Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय वक्षस्कार ]
विशिष्ट — उत्कृष्ट,
विमल - उज्ज्वल, महार्ह—बड़े लोगों द्वारा धारण करने योग्य, सुश्लिष्ट - सुन्दर जोड़ युक्त, प्रशस्त - प्रशंसनीय आकृतियुक्त सुन्दर वीरवलय - विजय कंकण धारण किया। अधिक क्या कहें, इस प्रकार अलंकृत- अलंकारयुक्त, विभूषित - वेशभूषा से विशिष्ट सज्जायुक्त राजा ऐसा लगता था, मानो कल्पवृक्ष हो। अपने ऊपर लगाये गये कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र, दोनों ओर डुलाये जाते चार चँवर, देखते ही लोगों द्वारा किये गये मंगलमय जय शब्द के साथ अनेक गणनायक - जनसमुदाय के प्रतिनिधि, दण्डनायकआरक्षि-अधिकारी, दूत – संदेशवाहक, संधिपाल - राज्य के सीमान्त प्रदेशों के अधिकारी - इन सबसे घिरा हुआ राजा धवल महामेघ - श्वेत, विशाल बादल से निकले चन्द्र की ज्यों प्रियदर्शन देखने में प्रिय लगने वाला वह राजा स्नानघर से निकला ।)
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स्नानघर से निकलकर घोड़े हाथी, रथ, अन्यान्य उत्तम वाहन तथा योद्धाओं के विस्तार से युक्त सेना से सुशोभित वह राजा जहाँ बाह्य उपस्थानशाला - बाहरी सभाभवन था, आभिषेक्य हस्तिरत्न था, वहाँ आया और अंजनगिरि के शिखर के समान विशाल गजपति पर आरूढ हुआ ।
भरताधिप — भरतक्षेत्र के अधिपति नरेन्द्र - राजा भरत का वक्षस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित एवं प्रीतिकर था। उसका मुख कुंडलों से उद्योतित - द्युतिमय था । मस्तक मुकुट से देदीप्यमान था । नरसिंहमनुष्यों में सिंहसदृश शौर्यशाली, नरपति- मनुष्यों के स्वामी - परिपालक, नरेन्द्र - मनुष्यों के इन्द्र - परम ऐश्वर्यशाली अभिनायक, नरवृषभ - मनुष्यों में वषृभ के समान स्वीकृत कार्यभार के निर्वाहक, मरुद्राजवृषभकल्प-व्यन्तर आदि देवों के राजाओं- इन्द्रों के मध्य वृषभ - मुख्य सौधमेन्द्र केसदृश, राजोचित तेजस्वितारूप लक्ष्मी से अत्यन्त दीप्तिमय, वंदिजनों द्वारा सैकड़ों मंगलसूचक शब्दों से संस्तुत, जयनाद से सुशोभित, गजारूढ राजा र भरत सहस्रों यक्षों से संपरिवृत धनपति यक्षराज कुबेर सदृश लगता था । देवराज इन्द्र के तुल्य उसकी समृद्धि थी, जिससे उसका यश सर्वत्र विश्रुत था । कोरंट के पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र उस पर तना था। श्रेष्ठ, श्वेत, चँवर डुलाये जा रहे थे ।
राजा भरत गंगा महानदी के दक्षिणी तट से होता हुआ सहस्रों ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्वट, मडंब, द्रोणमुख, पट्टन, आश्रम तथा संबाध - इनसे सुशोभित, प्रजाजनयुक्त पृथ्वी को - वहाँ के शासकों को जीतता हुआ, उत्कृष्ट, श्रेष्ठ रत्नों को भेंट के रूप में ग्रहण करता हुआ, दिव्य चक्ररत्न का अनुगमन करता हुआपीछे-पीछे चलता हुआ, एक-एक योजन पर अपने पड़ाव डालता हुआ जहां मागध तीर्थ था, वहाँ आया. आकर मागध तीर्थ से न अधिक दूर, न अधिक समीप, बारह योजन लम्बा, तथा नौ योजन चौड़ा उत्तम नगर जैसा विजय स्कन्धावार - सैन्य शिविर लगाया। फिर राजा ने वर्धकिरन - चक्रवर्ती के चौदह रत्नोंविशेषातिशयित साधनों में से एक अति श्रेष्ठ सूत्रधार - शिल्पकार को बुलाया । बुलाकर कहा- देवानुप्रिय ! शीघ्र ही मेरे लिए आवास-स्थान एवं पोषधशाला का निर्माण करो, आज्ञापालन कर मुझे सूचित करो । राजा द्वारा यों कहे जाने पर वह शिल्पकार हर्षित तथा परितुष्ट हुआ । उसने अपने चित्त में आनन्द एवं
१. चक्रवर्ती का शरीर दो हजार व्यन्तर देवों से अधिष्ठित होता है.