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(४) आहटु पइण्णं णो आणक्खेस्सामि आहडं च णो साइज्जिस्सामि। एवं से अहाकिट्टियमेव धम्मं समभिजाणमाणे संते विरते सुसमाहितलेस्से। तत्थावि तस्स कालपरियाए। से तत्थ विअंतिकारए। इच्चेयं विमोहायतणं हियं सुहं खमं णिस्सेयसं आणुगामियं। त्ति बेमि।
॥ पंचमो उद्देसओ सम्मत्तो || २२०. जिस भिक्षु की ऐसी समाचारी या प्रकल्प (मर्यादा) होता है कि मैं रोगादि से ग्रस्त हूँ तथा मेरे साधर्मिक साधु स्वस्थ हैं। उन्होंने मुझे सेवा करने का वचन दिया है। यद्यपि मैंने उनसे अपनी सेवा के लिए अनुरोध नहीं किया है, तथापि कर्म-निर्जरा की
भावना से उन साधर्मिकों द्वारा की जाने वाली सेवा को मैं स्वीकार करूँगा। * (अथवा) मेरा साधर्मिक भिक्षु रुग्ण है, मैं स्वस्थ हूँ; उसने अपनी सेवा के लिए मुझे
अनुरोध नहीं किया है, (पर) मैंने उसकी सेवा के लिए उसे वचन दिया है। अतः कर्म-निर्जरा के उद्देश्य से तथा परस्पर उपकार करने की दृष्टि से मैं उस साधर्मिक की सेवा करूँगा। जिस भिक्षु की ऐसी आचार-मर्यादा हो, वह उसका पालन करता हुआ भले ही प्राण त्याग कर दे, (किन्तु प्रतिज्ञा भंग न करे)।
(१) कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं अपने ग्लान साधर्मिक भिक्षु के लिए आहारादि लाऊँगा, तथा उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन भी करूँगा।
(२) (अथवा) कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं अपने ग्लान साधर्मिक भिक्षु के 9 लिए आहारादि लाऊँगा, लेकिन उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन नहीं करूँगा। .
___ (३) (अथवा) कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं साधर्मिकों के लिए आहारादि * नहीं लाऊँगा किन्तु उनके द्वारा लाया हुआ सेवन करूँगा।
(४) (अथवा) कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा करता है कि न तो मैं साधर्मिकों के लिए आहारादि लाऊँगा और न ही मैं उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन करूँगा।
(यों उक्त चार प्रकार की प्रतिज्ञाओं में से किसी प्रतिज्ञा को ग्रहण करने के बाद अत्यन्त ग्लान होने पर या संकट आने पर भी प्रतिज्ञा भंग न करे, भले ही वह जीवन का उत्सर्ग कर दे।)
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आचारांग सूत्र
( ४१२ )
Illustrated Acharanga Sutra
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