Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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७६ ]
[जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र
तत्पश्चात् देवराज शक्रेन्द्र ने उन अनेक भवनपति, वैमानिक आदि देवों से कहा-देवानुप्रियो ! ईहामृगभेड़िया, वृषभ-बैल, तुरंग-घोड़ा, (मनुष्य, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, कस्तूरी मृग, शरभ-अष्टापद, चँवर, हाथी,) वनलता-के चित्रों से अंकित तीन शिविकाओं की विकुर्वणा करो-एक भगवान् तीर्थंकर के लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक अवशेष साधुओं के लिए। इस पर उन बहुत से भवनपति, वैमानिकों आदि देवों ने तीन शिविकाओं की विकुर्वणा की-एक भगवान् तीर्थंकर के लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक अवशेष अनगारों के लिए। तब उदास, खिन्न एवं आंसू भरे देवराज देवेन्द्र शक्र ने भगवान तीर्थंकर के जिन्होंने जन्म, जरा, तथा मृत्यु को विनष्ट कर दिया था-इन सबसे जो अतीत हो गये थे, शरीर को शिविका पर आरूढ किया-रखा। आरूड कर चिता पर रखा। भवनपति तथा वैमानिक आदि देवों ने जन्म, जरा तथा मरण के पारगामी गणधरों एवं साधुओं के शरीर शिविका पर आरूढ किये। आरूढ कर उन्हें चिता पर रखा।
देवराज शक्रेन्द्र ने तब अग्निकुमार देवों को पुकारा। पुकार कर कहा-देवानुप्रियो ! तीर्थंकर की चिता में, (गणधरों की चिता में) तथा साधुओं की चिता में शीघ्र अग्निकाय की विकुर्वणा करो-अग्नि उत्पन्न करो। ऐसा कर मुझे सूचित करो कि मेरे आदेशानुरूप कर दिया गया है। इस पर उदास, दुःखित तथा अश्रुपूरितनेत्र वाले अग्निकुमार देवों ने तीर्थंकर की चिता, गणधरों की चिता तथा अनगरों की चित में अग्निकाय की विकुर्वणा की। देवराज शक्र ने फिर वायुकुमार देवों को पुकारा। पुकारकर कहा-तीर्थंकर की चिता, गणधरों की चिता एवं अनगारों की चिता में वायुकाय की विकुर्वणा करो, अग्नि प्रज्ज्वलित करो, तीर्थंकर की देह को, गणधरों तथा अनगारों की देह को ध्मापित करो-अग्निसंयुक्त करो। विमनस्क, शोकान्वित तथा अश्रुपूरितनेत्र वाले वायुकुमार देवों ने चिताओं में वायुकाय की विकुर्वणा की-पवन चलाया, तीर्थंकरशरीर (गणधर-शरीर) तथा अनगार-शरीर ध्यापित किये।
देवराज शक्रेन्द्र ने बहुत से भवनपति तथा वैमानिक आदि देवों से कहा-देवानुप्रियो ! तीर्थंकरचिता, गणधर-चिता तथा अनगार-चिता में विपुल परिमाण में अगर, तुरुष्क तथा अनेक घटपरिमित घृत एवं मधु डालो। तब उन भवनपति आदि देवों ने तीर्थंकर-चिता, (गणधर-चिता तथा अनगार-चिता में विपुल परिमाणमय अगर, तुरुष्क तथा अनेक घट-परिमित) घृत एवं मधु डाला।
देवराज शक्रेन्द्र ने मेघकुमार देवों के पुकारा। पुकार कर कहा-देवानुप्रियो ! तीर्थंकर-चिता, गणधरचिता तथा अनगार-चिता को क्षीरोदक से निर्वापित करो-शान्त करो-बुझाओ। मेघकुमार देवों ने तीर्थंकरचिता, गणधर-चिता एवं अनगार-चिता को निर्वापित किया।
तदनन्तर देवराज शक्रेन्द्र ने भगवान् तीर्थंकर के ऊपर की दाहिनी डाढ-डाढ की हड्डी ली। असुराधिपति चमरेन्द्र ने नीचे की दाहिनी डाढ ली। वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बली ने नीचे की बाई डाढ ली। बाकी के भवनपति, वैमानिक आदि देवों ने यथायोग्य अंग-अंगों की हड्डियाँ ली। कइयों ने जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति से, कइयों ने यह समुचित पुरातन परंपरानुगत व्यवहार है, यह सोचकर तथा कइयों ने इसे अपना धर्म मानकर ऐसा किया।