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For this, the ascetic should always be in a happy frame of mind, keep his senses in control and, tolerating pain, pursue the path of discipline.
The path of the liberation-seeking ascetic, who indulges in ascetic practices throughout his life, is highly exacting.
He should tone down his flesh and blood through austerities.
Such disciplined and heroic person is free of attachment and aversion and is an ideal to be emulated by others. Observing abstinence he vibrates and weakens the karmic body.
विवेचन - सम्यक् चारित्र की साधना करते हुए आत्मा के साथ शरीर और शरीर से सम्बद्ध बाह्य पदार्थों के संयोगों, मोहबन्धनों, आसक्तियों, राग-द्वेषों एवं उनसे होने वाले कर्मबन्धों का त्याग करने की प्रेरणा इस उद्देशक में दी गयी है।
मुनि जीवन की प्राथमिक तैयारी के लिए दो बातें आवश्यक हैं
“जहित्ता पुव्वसंजोगं, हिच्चा उवसमं - ( १ ) मुनि जीवन को अंगीकार करने से पूर्व के कुटुम्ब - परिवार, धन-धान्य आदि के साथ बँधे हुए ममत्व सम्बन्धों - संयोगों का त्याग करना, तथा (२) आत्मा के साथ लगे अनादिकालीन राग-द्वेष आदि संयोगों को छोड़कर उपशम धारण
करना।
'आवीलए पवीलए णिप्पीलए'- ये तीन शब्द साधना के उत्तरोत्तर क्रम को सूचित करते हैं। प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद मुनि साधना की तीन भूमिकाओं से गुजरता है
(१) दीक्षित होने से लेकर शास्त्रों का अध्ययन काल तक की प्रथम भूमिका है। उसमें वह संयम - रक्षा एवं शास्त्र - अध्ययन के हेतु आवश्यक तप आयंबिल - उपवास आदि करता है। यह 'आपीड़न' है, इसका कालमानं - १२ वर्ष तक सूत्र का ग्रहण तथा १२ वर्ष तक अर्थ का ग्रहण करते हुए कुल २४ वर्ष का है।
(२) दूसरी भूमिका है - शिष्यों या लघु मुनियों के अध्यापन एवं धर्म प्रचार-प्रसार की। इस काल में वह संयम की उत्कृष्ट साधना और दीर्घ तप करता है। यह 'प्रपीड़न' है। इसका कालमान १२ वर्ष का है।
(३) तीसरी भूमिका आती है - शरीरत्याग की । जब मुनि आत्म-कल्याण के साथ लोक-कल्याण की साधना भी कर चुकता है और शरीर भी जीर्ण-शीर्ण एवं वृद्ध हो जाता है, तब वह समाधिमरण की तैयारी में संलग्न हो जाता है। इस समय दीर्घकालीन तप, कायोत्सर्ग, उत्कृष्ट त्याग आदि की साधना करता है। यह 'निष्पीड़न' है । इसका भी कालमान १२ वर्ष का है।
सम्यक्त्व : चतुर्थ अध्ययन
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Samyaktva: Forth Chapter
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