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वादसंग्रह
(१) कूपदृष्टान्तविशदीकरण (२) वादमाला (२)
(३) विषयतावाद (४) वायूष्मादेः प्रत्यक्षाप्रत्यक्षत्वविवादरहस्यम्
(५) वादमाला (३)
-: प्रणेता :न्यायाचार्य-न्यायविशारद स्वपरसमयरहस्यवेदि-तर्कमहोदधि श्रीमद् यशोविजय उपाध्याय
(वि. सं. १६६०-१७४४)
प्रकाशक:
भारतीयप्राच्यतत्त्वप्रकाशनसमिति-पिंडवाडा
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॥ श्री महावीराय नमः ॥
न्यायाचार्य-न्यायविशारद-स्वपरसमयरहस्यवेदिश्रीमद् यशोविजयोपाध्यायविरचित * वादसंग्रह *
(१) कूपदृष्टान्तविशदीकरण
(२) पापमाला (२) (३) विषमतावाद
(४) वायूष्मादेः प्रत्यक्षाऽप्रत्यक्षत्वविवादरहस्य
(५) वादमाला (३)
प्रकाश
भारतीय प्राच्य तत्त्व- प्रकाशन समिति पिंडवाड़ा स्टे. - सिरोहीरोड़ (राज.)
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वीर सं० २५०१ विक्रम सं. २०३१
प्राप्तिस्थान:शा. रमणलाल बजेचन्द मस्कती मार्केट अहमदाबाद
द्रव्य सहायक:मनालाल रिखबाजी लुनावावाला
सर्वाधिकाराः श्रमणप्रधानश्रीजैनसङ्घस्य स्वायत्ताः
मूल्य-रू. १०-००
मुद्रकज्ञानोदय प्रिन्टिंग प्रेस पिंडवाड़ा स्टे.-सिरोहीरोड
(राजस्थान)
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प्रस्तावना
परम पूज्य तार्किक शिरोमणि उपाध्याय श्रीमद् यशोविजय महाराज की प्रतिभा के पञ्च पुष्प महनीय श्री जैन संघ की सेवामें समर्पित करते हुए प्राज आनन्द का अनुभव हो रहा है ।
प्रस्तुत पुस्तक में अद्यावधि अप्रकाशित ४ ग्रन्थ और अपूर्ण प्रकाशित १ ग्रन्थ का समावेश किया गया है।
ग्रन्थकार परिचय . इस वादसंग्रह के प्रणेता हैं पूज्य उपा० श्री यशोविजयजी महाराज जिनका जन्म उत्तर गुजरात में कनोडु गांव में और स्वर्गवास वि० स १७४४ में दर्भावती (डभोई) गाँव में हुआ था।
बालवय में दीक्षा ग्रहण कर इस महर्षि ने जैन ग्रन्थों का तलस्पर्शी अध्ययन किया और उनको अप्रतिम प्रतिभा देखकर परसमय के अध्ययन के लिये उनके गुरुदेव श्रीनय विजयजी म. उनको काशी में ले गये। वहाँन्याय-वैशिषिक इत्यादि दर्शनों के सिद्धान्त का तलस्पर्शी अध्ययन किया और निराश बने हुए वादीओं की सभा में दर्जय वादी को पराजय देकर जन शासन की विजय पताका को गगन में लहराया। जीवन के अन्तिम श्वास तक बाल और विद्वद्गण भोग्य अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। अपनी प्रतिभा और शक्ति का सदुपयोग करके जैन शासन की कोत्ति में चार चांद लगाये।
१-कूपदृष्टान्तविशदीकरण (पृष्ठ-१ से २८) . प्रतिपरिचयादिः
हालाँकि यह प्रकरण पहले जैन ग्रन्य प्रकाशक सभा-राजनगर द्वारा प्रकाशित हुआ था लेकिन वह अपूर्ण था-इसका कारण यह
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है कि जिस मूलावर्श प्रति से उसका सम्पादन हुआ था उस मूलादर्श प्रति में उस समय पूर्णतया ३ पत्र गैरहाजिर थे। यह प्रति देवशापाडा (अहमदाबाद) के प्राचीन हस्तप्रतों के भंडार में आज भी सुरक्षित है और संघ के सौभाग्य से वे ३ पत्र जो पहले नहीं थे वे भी उसमें शामिल है। उसमें कुल ६ पत्र हैं जिसमें तीन का अङ्क दो बार है । प्रति के हस्ताक्षर से अनुमान किया जा सकता है कि यह प्रति उपाध्याय यशोविजय म. के गुरुजी श्रीनयविजयजी महाराज ने लिखी होगी। हाल इसके अलावा दूसरी कोई प्रति इस प्रकरण की उपलब्ध नहीं हो रही है । इसीलिये केवल. एक ही प्रप्ति के आधार पर इस प्रकरण का सम्पादन हुआ है।
पृष्ठ ६ में प्रथम पंक्ति में 'क्षणसाड्रा से लगा कर पृष्ठ ११ में तुक्ति आसरकप्रकाशित में नहीं
'
कौंस में अनुमान से पाठ जोड दिया था। पुनः पृष्ठ १६ पंक्ति ९ में । 'षय आरम्भः' से लगाकर सम्पूर्ण ग्रन्थ पूर्व प्रकाशन में नहीं छप सका था। श्रीसंघ के सौभाग्य से यहाँ सम्पूर्ण प्रकरण का प्रकाशन हो रहा है।
कूपदृष्टान्त नामप्रन्थकार ने मूल और टीका इन दो विभाग में प्रन्थ का प्रणयन किया है। यद्यपि टीका के दूसरे श्लोक में श्री उपाध्यायजो इस प्रन्य का 'तत्त्वविवेक' अभिधान सूचित कर रहे हो ऐसा लगता है फिर भी मूल के प्रथम श्लोक में कुपदृष्टान्त विशदीकरण को प्रतिज्ञा होने से और पूर्व प्रकाशन में भी इसका यह अभिधान ख्यात होने से इस ग्रन्थ का नाम 'कूपदृष्टान्तविशदीकरण' ही रखा गया है।
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कूपदृष्टान्त का विषयः
अपनी प्रतिज्ञा को स्पष्ट करते हुए पू. उपाध्यायजी दूसरे श्लोक में कहते हैं कि गृहस्थों से किया गया स्नान पूजादि द्रव्यस्तव करने द्वारा अपने को और अनुमोदना द्वारा स्वपर उभय को पुण्य का कारण होता है। इस प्रतिज्ञा के समर्थन में कूपखनन को बताया गया है-जैसे निर्मल जल निष्पादन द्वारा वह स्वपर उभय का इहलोक में कल्याणकारी होता है।
इस प्रतिज्ञा के खण्डन के लिये किसी ने यह आशंका की है कि "पूजा पञ्चाशक की दसवीं गाथा की व्याख्या में श्री अभयदेवसूरि महाराज ने द्रव्यस्तव में अल्पदोष भी बताया है-वह आपने क्यों नहीं बताया ?" .
.. इस आशंका के समाधान में पू० उपाध्यायजी महाराज ने पू० अभयदेवसूरि महाराज के अभिप्राय को बताते हुए कहा है कि वह जो अल्पदोष बताया गया हैं वह तो भक्ति होने पर भी यदि यतनादि विधि का पालन न किया हो तभी होता है । यदियतनादि विधि पूर्वक स्नानपूजादि किया जाय तो द्रव्यस्तव नितान्त निष्पाप है । पू. उपाध्यायजी महाराज ने पू० हरिभद्रसूरि महाराज के 'पूजा पञ्चाशक' की ४२ वीं गाथा गत 'कथञ्चिद्' वचन की अन्यथाऽनुपपत्ति द्वारा इस का समर्थन किया है। आगे जाकर स्थान स्थान पर भगवतीसूत्र उपदेशपद और पञ्चाशकषोडशक आदि अनेक ग्रन्थों के उद्धरण देकर और अनेक अकाट्य युक्तियों द्वारा विधियुक्त द्रव्यस्तव की निर्दोषता का समर्थन किया है । इसमें प्रसङ्ग से दुर्गतनारी का भी विस्तार से उदाहरण दिया गया है। प्रसङ्ग से ध्र वबन्धादि प्रक्रिया को भी बताई गई है।
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२- वादमाला (२) (पृष्ठ २३ से ५८ )
प्रतिपरिचयादि:
इस ग्रन्थ के आगे ( ( २ ) ' इसलिये दिया है कि पहले पू. उपाध्यायजी महाराज की एक वादमाला का प्रकाशन हो चूका है और शेष दो वादमाला जिसका प्रकाशन अद्यावधि न हुआ है उनको नम्बर ( २ ) और (३) लगाकर यहां प्रकाशन किया गया है ।
वादमाला ( २ ) की मूलादर्शप्रति पू. उपाध्यायजी के स्वहस्ताक्षर से अङ्कित है और आज देवशा का पाडा (अहमदाबाद) के भंडार में सुरक्षित है जिसमें ६ पत्र हैं ।
ग्रन्थविषय:
esiden
इसमें पूज्य उपाध्यायजी ने (१) स्वत्ववाद और ( २) सन्निकर्षवाद- इन दो वादों को निबद्ध किया है ।
प्रथम में स्वत्वरूप पदार्थ अतिरिक्त है या सबन्धविशेषरूप है या क्या है ? इस विषय में नैयायिक सम्प्रदाय-नव्यमत- लीलावती उपाय-पदार्थतत्त्वविवेककृत् - रामभद्रसार्वभौम इत्यादि के भिन्न भिन्न मतों का निरूपण और उसका निराकरण बताया है। इसमें अपना कुछ मत पू० उपा० ने दिखाया हो ऐसा लगता नहीं है फिर भी सूक्ष्मेक्षण करने से लगता है कि अतिरिक्तस्वत्व में ही उपाध्यायजी का स्वरस हो । 'स्वत्व' के निरूपण के बाद 'स्वामित्व' का भी विस्तार से निरूपण किया है ।
द्वितीय सन्निकर्षवाद में द्रव्यचाक्षुष के प्रति चक्षुसंयोगहेतुता का विचार किया गया है जिसमें भिन्न भिन्न नैयायिक वादिओ में परस्पर मत भेद - खंडन का निरूपण किया है । इस वाद में सर्वथा पर समय की मान्यता का ही निदर्शन है । उपाध्यायजी का अपना मत लगता नहीं है ।
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(३) विषयतावाद (पृष्ठ-५६-७८) प्रतिपरिचयादि:
इस वाद की दो हस्त प्रत हमें उपलब्ध हुई।
१ खंभात जैन अमरशाला स्थित ज्ञानभंडार की-जिसको खं'० संज्ञा से यहाँ व्यक्त किया है । यह प्रति पू. उपाध्यायजी के स्वहस्ताक्षरों से अलकृत है।
- २-अहमदाबाद देवशापाडा भंडार की प्रत-जिसको 'हे'० संज्ञा दी गई है। वं० प्रति में कुल ५ पत्र है और दे० में ४ पत्र है।
