Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र
के पंचरंगे उज्ज्वल आकार बने थे। रत्नों की किरणों के सदृश रंगरचना में निपुण पुरुषों द्वारा वह सुन्दर रूप में रंगा हुआ था। उस पर राजलक्ष्मी का चिह्न अंकित था। अर्जुन नामक पाण्डुर के वर्ण के स्वर्ण द्वारा उसका पृष्ठभाग आच्छादित था-उस पर सोने का कलापूर्ण काम था। उसके चार कोण परितापित स्वर्णमय पट्ट से परिवेष्टित थे। वह अत्यधिक श्री-शोभा-सुन्दरता से युक्त था। उसका रूप शरद् ऋतु के निर्मल, परिपूर्ण चन्द्रमण्डल के सदृश था। उसका स्वाभाविक विस्तार राजा भरत द्वारा तिर्यक्प्रसारित-तिरछी फैलाई गई अपनी दोनों भुजाओं के विस्तार जितना था। वह कुमुद-चन्द्रविकासी कमलों के वन सदृश धवल था। वह राजा भरत का मानो संचरणशील-जंगम विमान था। वह सूर्य के आतप, आयु-आँधी, वर्षा आदि दोषों-विघ्नों का विनाशक था। पूर्व जन्म में आचरित तप, पुण्यकर्म के फलस्वरूप वह प्राप्त था।
__वह छत्ररत्न अहत-अपने आपको योद्धा मानने वाले किसी भी पुरुष द्वारा संग्राम में खण्डित न हो सकने वाला था, ऐश्वर्य आदि अनेक गुणों का प्रदायक था। हेमन्त आदि ऋतुओं में तद्विपरीत सुखप्रद छाया देता था। अर्थात् शीत ऋतु में उष्ण छाया देता था तथा ग्रीष्म ऋतु में शीतल छाया देता था। वह छत्रों में उत्कृष्ट एवं प्रधान था। अल्पपुण्य-पुण्यहीन या थोड़े पुण्यवाले पुरुषों के लिए वह दुर्लभ था। वह छत्ररत्न छह खण्डों के अधिपति चक्रवर्ती राजाओं के पूर्वाचरित तप के फल का एक भाग था। विमानवास में भीदेवयोनि में भी वह अत्यन्त दुर्लभ था। उस पर फूलों की मालाएँ लटकती थीं-वह चारों ओर पुष्पमालाओं से आवेष्टित था। वह शरद् ऋतु के धवल मेघ तथा चन्द्रमा के प्रकाश के समान भास्वर-उज्ज्वल था। वह दिव्य था-एक सहस्र देवों से अधिष्ठित था। राजा भरत का वह छत्ररत्न ऐसा प्रतीत होता था, मानो भूतल पर परिपूर्ण चन्द्रमण्डल हो।
राजा भरत द्वारा छुए जाने पर वह छत्ररत्न कुछ अधिक बारह योजन तिरछा विस्तीर्ण हो गयाफैल गया।
७६. तए णं से भरहे राया छत्तरयणं खंधावारस्सुवरिं ठवेइ २त्ता मणिरयणं परामुसइ वेढो (तोतं चउरंगुलप्पमाणमित्तं च अणग्धं तसिअंछलंसं अणोवमजुइं दिव्वं मणिरयपतिसमं वेरुलिअंसव्वभूअकंतं जेण य मुद्धागएणं दुक्खंण किंचि जाव हवइ आरोग्गे असव्वकालं तेरिच्छिअदेवमाणुसकया य उवसग्गा सव्वे ण करेंति तस्स दुक्खं, संगामेऽवि असत्थवज्झो होइ णरो मणिवरं धरेंतो ठिअजोव्वणकेसअवडिढअणहो हवइ अ सव्वभयविप्पमुक्को) छत्तरयणस्स वत्थिभागंसि उवेइ, तस्स य अणतिवरं चारुरूवं सिलणिहिअत्थमंतमेत्तासालिजव-गोहूम-मुग्ग-तिल-कुलत्थ-सट्ठिग-निप्फाव-चणग-कोद्दव-कोत्थंभरि-कंगुबरगरालग-अणेग-धण्णावरण-हारिअग-अल्लग-मूलग-हलिह-लाउअ-तउस-तुंब-कालिंगकविट्ठ-अंब-अंबिलिअ-सव्वणिप्फायए सुकुसले गाहावइरयणेत्ति सव्वजणवीसुअगुणे। तए णं ते गाहावइरयणे भरहस्स रण्णो तद्दिवसप्पइण्णणिप्फाइअपूइआणं सव्वधण्णाणं अणेगाई कुंभसहस्साई उवट्ठवेति, तएणं से भरहे राया चम्मरयणसमारूढे छत्तरयणसमोच्छन्ने मणिरयणकउज्जोए समुग्गयभूएणं सुहंसुहेणं सत्तरत्तं परिवसइ