________________
Aakankikiw arki ki fikiki ki sih ke K i KirkirrhexihiKa PARAMAYOYAYOGAYORAKODAYVACANOJANUANOVALUALULANDUADAUN
s
hrathusip
*
न
means of austerities he should emaciate and weaken the passions infesting his soul.
As fire soon reduces old wood to ashes, likewise a detached person having a soul engrossed in meditation soon burns the vibrated karmic body (in the fire of austerities and meditation). (Karmic body means the karmic component of the constitution of a being or the aggregate of karmas responsible for the mundane existence). __विवेचन-'आणाकंखी' का अर्थ किया गया है-'आज्ञा का आकांक्षी-सर्वज्ञ वचनों के अनुसार अनुष्ठान करने वाला।
चूर्णिकार ने 'एगमप्पाणं सपेहाए'-वाक्य की एकत्वानुप्रेक्षा और अन्यत्वानुप्रेक्षा के सन्दर्भ में व्याख्या की है। एकाकी आत्मा की संप्रेक्षा (अनुप्रेक्षा) इस प्रकार की जा सकती हैएकत्वानुप्रेक्षा- “एकः प्रकुरुते कर्म, भुनक्त्येकश्च तत्फलम्।
जायते म्रियते चैक, एको याति भवान्तरम्॥" -आत्मा अकेला ही कर्म करता है, अकेला ही उसका फल भोगता है, अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मरता है, अकेला ही जन्मान्तर में जाता है। ____ अन्यत्वानुप्रेक्षा- “संसार एवाऽयमनर्थसारः, कः कस्य, कोऽत्र स्वजनः परो वा।
सर्वे भ्रमन्तः स्वजनाः परे च, भवन्ति भूत्वा, न भवन्ति भूयः॥" -इस संसार में अनर्थ की ही प्रधानता है। यहाँ कौन किसका है? कौन स्व-जन या पर-जन है ? ये सभी स्व-जन और पर-जन तो संसार चक्र में भ्रमण करते हुए किसी समय (जन्म में) स्व-जन और फिर पर-जन हो जाते हैं। एक समय ऐसा आता है, जब न कोई स्व-जन रहता है, न कोई पर-जन।
ध्यान एवं तप-साधना के समय आने वाले उपसर्गों, कष्टों और परीषहों को समभावपूर्वक सहन करते हुए कर्मशरीर को कृश, जीर्ण एवं दग्ध करने हेतु पुराने काष्ठ और अग्नि की उपमा दी है। और साथ ही साधक में दो प्रकार की योग्यता का सूचन भी किया है-(१) वह आत्म-समाधि में स्थित हो, एवं (२) अस्नेह-अनासक्त हो। इस प्रकरण में 'आत्मा' से कषायात्मारूप कर्मशरीर अभिप्रेत है। 'धुणे सरीरं' वाक्य से इसी अर्थ का उद्घोष मिलता है। अतः स्थूल शरीर को नहीं, अपितु आठ प्रकार के कर्मशरीर को कृश, प्रकम्पित एवं जीर्ण करना यहाँ अपेक्षित है। इसके लिए निशीथ भाष्य की यह गाथा देखनी चाहिए
"इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे कुरु।
णो वयं ते पसंसामो, किसं साहु सरीरगं॥"-३८५८ आचारांग सूत्र
(२२६ )
Illustrated Acharanga Sutra
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org