Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 516
________________ __ २५७. चत्तारि साहिए मासे बहवे पाणजाइया आगम्म। अभिरुज्झ कायं विहरिंसु आरुसियाणं तत्थ हिंसिंसु॥३॥ २५७. (अभिनिष्क्रमण के समय भगवान का शरीर गोशीर्ष चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों से लिप्त था उस कारण भौंरे आदि) बहुत से प्राणी आकर उनके शरीर पर बैठ जाते और रसपान का प्रयत्न करते। (रस प्राप्त न होने पर) वे रुष्ट होकर भगवान के शरीर पर डंक मारते। यह क्रम चार मास से अधिक समय तक चलता रहा। 257. (At the time of renunciation the body of Bhagavan was anointed with goshirsh-chandan (a type of sandal-wood paste) and other aromatic pastes. Attracted by the fragrance-] numerous insects like bumble-bee rested on his body and tried to suck pollen. (Failing to do so-) they stung his body with annoyance. This continued for more than four months. २५८. संवच्छरं साहियं मासं जं ण रिक्कासि वत्थगं भगवं। अचेलए ततो चाई तं वोसेज्ज वत्थमणगारे॥४॥ २५८. भगवान ने तेरह महीनों तक दीक्षा के समय कंधे पर रखे वस्त्र का त्याग नहीं किया। फिर अनगार और त्यागी भगवान महावीर उस वस्त्र का परित्याग करके अचेलक हो गए। 258. Bhagavan did not discard the single piece of cloth he had placed on his shoulder at the time of initiation. After that the homeless and all-renouncing Bhagavan Mahavir discarded that cloth and became non-clad. ____ विवेचन-हेमन्त ऋतु में मृगसर कृष्णा दशमी को भगवान ने दीक्षा लेकर दिन का एक मुहूर्त शेष था, तभी कुण्डग्राम से विहार करके कर्मारग्राम पहुँचे। इस तत्काल विहार का कारण बताते हुए वृत्तिकार कहते हैं-अपने पूर्व परिचित सगे-सम्बन्धियों के साथ अधिक रहने से अनुराग एवं मोह जागृत होने की अधिक सम्भावना है। अतः भगवान ने भविष्य में आने वाले साधकों का मार्गदर्शन करने के लिए स्वयं आचरण करके बता दिया। ___ एयं खु अणुधम्मियं तस्स', उनका यह आचरण अनुधार्मिक था। वृत्तिकार ने इसका अर्थ किया है यह वस्त्र-धारण पूर्व तीर्थंकरों द्वारा आचरित धर्म का अनुसरण मात्र था। अथवा अपने पीछे आने वाले साधु-साध्वियों के लिए अपने आचरण के अनुरूप मार्ग को स्पष्ट करना था। __ शिष्यों की रुचि, शक्ति, सहिष्णुता, देश, काल, पात्रता आदि देखकर तीर्थंकरों को भविष्य में वस्त्र-पात्रादि उपकरण सहित धर्माचरण का उपदेश देना होता है। इसी को अनुधर्मिता कहते हैं। उपधान-श्रुत : नवम अध्ययन ( ४५७ ) Upadhan-Shrut : Ninth Chapter Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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