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सच्ची परमात्म-प्रीति
परमात्मा चाटुताप्रिय है कि उसकी चापलूसी करने से वह उनके पाप माफ कर देगा? परमात्मा के प्रति प्रीति इतनी सस्ती नही है । उसमे तो दो धातुओ के एकरूप होने की तरह अपने अह आदि विकारो को मिटा कर गुद्ध आत्मदशा के प्रति सर्वस्व समर्पण करना पड़ता है। अगर जान-दर्शन-चारित्र मे पुरुषार्थ किये विना केवल ऐसे थोये गुणगानो से ही परमात्मा प्रसन्न हो जाता तव - तो, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना करने की जरूरत ही क्या रहती ? अथवा स्वभाव मे रमणता की आवश्यकता भी क्यो होती ?
इसीलिए अगली' गाथा 'मे परमात्मप्रीति या परमात्मभक्ति का रहस्य बताते हुए श्रीआनन्दघनजी कहते है'चित्तप्रसन्ले रे पूजनफल कारे, पूजा 'अखडित एह। कपटरहित थई आतम-अर्पणा रे, आनन्दघन-पद-रेह ।।
ऋषभ० ॥६॥
अर्थ
आत्मचेतना-अन्तरात्मा की प्रसन्नता को ही परमात्मपूजा का फल कहा है। यही वास्तव मे अखण्डपूजा है। और ऐसी अखण्ड परमात्मपूजा निष्कपट या निःशल्य अथवा कषायरहित हो कर अपनी आत्मा को परमात्मा मे अर्पण कर देने से होती है । यही स्वात्म-अर्पणता आनन्दधन (सच्चिदानन्दमय परमात्मा के) पद (स्थान) की रेखा या मर्यादा है, अथवा निशानी है।'
' भाष्य
परमात्मा की पूजा का फल • चित्तप्रसन्नता पूर्वोक्त गाथाओ मे परमात्मारूपी' पति को प्रमन्न करने के विविध अज्ञानमूलक उपायो को श्रीआनन्दधनजी ने भ्रान्त' ठहरा कर परमात्मा के साथ धातुमिलाप की तरह एकरूपता (तदात्मता) को उनकी प्रसन्नता का कारण बताया , अव इस गाथा मे उसकी विशेपता एव फलप्राप्ति की निशानी वताते हुए वे कहते है कि आत्मचेतना की प्रसन्नता ही परमात्मपूजा का फल है। आत्मचेतना की प्रसन्नता द्वैत, कपाय, परभाव, विकल्प या शल्य आदि 'विकारो से रहित हो कर परमात्मा के साथ अन्तरात्मा की एकरपता से होती है। एकरूपता निर्विकारता -स्वच्छता व निर्विकल्पता रखने में होती है। यही अविच्छिन्न-अखण्डपूजा है। जव अन्तरात्मा परभावो मे विरत हो कर सतत