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युद्ध के योग्य (साधन) निश्चित ही दुर्लभ हैं। युद्ध के विषय में भगवान ने परिज्ञा ज्ञान और विवेक का कथन किया है।
धर्म-साधना से च्युत होने वाला अज्ञानी गर्भ आदि में भ्रमण करता है। इस जिनशासन में यह कहा जाता है-रूप (तथा रसादि) में एवं हिंसा (असत्यादि) में (आसक्त होने वाला) धर्म से पतित हो जाता है। जो लोक को अन्यथा देखता है, वही मुनि मोक्ष पथ पर आरूढ़ रहता है। INNER STRUGGLE ____160. You should fight with this (the karmic body) only, what will you gain by fighting others ?
The means to fight are certainly scarce.
Bhagavan has told about the knowledge and discerning, attitude related to a fight.
An ignorant who has drifted away from the religious path wanders in wombs (cycles of rebirth). Here (in this order of the Jina) it is said-He who is infatuated with form (and taste, etc.) and violence (and falsity, etc.) drifts away from the religious path. The ascetic who looks at the world otherwise, remains steadfast on the path of liberation. ___ विवेचन-इन सूत्रों में बाह्य युद्धों से विरत होकर आन्तरिक आत्म-युद्ध की प्रेरणा दी गई है। भगवान कहते हैं-वत्स ! तुम्हें बाह्य युद्ध नहीं, आन्तरिक युद्ध करना है। स्थूल शरीर के साथ तथा कर्मों के साथ लड़ना है। यह औदारिक शरीर विषय-सुखपिपासु है और स्वेच्छाचारी बनकर तुम्हें नचा रहा है, इसके साथ भी युद्ध करो और उस कर्म-शरीर के साथ भी लड़ो, जो काम आदि वृत्तियों के माध्यम से तुम्हें अपना दास बना रहा है। कर्म-शरीर और स्थूल-शरीर के साथ आन्तरिक युद्ध करके कर्मों को क्षीण कर देना है। ____ 'जुद्धारिहं' के बंदले कहीं 'जुद्धारियं च दुल्लहं' पाठ भी है। इसका वृत्तिकार ने अर्थ किया हैयुद्ध दो प्रकार के होते हैं-अनार्य युद्ध और आर्य युद्ध। तत्रानार्य संग्रामयुद्ध, परीषहादि रिपुयुद्धं त्वार्य, तद् दुर्लभमेव तेन युद्ध्यस्व। अनार्य युद्ध है शस्त्रास्त्रों से संग्राम करना। परीषहादि शत्रुओं के साथ आन्तरिक युद्ध करना आर्य युद्ध है, वह दुर्लभ है। अतः परीषहादि के साथ आर्य युद्ध करो।।
क्षुधा, पिपासा, सुख-शीलता आदि को जीतना शरीर के साथ युद्ध है तथा मोह, कषाय आदि पर विजय पाना कर्म के साथ युद्ध है। लोकसार : पंचम अध्ययन
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Lokasara : Fifth Chapter
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