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विवेचन-पृथ्वीकायिक जीवों में चेतना अव्यक्त होती है। उनमें हलन-चलन आदि क्रियाएँ भी स्पष्ट दिखाई नहीं देतीं, अतः यह शंका हो सकती है कि पृथ्वीकायिक जीव न चलता है, न बोलता है, न देखता है, न सुनता है, फिर कैसे पता चले कि वह जीव है ? उसे भेदन-छेदन करने से पीड़ा का अनुभव होता है ? ___ इस शंका के समाधान हेतु सूत्रकार ने तीन दृष्टान्त देकर पृथ्वीकायिक जीवों की वेदना का बोध तथा अनुभूति कराने का प्रयत्न किया है।
प्रथम दृष्टान्त में बताया है-कोई मनुष्य जन्म से अंधा, बहरा, गूंगा या पंगु है, केवल मानव आकति मात्र है। कोई पुरुष उसका तलवार, भाले आदि से भेदन-छेदन करे तो वह उस पीड़ा को न तो वाणी से व्यक्त कर सकता है, न त्रस्त होकर चल सकता है, न अन्य चेष्टा से पीड़ा को प्रकट कर सकता है। तो क्या यह मान लिया जाय कि वह जीव नहीं है, या उसे भेदन-छेदन करने से पीड़ा नहीं होती है ?
जैसे वह जन्मान्ध व्यक्ति वाणी, चक्षु, गति आदि के अभाव में भी पीड़ा का अनुभव तो करता है, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीव इन्द्रिय-विकल अवस्था में पीड़ा की अनुभूति करते हैं। ___ दूसरे दृष्टान्त में किसी स्वस्थ मनुष्य की उपमा देकर बताया है, जैसे उसके पैर, आदि बत्तीस अवयवों का एक साथ कोई छेदन-भेदन करता है, उस समय वह मनुष्य न भली प्रकार देख सकता है, न सुन सकता है, न बोल सकता है, न चल सकता है, वह उस पीड़ा को बता नहीं पाता किन्तु इससे यह तो नहीं माना जा सकता है कि उसमें चेतना नहीं है या उसे कष्ट नहीं हो रहा है। इसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीव में व्यक्त चेतना का अभाव होने पर भी उसमें प्राणों का स्पन्दन है, अनुभव चेतना विद्यमान है, अतः उसे भी कष्टानुभूति होती है। .. तीसरे दृष्टान्त में मूर्छित मनुष्य के साथ तुलना करते हुए बताया है कि जैसे कोई किसी को मूर्छित कर देता है अधवा मरणासन्न स्थिति कर देता है तो उसकी चेतना बाहर में लुप्त दीखती है, किन्तु उसकी अन्तरंग चेतना-अनुभूति लुप्त नहीं होती, उसी प्रकार (स्त्यानगृद्धि निद्रा का सतत उदय रहने से) पृथ्वीकायकि जीवों की चेतना मूर्छित व अव्यक्त रहती है किन्तु वे आन्तरिक चेतना से शून्य नहीं होते। ___ भगवतीसूत्र (श. १९, उ. ३५) में बताया है-जैसे कोई तरुण और बलिष्ठ पुरुष किसी जरा-जीर्ण दुर्बल-वृद्ध पुरुष के सिर पर दोनों हाथों से प्रहार करके उसे आहत करता है, तब वह जैसी अनिष्ट वेदना का अनुभव करता है, उससे भी अनिष्टतर वेदना का अनुभव पृथ्वीकायिक जीवों को आक्रान्त होने पर होता है। (देखें चित्र ४) ____ भगवतीसूत्र में पृथ्वीकायिक जीवों के श्वासोच्छ्वास, वेदना, आहार, संज्ञा, जरा, चय-अपचय आदि बताये हैं। आज के भू-वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि पृथ्वी, पर्वत, शिलाखंड आदि में हानि, वृद्धि, क्लाति और मृत्यु आदि लक्षण पाये जाते हैं। पृथ्वी की रचना में निरन्तर परिवर्तन मानना उसकी सजीवता का ही लक्षण है। शस्त्र परिज्ञा : प्रथम अध्ययन
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Shastra Parijna : Frist Chapter
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