Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय वक्षस्कार]
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करने योग्य रत्नालंकार-रत्नाञ्चित मुकुट, कटक, त्रुटित तथा अन्यान्य आभूषण लिये। तीव्र गति से वह राजा के पास आया। आगे का वर्णन सिन्धु देवी के वर्णन जैसा है। राजा की आज्ञा से अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित कर आयोजकों ने राजा को सूचित किया। तमित्रा-विजय
६५. तए णं से दिव्वे चक्करयणे अट्ठाहियाए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए (आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ २त्ताअंतलिक्खपडिवण्णेजक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्वतुडिअसहसण्णिणादेणं पूरंते चेव अंबरतलं) पच्चत्थिमं दिसिं तिमिसगुहाभिमुहे पयाए आवि होत्था। तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं(अंतलिक्खपडिवण्णंजक्खसहस्ससंपरिवुडं दिव्वं तुडिअसहसण्णिणादेणं पूरंतं चेव अंबरतलं) पच्चत्थिम दिसिं तिमिसगुहाभिमुहं पयातं पासइ २त्ता हट्टतुटुचित्त जाव तिमिसगुहाए अदूरसामंते दुवालसजोअणायामं णवजोअणविच्छिण्णं ( वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारनिवेसं करेइ २त्ता) कयमालस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ २त्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी ( उम्मुक्कमणिसुवण्णे ववगयमालावण्णगविलेवणे णिक्खित्तसत्थमुसले दब्भसंथारोवगए अट्ठमभत्तिए) कयमालगं देवं मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठइ। तए णं तस्स भरहस्स रणो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि कयमालस्स देवस्स आसणं चलइ तहेव जाव वेअद्धगिरिकुमारस्स णवरं पीइदाणं इत्थीरयणस्स तिलगचोद्दसं भंडालंकारं कडगाणि अ (तुडिआणि अ वत्थाणि अ) गेण्हइ रत्ता ताए उक्किट्ठाए जाव २ सक्कारेइ सम्माणेइ २त्ता पडिविसज्जेइ (तए णं से भरहे राया पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २त्ता जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ २त्ता बहाए कयबलिकम्मे मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ) भोअणमंडवे, तहेव महामहिमा कयमालस्स पच्चप्पिणंति।
. [६५] अष्ट दिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न (शस्त्रागार से बाहर निकला। बाहर निकल कर आकाश में अधर अवस्थित हुआ। वह एक हजार यक्षों से संपरिवृत था। दिव्य वाद्य-ध्वनि से गगन-मण्डल को आपर्ण कर रहा था।) पश्चिम दिशा में तमिस्रा गफा की ओर आगे बढ़ा। राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को (आकाश में अधर अवस्थित, एक हजार यक्षों से संपरिवृत, दिव्य वाद्य-ध्वनि से गगन-मण्डल को आपूर्ण करते हुए) पश्चिम दिशा में तमिस्रा गुफा की ओर बढ़ते हुए देखा। उसे यों देखकर राजा अपने मन में हर्षित हुआ, परितुष्ट हुआ। उसने तमिस्रा गुफा से न अधिक दूर, न अधिक समीप-थोड़ी ही दूरी पर बारह योजन लम्बा और नौ योजन चौड़ा (श्रेष्ठ नगर के सदृश) सैन्य शिविर स्थापित किया। कृतमालदेव को उद्दिष्ट कर उसने तेले की तपस्या स्वीकार की। तपस्या का संकल्प कर उसने पौषध लिया, ब्रह्मचर्य स्वीकार किया। (मणि-स्वर्णमय आभूषण शरीर से उतारे। माला, वर्णक-चन्दनादि सुरभित पदार्थों के देहगत विलेपन आदि दूर किये। शस्त्र-कटार आदि, मूसल-दण्ड, गदा आदि हथियार
१. देखें सूत्र ४४ २. देखें सूत्र संख्या ३४