इस वाद के प्रकाशन में मुख्यतया खं० प्रति का ही आधार लिया गया है और दे० प्रति के पाठान्तर नीचे दिये गये हैं। यह पाव वावमाला के अन्तर्गत नहीं है।
वाद का विषय इस बाद में विषयता स्वरूपसम्बन्धविशेषरूप है इस प्राचीन मत का खण्डन कर के अतिरिक्तपदार्थ रूप विषयता का मण्डन किया गया है । विषयता के दो भेद का निरूपण करने के बाद विशेष्यता-प्रकारता-अवच्छेदकता--उद्देश्यता-विधेयता-आपाद्यता इत्यादि पर पर्याप्त आलोचन किया हुआ है ।
४-वायूष्मादेःप्रत्यक्षाऽप्रत्यक्षत्वविवादरहस्य प्रतिपरिचयः
इस रहस्यवाद की एक मात्र प्रति खंभात के जैन अमरशाला के भडार से प्राप्त हुई है । जिसमें ४ पत्र है। इस प्रति में हस्ताक्षर पू० उपाध्यायजी के हैं या दूसरे के इसमें सन्देह है फिर भी. प्रति का लेखन काल वही प्रतीत होता है जो पू० उपाध्यायजी का जीवन काल है।
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वादविषयः
इस वाद में मुख्यतया "वायु का स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं होता है" इस नैयायिक सिद्धान्त का पू० उपा० म० ने खण्डन किया है। वायु के स्पार्शनप्रत्यक्ष के विघटन के लिये भिन्न भिन्न नैयायिक आदि ने जो द्रव्यप्रत्यक्ष में उद्भतरूप हेतुता आदि का निरूपण किया है इन सभी मतों की आलोचना कर के पू० उपा० ने 'मैं वायु को स्पर्श करता हुँ' इत्यादि प्रतीति की भ्रान्तता का निराकरण करके उसके बल से वायुस्पार्शनप्रत्यक्ष का समर्थन किया है।
५-वादमाला (३) (पृष्ठ ११ से २४१) प्रतिपरिचयादि:
पू० उपाध्यायजी म. ने ३ वादमाला का प्रणयन किया है उसमें इस वादमाला को हमने 'तृतीय' संज्ञा दी है।
इस वादमाला को पू० उपाध्यायजी ने लिखी हुई हस्तप्रत 'विमलगच्छीयमहेन्द्रविमल' के ज्ञान भंडार से हमें प्राप्त हुईजो ज्ञान भंडार आज अहमदाबाद में एल० डी० इन्स्टीट्युट में स्थित है । इस वादमाला की प्रत में कुल ११ पत्र हैं।
विषयः-वादमाला (३) में कुल ६ वाद है जिसमें भिन्न भिन्न पदार्थों का निरूपण किया है।
१-'वस्तु लक्षण विवेचन' नामक वाद में पू० उपा० ने सामान्यविशेषात्मकत्व को वस्तु का लक्षण बताया है। सामान्य और विशेष के स्वरूप का निदर्शन करने के बाद उस लक्षण की परीक्षा में अनेक अनुपपत्तियाँ का खण्डन करके और साथ साथ दीधितिकारविद्योतन-धर्मभूषण आदि के मत का भी आलोचन करके पू० उपाध्यायजी म० ने अपने लक्षण को स्थिर किया है।
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२ - सामान्यवाद में जनमतानुसार- 'वस्तु के समान परिणाम' को सामान्य पदार्थ बताया है। उसके बाद नैयायिक बौद्ध आदि के अभिमत सामान्य पदार्थ का मण्डन और खण्डन किया है । अन्त में उन्होंने बताये हुए लक्षण को आदरणीय बता कर उसकी उपपत्ति के लिये युक्तियाँ दी गई हैं और साथ साथ अन्य दार्शनिकों ने बताये हुए बाधकों का निराकरण कर दिया है ।
३ - विशेषवाद में नैयायिक अभिमत विशेषपदार्थ में अनेक बाधकों को बताकर जैन मतानुसार 'वस्तु के व्यावृत्ति अंश' को ही विशेष पदार्थ बताया गया है । उसके बाद उसमें बाधक युक्तियों का खण्डन करके उसका संयुक्तिक समर्थन किया गया है।
४ - इन्द्रियवाद में पहले सांख्य के अभिमत वाक्-हस्त आदिके इन्द्रियत्व का बाधकों द्वारा निराकरण करके जैन मतानुसार स्पर्शन आदि पाँच में इन्द्रियत्व का समर्थन किया है। बाद में मन को भी इन्द्रिय मानने वाले नैयायिक मत का पूर्वपक्ष कर के उसका बाधक युक्तियों द्वारा निराकरण किया गया है। उसके बाद जैन मतानुसार द्रव्य भाव रूप इन्द्रियों के भेदों का सविस्तर विवेचन किया गया है।
५- अतिरिक्तशक्तिवाद में शक्ति को भिन्न पदार्थ न मानने वाले वैशेषिक आदि के पदार्थषटक विभाग का पहले खण्डन किया गया है । इसके बाद प्रतिबन्धक के अभाव से शक्ति को चरितार्थ करने वाले प्राचीन और नव्य नैयायिकों के मत की समीक्षा कर के स्याद्वादरत्नाकर आदि के आधार से 'शक्ति भिन्न पदार्थ है' इस सत्य का सविस्तर समर्थन किया गया है। इस वाद में प्रसङ्ग से प्रतिष्ठित और शाश्वत प्रतिमाओं की पूज्यता के प्रयोजक धर्म पर विचार किया गया है और उसमें मिमांसक और चिन्तामणिकार के मत की समालोचना भी की गई है।
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६-अदृष्टवाद में शभाशभक्रियाजन्य पुण्य और पापरूप अदृष्ट को नहीं मानने वाले नास्तिक मत का खण्डन किया गया है । अदृष्ट की सिद्धि के लिये युक्तियां बताकर बीच में शुभाशुभ क्रिया के ध्वंस से ही अदृष्ट को चरितार्थ करने वाले उच्छङ्कलविचारकों के मत का खण्डन किया है। ___अष्ट सिद्ध होने के बाद उसको पौद्गलिक नहीं किन्तु आत्मा के विशेषगुण रूप मानने वाले नैयायिको के मत में अनेक बाधक युक्तियाँ बताकर अदृष्ट के पौदगलिकत्व की सिद्धि की गई है। .. अन्त में हमारी ओर से इस वादसंग्रह गत विशेषनामों की सूचि और शुद्धिपत्रक भी दिया हुआ है।
उपकार स्मरण १-५० पू० स्व० कर्मसिद्धान्तमहोदधि आचार्यदेवेश श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी म. सा., ___ २-प० पू० न्यायविशारद आचार्यदेव श्रीमद् विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी म. सा०,
३-५०पू० शान्तमूत्ति श्री धर्मघोष वि०म० सा० ४-और प० पू० गीतार्थ मुनि भगवन्त श्री जयघोष वि०गणिवर
ये सभी हमारे पुज्य गुरुदेवों की अनहद कृपा-जिसके प्रभाव से ये सभी प्रकरणों का प्रकाशन हो सका-मैं कभी भूल नहीं सकता।
धन्यवाद वितरण १-लुनावा (राज०) निवासी श्रेष्ठी मनालाल रिखबाजी जिन्होंने इस ग्रन्थसंग्रह के प्रकाशन के द्रव्य व्यय का अमूल्य लाभ लिया।
. २-(a)खंभात-जैन अमरशाला के भंडार के सुश्रावक व्यवस्थापकगण-तथा (b) अहमदाबाद-देवशापाडा भंडार के सुश्रावक कार्यवाहक गण तथा (6) एल० डी० इन्स्टीट्यूट के डायरेक्टर-जिन्होंने
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अपने अपने भंडार में स्थित अमूल्य हस्तप्रतों को प्रतिलिपि करने के लिये हमें समर्पित किया ।
३-मारतीय प्राच्यतस्व प्रकाशन समिति के सञ्चालक सुश्रावक मण-जिन के परिश्रम से नवनिर्मित कर्मसिद्धान्त के अनेक ग्रन्थों का पूर्व में प्रकाशन हो चूका है-और इस ग्रन्थसंग्रह का मी प्रकाशन हो रहा है।
४-ज्ञानोदय प्रि. प्रेस के मेनेजर सुश्रावक फतेहचन्दजी और पिण्डवाडा धामिक पाठशाला के शिक्षक अफरिडिंग सहायक सुश्रावक चम्पकलालजी जिन्हों के उत्साहपूर्ण सहयोग से इस ग्रन्थ का शुद्धतया मरण हो सका। ये सब धन्यवाद के पात्र है।
शुभेच्छा पूर्वाचार्य महषिओं ने मुमुक्षु साधु और श्रावक गण स्वाध्याय द्वारा अपने चित्त को एकाग्र बमा कर कर्मनिर्जरा की साधना करें यह एकमात्र उद्देश्य से भिन्न भिन्न बहुधा असावध विषयों पर अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया। श्री जैन संघ ने तन-मन और धन के उचित व्यय से अनेक ग्रन्थ भंडारों का निर्माण कर के उस प्रन्थ राशि का संरक्षण किया और आज भी ये दोनों कार्य चालु है। इन ग्रन्थ भंडारों में सञ्चित इस अमूल्य वाद संग्रह का प्रकाशन हुआ है-तो यह शुभेच्छा की अधिकारी मुमुक्षु गण इसके स्वाध्यायादि सदुपयोग द्वारा सन्मार्ग की उपासना कर के मिथ्या कदाग्रहों के विष का वमन कर के अपने शाश्वत कल्याण की ओर आगे कूच करें। सं० २०३१ जैननगर उपाश्रय
-जयसुन्दरविजय पालडी-अहमदाबाद )
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ॐ विषयसूचि विषयः
पृष्ठ विषयः १ कूपदृष्टान्तविशदीकरणम् १ | १६ स्वत्ववादः २ मङ्गल-प्रतिज्ञा-प्रथमगाथा १ । १७ सन्निकर्षवादः ३ द्रव्यस्तवस्य स्वपरोपकार. १८ विषयतावादः
जनकत्वं-द्वितीयगाथा २ | १६ विषयताद विध्यम् ४ ईषद्दुष्टत्वकथनाभिप्राये २० विशेष्यताद्वविध्यम् तृतीयगाथा
४ २१ उद्देश्यताविचारः . ६६ ५ कथश्चिद्वचनयोजना ५ २२ आपाद्यताविचारः ७४ ३ यतनादिसत्त्वे द्रव्यस्तवे | २३ वायूष्मादेः प्रत्यक्षाऽप्रत्य.
