Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय वक्षस्कार ]
[ ४५
गोमा ! णो इट्टे समट्ठे, जहिच्छिअ-कामगामिणो णं ते मणुआ पण्णत्ता ।
(२) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में ग्राम - बाड़ों से घिरी बस्तियाँ या करगम्य – जहाँ राज्य का कर लागू हो, ऐसी बस्तियाँ, ( आकर - स्वर्ण, रत्न आदि के उत्पत्ति स्थान, नगर - जिनके चारों ओर द्वार हों, जहाँ राज्य-कर नहीं लगता हो, ऐसी बड़ी बस्तियाँ, निगम - जहाँ वणिक्वर्ग का - व्यापारी वर्ग
प्रभूत निवास हो, वैसी बस्तियाँ, राजधानियाँ, खेट - धूल के परकोट से घिरी हुई या कहीं-कहीं नदियों तथा पर्वतों से घिरी हुई बस्तियाँ, कर्बट-छोटी प्राचीर से घिरी हुई या चारों ओर पर्वतों से घिरी हुई बस्तियाँ, मडम्ब - जिनके ढाई कोस इर्द-गिर्द कोई गाँव न हों, ऐसी बस्तियाँ, द्रोणमुख- समुद्रतट से सटी हुई बस्तियाँ, पत्तन-जल-स्थल मार्ग युक्त बस्तियाँ, आश्रम - तापसों के आश्रम या लोगों की ऐसी बस्तियाँ, जहाँ पहले तापस रहते रहे हों, सम्बाध - - पहाड़ों की चोटियों पर अवस्थित बस्तियाँ या यात्रार्थ समागत बहुत से लोगों के ठहरने के स्थान तथा सन्निवेश - सार्थ - व्यापारार्थ यात्राशील सार्थवाह एवं उनके सहवर्ती लोगों के ठहरने के स्थान होते हैं ?
गौतम ! ऐसा नहीं होता। वे मनुष्य स्वभावतः यथेच्छ - विचरणशील-स्वेच्छानुरूप विविध स्थानों गमनशील होते हैं।
(३) अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे असीइ वा, मसीइ वा, किसीइ वा, वणिएत्ति वा, पणिएत्ति वा, वाणिज्जेइ वा ?
णो इट्टे समट्टे, ववगय- असि-मसि - किसि - वणिअ-पणिअ-वाणिज्जा णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो !
(३) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में असि - तलवार 'आधार पर जीविका - युद्धजीविका, युद्धकला, मषि - लेखन या कलम के आधार पर जीविका - लेखन कार्य, लेखन - कला, कृषि - खेती, वणिककला - विक्रय के आधार पर चलने वाली जीविका, पण्य - क्रय-विक्रय- कला तथा वाणिज्य - व्यापारकला होती है ?
गौतम ! ऐसा नहीं होता। वे मनुष्य असि, मषि, कृषि, वणिक् पणित तथा वाणिज्य- कला से तन्मूलक जीविका से विरहित होते हैं ।
(४) अत्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे हिरण्णेइ वा, सुवण्णेइ वा, कंसेइ वा, दूसेइ वा मणि- मोत्तिय संख-सिलप्पवालरत्तरयणसावइज्जेइ वा ।
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हंता अस्थि, णो चेवणं तेसिं मणुआणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छइ ।
(४) भगवन्! क्या उस समय भरतक्षेत्र में चांदी, सोना, कांसी, वस्त्र, मणियां, मोती, शंख, शिलास्फटिक, रक्तरन - पद्मराग - पुखराज - ये सब होते हैं ?
हाँ, गौतम ! ये सब होते हैं, किन्तु उन मनुष्यों के परिभोग में- उपयोग में नहीं आते। (५) अत्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे रायाइ वा, जुवरायाइ वा, ईसर
-तलवर