Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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७२]
[जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र
तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणीआणं, सत्तण्हं अणीआहिवईणं, चउण्हं असीईणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अण्णेसिं च ईसाणकप्पवासीणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं, पोरेवच्चं, सामित्तं, भट्ठित्तं, महत्तरगत्तं,आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयणट्टगीअवाइअतंतीतलतालतुडिअघणमुइंगपडुपडहवाइअरवेणं) विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ।
___ तस्स ईसाणस्स, देविंदस्स, देवरण्णो आसणंचलइ।तएणं से ईसाणे( देविंदे,) देवराया आसणं चलिअंपासइ, पासित्ता ओहिं पउंजइ, पउंजइत्ता भगवं तित्थगरं ओहिणा आभोएइ, आभोएइत्ता जहा सक्के निअगपरिवारेणं भाणेअव्वो (सद्धिं संपरिवुडे ताए उक्किाट्ठाए देवगईए तिरिअमसंखेज्जाणं दीवसमुद्दाणं मझमझेणंजेणेव अट्ठावयपव्वए, जेणेव भगवओ तित्थगरस्स सरीरए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता विमणे, णिराणंदे, अंसुपुण्ण-णयणे तित्थयरसरीरयं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, णच्चासण्णे, णाइदूरे सुस्सूसमाणे) पज्जुवासइ। एवं सव्वे देविंदा ( सणंकुमारे, माहिंदे, वंभे लंतगे, महासुक्के, सहस्सारे, आणए, पाणए, आरणे,)अच्चुए णिअगपरिवारेणं भाणिअव्वा, एवं जाव भवणवासीणंइंदा वाणमंतराणं सोलस जोइसिआणं दोण्णि निअगपरिवाराणेअव्वा।
[४२] उस समय उत्तरार्ध लोकाधिपति, अट्ठाईस लाख विमानों के स्वामी, शूलपाणि-हाथ में शूल लिए हुए, वृषभवाहन-बैल पर सवार, निर्मल आकाश के रंग जैसा वस्त्र पहने हुए, (यथोचित रूप में माला एवं मुकुट धारण किए हुए, नव-स्वर्ण-निर्मित मनोहर कुंडल पहने हुए, जो कानों से गालों तक लटक रहे थे, अत्यधिक समृद्धि, द्युति, बल, यश, प्रभाव तथा सुख-सौभाग्य युक्त, देदीप्यमान शरीर युक्त, सब ऋतुओं के फूलों से बनी माला, जो गले से घुटनों तक लटकती थी, धारण किए हुए, ईशानकल्प में ईशानावतंसक विमान को सुधर्मा सभा में ईशान-सिंहासन पर स्थित, अट्ठाईस लाख वैमानिक देवों, अस्सी हजार सामानिक देवों, तेतीस त्रायस्त्रिंश-गुरुस्थानीय देवों चार लोकपालों, परिवार सहित आठ पट्टरानियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, सात सेनापतियों, अस्सी-अस्सी हजार चारों दिशाओं के आत्मरक्षक देवों तथा अन्य बहुत से ईशानकल्पवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरापतित्व, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, आज्ञेश्वरत्व, सेनापतित्व करता हुआ देवराज ईशानेन्द्र निरवच्छिन्न नाट्य गीत, निपुण वादकों द्वारा बजाये गये बाजे, वीणा आदि के तन्तुवाद्य, तालवाद्य, त्रुटित, मृदंग आदि के तुमुलघोष के साथ) विपुल भोग भोगत हुआ विहरणशील था-रहता था।
ईशान (देवेन्द्र) का आसन चलित हुआ। ईशान देवेन्द्र ने अपना आसन चलित देखा। वैसा देखकर अवधिज्ञान का प्रयोग किया। प्रयोग कर भगवान् तीर्थंकर को अवधिज्ञान द्वारा देखा। देख कर (शक्ररेन्द्र की ज्यों अपने देव-परिवार से संपरिवृत उत्कृष्ट गति द्वारा तिर्यक्-लोकस्थ असंख्य द्वीप-समुद्रों के बीच से चलता हुआ जहाँ अष्टापद पर्वत था, जहाँ भगवान् तीर्थंकर का शरीर था, वहाँ आया। आकर उसने बिमन
१. देखें सूत्र यही