Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 1
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha

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Page 440
________________ (२७१) अणगार अभिधानराजेन्डः। अगागार (संयुमे णमित्यादि) व्यक्तम, नवरं, संवृतोऽनगारःप्रमत्तसंय- | इत्यर्थः । प्रमूर्च्छितादिविशेषणविशेषित पाहारमाहारयति,प्रतादिः, स च चरमशरीरः स्यादचरमशरीरो वा, तत्र यश्चरम शान्तपरिणामसद्भावादिति प्रश्नः अत्रोत्तरम्हंतागोयमेत्यादि] शरीरस्तदपेक्वयेदं सूत्रम्,यस्त्वचरमशरीरस्तदपेक्वया परम्परया अनेन तु प्रभार्थ एवान्युपगतः,कस्यापिजतप्रत्याख्यातुरेवंतसूत्रार्थोऽवसेयः । ननु पारम्पर्येणासंवृतस्यापि सूत्रोक्तार्थस्या- भावस्य सद्भावादिति। भ०१४ २०७उ० । घश्यंभावः, यतः शक्यपाक्तिकस्यापि मोक्षोऽवश्यंजावी, तदेवं [७] शैलेशीप्रतिपन्नस्यानगारस्य एजनासंवृतासंवृतयोः फलतो जेदानाव एवेति । अत्रोच्यते-सत्यम्, सेलेसिपमिवायए णं भंते ! अणगारे सया समियं एकिन्तु यत्संवतस्य पारम्पर्य तमुत्कर्षतः सप्ताष्टनवप्रमाणम् । यति वेयति जावतं तं जावं परिणम । णो इणटे समढे, णयतो वक्ष्यति-"जहनियं चारित्ताराहणं पाराहित्ता सत्तहनव णत्थेगेणं परप्पओगेणं ।। भगहणहि सिज्झइत्ति"। यच्चाऽसंवृतस्य पारम्पर्य तत्कर्षतोऽपार्द्धपुमलपरावर्तमानमपि स्यात,विराधनाफलत्वात् तस्यति। (नो श्ण सम ति ) योऽयं निषेधः सोऽन्यत्रैकस्मात्परप्रयो(वीश्वयत्ति) व्यतिबजति, व्यतिक्रामतीत्यर्थः। भ०१श०१० गादेजनादिकारणेषु मध्ये परप्रयोगेणवैकेन शैलेश्यामेजनादि (५) अनगारस्य भावितात्मनोऽसिधारादिष्ववगाहना-- जवति, न करणान्तरेणेति जावः । भ०१७ श० ३ ०। रायगिहे जाव एवं वयासी-अणगारेणं नंते !जाविय [-] अनगारो भावितात्माऽऽत्मनः कर्मवेश्याशरीरं जानाति अणगारे णं नंते ! भावियप्पा अप्पणो कम्मलेस्संग प्पा असिधारं वा खुरधारं वा श्रोगाहेज्जा । हंता ओगाहेज्जा । से णं तत्थ छिज्जेज्ज वा भिज्जेज वा । णो इणहे जाणइ, ण पासइ, तं पुण जीवसरूवि सकम्मलेस्सं जाणइ, समढे, णो खलु तत्थ सत्यं कमइ । एवं जहा पंचमसए पास ? हंता गोयमा ! अणगारे णं भावियप्पा अप्पणो जाव पास। परमाणुपोग्गले वत्तव्वया जाव । अणगारे णं नंते ! भावि (अणगारे णमित्यादि ) अनगारो भावितात्मा संयमनापनया यप्पा उदावत्तं वा जाव । णो खल्ल तत्थ सत्थं कमइ । वासितान्तःकरणः, आत्मनः संबन्धिनी कर्मणो योग्या वेश्या [रायगिहे इत्यादि ] श्ह चानगारस्य कुरधारादिषु प्रवेशो | कृष्णादिका, कर्मणो वा लेश्या, "लिश श्लेषणे" इति वचनाबैक्रियसब्धिसामर्थ्यादवसेयः। [एवं जहा पंचमसपश्त्यादि] | त्। संबन्धः कर्ममेश्या, तां न जानाति विशेषतो न पश्यति च, अनेन च यत्सूचितं तदिदम्-'अणगारेणं भंते!