Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय वक्षस्कार]
[१३३
तए णं भरहे राया चक्करयणदेसिअमग्गे अणेगराय० महया उक्किट्ठ सीहणाय (बोलकल-कलसद्देणं समुद्दरवभूयंपिव) करेमाणे २ सिंधूए महाणईए पुरच्छिमिल्ले णं कूडे णंजेणेव उम्मगजला महाणई तेणेव उवागच्छइ २ त्ता वद्धइरयणं सद्दावेइ २त्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! उम्मग्गणिमग्गजलासु महाणईसु अणेगखंभसयसण्णिविट्ठे अयलमकंपे अभेज्जकवए सालंबणबाहाए सव्वरयणामए सुहसंकमे करेहि करेत्ता मम एअमाणत्तिअंखिप्पामेव पच्चप्पिणाहि।
तए णं से वद्धइरयणे भरहेणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिए जाव १ विणएणं पडिसुणेइ २ त्ता खिप्पामेव उम्मग्गणिमग्गजलासु महाणईसुअणेगखंभसयसण्णिविट्ठ (अयलमकंपे अभेज्जकवए सालंवणबाहाए सव्वरयणामए) सुहसंकमे करेई २त्ता जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छइ २त्ता जाव २ एअमाणित्तिअं पच्चप्पिणइ।
तए णं से भरहे राया सखंधावारबले उम्मग्गणिमग्गजलाओ महाणईओ तेहिं अणेगखंभसय-सण्णिविट्ठ हिं ( अयलमकं पेहिं अभेज्जकवएहिं सालंबणबाहाएहिं सव्वरयणामएहिं) सुहसंकमेहिं उत्तरइ, तए णं तीसे तिमिसगुहाए उत्तरिल्लस्स दुवारस्स कवाडा सयमेव महया २ कोंचारवं करेमाणा सरसरस्स सगाग्गाइं २ ठाणाई पच्चोसक्कित्था।
[७१] तमिस्रा गुफा के ठीक बीच में उन्मग्नजला तथा निमग्नजला नामक दो महानदियां प्ररूपित की गई हैं, जो तमिस्रा गुफा के पूर्वी भित्तिप्रदेश से निकलती हुई पश्चिमी भित्ति प्रदेश होती हुई सिन्धु महानदी में मिलती हैं।
भगवन् ! इन नदियों के उन्मग्नजला तथा निमग्नजला-ये नाम किस कारण पड़े ?
गौतम ! उन्मग्नजला महानदी में तृण, पत्र, काष्ठ पाषाणखण्ड-पत्थर का टुकड़ा, घोड़ा, हाथी, रथ, योद्धा-पदाति या मनुष्य जो भी प्रक्षिप्त कर दिये जाएँ-गिरा दिये जाएँ तो वह नदी उन्हें तीन बार इधर-उधर घुमाकर किसी एकान्त, निर्जल स्थान में डाल देती हैं।
निमग्नजला महानदी में तृण, पत्र, काष्ठ, पत्थर का टुकड़ा (घोड़ा, हाथी, रथ, योद्धा-पदाति) या मनुष्य जो भी प्रक्षिप्त कर दिये जाएं-गिरा दिये जाएं तो वह उन्हें तीन बार इधर-उधर घुमाकर जल में निमग्न कर देती है-डुबो देती है । गौतम ! इस कारण से ये महानदियां क्रमश:उन्मग्नजला तथा निमग्नजला कही जाती हैं।
तत्पश्चात् अनेक नरेशों से युक्त राजा भरत चक्ररत्न द्वारा निर्देशित किये जाते मार्ग के सहारे आगे बढ़ता हुआ उच्च स्वर से (समुद्र के गर्जन की ज्यों) सिंहनाद करता हुआ सिन्धु महानदी के पूर्वी तट पर अवस्थित उन्मग्नजला महानदी के निकट आया। वहाँ आकर उसने अपने वर्द्धकिरत्न को-अपने श्रेष्ठ शिल्पी
१. देखें सूत्र संख्या ४४ २. देखें सूत्र संख्या ४४