Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 1
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha

Previous | Next

Page 1007
________________ ( ८३८) असढ अनिधानराजेन्द्रः। असढकरण अह अहणगो वि हरिणा, हणिो सेलाइनारओ जाओ। इय चितिकण सम्म-सदाश्गुरुपासपत्तसामन्नो । सीहो भविय तहिचिय, पुणो वि पत्तो असुहाचित्तो ॥ ११४॥ नववन्नो गेपिज्जे, सो तए भासुरो अमरो ।। १३६।। तो हिंडिय भूरिभवे, तत्व य सोमसत्थवाहस्स। अस्थिह विदेहवासे, वासवदेहं व सज्जवजहरं । मंदिममारियाए, जाओ धणदेवनामसुभो ।। ११५ ॥ अंवयसहस्सकलियं, चंपावासं ति वरनवरं ॥ १४॥ असढसढमाणसाणं, तेसिं पाई परुप्परं जाया। तत्थाऽऽसि माणिजहो, जद्दोवज्जणमणो सया सिही। ते दविणज्जणमणसो, कया वि पत्ता रयणदीवे ॥११६ ॥ जिणधम्मरम्मकामा, तस्स पिया हरिमई नामा १४१ ।। कश्वयदिणेहि बलिया, सपुराभिमुई विढत्सबहुवित्ता। सो वीरदेवजीवो, तत्तो गेविज्जगाउ चविऊण । अह धणदेवो जाओ, नियमित्तपत्रचणप्पवणो ॥ ११७ ॥ नामेण पुन्नभद्दो, ताणं पुत्तो समुप्पन्नो ॥ १४२ ।। कम्मि वि गामे हट्टे, कराविया मोयगा वे तेणं । तणं च पढणसमए, घोसं पढममवि उच्चरतेण । इक्कम्मि विसं वित्तं, पयं मित्तस्स दाहं ति ॥ ११८ ॥ अमरु त्ति समुद्धवियं, बुधइ अमरो वि तेणेसो ॥ १४३॥ पाउलमणस्स जाओ, मग्गे इंतस्स तस्स वच्चासो। दोणो विमो धूमा-ऍ बारश्रयराज नारो जाओ। सुको सहिणो दियो, सयं तु विसमोयगो नुत्तो ॥ ११९ ॥ मच्छो सयंत्रमणे, नविउं तत्येव उववन्नो ।। १४४ ॥ अश्विसमविसविसप्पिर-गुरुवेयणपसरपरिगो झत्ति । भमिय भवे तत्थ पुरे, नंदावत्तऽभिदसिदिध्याए । धणदेवोपरि चत्तो, धम्मेण व जीविएणावि ॥ १२० ॥ सिरिनंदाप धूया, संजाया नंदयति ति ।। १४५ ।। बहु सोश्कण तस्स य, मयकिश्च काउणंऽगदेवो वि । भवियम्वयावसेणं, परिणीया सा न पुन्ननहेण । पत्तो कमेगा सपुरे, तन्नियगाणं कह सवं ॥ ११ ॥ सा पुवकम्मवसश्रो, जाया पश्वचणिक्कमणा ॥ १४६ ।। तेसिं पभूयदवं, दाउं पुच्छित्तु पियरपमुहजणं। से परियणेण कहिंयं, वदुत्तरकूडकवडनियडिकुमी । सो पुश्वगुरुसमीवे, गिपहर बयमुभयलोयहियं ॥ १२॥ सामिय! पिया तुहेसा, न य सहहिय पुणो तेणं ।। १४७॥ दुकरतवचरणपरो, परोवयारिकमाणसो मरिउ । कइया वि सब्बसारं, कुंमलजुयलं सय अवहरित्ता। गुणवीससागराऊ, पायणकप्पे सुरो जाओ ॥ १२३ ॥ पाउलहियय ब्व इमा, साहइ पणो पण ति ॥१४८॥ कालेण तो वि चओ, जंबुद्दीवम्मि परवयवासे । तेण वि नेहवसेणं, घमाविड नवयमप्पियं तं से। गयपुरनयरे हरिनं-दिसेठियो परमसकुस्त ॥ १२४॥ इय हरियमन्नमन्नं, तीए दिन्नं पुण इमेण ।। १४६॥ लनिमश्पणपणीए, जाओ पुत्तो य वीरदेवु सि । न्हाणावसरे कइया, मुद्दारयणं समप्पियं तीसे । सिरिमाणभंगसुहगुरु-समीवकयगिहिवनच्चारो॥१२५॥ संझाएँ मग्गियं पुण, सा आह कहिं विनणु पडियं ॥१५॥ धणदेवो वि हु तश्या, उक्कमबिसवेगपत्तपंचत्तो। तत्तो अइसनंतो, निनणं एसो निहाल गिहतो। नवसागरोवमाऊ, उववन्नो पंकपुढवीए ॥ १२६॥ भज्जाभरणसमुग्गे, नई दव्वं नियइ सव्यं १५१ ॥ पुणरवि भविय तुयंगो, दारुणवणदावदकुसब्बंगो। किं कुंमलाइ दब, गयं पिलर्क इमीगू न गयं वा। जामो तहिं चि किंचू-णअयरदसगाउ नेरो ॥ १२७ ।। करकलियदविणजाओ, एसो चितेइ सवियकं ।। १५२॥ तिरिएसु जमिय सो त-स्थ गयपुरे श्दंनागसिटिस्स। इत्तो य सा तहिं चिय, पत्ता इयरो य झत्ति नीहरिओ। नंदिमईभजाए, दोणगनामा सुमो जामो ।। १२० ।। कापड नंदयंती, धुवमिमिणा जाणिया अहयं ॥ १५३॥ पुबुत्तपीइजोगा, इगह ववहरंति ते दोवि । जा सयणाण वि मझे, नो उप्पाए लाघवं मऊ । वित्त बहुं विढतं, तो चिंतश् दोणगो पावो ॥ १२९ ।। सज्जो संजोइयक-म्मणेण मारेमि ताव इमं ॥ १५४ ।। कह एसो अंसहरो, हखियन्चो हुँ कराविलं शरिह । का तयं सयंचिय, अणेगमरणावहहि दवहिं। नवधवलहरं उच्च-त्तणेण नहमणुलिहंतं व ॥ १३०॥ तमिसम्मि संठवती, मका दुट्टेण सप्पेण ॥ १५५ ।। तत्थुवार शुवि अनोमय-कीलगजालानियंतियगवत्वं । पमिया धस त्ति धरणि, जाश्रो हाहारवो श्रामहतो। भोयणकप निमंति-तु वीरदेवं कुडुंबजुयं ॥ १३१ ।। तत्थागो पई से, पाहूया पवरगारुडिया ॥ १५६॥ तो से दंसिस्समिम, रमणीयत्ता सयं स प्रारुहिही। सब्वेसि नियंताण वि, खणेण निहणं गया गया पावा। खडहडिकण निवडिही, पाणेहि वि कत्ति मुच्चिहिदी ।१३२॥ उठीप पुढवीप, पुरो नमिही अणतभवं ।। १५७ ।। श्रह निविवायमेसो, बिहवनरो मज्झ चेव किर होही। तं दट्ट पुग्नभद्दो, सोयजुओ ती काउ मयकिच्चं । नय को जणचवाओ, श्य चिंतिय कार तहेव ॥ १३३ ।। बेरमगभावियमणो, जाडो समणो विजियकरणो ।। १५८ ।। जा भुत्तुत्तरमेर, दुवे विधवलहरसिहरमारुढा। सुक्ककाणानसद-सयलकमिंधणो धुणियपावो । सश्मश्रहिश्रो दोणो, अणपसंकप्पभरियमणो ॥ १३४॥ सो जयवं संपत्तो, लोयग्गसुसंठियट्ठाणं ॥ १५६ ।। भा मित्त! पहिश्य, निजूहे विससु जपिरो तत्थ । निरुनिश्वेयनिमित्तं, पकित्तिया पुरिमपच्छिमिल्लभवा । सयमारूढो इको, पडिप्रो मुक्को य पाणेहि ॥ १३५।। इहयं असढगुणम्मी, पगयं पुण चक्कदेवेण ॥ १६० ।। हाहारवमुद्दलमुहा, तुरिय उत्तरिय वीरदेवो वि। ति फलमातरम्यं चक्रदेवस्य सम्यक, जा नियर ता पदिट्ठो, मित्तो पंचत्तमघुपत्तो ॥ १३६ ॥ प्रतिभवमाप धान्यं भावभाजो निशम्य । हा मित्त ! मित्तवच्चल, उन्नदूसणरहिय ! रहियनयमको । भवत भविकलोका: स्पटसंतोषपोषाः, कथमपि हि परेषां वञ्चनाचचवो मा ॥१६१॥ इय यदुविहं पलिविउं, मयकिच्चं कुणइ सो तस्स ॥१३७॥ जललवतरले जीए, विज्जुलयाचंचलम्मि तरुणत्ते । ॥ इति चक्रदेवचरितं समाप्तम् ॥ को नाम गेहवासे, पमिबंधं कुणइ सवियेश्रो ॥ १३८ ।। असढकरण-असठकरण-पुं० । मायामविप्रयुक्तो भूत्वा य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 1005 1006 1007 1008 1009 1010 1011 1012 1013 1014 1015 1016 1017 1018 1019 1020 1021 1022 1023 1024 1025 1026 1027 1028 1029 1030 1031 1032 1033 1034 1035 1036 1037 1038 1039 1040 1041 1042 1043 1044 1045 1046 1047 1048 1049 1050 1051 1052 1053 1054 1055 1056 1057 1058 1059 1060 1061 1062 1063 1064