दोषामावसमर्थनम् ६ । क्षत्वविवादरहस्यम् ७६ ७ दुर्गतनारीज्ञातम्
| २४ वायुस्पार्शनसाक्षात्कार८ नयभेदेन शुद्धाशुद्धयोग- । समर्थनम् निरूपणम्
( २५ वादमाला (३) १ अविधियुतपूजायाः दुष्ट- २६ वस्तुलक्षणविवेचनम् त्वविचारः
१४ | २७ सामान्यवादः १० द्रव्यस्तवे आरम्भे सपापत्वे २८ विशेषवादः
स्थूलसूक्ष्मानुपपत्ती २६ वागादीनामिन्द्रियत्वनि११ आरम्मोऽप्यनारम्भः १७ राकरणवादः ११२ १२ ध्रुवन्धिपापहेतुत्वकथ- ३० अतिरिक्तशक्तिवादः १२० नानौचित्यम्
३१ अदृष्टसिद्धिवादः १३३ १३ ध्रुवबन्धादिप्रक्रिया २० | ३२ वाद्रसङ्गहगतविशेषनाम १४ कूपदृष्टान्तमूनम्
१४२ १५ वादमाला (२) २६ | ३३ शुद्धिपत्रकम् १४४
६१
१०६
| सूचिः
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वीतरागाय नमः महोपाध्याय-श्रीमद्यशोविजयगणिसुदेशित ॥ कूपदृष्टान्त विशदीकरण-प्रकरणम् ॥
ऐन्द्रश्रीयत्पदाब्जे विलुठति सततं राजहंसीव यस्य, ध्यानं मुक्तेनिंदानं प्रभवति च यतः सर्वविद्याविनोदः । श्रीमन्तं वर्धमानं त्रिभुवन-भवनाभोग-सौभाग्य लीलाविस्फूर्जत्केवलश्रीपरिचयरसिकं तं जिनेन्द्रं भजामः ॥१॥ सिद्धान्तसुधास्वादी, परिचितचिन्तामणिर्नयोल्लासी । तत्व विवेक कुरुते न्यायाचार्यो यशोविजयः ॥२॥
तत्रेयमिष्टदेवतानमस्कारपूर्वकं प्रतिज्ञागर्भा प्रथमगाथानमिऊण महावीरं. तियसिंद-मंसियं महाभागं । विसईकरेमि सम्मं, दव्वथए कूवदिळंतं ॥१॥
व्याख्या-नत्वा महावीरं त्रिदशेन्द्रनमस्कृत, महाभागमहानुभावं, महती आभा केवलज्ञानशोभा तां गच्छति यः स तथा तमिति वा । विशदीकरोमि निश्चितप्रामाण्यकज्ञानविषय. तया प्रदर्शयामि । सम्यक् असम्भावना-विपरीतभावनानिरासेन । द्रव्यस्तवे, स्वपरोपकारजनकत्वानिर्दोषतया साध्ये इति शेषः । कूपदृष्टान्तं-अवटदृष्टान्तं, 'धूमवत्त्वादहिमत्तया साध्ये
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[ कूरदृष्टान्तपर्वते महानसं दृष्टान्त' इतिवदयं प्रयोगः । अत्र च भगवतश्चत्वारोमूलातिशयाः प्रतिपादिताः । तथाहि-महावीरमित्यनेन "विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च, तस्माद्वीर इति स्मृतः ॥१॥" इति निरुक्तात्सकलापायमूलभूतकर्मविदारणक्षमतपोवीर्यविराजमानत्वाभिधानादपायापगमातिशयः १, त्रिदशेन्द्रनमस्कृतमित्यनेन पूजातिशयः २, महाभागमित्यनेन ज्ञानातिशयः प्रतिपादितः ३, वचनातिशयश्च सामर्थ्यगम्य इति ४ ॥१॥
प्रतिज्ञातमेवाहसपरोवयारजणगं. जणाण जह कूवखणणमाइठं ॥ अकसिणपवत्तगाणं तह पव्वथओवि विणेओ।।२।।
व्याख्या-यथा जनानां कूपखननं निर्मलजलोत्पादनद्वारा स्वपरोपकारजनकमादिष्टम् , एवं अकृत्स्नप्रवर्तकानां कृत्स्नसंयमेऽप्रवृत्तिमतां गृहिणां द्रव्यस्तवोऽपि स्नानपूजादिकः करणानुमोदनद्वारेण स्वपरयोः पुण्यकारणं विज्ञेयः । दृष्टान्ते उपकारो द्रव्यात्मा, दार्शन्तिके च भावात्मेतिभावः ॥२॥
नन्वियं योजनाऽभयदेवसूरिणेव(चतुर्थ) पञ्चाशकवृत्तौ दृषिताऽन्यथायोजना च कृता । तथाहि-म"न्हाणाइवि जयणाए, आरंभवओ गुणाय णियमेणं । सुहभावहेउओ खलु विण्णेयं कूवणाएणं ॥१०॥" स्नानाद्यपि-देहशौचप्रभृतिकमपि आस्तां
भइत आरभ्य द्वितीयस्वस्तिकान्तः पञ्चाशकवृत्तिपाठः ।
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विशदीकरण-श्लो० २ ] पूजार्चादि, आदिशब्दाद्विलेपनादिग्रहः, गुणायेति योगः, यतनया रक्षयितु शक्यजीवरक्षणरूपया । तत्किं साधोरपीत्याशङ्कयाह-आरम्भवतः स्वजनधनगेहादिनिमित्तं कृष्यादिकर्मभिः पृथिव्यादिजीवोपमर्दयुक्तस्य गृहिण इत्यर्थः। न पुनः साधोः,तस्य सर्वसावद्ययोगविरतत्वाद्भावस्तवारूढत्वाच्च । भावस्तवारूतस्य हि स्नानादिपूर्वकद्रव्यस्तवोऽनादेय एव, भावस्तवार्थमेव तस्याश्रयणीयत्वात्तस्य च स्वत एव सिद्धत्वात् । इमं चार्थ प्रकरणान्तरे स्वयमेव वक्ष्यतीति । गुणाय पुण्यवन्धलक्षणोपकाराय, नियमेन अवश्यम्भावेन । अथ कथं स्वरूपेण सदोषमप्यारम्भिणो गुणायेत्याह - 'सुहभावहेउओ' त्ति लुप्तभावप्रत्ययत्वेन निर्देशस्य, शुभभावहेतुत्वात्-प्रशस्तभावनिवन्धनत्वाज्जिनपूजार्थस्नानादेः, अनुभवन्ति च केचित्स्नानपूर्वकं जिनार्चनं विदधानाः शुभभावमिति । खलुक्यालङ्कारे, विज्ञेयं ज्ञातव्यम् । अथ गुणकरत्वमस्य शुभभावहेतुत्वात्कथमिव ज्ञेयमित्याह-कूपज्ञातेन-अवटोदाहरणेन । इह चैवं साधनप्रयोगः ‘गुणकरमधिकारिणः किञ्चित्सदोषमपि स्नानादि, विशिष्टशुभभावहेतुत्वाद्, यद् विशिष्टशुभभावहेतुभूतं तद् गुणकरं दृष्टं यथा कूपखननं, विशिष्टशुभभावहेतुश्च यतनया स्नानादि,ततोगुणकरमिति' । कूपखननपक्षे शुभभावः तृष्णादिव्युदासेनाऽऽनन्दाद्यवाप्तिरिति । इदमुक्तं भवति, यथा कूपखननं श्रमतृष्णाकर्दमोपलेपादिदोषदुष्टमपि जलोत्पत्तावनन्तरोक्तदोषा
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४]
[ कूप दृष्टान्तनपोह्य स्वोपकाराय परोपकाराय च भवत्येवं स्नानादिकमप्यारम्भदोषमपोह्य शुभाध्यवसायोत्पादनेन विशिष्टाशुभकर्मनिर्जरणपुण्यबन्धकारणं भवतीति ।
ह केचिन्मन्यन्ते- पूजार्थस्नानादिकरण कालेऽपि निर्मलजलकल्पशुभाध्यवसायस्य विद्यमानत्वेन कर्दमलेपादिकल्पपापाभावाद्विषममिदमुदाहरणम् , ततः किलेदमित्थं योजनीयं यथा कूपखननं स्वपरोपकाराय भवत्येवं स्नानपूजादिकं करणानुमोदनद्वारेण स्वपरयोः पुण्यकारणं स्यादिति । नचैतदागमानुपाति, यतो धर्मार्थप्रवृत्तावप्यारम्भजनितस्याल्पस्य पापस्येष्टत्वात्, कथमन्यथा भगवत्यामुक्तं "तहारूवं समणं बा माहणं वा पडिहयपञ्चक्खायपावकम्मं अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलामेमाणे भंते ! किं कज्जड १ गोयमा ! अप्पे पावे कम्मे बहुत रया से णिज्जरा कज्जह" । तथा ग्लानप्रतिचरणानन्तरं पञ्चकल्याणकप्रायश्चित्तप्रतिपत्तिरपि कथं स्यात् ? इत्यलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थ इति"ॐ ॥२॥
तदेतन्निनुवां कूपदृष्टान्तविशदीकरणं काकपक्षविशदीकरणवदुपहासपात्रतामभिव्यनक्ति, स्वसम्मताभियुक्तवचनविरुद्धत्वादित्याशङ्कायां नाभियुक्तवचनविरोधो बोधोन्मुखानामवभासते, तस्य भिन्नतात्पर्यकत्वादित्याशयवानाइइसिं दुहत्ते जं, एयरस नवंगिवित्तिकारेणं । संजोयणं कयंत, विहिविरहे भत्तिमहिकिच ॥३॥
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विशदीकरण-श्लो० ३-४ ]
