Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र
या उक्कोसिआ अणुत्तरोववाइय- संपया होत्था ।
उभसणं अरहओ कोसलिअस्स वीसं समणसहस्सा सिद्धा, चत्तालीसं अज्जिआसहस्सा सिद्धा-सट्टि अंतेवासीसहस्सा सिद्धा ।
अरहओ णं उसभस्स बहवे अंतेवासी अणगारा भगवंतो - अप्पेगइया मासपरिआया, जहा उववाइए सव्वओ अणगारवण्णओ, जाव ( एवं दुमास-तिमास जाव चउमास-पंचमास-छमाससत्तमास-अट्ठमास-नवमास - दसमास-एक्कारस-मास परियाया अप्पेगइया वासपरियाया, दुवासपरियाया, तिवासपरियाया अप्पेगइया अणेगवासपरियाया,) उद्धंजाणू अहोसिरा झाणकोट्टोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ।
"
अरहओ णं उभस्स दुविहा अंतकरभूमी होत्था, तंजहा - जुगंतकरभूमी अ परिआयंतकरभूमि य, जुगंतकरभूमी जाव असंखेज्जाई पुरिसजुगाई, परिआयंतकरभूमि अंतोमुहुत्तपरिआए अंतमकासी ।
[३८] कौशलिक अर्हत् ऋषभ कुछ अधिक एक वर्ष पर्यन्त वस्त्रधारी रहे, तत्पश्चात् निर्वस्त्र । जब से वे (कौशलिक अर्हत् ऋषभ) गृहस्थ से श्रमण-धर्म में प्रव्रजित हुए, वे व्युत्सृष्टकाय- कायिक परिकर्म, संस्कार, श्रृंगार, सज्जा आदि रहित, त्यक्त देह - दैहिक ममता से अतीत - परिषहों को ऐसे उपेक्षा - भाव सहने वाले, मानो उनके देह हो ही नहीं, देवकृत, (मनुष्यकृत, तिर्यक् — पशु-पक्षि-कृत) जो भी प्रतिलोमप्रतिकूल, अनुलोम – अनुकूल उपसर्ग आते, उन्हें वे सम्यक् — निर्भीक भाव से सहते, प्रतिकूल परिषह - जैसे
बेंत से, (वृक्ष की छाल से बंटी हुई रस्सी से, लोहे की चिकनी सांकल से - चाबुक से, लता दंड से) चमड़े के कोड़े से उन्हें पीटता अथवा अनुकूल परिषह - जैसे कोई उन्हें वन्दन करता, (नमस्कार करता, उनका सत्कार करता, यह समझकर कि वे कल्याणमय, मंगलमय, दिव्यतामय एवं ज्ञानमय हैं, उनकी पर्युपासना करता तो वे यह सब सम्यक् - अनासक्त भाव से सहते, क्षमाशील रहते, अविचल रहते।
भगवान् ऐसे उत्तम श्रमण थे कि वे गमन, हलन चलन आदि क्रिया, (भाषा, आहार आदि की गवेषणा, याचना, पात्र आदि उठाना, इधर-उधर रखना आदि) तथा मल-मूत्र, खंखार, नाक आदि का मलत्यागना—इन पांच समितियों से युक्त थे । वे मनसमित, वाक्समित, तथा कायसमित थे। वे मनोगुप्त, (वचोगुप्त, कायगुप्त—मन, वचन तथा शरीर की क्रियाओं का गोपायन - संयम करने वाले, गुप्त – शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि से सम्बद्ध विषयों में रागरहित - अन्तर्मुख, गुप्तेन्द्रिय - इन्द्रियों को उनके विषय-व्यापार में लगाने की उत्सुकता से रहित) गुप्त ब्रह्मचारी - नियमोपनियमपूर्वक ब्रह्मचर्य का संरक्षण - परिपालन करने वाले, अक्रोध- क्रोध-रहित ( अमान - मान रहित, अमाय - माया रहित ) अलोभ - लोभरहित, शांत - प्रशांत, उपशांत, परिनिर्वृत- परमशांतिमय, छिन्न- स्रोत - लोकप्रवाह में नहीं बहने वाले, निरुपलेप - कर्मबन्धन के लेप से रहित, कांसे के पात्र में जैसे पानी नहीं लगता, उसी प्रकार स्नेह, आसक्ति आदि के लगाव से रहित, शंखवत् निरंजन- शंख जैसे सम्मुखीन रंग से अप्रभावित रहता है, उसी प्रकार सम्मुखीन क्रोध, द्वेष, राग,