Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र
हिययपल्हायणिज्जाहिं, कण्णमणणिव्वुइकराहिं, अपुणरुत्ताहिं अट्ठसइआहिं वग्गूहिं अणवरयं अभिनंदंता य अभिथुणता य एवं वयासी - जय जय नंदा ! जय जय भद्दा ! धम्मेणं अभीए परीसहोवसग्गाणं, खंतिखमे भयभेरवाणं, धम्मे ते अविग्धं भवउ त्ति कट्टु अभिनंदंति अ अभित अ
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तणं उस अरहा कोसलिए णयणमालासहस्सेहिं पिच्छिज्जमाणे पिच्छिज्जमाणे एवं (हियमालासहस्सेहिं अभिनंदिज्जमाणे अभिनंदिज्जमाणे उन्नइज्जेमाणे मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे विच्छिप्पमाणे, वयणमालासहस्सेहिं अभिथुव्वमाणे अभिथुव्वमाणे, कंति-सोहग्गगुणेहिं पत्थिज्जमाणे पत्थिज्जमाणे, बहूणं नरनारिसहस्साणं दाहिणहत्थेणं अंजलिमालासहस्साई पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे, मंजुमंजुणा घोसेणं पडिबुज्झमाणे पडिबुज्झमाणे, भवणपंतिसहस्साइं समइच्छमाणे समइच्छमाणे, ) आउलबोलबहुलं णभं करते विणीआए रायहाणीए मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ । आसिअ - समज्जिअसित - सुइक - पुप्पोवयारकलिअं सिद्धत्थवणविउलरायमग्गं करेमाणे हय-गय-रह-पहकरेण पाइक्कचडकरेण य मंद मंद उद्भूयरेणुयं करेमाणे जेणेव सिद्धत्थवणे उज्जाणे, जेणेव असोगवरपायवे, तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सीअं ठावेइ, ठाविता सीआओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता, सयमेवाभरणालंकारं ओमुअइ, ओमुत्ता सयमेव चउहिं अट्टाहिं लोअं करइ, करित्ता छट्टणं भत्तेणं अपाणएणं आसाढाहिं णक्खत्तेणं जोगमुवागणं उग्गाणं, भोगाणं राइन्नाणं, खत्तिआणं चउहि सहस्सेहि सद्धिं एगं देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइए ।
[३७] नाभि कुलकर के, उनकी भार्या मरुदेवी की कोख से उस समय ऋषभ नामक अर्हत्, कौशलिक - कोशल देश में अवतीर्ण, प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर चतुर्दिग्व्याप्त अथवा दान, शील, तप एवं भावना द्वारा चार गतियों या चारों कषायों का अन्त करने में सक्षम धर्म - साम्राज्य के प्रथम चक्रवर्ती उत्पन्न हुए। कौशलिक अर्हत् ऋषभ ने बीस लाख पूर्व कुमार - अकृताभिषेक राजपुत्रयुवराज-अवस्था में व्यतीत किये । तिरेसठ लाख पूर्व महाराजावस्था में रहते हुए उन्होंने लेखन से लेकर पक्षियों की बोली की पहचान तक गणित - प्रमुख कलाओं का, जिनमें पुरुषों की बहत्तर कलाओं, स्त्रियों के चौसठ गुणों-कलाओं तथा सौ प्रकार के कार्मिक शिल्पविज्ञान का समावेश है, प्रजा के हित के लिए उपदेश किया। कलाएँ आदि उपदिष्ट कर अपने सौ पुत्रों को सौ राज्यों में अभिषिक्त किया- उन्हें पृथक्पृथक् राज्य दिये । उनका राज्याभिषेक कर वे तियासी लाख पूर्व (कुमारकाल के बीस लाख पूर्व तथा महाराज काल के तिरेसठ लाख पूर्व ) गृहस्थ - वास में रहे । यों गृहस्थवास में रहकर ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास - चैत्र मास में प्रथम पक्ष - कृष्ण पक्ष में नवमी तिथि के उत्तरार्ध में - मध्याह्न के पश्चात् रजत, स्वर्ण, कोश. कोष्ठागार - - धान्य के आगार, बल - चतुरंगिणी, सेना, वाहन - हाथी, घोड़े, रथ आदि सवारियाँ, पुर- नगर, अन्तःपुर - रनवास, विपुल धन, स्वर्ण, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिला – स्फटिक, राजपट्ट आदि, प्रवाल- मूंगे, रक्त रत्न - पद्मराग आदि लोक के सारभूत पदार्थों का परित्याग कर ये सब पदार्थ अस्थिर
भाण्डागार,