Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम वक्षस्कार]
तीसे णं जगईए उप्पिं अंतो पउमवरवेइआए एत्थ णं एगे महं वणसंडे पण्णत्ते, देसूणाई दोजोअणाइं विक्खंभेणं, वेदियासमए परिक्खेवेणं, किण्हे(किण्होभासे, नीले, नीलोभासे, हरिए, हरिओभासे, सीए सीओभासे,णिद्धे,णिद्धोभासे,तिव्वे, तिव्वोभासे, किण्हे, किण्हच्छाए, नीले, नीलच्छाए, हरिए, हरियच्छाए, सीए, सीयच्छाए, णिद्धे,णिद्धच्छाए, तिव्वे,तिव्वच्छाए घणकडिअकडिच्छाए, रम्मे, महामेहणिकुरंबभूए, तणविहूणे णेअव्वो।
[६] उस वन-खंड में एक अत्यन्त समतल रमणीय भूमिभाग है। वह आलिंग-पुष्कर-मुरज या ढोलक के ऊपरी भाग-चर्म-पुट (मृदंग का ऊपरी भाग), जलपूर्ण सरोवर के ऊपरी भाग, हथेली, चन्द्रमंडल, सूर्य-मंडल, शंकु सदृश बड़े-बड़े कीले ठोक कर, खींचकर चारों ओर से समान किये गये भेड़, बैल, सूअर, शेर, बाघ, बकरे और चीते के चर्म जैसा समतल और सुन्दर है। वह भूमिभाग अनेकविध, आवर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणि प्रश्रेणि, स्वस्तिक, पुष्यमाणव, शराव-संपुट, मत्स्य के अंडे, मकर के अंडे, जार, मार, पुष्पावलि, कमल-पत्र, सागर-तरंग, वासन्तीलता, पद्मलता के चित्रांकन से राजित, आभायुक्त, प्रभायुक्त, शोभायुक्त, उद्योतयुक्त, बहुविध, पंचरंगी मणियों से, तृणों से सुशोभित है। कृष्ण आदि उनके अपने-अपने विशेष वर्ण,गन्ध, रस स्पर्श तथा शब्द हैं। वहाँ पुष्करिणी, पर्वत, मंडप, पृथ्वी-शिलापट्ट हैं।
वहाँ अनेक वाणव्यन्तर देव एवं देवियां आश्रय लेते हैं, शयन करते हैं, खड़े होते हैं, बैठते हैं, त्वग्वर्तन करते हैं-देह को दायें-बायें घुमाते हैं-मोड़ते हैं, रमण करते हैं, मनोरंजन करते हैं क्रीडा करते हैं, सुरतक्रिया करते हैं । यों वे अपने पूर्व आचरित शुभ, कल्याणकर-पुण्यात्मक कर्मों के फल-स्वरूप विशेष सुखों का उपभोग करते हैं।
उस जगती के ऊपर पद्मवरवेदिका-मणिमय पद्मरचित उत्तम वेदिका के भीतर एक विशाल वनखंड है। वह कुछ कम दो योजन चौड़ा है। उसकी परिधि वेदिका जितनी है । वह कृष्ण (कृष्ण-आभामय, नील-नील आभामय, हरित, हरित-आभामय, शीतल, शीतल-आभामय, स्निग्ध, स्निग्ध-आभामय, तीव्र, तीव्रआभामय, कृष्ण, कृष्ण-छायामय, नील, नील-छायामय, हरित, हरित-छायामय, शीतल, शीलत-छायामय, स्निग्ध, स्निग्ध-छायामय, तीव्र, तीव्र-छायामय, वृक्षों की शाखाप्रशाखाओं के परस्पर मिले होने से सघन छायामय, रम्य एवं विशाल मेघ-समुदाय जैसा भव्य तथा) तृणों के शब्द से रहित है-प्रशान्त है। जम्बूद्वीप के द्वार
७. जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स कइ दारा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तं जहा-विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए। [७] भगवन् ! जम्बूद्वीप के कितने द्वार हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप के चार द्वार हैं-१. विजय, २. वैजयन्त, ३. जयन्त तथा ४. अपराजित। ८. कहि णं भंते ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं पणयालीसंजोयणसहस्साइंवीइवइत्ता