Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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देखकर शक्रेन्द्र ने कहा कि आप जो आहार आदि लाये हैं, यह वृद्ध और गुणाधिक श्रावकों को समर्पित करें। भरत को सुझाव पसन्द आया और वह प्रतिदिन गुणज्ञ श्रावकों को आहार देने लगा। भरत ने कहा-आप अपनी आजीविका की चिन्ता से मुक्त बनें। शास्त्रों का स्वाध्याय करें तथा मुझे 'वर्द्धते भयं, माहण माहण' का उपदेश दें। अर्थात् भय बढ़ रहा है, हिंसा मत करो, हिंसा मत करो। भोजन करने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। जो श्रावक नहीं थे, वे भी आने लगे। भरत ने उन श्रावकों की परीक्षा की और कागिणीरत्न से उन्हें चिह्नित किया। 'माहण-माहण' की शिक्षा देने से वे ब्राह्मण (माहण-माहण) कहलाए देव, गुरु और धर्म के प्रतीक के रूप में तीन रेखाएं की गई थी। वे ही रेखाएं आगे चलकर यज्ञोपवीत में परिणत हो गईं।
महापुराण के अनुसार ब्राह्मणवर्ण की उत्पत्ति इस प्रकार है-सम्राट् भरत षटखण्ड को जीत कर जब आये तो उन्होंने सोचा कि बौद्धिक वर्ग, जो अपनी आजीविका की चिन्ता में लगा हुआ है, उसे आजीविका की चिन्ता से मुक्त किया जाय तो वह जनजीवन को योग्य मार्गदर्शन प्रदान कर सकता है। उन्होंने योग्य व्यक्तियों के परीक्षण के लिये एक उपाय किया। भरत स्वयं आवास में चले गये। मार्ग में हरी घास थी। जिन लोगों में विवेक का अभाव था वे हरी घास पर चलकर भरत के पास पहुँच गये पर कुछ लोग, जिनके मानस में जीवों के प्रति अनुकम्पा थी, वे मार्ग में पास होने के कारण भरत के पास उनके आवास पर नहीं गए, प्रतीक्षाघर में ही बैठे रहे। भरत ने जब उनसे पूछा कि आप मेरे पास क्यों नहीं आए ? उन्होंने बताया कि जीवों की विराधना कर हम कैसे आते ? सम्राट भरत ने उनका सम्मान किया और माहण अर्थात् ब्राह्मण की संज्ञा से सम्बोधित किया।
भरत के जीवन से सम्बन्धित अन्य कई प्रसंग अन्यान्य ग्रन्थों में आए हैं, पर विस्तार भय से हम उन्हें यहाँ नहीं दे रहे हैं । वस्तुतः सम्राट् भरत का जीवन एक आदर्श जीवन था, जो युग-युग तक मानवसमाज को पावन प्रेरणा प्रदान करता रहेगा। . चतुर्थ वक्षस्कार
चतुर्थ वक्षस्कार में चुल्ल हिमवन्त पर्वत का वर्णन है। इस पर्वत के ऊपर बीचों-बीच पद्म नाम का एक सरोवर है । इस सरोवर का विस्तार से वर्णन किया गया है। गंगा नदी, सिन्धु नदी, रोहितांशा नदी प्रभृति नदियों का भी वर्णन है। प्राचीन साहित्य, चाहे वह वैदिक परम्परा का रहा हो या बौद्ध परम्परा का, उनमें इन नदियों का वर्णन विस्तार के साथ मिलता है। ऋग्वेद में २१ नदियों का वर्णन है। उनमें गंगा और सिन्धु को प्रमुखता दी है। ऋग्वेद के नदीसूक्त में गंगा, सिन्धु को देवताओं के समान रथ पर चलती हुई कहा गया है। उनमे देवत्व की प्रतिष्ठा भी की गई है। बिसुद्धिमग्ग में गंगा, यमुना, सरयू, सरस्वती, अचिरवती, माही और महानदी ये सात नाम मिलते है। किन्तु सिन्धु का नाम नहीं आया है। जबकि अन्य स्थानों पर सप्त सिन्धव में सिन्धु का नाम प्रमुख है। मेगस्थनीज और अन्य ग्रेकोलैटिन लेखकों की दृष्टि से सिन्धु नदी एक अद्वितीय नदी थी। गंगा के अतिरिक्त अन्य कोई नदी
१. आवश्यकचूर्णि पृ. २१३-२१४ २. सुखं रथं युयुजे। -ऋग्वेद १०-७५-९ ३. ऋग्वेद ६,८
गंगा यमुना चैव गोदा चैव सरस्वती। नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेस्मिन् सन्निधिं कुरु ॥
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