Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 477
________________ the the the theater the water water weten te wete ०५०५०१५०*०*१०४........99.99.99.99.99.99.99.999.C awareness of dichotomy of body and soul, he should perform this ultimate fasting in accordance with the procedure prescribed in scriptures. (If he follows this) his death is considered as normal death, in spite of being willfully embraced. With such a death he may become the terminator of cycles of rebirth. Thus, such a death is a blissful haven for the detached ascetics. It is beneficial, blissful, timely, source of beatitude, and advantageous in next incarnation. -So I say. विवेचन - शरीर विमोक्ष के हेतु इंगिनीमरण साधना - इस अध्ययन के चौथे उद्देशक में विहायोमरण, पाँचवें में भक्त प्रत्याख्यान और छठे में इंगिनीमरण का विधान किया गया है। सूत्र (२१९ ) के पूर्वार्ध में संलेखना का विधि-विधान बताया है। संलेखना : कब और कैसे ? - संलेखना का अवसर कब आता है ? इस सम्बन्ध में चार कारण प्रस्तुत सूत्र में बताये हैं (१) नीरस आहार लेने से या तपस्या में शरीर अत्यन्त ग्लान हो जाने पर । (२) रोग से पीड़ित हो जाने पर । (३) आवश्यक क्रिया करने में अक्षम / असमर्थ हो जाने पर । (४) उठने-बैठने आदि नित्य क्रियाएँ करने में भी अशक्त हो जाने पर । समाधिमरण की तैयारी के लिए पहले संलेखना करें। संलेखना के मुख्य तीन अंग इस सूत्र बताये हैं ( 9 ) आहार का क्रमशः संक्षेप / संवर्तन करे। यह द्रव्य संलेखना है । (२) कषायों का अल्पीकरण एवं उपशमन करे। (३) शरीर को समाधिस्थ, शान्त एवं स्थिर रखने का अभ्यास करे । संलेखना की विधि-यद्यपि संलेखना उत्कृष्ट १२ वर्ष की होती है । परन्तु ग्लान की शारीरिक स्थिति उतने समय तक टिके रहने की नहीं होती। इसलिए अपनी शारीरिक स्थिति को देखते हुए समय निर्धारित करके क्रमशः बेला, तेला, चोला, पंचोला, उपवास, आयंबिल आदि द्रव्यसंलेखना हेतु आहार में क्रमशः कमी (संक्षेप) करते जाना चाहिए। साथ ही भाव-संलेखना के लिए क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायों का उपशमन एवं अल्पीकरण करना चाहिए। इसके साथ ही शरीर, मन, वचन की प्रवृत्तियों को स्थिर एवं आत्मा में एकाग्र होना चाहिए। इसमें साधक को काष्टफलक की तरह शरीर और कषाय- दोनों ओर से कृश बन जाना चाहिए। आचारांग सूत्र ( ४२२ ) Illustrated Acharanga Sutra Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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