Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 482
________________ 60%....... २००० तर तो वह वह न तो और प्राय प्राह प्रा. सत्तमो उद्देसओ सप्तम उद्देश्क अचेल - कल्प २२६. जे भिक्खू अचेले परिवुसिते तस्स णं एवं भवति चामि अहं तण फासं अहियासित्तए, सीयफासं अहियासित्तए, तेउफासं अहियासित्तए, दंस-मसगफासं अहियासित्तए, एगयरे अण्णयरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए, हिरिपडिच्छादणं चहं णो संचाए म अहियासित्तए । एवं से कप्पइ कडिबंधणं धारित्तए । LESSON SEVEN २२६. जिस भिक्षु ने अचेल - कल्प की मर्यादा स्वीकार की है, उस भिक्षु का ऐसा अभिप्राय हो कि मैं घास का कठिन स्पर्श सह सकता हूँ, सर्दी का कष्ट सह सकता हूँ, गर्मी का कष्ट सह सकता हूँ, डांस और मच्छरों के परीषह को सह सकता हूँ, एक प्रकार या भिन्न-भिन्न प्रकार के, नाना प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल परीषहों को सहन करने में समर्थ हूँ, किन्तु मैं गुप्तांगों के प्रतिच्छादन (वस्त्र) को छोड़ने में समर्थ नहीं हूँ। ऐसी स्थिति में वह भिक्षु कटिबन्धन (कमर पर बाँधने का वस्त्र चोलापट्ट ) धारण कर सकता है। THE VOW OF REMAINING UNCLAD 226. If an ascetic who has accepted to abide by the discipline of remaining unclad feels-I can tolerate the abrasive touch of grass, I can tolerate discomfort of cold, I can tolerate oppression of heat, I can tolerate stings of mosquitoes and other insects, and I am capable of tolerating a variety of pleasant and unpleasant afflictions, but I am not capable of discarding the (cloth) covering of my private parts-in such case that ascetic may wear a loin-cloth. २२७. अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, सीतफासा फुसंति, ते फासा फुसंति, दंस - मसगफासा फुसंति, एगयरे अण्णयरे विरूवरूवे फासे अहियासेति अचेले । लाघवियं आगममाणे । तवे से अभिसमण्णागये भवति । जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमेच्चा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिया । Jain Education International २२७. अथवा उस कल्प में स्थित भिक्षु यदि लज्जा को जीत सकता है तो अचेलकता में उस अचेल भिक्षु को बार-बार घास का तीखा स्पर्श चुभता है, शीत का स्पर्श होता है, विमोक्ष : अष्टम अध्ययन ( ४२७ ) Vimoksha: Eight Chapter For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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