भावियप्पा अग सामान्यतः कृष्णादिश्यायाः, कर्मद्रव्यश्लेषणस्य चातिसूक्ष्मणिकायस्स मऊ मज्झेणं वीश्वरजा ?, हंता वीईवज्जा , से त्वेन ध्वास्थज्ञानागोचरत्वात् । (तं पुण जीवं ति)। यो जीवः गं तत्थ कियाएज्जा ? । नो श्ण समठे, नो खसु तत्थ सत्य कर्मलेश्यावांस्तं पुनर्जीवमात्मानं ( सर्विति) सह रूपेण कई" इत्यादि । भ०१८ श०१० उ० । रूपरूपवतोरनेदोपचाराच्चरीरेण वर्तते योऽसौ [समासान्तवि. [६] अनगारस्य जक्तप्रत्याख्यातुराहारः धिः] सरूपी, तं सरूपिणम्-सशरीरमित्यर्थः। अत एव सकजत्तपच्चक्खायए एं भंते ! अणगारे मुछिए अज्कोव- मलेश्यं कर्मलेश्यया सह वर्तमानं जानाति शरीरस्य चकुर्लाह्यवामे आहारमाहार, अहे णं वीससाए कालं करेइ, तो त्वाद् जीवस्य च कथंचिच्चरीराव्यतिरेकादिति "सरुर्वि सकम्मपच्छा अमुच्छिए पागके जाव अणकोववएणे आहार- लेसं ति" ज०१४ श०ए 801 (अनगारस्य अनायुक्तं गच्चतः महारोति । हंता गोयमा ! जत्तपञ्चक्खायए णं अणगारं तं क्रियाः 'किरिया' शब्दे तृतीयभागे वदयते) चेव । से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ जत्तपच्चक्खायएणं तं (ए) अनगारस्य नावितात्मनः क्रिया रायगिहे जाव एवं वयासी-अणगारस्स णं नंते ! भाचव। गोयमानत्तपच्चक्खायएणं अणगारे मुच्छिए जाव वियप्पणो पुरओमुहओ जुगमायाए पेहाएरीयंरीयमाणस्स अज्कोववएणे आहारे भवइ, अहे णं वीससाए कालं करेइ, नओ पच्छा अमुछिए जाव प्राहारे भवइ,से तेणड्ढे ८ जाव पायस्स अहे कुक्कुमपोते वा वट्टापोते वा कुलिंगच्छाए वा परियावजेजा, तस्स एं जंते ! किं इरियावहिया किरिया माहारमाहारेइ ॥ (भत्तस्यादि ) तत्र (भत्तपश्चक्खाए णं ति) अनशनी मूधि कम्जइ,संपराइया किरिया कज्ज ?। गोयमा! अणगारस्स तः संजातमू: जाताहारसंरक्षणानुबन्धस्तदोषविषये वा णं नावियप्पणो जाव तस्स णं शरियावाहिया किरिया कमूहः 'मुच्र्छा मोहसमुन्याययोः' इति वचनात् । यावत्करणा- ज्जा, णो संपराइया किरिया कजइ । से केणढे णं भंते ! विवं रश्यम-(गढिए) ग्रथित आहारविषयस्नेहतन्तुभिः स एवं बुखा। जहा सत्तमसए संमुद्देसए जाव अट्ठो णिदार्भतः, 'प्रन्थ श्रन्थ सन्दर्ने' इति वचनात् ।(गिक) गृशः प्राप्ताहार आसक्तः, अतृप्तत्वेन वा तद' काडावान् , 'गृथु'प्र क्खित्तो सेवं भंते ! नंतेत्ति जाव विहर। तए णं समणे भिकायाम्' इति वचनात् । (अज्कोवषमे ति) भभ्युपपत्रोप्रा. जगवं महावीरे जाव विहरइ ।। साहारचिन्तायामाधिक्येनोपपन्नः । आहारं वायुतैलाच्यादि- (पुरओ ति) अग्रतः (दुहओ सि) द्विधाऽन्तराऽन्तरा पार्श्वतः कम,मोदनादिकंवाऽज्यवहार्य तीवखुवेदनीयकर्मोदयावसमाधी पृष्ठनश्वेत्यर्थः (जुगमायाए ति) यूपमात्रया रया (पेहाए सि) सति तपशमनाय प्रयुक्तमाहारयत्युपभुक्ते (अहे वंति)प्रथा- प्रेक्ष्य (रीय ति) गतं गमनं, (रीयमाणस्सत्ति) कुर्वत इत्यर्थः । हारानन्तरं विनसया स्वभावत एष, (काहं ति) कालो मरणं, (कुखुम्पोप ति) कुक्टाझिम्नः ( बट्टापोए ति) वर्तका कानश्व कालो मारहास्तिकसमुद्रातः, तं करोति यानि तिम्रो पक्षिविशेषः । (कुसिंगाए वत्ति) पिपीलिकादिसरशः (पपचि) ततो मारवान्तिकसमुद्घातारपश्चात् तस्मारि रियावज्जति)पर्यापोत नियेत, (एवं जहा सत्रामसएश्त्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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