[५ ___ व्याख्या-ईषदुष्टत्वे अल्पपापबहुनिर्जराकारणत्वे, यद् एतस्य-कूपदृष्टान्तस्य, नवाङ्गीवृत्तिकारेण श्रीअभयदेवसूरिणा पश्चाशकाष्टकवृत्त्यादौ (संयोजनं कृतं), तद्विधिविरहे यतनादिवैकल्ये, भक्तिमात्रमधिकृत्य । विधिभक्त्यादिसाकल्ये तु स्वल्पमपि पापं वक्तुमशक्यमेवेति भावः ॥३॥
कथमयमाशयः सूरेति इति चेत् १, तत्राहइहरा 'क'हंचि' वयणं, कायषहे कह णु होज पूयाए। न य तारिसो तवस्सी, जंपइ पुव्वावरविरुद्धं ॥४॥
व्याख्या-इतरथा सूरेरुक्ताशयाभावे, पूजायां कायवधे 'कथञ्चिद्'वचनं कथं नु भवेत् ? न कथञ्चिदित्यर्थः । न च तादृशस्तपस्वी पूर्वापरविरुद्धं वचनं जल्पति । तस्मादीषदोषदुष्टं जिनपूजादिकं विधिविरहभक्तिकालीनमेव ग्राह्यमित्याशय एव युक्तः ।
अयं भावः-पूजापञ्चाशके जिनार्चने कायवधेन प्रतिक्रुष्टेन दुष्टत्वात्कथं परिशुद्धत्वमित्याशङ्कायाम् “भण्णइ जिणपूजाए, कायवहो जइवि होइ उ कहंचि । तहवि तई परिसुद्धा, गिहीण कूवाहरण जोगा॥४२॥” इति श्रीहरिभद्रसरिभिस्समाहितम् । तत्र च 'यतनाविशेषेण प्रवर्त्तमानस्य सर्वथापिन भवती' ति दर्शनार्थ कथञ्चिद्ग्रहणमित्यभयदेवसू रभिर्याख्यातम्, तेन विधिविरह एव कायवधः पर्यवस्यति । 'प्रमादयोगेन
१ पूजापञ्चाशः ४२ गाथायां हरिभद्रसूरिवचनमिदम् ।
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[ कूपदृष्टान्त
प्राणव्यपरोपणं हिंसे"ति (७-८) तत्वार्थोक्तहिंसालक्षणसद्भावात् हिंसारूपस्यैव कायवधस्यात्र प्रतिषेध्यत्वात् । जलपुष्पोपनयनादिरूपस्य च पूजाभ्यन्तरीभूतस्य "देहादिनिमित्तं पि हु जे कायवहंमि तह पयन्ति । जिणपूआकायवहंमि तेसिमपवत्तणं मोहो"(पू.पश्चा.४५)। इत्यादिना उपत्यकरणस्याप्यनुज्ञान त् , अप्रवृत्तिनिन्दार्थवादस्य विध्याक्षेपकत्वात् । विधिस्पष्टे च निषेधानवकाशात् । यदि च विधिसामग्र्येऽपि पुष्पजलोपहारादिरूपहिंसादोषोऽत्र परिगण्येत , तदा तस्य पूजानान्तरीयकत्वेन "कायवहो जइवि होइ उ कहंचि" ति नावक्ष्यदाचार्यः, किन्तु "कायवहो होइ जइवि नियमेण"मित्येवाऽवक्ष्यत् । अपि च पदार्थ-वाक्यार्थ-महावाक्यार्थ-ऐदंपर्यार्थविचारणायां हिंसासामान्यस्य निषेधस्य अविधिनिषेधपरताया एव व्यवस्थितत्वात् विधिसामग्ये न हिंसादोषः, अन्यथा चैत्यगृह-लोचकरणादौ तत्सम्भवो दुर्निवार इत्यादिसूक्ष्ममीक्षितमुपदेशपदादौ । - एतेन "कहन्नं भन्ते जीवा अप्पाउत्ताए कम्मं पगरेंति ? पाणे अइवइत्ता, मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभित्ता एवं खलु जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पगरन्ति" इत्यत्र अध्यवसायविशेषादेतत्त्रयं जघन्यायुःफलमिति व्याख्याय (तम्)।
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[७
विशदकीरण-श्लो० ४ ] . अन्ये तु यो जीवो जिनसाधुगुणपक्षपातितया तत्पूजार्थं पृथिव्याद्यारम्भेण स्वभाण्डासत्योत्कर्षणादिना आधाकर्मादिकरणेन च प्राणातिपातादिपु वर्तते तस्य वधादिविरतिनिरवद्यदाननिमित्तायुष्कापेक्षयेयमल्पायुष्कताऽवसेया, अविशेषणत्वेऽपि सूत्रस्य प्राणा.तपातादिविशेषस्य अवश्यं वाच्यत्वात् , अन्यथेतस्तृतीयसूत्रे प्राणातिपातादितः अशुभदीर्घायुष्कतावचनानुपपत्तेः । न हि सामान्यहेतोः कार्यवैषम्यं युज्यते । अपि च अल्पतरपापबहुतरनिर्जराहेतुताया अशुद्धदाने अभिधास्यमानत्वाद् नैवेयं क्षुल्लकभवग्रहणरूपा अल्पायुष्कता । न हि स्वल्पपापबहुनिर्जरानिबन्धनस्यानुष्ठानस्य क्षुल्लकभवग्रहणनिमित्तता सम्भाव्यते जिनपूजाधनुष्ठानस्याऽपि तथात्वप्रसङ्गादिति व्याख्यानेऽपि विधिवैकल्यवत्येव जिनपूजा ग्राह्येति द्रष्टव्यम् । अशुद्धदानादिदृष्टान्तैः क्रियमाणाया जिनपूजाया विधिशुद्धाया ग्रहणानौचित्यात् । "काऊण जिणायणेहिं मण्डियं सयलमेइणीवटें दाणाइचउक्केण वि सुठु वि गच्छिज्ज अच्चु न परओ" त्ति महानि. सीथे सामान्यतो जिनपूजाया दानादिचतुष्कतुल्यफलकत्वोपदेशेन विशेषे विशेषस्यैव औपम्यौचित्यात् । - किश्च-“संविग्गभावियाणं लुद्धयदिळंतभावियाणं च मुत्तूण खित्तकालं भावं च कहति सुद्धछं"[बृहत्कल्पभाष्ये गा. १६०७] त्येतत्पर्यालोचनयालुब्धकदृष्टान्तभावितानामागमा
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८]
कूपदृष्टान्त
र्थाऽव्युत्पन्नानामेव अशुद्धदानसम्भवस्तादृशानामेव च जिनपूजासम्भवोऽपि विधिवैकल्यवानेव सम्भवतीति ।
यत्तु-'गुणवते पात्राय(या)ऽप्रासुकादिद्रव्यदाने चारित्रकायोपष्टम्भानिर्जरा, व्यवहारतो जीवघातेन चारित्रसाधनाच पापं कर्म, तत्र स्वहेतुसामर्थ्या(त्या)पेक्षया बहुतरा(निर्जरा) निर्जरापेक्षया च अल्पतरं पापं भवति तच्च कारण एव, यत उक्तं-"संथरणंमि असुद्धं दुन्न वि गिणंतदं(दि)तयाणहियं । आउरदिट्टतेणं तं चेव हियं असंथरणे" [निशीथभाष्य गा. १६५०] त्ति-तगीतार्थान्यतरपदयैफल्य एव युज्यते, तत्सा कल्ये स्वल्पस्यापि पापस्याऽसम्भवात् , व्यवहारतो बाधकस्यावाधकत्वात् । स्वहेतुसामर्थ्यस्य द्रव्यभावाभ्यामुपपत्तेः । अयमेवातिदेशो विधिशुद्धजिनपूजायां द्रष्टव्यः ।
अन्यस्त्वकारणेऽपि गुणवत्पात्रायाप्रासुकादिदाने परिणामवशात् बहुतरा निर्जरा अल्पतरं च पापकर्मेति च प्रतिपादितम् , परिणामप्रामाण्यात् । “संथरणमी०"त्यादी अशुद्धं द्वयोरपि दात्गृहीत्रोरहितायेति च व्यवहारतः संयमविराधकत्वात् । दायकस्य लुब्धकदृष्टान्तभावितत्वेनाव्युत्पमत्वेन च देवगतो शुभाल्पाऽऽयुष्कतानिमित्तत्वादिति योजितम् । अयमतिदेशोऽव्युत्त्यु(त्प)नीयपूजायां दृष्टव्य इति ॥४||
तदिदमखिलम्मनसिकृत्याह
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विशीकरण-श्लो० ५-६ ]
सम्भावणे विसद्दो दिटुंतोऽनणुगुणो पयंसेह। सामण्णाणुमईए सूरी पुण अंसओ पाहं ॥५॥ व्याख्या-सदोषमपि स्नानादि(दी)त्यत्रापिशब्दः सम्भावने, तेन (न) सर्वसदोषमेव, यतनादिसत्वे भावोत्कर्षे दोषाभावात् । दृष्टान्तोऽशुद्धदानरूपः शुद्धजिनपूजायामननुगुणोऽननुकूलः । मूरि: अभयदेवमूरिःपुनः, सामान्यानुमितो-स्नानत्वपूजात्वाद्यवच्छेदेन निर्दोषत्वानुमितौ "न चैतदाऽऽगमानुपाती" त्यादिना अंशतो बाधं प्रदर्शयति । विधिविरहितायाः पूनायाः कई. मोपलेपादितुल्योऽल्पदोषो दुष्टत्वात् । भवतिचांशतोवाधप्रतिसन्धानेऽवच्छेदकावच्छे देनाऽनुमितिप्रतिवन्धः । सामानाधिकरण्येनानुमितौ तु नायमपि दोष इति विभावनीयं सुधीभिः ।।५।।
