Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय वक्षस्कार]
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अत्यधिक स्नायुओं-नाड़ियों से संपिनद्ध-परिबद्ध या छाये हुए होने से दुर्दशनीय रूपयुक्त, देह के आसपास पड़ी झुर्रियों की तरंगों से परिव्याप्त अंग युक्त, जरा-जर्जर बूढ़ों के सदृश, प्रविरल-दूर-दूर प्ररूढ तथा परिशटित-परिपतित दन्तश्रेणी युक्त, घड़े के विकृत मुख सदृश मुखयुक्त अथवा भद्दे रूप में उभरे हुए मुख तथा घांटी युक्त, असमान नेत्रयुक्त, वक्र-टेढ़ी नासिकायुक्त, झुर्रियों से विकृत-वीभत्स, भीषण मुखयुक्त, दाद, खाज, सेहुआ आदि से विकृत, कठोर चर्मयुक्त, चित्रल-कर्बुर-चितकबरे अवयवमय देहयुक्त, पाँव एवं खररसंज्ञक चर्मरोग से पीड़ित, कठोर, तीक्ष्ण नखों से खाज करने का कारण विकृत-व्रणमय या खरोंची हुई देहयुक्त, टोलगति-ऊँट आदि के समान चालयुक्त या टोलाकृति-अप्रशान्त आकारयुक्त, विषम सन्धि बन्धनयुक्त, अयथावस्थित अस्थियुक्त, पौष्टिक भोजनरहित, शक्तिहीन, कुत्सित संहनन, कुत्सित परिमाण, कुत्सित संस्थान एवं कुत्सित रूप युक्त, कुत्सित आश्रय, कुत्सित आसन, कुत्सित शय्या तथा कुत्सित भोजनसेवी, अशुचि-अपवित्र अथवा अश्रुति-श्रुत-शास्त्र ज्ञान-वर्जित, अनेक व्याधियों से पीड़ित, स्खलित-विह्वल गतियुक्त-लड़खड़ा कर चलने वाले, उत्साह-रहित, सत्त्वहीन, निश्चेष्ट, नष्टतेज-तेजोविहीन, निरन्तर शीत, उष्ण, तीक्ष्ण, कठोर वायु से व्याप्त शरीरयुक्त, मलिन धूलि से आवृत देहयुक्त, बहुत क्रोधी, अहंकारी, मायावी, लोभी तथा मोहमय, अशुभ कार्यों के परिणाम स्वरूप अत्यधिक दुःखी, प्रायः धर्मसंज्ञा-धार्मिक श्रद्धा तथा सम्यक्त्व से परिभ्रष्ट होंगे। उत्कृष्टतः उनका देह परिमाण-शरीर की ऊँचाई-एक हाथ-चौबीस अंगुल की होगी। उनका अधिकतम आयुष्य-स्त्रियों का सोलह वर्ष का तथा पुरुषों का बीस वर्ष का होगा। अपने बहुपुत्र-पौत्रमय परिवार में उनका बड़ा प्रणय-प्रेम या मोह रहेगा। वे गंगा महानदी, सिन्धु महानदी के तट तथा वैताढ्य पर्वत के आश्रय में बिलों में रहेंगे। वे बिलवासी मनुष्य संख्या में बहत्तर होंगे। उनसे भविष्य में फिर मानव-जाति का विस्तार होगा।'
भगवन् ! वें मनुष्य क्या आहार करेंगे ? ___ गौतम! उस काल में गंगा महानदी और सिन्धु महानदी-ये दो नदियाँ रहेंगी। रथ चलने के लिए अपेक्षित पथ जितना मात्र उनका विस्तार होगा। उनमें रथ के चक्र के छेद की गहराई जितना गहरा जल रहेगा। उनमें अनेक मत्स्य तथा कच्छप-कछुए रहेंगे। उस जल में सजातीय अप्काय के जीव नहीं होंगे।
वे मनुष्य सूर्योदय के समय तथा सूर्यास्त के समय अपने बिलों से तेजी से दौड़ कर निकलेंगे। बिलों से निकल कर मछलियों और कछुओं को पकड़ेंगे, जमीन पर-किनारे पर लायेंगे। किनारे पर लाकर रात में शीत द्वारा तथा दिन में आतप द्वारा उनको रसरहित बनायेंगे, सुखायेंगे। इस प्रकार वे अतिसरस-खाद्य
१. छठे आरे के वर्णन में ऐसा भी उल्लेख पाया जाता है
२१००० वर्ष दुःखमा-दुःखमा नामक छटे आरे का आरम्भ होगा, तब भरतक्षेत्राधिष्ठित देव पञ्चम आरे के विनाश पाते हुए पश मनुष्यों में से बीज रूप कुछ पशु, मनुष्यों को उठाकर वैताढ्य गिरि के दक्षिण और उत्तर में जो गंगा और सिन्धु नदी हैं, उनके आठों किनारों में से एक-एक तट में नव-नव बिल हैं एवं सर्व ७२ बिल हैं और एक-एक बिल में तीन-तीन मंजिल हैं, उनमें उन पशु व मनुष्यों को रखेंगे। ७२ बिलों में से ६३ बिलों में मनुष्य, ६ बिलों में स्थलचर-पशु एवं ३ बिलों में खेचर पक्षी रहते हैं।