Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 437
________________ विवेचन-प्रसंग व विषय के अनुसार 'दण्ड' शब्द विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है - जैसे (१) लकड़ी आदि का डण्डा ( २ ) निग्रह या सजा, (३) अपराधी को अपराध के अनुसार शारीरिक या आर्थिक दण्ड देना, (४) दमन करना, (५) मन-वचन-काया का अशुभ व्यापार, (६) जीव - हिंसा तथा प्राणियों का उपमर्दन आदि । ( पाइअसद्दमहण्णवो, पृ. ४५१ ) प्रस्तुत सूत्र 'दण्ड' शब्द प्राणियों को पीड़ा देने, उपमर्दन करने तथा मन, वचन और काया का दुष्प्रयोग करने के अर्थ में बार-बार प्रयुक्त हुआ है। मनोदण्ड के तीन प्रकार हैं - ( १ ) दण्ड के प्रकार-दण्ड तीन प्रकार का है - ( १ ) मनोदण्ड, (२) वचनदण्ड, और (३) कायदण्ड । ( आवश्यक सूत्र ) रागात्मक मन, (२) द्वेषात्मक मन, और (३) मोहयुक्त मन । वचनदण्ड के सात प्रकार हैं - ( १ ) झूठ बोलना, (२) वचन से कहकर किसी के ज्ञान का घात करना, (३) चुगली करना, (४) कठोर वचन कहना, (५) स्व - प्रशंसा और पर - निन्दा करना, (६) संताप पैदा करने वाला वचन कहना, तथा ( ७ ) हिंसाकारी वाणी का प्रयोग करना । कायदण्ड के भी ये सात प्रकार हैं - ( १ ) प्राणिवध करना, (२) चोरी करना, (३) मैथुन सेवन करना, (४) परिग्रह रखना, (५) आरम्भ करना, (६) ताड़न करना, (७) उग्र आवेशपूर्वक ( चारित्रसार ९९ / ५) डराना-धमकाना । दण्ड- समारम्भ का अर्थ प्राणि- हिंसा है। मुनि तीन करण - (१) करना, (२) कराना, और (३) अनुमोदन करना तथा तीन योग - ( १ ) मन, (२) वचन, और (३) काय के व्यापार से हिंसादि का त्याग करता है। अतः वह षट्कायिक जीवों में से सभी के होने वाले समारंभदण्ड-प्रयोग को भलीभाँति जान ले, तत्पश्चात् तीन करण, तीन योग से उन सभी दण्ड-प्रयोगों क परित्याग कर दे। प्रस्तुत सूत्र में दण्ड-समारम्भ करने वाले अन्य भिक्षुओं से लज्जित होने की बात कहकर प्राचीन परम्परा की तरफ संकेत किया है। वैदिक ऋषियों में पचन - पाचनादि के द्वारा दण्ड-समारम्भ होता था। बौद्ध परम्परा में भिक्षु स्वयं भोजन नहीं पकाते थे, दूसरों से पकवाते थे, या जो भिक्षु संघ को भोजन के लिए आमंत्रित करता था, उसके यहाँ से 'अपने लिए बना भोजन ले लेते थे, विहार आदि बनवाते थे। वे संघ के निमित्त होने वाली हिंसा में दोष नहीं मानते थे। कुछ भिक्षु वनस्पतिकाय की हिंसा करते थे, कुछ औद्देशिक आहार तो नहीं लेते थे, किन्तु सचि जल पीते थे । प्रस्तुत सूत्र उन परम्पराओं की ओर संकेत करता है। ( आचारांग भाष्य, पृ. ३६५ ) ' दण्ड भी ' - दण्ड भीरु का अर्थ है हिंसा या पाप करने में जिसे भय लगता है। ॥ प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ ( ३८२ ) आचारांग सूत्र Jain Education International For Private Personal Use Only Illustrated Acharanga Sutra www.jainelibrary.org

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