ननु परिमाण(णाम)प्रामाण्ये विधिवेगुण्येऽपि को दोष इत्याशङ्कयाहदुग्गयनारीणाया जइवि पमाणीकया हवह भत्ती। तहवि अजयणाजणिभा हिंसा अन्नाणओ होई ॥६॥
(व्या०) दुर्गतनारीज्ञाताद् यद्यपि प्रमाणीकृता भवति भक्तिः, तथापि अयतनाजनिता हिंसाऽज्ञानतो भवति, 'प्रमादानाभोगाभ्यां प्राणभृतानि हिनस्तीति वचनात् । तथा च तत्र आचार्योक्तिः कूपदृष्टान्त उपतिष्ठत एव । अव्यु. त्पत्त्ययतनाजनितस्य दोषस्योत्तरशुभभावदृष्टय व शोधयितु शक्यत्वात् । भक्त्यनुष्ठानमपि अविधिदोषं निरनुबन्धीकृत्य
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१०]
| कूपदृष्टान्त
परम्परया मुक्तिजनकमिति केचित् ब्रुवते । हरिभद्राचार्यास्तु * "अभ्युदयफले चाद्ये निश्रेयससाधने तथा चरमे" इत्याहुः । आधे = प्रीतिभक्त्यनुष्ठाने, चरमे = वचनः सङ्गानुष्ठाने |
दुर्गतनारीज्ञातं चैवं - श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामी इक्ष्वाकुकुलनन्दनः प्रसिद्ध सिद्धार्थपार्थिवपुत्रः पुत्रीयित निखिलभूवनजनो जनितजनमनश्चमत्कारगुणग्रामो ग्रामाकरनगरपृथु पृथिवीं विहरन्नन्यदा कदाचित्काकन्दीनामिकाय पुरि समाजगाम । तत्र चाऽमरचरविसरविरचितसमवसरण मध्यमवर्तिनि भगवति धर्मदेशनां विदधति नानाविधयानवाहनममारूढप्रौढपत्तिपरिगते सिन्धुरस्कन्धमधिष्ठिते छत्रच्छन्न नभःस्थले माग - धोद्गीतगुणगणे भेरीभाङ्कारभरिताम्बरतले नरपतौ तथा तद्विधवरवैश्यादिकपुरजने तथा गन्धधूपपटलप्रभृतिपूजा पदार्थव्यग्रकरकिङ्करीनिकर परिगते विविधवसनाभरणरमणीयतरशरीरे नगनारीनिकरे भगवतो वन्दनार्थं व्रजति सति एकया वृद्धदरिद्रयोषिता जलेन्धनाद्यर्थं बहिर्निर्गतया कश्चिन्नरः पृष्टः क्वाऽयं लोक एकमुखस्त्वरितं याति ? तेनोक्तं जगदेकवान्धवस्य देहिनां जरामरणरोगशोक दौर्गत्यादिदुः खछिदुरस्य श्रीमन्महावीरस्य वन्दनपूजनाद्यर्थम् । ततस्तच्छ्रवणात् तस्या भगवति भक्तिरभवत् । अचिन्तयच्च, अहमपि भगवतः पूजार्थं यत्नं करोमि, केवल महमतिदुर्गता पुण्यरहिता विहितपूजाङ्गवर्जितेति । * एतदनुष्ठानानां विज्ञेये इड् गतापाये ॥ इति उत्तरार्द्ध दशमषोडश के गा है।
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विशदीकरण-श्लो० ६ ]
[ ११ ततोऽरण्याऽऽदृष्टानि मुधा लभ्यानि सिंदुवारकुसुमानि स्वयमेव गृहीत्वा भक्तिभरनिर्भराङ्गी अहो ! धन्या पुण्या कृतार्था कृतलक्षणा, सुलब्धं मम जन्म, जीवितफलं चाहमवाप' इति भावनया पुलककण्टकितकाया प्रमोदजलप्लावितकपोला भगवन्तं प्रति प्रयान्ती समवसरणकाननयोग्न्तराल एव वृद्धतया क्षीणायुष्कतया च झगिति पश्चत्वमुपगता । ततो सा विहित. पूजाप्रणिधानोल्लसितमानसतया देवत्वमवाप्तवती । ततस्तस्याः कडेवरमवनिपीठलोठितमवलोक्याऽनुकम्पापरीतान्त:करणो लोको मूर्छितेयमिति मन्यमानोऽम्भसा सिषेच । ततस्तामपरिस्पन्दामवलोक्य लोको भगवन्तं पप्रच्छ, “भगवन् ! असौ वृद्धा किं मृतोत जीवतीति ?" भगवांस्तु व्याजहार यथा"मृताऽसौ देवत्वं चावाप्ता"।ततः पर्याप्तिभावमुपागत्य प्रयुक्तावधिः पूर्वभवानुभुतमवगम्य मद्वन्दनार्थमागतः, स चायं मत्पुरोवर्ती देव इति । ततो भगवदभिहितमिदमनुश्रुत्य समस्तः ससमवसरणधरणीगतो जनः परमं विस्मयमगमत् । यथा "अहो पूजाप्रणिधानमात्रेणापि कथममरतामवाप्तासाविति" । ततो भगवान्गम्भीरां धर्मकथामकथयत् , यथा-स्तोकोऽपि शुभाध्यवसायो विशिष्टगुणपात्र विषयो महाफलो भवति । यतः "इक्कंपि उदगविन्दु , जह पविखत्तं महासमुइंमि । जाए अक्खयमेवं, पूयावि जिणेसु विन्नेया । उत्तमगुणबहुमाणो, पयमुत्तमसत्तमज्झयारंमि । उत्तमधम्मपसिद्धी, पूयाए जिण
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१२]
[ कूपदृष्टान्त
वरिंदाणं ॥ [पूजा पश्चा. गा. ४७-४८]" ति । ततो भगवास्तत्सम्बन्धिनं भाविभवव्यतिकरमकथयत् । यथा अयं दुर्गत. नारीजीवो देवसुखान्यनुभूय ततश्च्युतः सन् कनकपुरे नगरे कनकध्वजो नाम नृपो भविष्यति । स च कदाचित्प्राज्यं राज्यसुखमनुभवन् मण्डूकं सःण, सर्प कुररेण, कुररमजगरेण, तमपि महाहिना अस्पमानमवलोक्य भावयिष्यति, यथा-"एते मण्डूकादयः परस्परं असमाना महाहेमुखमवशा विशन्ति, एवमेतेऽपि जना बलवन्तो दुर्वलान्यथाबलं बाधयन्तो यमराजमुखं विशन्ति" इति भावयंश्च प्रत्येकबुद्धो भविष्यति । ततो राज्यसम्पदमवधूयश्रमणत्वमुपगम्य देवत्वमवाप्स्यति । एवं भवपरम्परयाऽयोध्याया नगर्याः शक्रावतारनाम्नि चैत्ये केवलश्रियमवाप्यसेत्स्यति इति गाथार्थः ॥६॥
यतनां चात्र स्नानपूजादिगतामित्थमादिशन्ति,-"भूमीपेहणजल-च्छाणणाइ जयणा उ होइ न्हाणादौ । एत्तो विसुद्धभावो, अणुहवसिद्धोचिअ बुहाणं" ॥ तथा "एसो
चेव इहं विही, विसेसओ सव्वमेव जत्तणं ।। जह रेहति तह सम्म, कायव्वमणण्णचिठेणं ॥ वत्थेण बंधिऊणं, णासं अहवा जहा समाहीए । वज्जेयव्वं तु तहा, देहम्मि वि कंडयणमाइ [पूजापञ्चाशके गा. ११-१९-२०]॥" इत्यादि ।
नन्वेवं विध्यंशेऽशुद्धो भक्त्यंशे च शुद्धो योगः प्राप्तः, तथा च कथं न तत एकविधक बन्धः १ न च
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विशदीकरण-श्लो० ७ ]
[ १३ मिश्रं कर्म शास्त्रे प्रोक्तं येन मिश्रात्ततो मिश्रं कर्म वध्ये. तेत्याशङ्कायामाहसुद्धासुडो जोगो, एसो ववहारदसणाभिमभो। णिच्छयणओ उ णिच्छई, जोगमवसाणमिस्सत्तं ॥७॥
व्याख्या-एष दुर्गतनारीसदृशानां जीवानां विधिवैधुर्येऽपि भक्तिकालीनो जिनपूजायोगः अशुद्धदानादिवच्छुद्धाशुद्धः आंशिकशुद्धयशुद्धिवान् व्यवहारदर्शनस्य-व्यवहारनयस्य अभिमतः । ततश्च वाग्व्यवहारमात्रसिद्धर्नान्यत्फलम् । निश्चयनयस्तु योगा(गेन)ध्यवसायस्थानानां मिश्रत्वं नेच्छति, अशुभरूपाणां शुभरूपाणां च शास्त्रे प्रतिपादनात् तृतीयराशेरकथनादिति स्पष्टं महाभाष्ये ।
ननु (न च) समूहालम्बनोपयोगरूपस्याध्यवसायस्य सम्भवात्कथं तदप्रतिपादनमिति वाच्यम् , समूहालम्बनज्ञानस्य विशेषणीयत्वाद् , विध्यौपयिकस्य विशिष्टोपयोगस्यैवमधिकृतत्वादिति युक्तमुत्पश्यामः । तथा चाविध्यंशे उत्कटत्वेऽशुद्ध एव, भक्त्यंशे पुनरुत्कटत्वे शुद्ध एव योग इत्येतन्मते एकस्माद्योगादेकदैक एव बन्धः, बन्धकालस्य प्रदीर्घत्वात् परिणामपरावृत्त्या च मिश्रत्वं भावनीयम् ।
