Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय वक्षस्कार ]
स्थान एवं पोषधशाला का निर्माण करो, निर्माण कार्य सुसम्पन्न कर मुझे ज्ञापित करो। राजा भरत ने जब उस शिल्पकार को ऐसा कहा तो वह अपने मन में हर्षित, परितुष्ट तथा प्रसन्न हुआ। हाथ जोड़कर 'स्वामी ! आपकी जो आज्ञा' ऐसा कहते हुए उसने विनयपूर्वक राजा का आदेश स्वीकार किया। राजा के लिए उसने आवास-स्थान तथा पौषधशाला का निर्माण किया। निर्माण कार्य समाप्त कर शीघ्र ही राजा को ज्ञापित किया ।
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तदनन्तर राजा भरत अपने चातुर्घण्ट अश्वरथ से नीचे उतरा । नीचे उतरकर जहाँ पोषधशाला थी, वहाँ आया। आकर पौषधशाला में प्रविष्ट हुआ, उसका प्रमार्जन किया - संफाई की। प्रमार्जन कर डाभ का बिछौना बिछाया। बिछौना बिछाकर उस पर बैठा। बैठकर) उसने सिन्धु देवी को उद्दिष्ट कर - तत्साधना हेतु तीन दिनों का उपवास - तेले की तपस्या स्वीकार की। तपस्या का संकल्प कर पौषधशाला में पौषध लिया ब्रह्मचर्य स्वीकार किया । (मणिस्वर्णमय आभूषण शरीर से उतारे। माला, वर्णक - चन्दनादि सुरभित पदार्थों के देहगत विलेपन आदि दूर किये, शस्त्र - कटार आदि, मूसल - दण्ड, गदा आदि हथियार एक ओर रखे।) यों डाभ के बिछौने पर उपगत, तेले की तपस्या में अभिरत भरत मन में सिन्धु देवी का ध्यान करता हुआ स्थित हुआ । भरत द्वारा यों किये जाने पर सिन्धु देवी का आसन चलित हुआ- उसका सिंहासन डोला । सिन्धु देवी ने जब अपना सिंहासन डोलता हुआ देखा, तो उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया । अवधिज्ञान द्वारा उसने भरत को देखा । तपस्यारत, ध्यानरत जाना। देवी के मन में ऐसा चिन्तन, विचार, मनोभाव तथा संकल्प उत्पन्न हुआ— जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ प्रत्युत्पन्न, अनागत- भूत, वर्तमान तथा भविष्यवर्ती सिन्धु देवियों के लिए यह समुचित है, परम्परागत व्यवहारानुरूप है कि वे राजा को उपहार भेंट करें। इसलिए मैं भी जाऊँ, राजा को उपहार भेंट करूँ । यों सोचकर देवी रत्नमय एक हजार आठ कलश, , विविध मणि, स्वर्ण, रत्नाञ्चित चित्रयुक्त दो स्वर्ण-निर्मित उत्तम आसन, कटक, त्रुटित (वस्त्र) तथा अन्यान्य आभूषण लेकर तीव्र गतिपूर्वक वहाँ आई और राजा से बोलीआपने भरतक्षेत्र को विजय कर लिया है। मैं आपके देश में - राज्य में निवास करने वाली आपकी आज्ञाकारिणी सेविका हूँ । देवानुप्रिय ! मेरे द्वारा प्रस्तुत रत्नमय एक हजार आठ कलश, विविध मणि, स्वर्ण, रत्नांचित चित्रयुक्त दो स्वर्णनिर्मित उत्तम आसन, कटक (त्रुटित, वस्त्र तथा अन्यान्य आभूषण ) ग्रहण करें ।
आगे का वर्णन पूर्ववत् है। (तब राजा भरत ने सिन्धु देवी द्वारा प्रस्तुत प्रीतिदान स्वीकार कर सिन्धु देवी का सत्कार किया, सम्मान किया और उसे विदा किया। वैसा कर राजा भरत पौषधशाला से बाहर निकला। जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया । उसने स्नान किया, नित्य - नैमित्तिक कृत्य किये। (स्नानघर से वह बाहर निकला। बाहर निकल कर ) जहाँ भोजन- मण्डप था, वहाँ आया । वहाँ आकर भोजन - मण्डप में सुखासन से बैठा, तेले का पारणा किया। (भोजन - मण्डप से वह बाहर निकला। बाहर निकलकर, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, सिंहासन था, वहाँ आया । वहाँ आकर ) पूर्वाभिमुख हो उत्तम सिंहासन पर बैठा । सिंहासन पर बैठकर अपने अठारह श्रेणी - प्रश्रेणी-अधिकृत पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा कि अष्टदिवसीय महोत्सव का आयोजन करो। मेरे आदेशानुरूप उसे परिसम्पन्न कर मुझे सूचित करो। उन्होंने सब वैसा ही किया । वैसा कर राजा को यथावत् ज्ञापित किया ।