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(ख) दीर्घदर्शी साधक इस प्रकार का चिन्तन करें-अमुक भाव व वृत्तियाँ अधोगति की हेतु हैं. अमुक ऊर्ध्व गति की तथा अमुक तिर्यक् (मध्य-मनुष्य-तिर्यंच) गति की हेतु हैं।'
(ग) लोक अर्थात् भोग्य-वस्तु या विषय। शरीर भोगायतन है। शरीर के तीन भाग कल्पित करके उन पर चिन्तन करना लोक-दर्शन है। ये तीन भाग हैं- (i) अधोभाग-नाभि से नीचे का भाग (ii) ऊर्ध्वभाग-नाभि से ऊपर का भाग (iii) तिर्यक्भाग-नाभि-स्थान
इन तीनों भागों पर चिन्तन करने से यह अशुचि भावना का आलम्बन बन जाता है। इससे शरीर की नश्वरता, असारता आदि की भावना दृढ़ हो जाती है। शरीर के मोह में कमी आती है। बौद्ध साधना में इसे 'शरीर-विपश्यना' भी कहा गया है। तीनों लोकों पर विभिन्न दृष्टियों से चिन्तन करना ध्यान की एक पद्धति रही है। ___ इस सूत्र में यह इंगित है कि भगवान महावीर अपने साधना-काल में ऊर्ध्वलोक में, अधोलोक में तथा तिर्यक्लोक में वहाँ स्थित तत्त्वों पर ध्यान केन्द्रित करके समाधिभाव में लीन हो जाते थे।३ लोक भावना' में भी तीनों लोक के स्वरूप का चिन्तन तथा वहाँ स्थित पदार्थों पर ध्यान केन्द्रित कर एकाग्र होने की साधना की जाती है।
(४) अनुपरिवर्तन का बोध-पुनः-पुनः काम-भोग के आसेवन से काम-वासना कभी भी शान्त व तृप्त नहीं हो सकती, बल्कि अग्नि में घी डालने की भाँति विषयाग्नि अधिक प्रज्वलित होती है। कामी बार-बार विषय के पीछे दौड़ता है और अन्त में मिलती है अशान्ति ! अतृप्ति !! यह अनुपरिवर्तन का बोध है।
(५) संधि-दर्शन-टीका में संधि का अर्थ 'अवसर' किया गया है। यह मनुष्य-जन्म ज्ञानादि की प्राप्ति का, आत्म-विकास करने का स्वर्णिम अवसर है अतः यह सुवर्ण-संधि है। ___ 'संधि-दर्शन' का एक अर्थ यह भी किया गया है कि शरीर की संधियों (जोड़ों) का स्वरूप-दर्शन कर शरीर के प्रति रागरहित होना। शरीर को मात्र अस्थि-कंकाल (हड्डियों का ढाँचा मात्र) समझना उसके प्रति आसक्ति को कम करता है। शरीर में एक सौ अस्सी संधियाँ मानी गई हैं। इनमें चौदह महासंधियाँ हैं उन पर विचार करना भी संधि-दर्शन है। शरीर के चैतन्य केन्द्र अथवा चक्र भी ‘संधि' शब्द से ग्राह्य हैं। (देखें चैतन्य केन्द्रों का चित्र)
१. देखें स्थानांग सूत्र, स्थान ४, उद्देशक ४ सूत्र ३७३ (चार गति के विभिन्न कारण) २. विशुद्धि मग्गो, भाग १, पृष्ठ १६०-१७५-उद्धृत 'आचारांग भाष्य (आचार्य महाप्रज्ञ), पृ. १२९ ३. अध्ययन ९, सूत्रांक ३२0, गा. १०७-"उड्ढं अहेयं तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिण्णे।" ४. देखें-आयारो, पृष्ठ ११४ । लोक-विजय : द्वितीय अध्ययन
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Lok Vijaya : Second Chapter
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