Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
१२० ]
[जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र
वैताढ्य - विजय
६४. तए णं से दिव्वे चक्करयणे सिंधूए देवीए अट्ठाहिआए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ तहेव ( पडिणिक्खमइ २त्ता अंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्वतुडिअसद्दसण्णिणादेणं पूरंते चेव अंबरतलं ) उत्तरपुरच्छिमं दिसिं वे अद्धपव्वयाभिमुहे पयाए आवि होत्था ।
तणं से भर राया (तं दिव्वं चक्करयणं उत्तरपुरच्छिमं दिसिं वेअद्धपव्वयाभिमुहं पयातं चावि पासइ २त्ता) जेणेव वेअद्धपव्वए जेणेव वेअद्धस्स पव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे तेणेव उवागच्छइ २त्ता वेअद्धस्स पव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे दुवालसजोअणायामं णवजोअणविच्छि ण्णं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारनिवेसं करेइ २त्ता जाव ' वेअद्धगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ २त्ता पोसहसालाए (पोसहिए बंभयारी उम्मुक्कमणिसुवण्णे ववगयमालावण्णग-विलेवणे णिक्खित्तसत्थमुसले दब्भसंथारोवगए) अट्ठमभत्तिए वेअद्धगिरिकुमारं देवं मणसि करेमाणे २ चिट्ठइ । तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि वेअद्धगिरिकुमारस्स देवस्स असणं चलइ, एवं सिंधुगमो णेअव्वो, पीइदाणं आभिसेक्कं रयणालंकारं कडगाणि अ तुडिआणि अ वत्थाणि अ आभरणाणि अ गेण्हइ २त्ता ताए उक्किट्ठाए जाव' अट्ठाहिअं ( महामहिमं करेइ २त्ता एअमाणत्तिअं ) पच्चप्पिणंति ।
[६४] सिन्धुदेवी के विजयोपलक्ष्य में अष्टदिवसीय महोत्सव सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररल पूर्ववत् शस्त्रागार से बाहर निकला। (बाहर निकल कर आकाश में अधर अवस्थित हुआ। वह एक हजार यक्षों से संपरिवृत था। दिव्य वाद्यध्वनि से गगन - मण्डल को आपूर्ण कर रहा था ।) उसने उत्तर -- -पूर्व दिशा में - ईशानकोण में वैताढ्य पर्वत की ओर प्रयाण किया ।
राजा भरत (उस दिव्य चक्ररत्न को उत्तर-पूर्व दिशा में वैताढ्य पर्वत की ओर जाता हुआ देखकर) जहाँ वैताढ्य पर्वत था, उसके दाहिनी ओर की तलहटी थी, वहाँ आया । वहाँ बारह योजन लम्बा तथा नौ योजन चौड़ा सैन्य-शिविर स्थापित किया । वैताढ्यकुमार देव को उद्दिष्ट कर उसे साधने हेतु तीन दिनों का उपवास—तेले की तपस्या स्वीकार की । पौषधशाला में (पौषध लिया, ब्रह्मचर्य स्वीकार किया । मणिस्वर्णमय आभूषण शरीर से उतारे । माला, वर्णक - चन्दनादि सुरभित पदार्थों के देहगत विलेपन आदि दूर किये । शस्त्र - कटार आदि, मूसल - दण्ड, गदा आदि हथियार एक ओर रखे। वह डाभ के बिछौने पर संस्थित हुआ।) तेले की तपस्या में स्थित मन में वैताढ्य गिरिकुमार का ध्यान करता हुआ अवस्थित हुआ। भरत द्वारा यों तेले की तपस्या में निरत होने पर वैताढ्य गिरिकुमार का आसन डोला । आगे का प्रसंग सिन्धुदेवी के प्रसंग जैसा समझना चाहिए। वैताढ्य गिरिकुमार ने राजा भरत को प्रीतिदान भेंट करने राजा द्वारा धारण
१. देखें सूत्र ५० २. देखें सूत्र ३४