एकधारारूढे तु भक्तिभावेऽविधिदोषोऽपि निरनुबन्धतयाद्रव्यरूपतामश्नुवंस्तत्र भग्न इवावतिष्ठते । एकधारारूढेऽविधि
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१४ ]
[ कूपदृष्टान्त
भावेऽप्यविधिभक्तिपर्यवसायिनि विधिपक्षादृषकतामप्यसहमाने भक्तिभावस्(?स्य)तथा अविधियुतस्य विषयेऽप्यर्चनादेर्भावस्तवाहेतुत्वेन नद्रव्यस्तवत्वमिति प्रतिपादनादिति विवेचकाः॥७॥ . ननु किमित्येवमविधियुतभक्तिकर्मणो व्यवहारतो निश्चयतो वा बन्धप्रदीर्घकालापेक्षया मिश्रत्वमुच्यते, यावता द्रव्यहिंसयैव जलपुष्पादिजीवोपमर्दरूपया मिश्रत्वमुच्यताम् , उत्तरकालिकचैत्यवन्दनादिभावस्तवेन तदोषापनयनात्कूपदृष्टान्तोपपत्तेः १ इत्याशङ्कायामाहजइ(अ)विहिजुयपूयाए, दुहृत्तं दव्वमित्तहिंसाए । तो आहारविहारप्पमुहं साहूण किमदुढें ॥८॥
व्याख्या-यदि(घ)विधियुतपूजायां विधियुतभक्तिकर्मणि, द्रव्यमात्रहिंसया दुष्टत्वं स्यात् , 'तो'त्ति तर्हि-साधनामाहारविहारप्रमुखं किमदुष्टमुच्यते ? तदपि दुष्टमेव वक्तुमुचितम् , तत्रापि द्रव्यहिंसादोषस्यावर्जनीयत्वात् । यतनया तत्र न दोष इति चेत् ? अत्रापि किं न तथा ! जिनपूजादौ द्रव्यहिंसाया असदारम्भप्रवृत्तिनिवृत्तिफलत्वेनाहिंसारूपत्वात् । तदुक्तम्• "असदारंभपवत्ता, जं च गिही तेण तेसि विण्णेया। तण्णिवित्तिफलच्चिय, एसा परिभावणीयमिणं ॥१॥" (पू०पश्चा० ४३) व्याख्या-असदारम्भप्रवृत्ताः प्राण्युपमर्दन हेतुत्वेनाशोभनकृष्यादिव्यापारप्रसक्ताः, यद्यस्माद्धेतोः, चशब्दः समुच्चये,
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विशदीकरण - श्लो०]
[ १५
गृहिणः = गृहस्थाः, तेन हेतुना, तेषां गृहिणां विज्ञेया = ज्ञातव्याः, तन्निवृत्तिफलैव देहगेहादिनिमित्तजीवोपमर्दनरूपाशुभारम्भनिवृत्तिप्रयोजनैव । भवति हि जिनपूजाजनितभावविशुद्धिप्रक पेण चारित्रमोहनीयक्षयोपशमसद्भावात्कालेनासदारम्भेभ्यो निवृत्तिः । तथा जिनपूजाप्रवृत्तिकाले चाऽसदारम्भाणामसम्भवात् शुभभावसम्भवाच्च तन्निवृत्तिफलाऽसौ भवतीत्युच्यते । एषा = जिनपूजा, परिभावनीयं = पर्यालोचनीयम्, इदं जिन पूजाया असदारम्भनिवर्तनफलत्वं भवद्भिरपि येनावबुध्य तथैव प्रतिपद्यते इति गाथार्थः " इति पञ्चाशकवृत्तौ । * 'यतनातो न च हिंसा, यस्मादेषैव तन्निवृत्तिफला । तदधिकनिवृत्तिभावाद्विहितमतोऽदुष्टमेतदिति ||१६|| " [ षष्ठषोडशके ]
9
अत एवाssपेक्षिकल्पायुष्कताधिकारे " नन्वेवं प्राणातिपातमृषावादावप्रासुकदानं च कर्तव्यता मापन्नमिति चेत् ? आपद्यतां नाम भूमिकाविशेषापेक्षया को दोषः १ अत एव यतिधर्माऽशक्तानां द्रव्यस्तवद्वारेण प्राणातिपातादौ प्रवृत्तिः प्रवचने प्रोक्ते ति भगवतीवृत्तावुक्तम् । अत्र यतिधर्माशक्तत्वम् अपदारम्भप्रवृत्तत्वम् अधिकारिविशेषणं द्रष्टव्यम् । कूपज्ञातान्यथानुपपत्त्या पूजादिकाले द्रव्यहिंसाजनितं पापमवर्जनीयमेव, आज्ञायोगादाहारविहारादिकं साधूनां न दुष्टमिति चेत् ? अत्रापि परिमितसंसारफलकत्वार्थवादेनानुकम्पादाविवाज्ञायोगः किं न
* 'तदुक्तमि' त्यत्राप्यनुवर्त्तते ।
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१६ ]
। कूपदृष्टान्त
कल्प्यते ? उक्तं हि-संसारप्रतनुनाकारणत्वं द्रव्यस्तवस्य, तत्र दानादिचतुष्कतुल्यफलकत्वोपवर्णनमप्यत्रोपष्टम्भकमेव ॥८॥ ____ अथ 'द्रव्यस्तवे यावानारम्भस्तावत्पापमि' त्यत्र स्थूलानुपपत्तिमाहजावइओ आरंभो, तावइयं दूषणंति गणणाए । अप्पत्तं कह जुज्जइ, अप्पपि विसं च मारेइ ॥९॥
व्याख्या-द्रव्यस्तवे यावानारम्भस्तावदूषणमिति गणनायां क्रियमाणार्या, ऋजुसूत्रनये प्रतिजीवं भिन्नभिन्नहिंसाऽऽश्रयणादसङ्ख्यजीवविषय आरम्भः, एकभगवद्विषया च भक्तिरिति अल्पपापबहुतरनिर्जराकार गत्वं सर्वथाऽनुपपन्नम् । आत्मरूपहिंसाऽहिंसावादिशब्दादिनयमते वाह-अल्पमपि विपंच हालाहलं मारयति । आध्यात्मिक आरम्भो यद्यल्पोऽपि स्यात्तदापुण्यानुबन्धिपुण्यप्राप्तिने स्यादेव, व्याध्याद्य(धा)पेक्षया * कर्णजीविनामिवाल्परसस्यापि तस्य शुभकर्मविरोधित्वादिति भावः।।।।
सूक्ष्मानुपपत्तिमाह'ककसवेजमसायं बन्ध पाणाइवायओ जीवो"। श्य भगवईइ भणियं ता कह पूयाइ सो दोसो ॥१०॥
"कर्कशवेदनीयमसातं बध्नाति प्राणातिपाततो जीवः" इति मणितं भगवत्यां तत्कथं पूजागं भगवच्चरणार्चायां स प्राणातिपाताख्यो दोषः अल्पोऽपि हि ? तस्मिन् सति
* कर्णजीवी=नाविकः ।
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विशदीकरण-इलो० ११ ]
[ १७ कर्कशवेदनीयं कर्म बध्येताऽसातवेदनीयं च, इष्यते च भगवत्पूजया कर्कशवेदनीयकर्माऽवन्धः स्वल्पसातवेदनीयबन्धश्चेति विपरीतमापनमायुष्मतः ॥१०॥
तस्मादयमारऽम्भोऽप्यनारम्भ एव श्रद्धेय इत्याहआरम्भो वि हु एसो हंदि अणारम्भओत्ति णायव्वो। वह विरईए भणिअं जमककसवेयणिज्ज तु ॥११॥
आरम्भोऽप्येष द्रव्यस्तवभावी, हंदीत्यामन्त्रणे, अनारम्भ इति ज्ञातव्यः, असदारम्भनिवृत्त्यंशप्राधान्यात् । यद्-यस्मादकर्कशवेदनीयकर्म वधविरत्यैव बध्यत इति भणितं भगवत्याम् । उपलक्षणमिदं सातवेदनीयबन्धस्य ।
अत्रालापका-'अत्थि णं भन्ते ! जीवाणं ककसवेयणिज्जा कम्मा कज्जति ? हंता अस्थि । कहण्णं भंते ! जीवाणं कक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जंति ? गोयमा ! पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं, एवं खलु गो० जीवाणं कक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जंति । अत्थि णं भंते ! णेरइयाणं कक्कस० एवं चेव, एवं जाव वेमाणिआणं । अत्थि णं भंते ! जीवाणं अकक्कसवेयणिजा कम्मा कज्जंति ? हंता अस्थि । कहण्णं भंते ! जीवाणं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जंति ? गो० पाणाइवायवेरमणेणं जाव परिग्गहवेरमणेणं, कोहविवेगेणं जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगेणं । एवं खलु गोयमा जीवाणं अक
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१८]
[ कूपदृष्टान्त
