशों की वेणी में, भुजलता में तथा लोचनों में प्रलम्ब थीलम्बाई लिये थी। तीन स्थानों में-श्रोणिचक्र में, जघन-स्थली में तथा नितम्ब बिम्बों में विस्तीर्ण थी-चौड़ाई युक्त थी॥१॥
वह समचौरस, दैहिक संस्थानयुक्त थी। भरतक्षेत्र में समग्र महिलाओं में वह प्रधान-श्रेष्ठ थी। उसके स्तन, जघन, हाथ, पैर, नेत्र, केश, दाँत-सभी सुन्दर थे, देखने वाले पुरुष के चित्त को आह्लादित करने वाले थे, आकृष्ट करने वाले थे। वह मानो शृंगार-रस का आगार-गृह थी। (उसकी वेशभूषा बड़ी लुभावनी थी। उसकी गति-चाल, हँसी, बोली, चेष्टा, कटाक्ष-ये सब बड़े संगत-सुन्दर थे। वह लालित्यपूर्ण संलाप-वार्तालाप करने में निपुण थी।) लोक-व्यवहार में वह कुशल-प्रवीण थी। वह रूप में देवांगनाओं के सौन्दर्य का अनुसरण करती थी। वह कल्याणकारी सुखप्रद यौवन में विद्यमान थी।
विद्याधरराज नमि ने चक्रवर्ती भरत को भेंट करने हेतु रत्न, कटक तथा त्रुटित लिये। उत्कृष्ट त्वरित, तीव्र विद्याधर-गति द्वारा वे दोनों, जहाँ राजा भरत था, वहाँ आये। वहाँ आकर वे आकाश में अवस्थित हुए। (उन्होंने छोटी-छोटी घंटियों से युक्त, पंचरंगे वस्त्र भलीभाँति पहन रखे थे। उन्होंने हाथ जोड़े, अंजलि बाँधे उन्हें मस्तक से लगाया। ऐसा कर) उन्होंने जय-विजय शब्दों द्वारा राजा भरत को वर्धापित किया और