Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 565
________________ 324. Wise and great sage Bhagavan Mahavir followed a code that was devoid of any bias or dogma. Other pursuers of the spiritual path follow the same conduct as preached and followed by him. ___-So I say. विवेचन–भगवान की तपःसाधना के साथ जागृति के सूचक दो विशेषण बार-बार आते हैं(१) समाधि-प्रेक्षा, और (२) अप्रतिज्ञा। अर्थात् भगवान चाहे जितना कठोर उग्र तप करते, किन्तु साथ में आत्म-समाधि का सतत प्रेक्षण करते रहते। दूसरी बात किसी प्रकार के पूर्वाग्रह या हठाग्रह से युक्त नहीं थे। ___ वृत्तिकार ने आयत योग का अर्थ मन-वचन-काया का संयत योग (सम्यक् प्रवृत्ति) किया है। परन्तु आयत योग को तन्मयता योग कह सकते हैं। भगवान जो भी क्रिया करते, उसमें तन्मय हो जाते थे। अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना से मुक्त रहकर केवल वर्तमान में रहने की क्रिया में पूर्णतया तन्मय होना ही आयत योग है। वे चलते समय केवल चलते थे। चलते समय न तो इधर-उधर झाँकते, न बातें या स्वाध्याय करते, और न ही चिन्तन करते थे। ___'अण्णगिलायं'-शब्द का अर्थ वृत्तिकार ने पर्युषित बासी भोजन किया है। भगवतीसूत्र की टीका में 'अन्नग्लायक' शब्द की व्याख्या की गई है-जो अन्न के बिना ग्लान हो जाता है, वह अन्नग्लायक कहलाता है। क्षुधातुर होने के कारण वह प्रातः होते ही जैसा भी, जो कुछ बासी, ठंडा भोजन मिलता है, उसे खा लेता है। यद्यपि भगवान क्षुधातुर स्थिति में नहीं होते थे, किन्तु ध्यान आदि में विघ्न न आये तथा समभाव साधना की दृष्टि से समय पर जैसा भी बासी-ठण्डा भोजन मिल जाता, बिना स्वाद लिए उसका सेवन कर लेते थे। चूर्णिकार ने अन्नग्लान शब्द का अर्थ किया है-सत्वहीन, रसहीन नीरस अन्न। 'सूइयं' शब्द का अर्थ है-दही आदि से गीले किए हुए भात अथवा दही के साथ भात मिलाकर करवा बनाया हुआ। सुक्क = सूखा, सीयं पिण्डं = ठण्डा भोजन, पुराण कुम्मासं = बहुत दिनों से सिजोया हुआ उड़द, बुक्कसं = पुराने धान का चावल, पुराना सत्तुपिण्ड, अथवा बहुत दिनों का पड़ा हुआ गोरस या गेहूँ का मांड, पुलागं = जौ का दलिया। ___णो पमायं सई वि कुव्वित्था-छद्मस्थ अवस्था में एक बार भी प्रमाद नहीं किया। प्रमाद के पाँच भेद मुख्य हैं-मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा। वृत्तिकार इस पंक्ति का अर्थ करते हैं-भगवान ने कषायादि प्रमादों का सेवन नहीं किया। चूर्णिकार का कथन है-भगवान ने छद्मस्थ दशा में अस्थिक ग्राम में एक बार अन्तर्मुहूर्त को छोड़कर निद्रा प्रमाद का सेवन नहीं किया। तात्पर्य यह है कि भगवान अपनी साधना में प्रतिपल अप्रमत्त रहते थे। आचारांग सूत्र ( ५०२ ) Illustrated Acharanga sutra Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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