कसवेयणिज्जंकम्मं कज्जइ । अत्थिणं भंते ! णेरइआणं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जति ? णो इणठे समठे । एवं जाव वेमाणियाणं गवरं मणस्साणं जहा जीवाणं । अत्थि णं भंते ! जीवाणं सातवेदणिज्जा कम्मा कति ? हंता अस्थि कहण्णं भंते ! जीवाणं सातावेदणिज्जा कम्मा कति ? गो० पाणाणुकंपयाए, भू० जी० सत्ताणुकंपयाए । बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए, असोअणयाए, अनरणयाए, अति. प्पणयाए अपीडणयाए अपरियावणयाए एवं खलु गो०जीवाणं सातावेदणिज्जा कम्मा कज्जति । एवं णेरइआण वि। एवं जाव वेमाणिआणं । अस्थि णं भंते ! जीवाणं अस्सायावेदणिज्जा कम्मा कज्जति ? हंता अस्थि । कहण्णं भंते ! जीवाणं अस्सा. यावेअणिज्जा कम्मा कज्जति ? गो. परदुक्खणयाए, परसोअणयाए, परजूरणयाए, परतिप्पणयाए, परपरितावणयाए, बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणयाए जाव परितावणयाए एवं खलु गो० जीवाणं अस्सायावेअणिज्जा कम्मा कज्जति । एवं णेरइआण वि जाव वेमाणियाणं ।"
कर्कशरौद्रदुखैवेद्यते यानि तानि कर्कशवेदनीयानि । स्कन्दकाऽऽचार्यसाधूनामिव । अकर्कशेन सुखेन वेद्यन्ते यानि तान्यकर्कशवेदनीयानि भरतादीनामिव । दुःखस्य करणं दुःखनं तद् (न) विद्यते यस्य तद्भावोऽदुःखनता तया । एतदेव प्रपञ्च्यते-असोयणयाए त्ति दैन्यानुत्पादेन, अजूरण
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विशदीकरण-श्लो० १२]
[१६ याए-शरीरापचयकारि-शोकानुत्पादनेन, अतिप्पणयाए त्ति अश्रुलालादिक्षरणकारिशोकानुत्पादनेनः अपिट्टणयाएत्ति यष्टः यादिपीडनपरिहारेण, अपरितावणयाए-शरीरपीडानुत्पादनेनेति वृत्तिः ॥
वस्तुनो अनिवर्त्तनीयाशुभानुबन्धं कर्कशवेदनीयम् , अतादृशमकर्कशवेदनीयम् । वैमानिकादिषु तनिषेधश्च प्रोढिवादः विशिष्टविरतिपरिणामजनिताऽशुभानुबन्धापनयापेक्षया । अन्यथा मिथ्यादर्शनशल्यविरमणस्याऽपि तत्र नैष्फल्यापत्तेः; सर्वसंवरस्य च शैलेश्यामेव सम्भवादिति द्रष्टव्यम् ।
एतेन "देवेष्वकर्कशवेदनीयकर्मकरण निषेधादेव द्रव्यस्तवस्य न तद्धेतुत्वमिति"दुर्वादिमतमपास्तं, ज्ञेया सकामायमिनामि' (योगशास्त्रे) त्यादिवदीदृशप्रौढिवादानामुत्कृष्टनिषेधपरत्वादन्यथा तदीयभगवद्वन्दनगुणोत्कीर्तनादीनामप्यतादृशत्वाऽऽपत्तेरिति विभावनीयं सुधीभिः ॥११॥
__ननु द्रव्यस्तवे भक्तिजन्यसातावेद्यबन्धेन विरुध्यन्नसातबन्धो मा भूत् , पृथिव्याधुपमर्दात् ज्ञानावरणीयादिबन्धहेतुत्वादेव तस्य हिंसात्वमक्षतमित्याशङ्कायामाहधुवषन्धिपावहे उत्तणं ण दव्वत्थयंमि हिंसाए । धुवषन्धा जमसज्झा, तत्ते इयरेयरासयया ॥१२॥
ध्रुवबन्धिपापस्य ज्ञानावरणादिप्रकृतिकदम्बकरूपस्य हेतुत्वं नद्रव्यस्तवीयहिंसायां वक्तु युक्तम् । यद्-यस्मात् ध्रुव
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२० ]
[ कूपदृष्टान्त
बन्धा असाध्याः । प्रक्रमाद् द्रव्यस्तवभाविहिंसायाः सामान्यहेतुत्वसद्भावे ह्यवश्यंसम्भविबन्धाः । अत एव यत्र गुण. स्थाने तासां व्यवच्छेदस्ततोऽर्वाक् सततबन्ध एवेति सादिसान्तादिभङ्गग्रन्थे व्यवस्थितम् ।
अथाऽसातप्रकृतित्वावच्छिन्न इव पापप्रकृतित्वावच्छिन्ने .. ऽपि हिंसाया हेतुत्वस्य शास्त्रे व्यवस्थितत्वात् “यत्सामान्ये - यत्सामान्यं हेतुस्तद्विशेषे तद्विशेष" इति न्यायात् द्रव्यस्तयस्थलीयहिंसाया ज्ञानावरणीयादिप्रकृतिविशेषे हेतुत्वम् , भक्तिरागोपनीयमानप्रकृतिविशेषेषु बहुभागपाताच्च तत्राऽल्पतरभागोपनिपातेनाल्पत्वमिति चेत् ? तत्राह-तत्वे-द्रव्य. स्थलीयहिंसायाः ध्रुवबन्धिपापप्रकृतिविशेषहेतुत्वे इतरेतरा. श्रयता=अन्योन्याश्रयदोषः । द्रव्यस्तवीयद्रव्यहिंसाया भाव. [स्तव] हिंसात्वसिद्धौ उक्तहेतुत्वसिद्धिः, तसिद्धौ च भावहिंसात्वमिति । द्रव्यहिंसा त्वाऽऽसयोगिकेवलिनमवर्जनीया । एवंविधे चार्थसमाजसिद्धे चार्थे नियतोक्तहेतुत्वाश्रयणे पौषधादावतिप्रसङ्गस्तदाप्यल्पज्ञानावरणीयादिबन्धानुपरमादिति दिक् ॥
अत्रेयं ध्रुवबन्धादिप्रक्रिया-निजहेतुसद्भावे यासामवश्यं भावी बन्धस्ताः ध्रुवबन्धिन्यस्ताश्च वर्णचतुष्कं, तैजसं, कार्मणमगुरुलघु, निर्माणोपघातभयकुत्सामिथ्यात्वं, कषायाः
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विशदीकरण-श्लो० १२ ]
[ २१ ज्ञानावरणपश्चकं, दर्शनावरणनवकं, विघ्नपञ्चकमिति सप्तचत्वारिंशत् । ___ यासां च निजहेतुसद्भावेऽपि नावश्यंभावी बन्धस्ता अध्रुवबन्धिन्यस्ताश्चौदारिकवैक्रियाहारकशरीराणि, तदुपाङ्गानि ३, संहननषट्कं, संस्थानषट्कं, गतिचतुष्कं, खगतिद्विकमानुपूर्वीचतुष्टयं, जिननामोच्छ्वासनामोद्योतनामाऽऽतपनाम पराघातनाम, सदशकं, स्थावरदशकं, गोत्रद्विकं, वेदनीयद्विकं. हास्यादियुगलद्वयं, जातिपश्चकं, वेदत्रयमायुश्चतुष्टयमिति त्रिसप्ततिः ॥ एतासां निजहेतुसद्भावेऽप्यवश्यंबन्धाऽभावात् ।
तथाहि-पराघातोच्छवासनाम्नोः पर्याप्तनाम्नैव सह बन्धो नाऽपर्याप्तनाम्नाऽतोऽध्रुवबन्धित्वम् । आतपंपुनरेकेन्द्रियप्रायोग्यप्रकृतिसहचरितमेव बध्यते नान्यदा । उद्योतं तु तिर्यग्गतिप्रायोग्यबन्धिनैव सह । आहारकद्विकजिननाम्नी अपि यथाक्रम संयमसम्यक्त्वप्रत्ययेनैव बध्येते नान्यदेत्यध्रुवबन्धित्वम् । शेष. शरीरादिषट्षष्टिप्रकृतीनां सविपक्षत्वानिजहेतुसद्भावेऽपि नाऽवश्यं बन्ध इति तथात्वं सुप्रतीतम् ।
तत्र ध्रुवबन्धिनीषु भङ्गत्रयम् , अनाद्यनन्तो बन्धः, अनादिसान्तः, सादिसान्तश्च । तत्र प्रथमभङ्गकः सर्वासामपि तासामभव्याश्रितः, तद्बन्धस्यानाद्यनन्तत्वादिति । द्वितीयभङ्गकस्तु ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्कान्तरायपञ्चकलक्ष
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२२ ]
। कूपदृष्टान्तणानां चतुर्दशप्रकृतीनाम् , अनादिकालात् संतानभावे प्रवृत्तस्य बन्धस्य सूक्ष्मसम्परायचरमसमये यदा व्यवच्छेदः तदा । आसामेव चतुर्दशप्रकृतीनामुपशान्तमोहे यदाऽबन्धकत्वमासाद्याऽऽयुःक्षयेणाद्धाक्षयेण वा प्रतिपतितः सन् पुनर्बन्धेन सादिबन्धं विधाय भूयोऽपि सूक्ष्मसम्परायचरमसमये यदा बन्ध. विच्छेदं विधत्ते तदा तृतीयः । संज्वलनकषायचतुष्कस्य तु सदैव प्रवृत्तबन्धभावस्य यदाऽनिवृत्तिबादरादिर्बन्धविच्छेदं विधत्ते तदा द्वितीयः । ततः प्रतिपतितस्य पुनर्बन्धेन संज्वलनबन्धं सादिं कृत्वा कालान्तरेऽनिवृतिबादरादिभावप्राप्तौ तबन्धविच्छेदसमये तृतीयः । निद्राप्रचलातैजसकार्मणवर्णचतुष्काऽगुरुलघूपधातनिर्माणभयजुगुप्सास्वरूपाणां त्रयोदशप्रकृतीनामनादिकालादनादिवन्धं विधाय यदाऽपूर्वकरणाद्धायां यथास्थानं बन्धोपरमं करोति तदा द्वितीयो भङ्गः । यदा तु ततः प्रतिपतितस्य पुनर्वन्धेन सादित्वमासादयन् बन्धः कालान्तरेऽपूर्वकरणमारूढस्य निवर्त्तते तदा तृतीयः । चतुर्णा प्रत्याख्यानावरणानां बन्धो देशविरतगुणस्थानक यावदनादिस्ततः प्रमत्तादौ बन्धोपरमात् सान्त इति द्वितीयः । प्रतिपतितबन्धापेक्षया तृतीयः । अप्रत्याख्यानावरणानां त्वविरतसम्यग्दृष्टिं यावदनादिबन्धं कृत्वा देशविरतादाववन्धकत्व. समये द्वितीयः । प्रतिपातापेक्षया तृतीयः । मिथ्यात्वस्त्यानर्द्धित्रिकानन्तानुवन्धिनां तु मिथ्यादृष्टिरनादिबन्धको यदा
