Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
तृतीय वक्षस्कार]
[१२५
विशाल विजय
६८. तओ महाणईमुत्तरित्तु सिंधुं अप्पडिहयसासणे असेणावई कहिंचि गामागरणगरपव्वयाणि खेडकब्बडमडंबाणि पट्टणाणि सिंहलए बब्बरए अ सव्वं च अंगलोअं बलायालोअंच परमरम्मं जवणदीपंच पवरमणिरयणगकोसागारसमिद्धं आरबके रोमके अअलसंडविसयवासी अ पिक्खुरे कालमुहे जोणए अ उत्तरवेअड्डसंसियाओ अ मेच्छजाई बहुप्पगारा दाहिणअवरेण जाव सिंधुसागरंतोत्ति सव्वपवरकच्छं अओअवेऊण पडिणिअत्तो बहुसमरमणिज्जे अभूमिभागे तस्स कच्छस्स सुहणिसण्णे, ताहे ते जणवयाण णगराण पट्टणाण य जे अतहिं सामिआ पभूआ आगरपती अमंडलपती अपट्टणपती असव्वे घेत्तूण पाहुडाइं आभरणाणि भूसणाणि रयणाणि य वत्थाणि अमहरिहाणि अण्णं च जं वरिटुं रायारिहं जं च इच्छिअव्वं एअंसेणावइस्स उवणेति मत्थयकयंजलिपुडा, पुणरवि काऊण अंजलिं मत्थयंमि पणया तुब्भे अम्हेऽत्थ सामिआ देवयंव सरणागयामो तुब्भं विसयवासिणोत्ति विजयं जंपमाणा सेणावइणा जहारिहं ठविअ पूइअ, विसज्जिआ णिअत्ता सगाणि णगराणि पट्टणाणि अणुपविठ्ठा, ताहे सेणावइ.सविणओ घेत्तूण पाहुडाइं आभरणाणि भूसणाणि रयणाणिय पुणरवितं सिंधुणामधेज उत्तिण्णे अणहसासणबले, तहेवं भरहस्स रण्णो णिवेएइ णिवेइत्ता य अप्पिणित्ता य पाहुडाइं सक्कारिअसम्माणिए सहरिसे विसज्जिए सगं पडमंडवमइगए।
तते णं सुसेणे सेणावई हाए कयबलिकम्मे कयकोउअमंगलपायच्छित्ते जिमिअभुत्तुत्तरागए समाणे (आयंते चोक्खे परमसुईभूए) सरसगोसीसचंदणुक्खित्तगायसरीरे उप्पिं पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं वत्तीसइबद्धेहिं णाडएहिं वरतरुणीसंपउत्तेहिं उवणच्चिज्जमाणे २ उवगिज्जमाणे २ उवलालि (लभि) ज्जमाणे २ महयाहयणट्टगीअवाइअतंतीतलतालतुडिअघणमुइंगपडुप्पवाइअरवेणं इठे सद्दफरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे भुंजमाणे विहरइ।
[६८] सिन्धु महानदी को पार कर अप्रतिहत-शासन-जिसके आदेश का उल्लंघन करने में कोई समर्थ नहीं था, वह सेनापति सुषेण ग्राम, आकर, नगर, पर्वत, खेट, कर्वट, मडम्ब, पट्टन आदि जीतता हुआ, सिंहलदेशोत्पन्न, बर्बरदेशोत्पन्न जनों को, अंगलोक, बलावलोक नामक क्षेत्रों को, अत्यन्त रमणीय, उत्तम मणियों तथा रत्नों के भंडारों से समृद्ध यवन द्वीप को, अरब देश के, रोम देश के लोगों को अलसंड-देशवासियों को, पिक्खुरों, कालमुखों, जोनकों-विविध म्लेच्छ जातीय जनों को तथा उत्तर वैताढ्य पर्वत की तलहटी में बसी हुई बहुविध म्लेच्छ जाति के जनों को, दक्षिण-पश्चिम-नैऋत्यकोण से लेकर सिन्धु नदी तथा समुद्र के संगम तक के सर्वप्रवर-सर्वश्रेष्ठ कच्छ देश को साधकर-जीतकर वापस मुड़ा। कच्छ देश के अत्यन्त सुन्दर भूमिभाग पर ठहरा। तब उन जनपदों-देशों, नगरों, पत्तनों के स्वामी, अनेक आकरपति-स्वर्ण आदि की खानों के मालिक, मण्डलपति, पत्तनपतिवृन्द ने आभरण-अंगों पर धारण करने योग्य अलंकार, भूषणउपांगों पर धारण करने योग्य अलंकार, रत्न, बहुमूल्य वस्त्र, अन्यान्य श्रेष्ठ, राजोचित वस्तुएँ हाथ जोड़कर,