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विशदीकरण-श्लो० १२ ]
[२३ सम्यकत्वाऽवाप्तौ बन्धोपरमं करोति तदा द्वितीयो भङ्गः। पुनर्मिथ्यात्वे गत्वा तान् बद्ध्वा यदा भूयोपि सम्यक्त्वलाभेन बध्नाति तदा तृतीयः। इत्येवं ध्रुवबन्धिनीनां भङ्गत्रयम् । साधनन्तभङ्गकस्तु विरोधादेवानुद्भाव्यः । अध्रुवबन्धिनीनां त्वध्रुवबन्धित्वादेव सादिसान्तलक्षण एक एव भङ्गो लभ्यते । अधिकमस्मत्कृतकर्मप्रकृतिवृत्त्यादेरवसेयम् ।।
प्रणिधानप्रधाने तु चैत्यवन्दनेन तदपनीयते । अत एव प्रणिधानाद्याशयराहित्यात् द्रव्यक्रियारूपत्वेन पूजाया द्रव्यस्त्वत्वं इत्यत्राह-"दव्वथओ पुप्फाईण उ पणिहाणाइ विरहो चेव, पणिहाणाई अन्ते भिण्णं पूव्वि तु सामण्णं । दबथउ पुप्फाई, सन्तगुणकित्तणा भावे" इति नियुक्तिवचनाद्र्व्येण पुष्पादिना स्तवो द्रव्यस्तव इति व्युत्पत्तेर्जिनपूजाया द्रव्यस्तवत्वमुच्यते । गुणवत्तया ज्ञानजनकः शब्द इत्यत्र वर्णध्वनिसाधारणं ताल्वोष्ठपुटादिजन्यव्यापारत्वं शब्दत्वमिति जन्यान्तपरिहारेण व्यापारमात्रस्यैव ग्रहणौचित्यात् । आलकारिकमते चेष्टादिव्यापारस्य व्यञ्जकस्य ग्रहणावश्यकत्वेनोक्तपरिहारस्यावश्यकत्वाच्च । न तु प्रणिधानादिविरहादेव द्रव्यस्तवत्वं, तथा सति तुच्छत्वेनाऽप्राधान्यरूपद्रव्यपदार्थत्वप्रसङ्गात् ।
तदुक्तं षोडशके-"प्रणिधि-प्रवृत्ति-विघ्नजय-सिद्धिविनियोग-भेदतः प्रायः । धर्मज्ञैराख्यातः, शुभाशयः
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२४ ]
[ कूग्दृष्टान्त
पञ्चधा विधौ || १ || प्रणिधानं तत् समये, स्थितिमत्तदधः कृपानुगं चैव । निरवद्यवस्तुविषयं परार्थनिष्पत्तिसारं च | २ || तत्रैव तु प्रवृत्तिः शुभसारोपायसङ्गतात्यंतम् । अधिकृतयत्नातिशयादौत्सुक्यविवर्जिता चैव ॥ ३॥ विघ्नजय स्त्रिविधः खलु, विज्ञेयो हीनमध्यमोत्कृष्टः । मार्ग इह कण्टक ज्वर-मोहजय समः प्रवृत्तिफलः || ४ ||सिद्धिस्तत्तद्धर्मस्थानावाप्तिरिह तात्विकी ज्ञेया । अधिके विनयादियुता, हीने च दयादिगुणसारा || ५|| सिद्धेवोत्तरकार्य, विनियोगोऽवन्ध्यमेतदेतस्मिन् । सत्यन्वयसम्पच्या, सुन्दरमिति तत्परं यावत् || ६ || आशयभेदा एते सर्वेऽपि हि तत्त्वतोऽनुमन्तव्याः । भावोऽयमनेन विना, चेष्टा द्रव्यक्रिया तुच्छा " ||७|| इति । न च सर्वापि जिनपूजा प्राधान्येनैव द्रव्यरूपा, अपूर्वत्वप्रतिसन्धानविस्मयभवभयादिवृद्धिभावाऽभावाभ्यां द्रव्यभावेतर विशेषस्य तत्र तत्र प्रतिपादनात् ॥
यत्तु प्रणिधानादि अन्ते चैत्यवन्दनान्ते प्रोक्तं तद्भिन्नं= विशिष्टतरं पूर्वं तु सामान्यं सर्वक्रियासामान्ये भावत्वाssपादकमिति भावः ।
"
"
कथमन्ते प्रणिधानादि भिन्नमिति चेदत्राहु: - " एयस्स समती कुसलं पणिहाणमो उ कायव्वं । एत्तो पवित्तिविग्वजयसिद्धि तहय तिथरीकरणं - " ( पू. पञ्चा. २९) एतस्य चैत्यवंदनस्य समाप्तौ कुशलं शुभं, प्रणिधानं प्रार्थनागतमेकाग्यम्, उ इति निपातः पादपूरणे, कर्त्तव्यं विधेयं, यस्मादितः प्रवृत्तिः = सद्धर्म
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विशदीकरण-श्लो॰ १२ ]
[ २५ व्यापारेषु प्रवत्तंनं, जातमनोरथानां यथाशक्ति तदुपाये प्रवृत्तेः । विघ्नजयो मोक्षपथप्रवृत्तिप्रत्यूहस्य जघन्यमध्यमोत्कृष्टस्याऽशुभभावरूपस्य प्रणिधानमनितशुमभावान्तरेणाभिभवात् । तथा सिद्धिर्विघ्न जयात् प्रस्तुतधर्मव्यापाराणां निष्पत्तिः । तथैव च स्थिरीकरणं स्वगतपरमधर्मव्यापाराणां स्थिरत्वाधानं, परयोजनाध्यवसायेनाऽनुबन्धाऽविच्छेद इति यावत् ।
"एत्तो चिय | णियाणं, पणिहाणं बोहिपत्थणासरिसं । सुहभावहेउभावा णेयं इहरा पवित्ती य ।।" (पू. पश्चा० ३०) इत एव-कुशलप्रवृत्त्यादिहेतुत्वादेव. बोधिप्रार्थनाऽऽरोग्यबोधिलाभसमाधिवरप्रार्थना । इतरथा निदानत्वेऽप्रवृत्तिरन्त्यप्रणिधाने स्यात् , सा चाऽनिष्टा । "एवं तु इट्ठसिद्धी दव्वपवित्ती उ अण्णहा णियमा । तम्हा अविरूद्धमिणं णेयमवत्थंतरे उचिए।।" (पू० पञ्चा० ३१) एवं पुनः प्रणिधानप्रवृत्ताविष्टसिद्धिः,प्रणिधानयुक्तचैत्यवन्दनस्य भावानुष्ठानत्वेन सकलकल्याणकारित्वात् । द्रव्यप्रवृत्तिस्त्वन्यथा-प्रणिधानं विना नियमात् , तस्माद्धेतोरेतत्प्रणिधानमविरुद्धम् , अवस्थान्तर अप्राप्तप्रार्थनीयगुणावस्थायां, तच्च 'जयवीअराए'त्यादि । न चेदं निदानं, मोक्षाङ्गप्रार्थनात्वात् बोधिप्रार्थनावत् । तीर्थकरत्वप्रार्थना चौदयिकभावांशे निदानं, छत्रचामरादिविभूतिप्रार्थनाया भवप्रार्थनारूपत्वात् , न तु क्षायिकभावांशे, तत्र तीर्थकरत्वोपलक्षितकेवलज्ञानादेरेव काम्यत्वात्तस्य च साक्षान्मोक्षांगत्वात् ।
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२६ ]
| कूपदृष्टान्त
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आह च " मोक्खंगपत्थणा इय न नियाणं तदुचियस्स विण्णेयं । सुत्ताणुमईओ जह बोहीए पत्थणा माणं । " ( पू० प० ३६) इय = एषा "जयवीयराए" त्यादिका, तदुचितस्य = प्रणिधानोचितस्य, प्रमत्तसंयतान्तस्य गुणस्थानिन इत्यर्थः । सूत्रानुमतेः, साभिष्वङ्गस्य तस्य निरभिष्वङ्गताहेतुत्वेन सूत्रे प्रणिधानाऽभिधानात् यथा बोधेः प्रार्थना मानं= निदानत्वाऽभावसाधकमनुमानं दृष्टान्तावयवेऽनुमानत्वोक्तिरूपत्वात् । " एवं च दसाईसु तित्थयरंमि वि णियाणपडिसेहो । जुत्तो भवपडिबद्धं साभिस्संगं तयं जेणं ॥' (पू. पञ्चा० ३७ ) भवप्रतिबद्धं 'भवभ्रमणले (तो) प्यहं तीर्थकरो भृयासमिति विकल्पेन संसारप्रार्थनानुप्रविष्टं साभिष्वंगं रागोपेतं, 'तयं' ति तकतीर्थकरत्वम् ।
"
वस्तुतः औदयिकभावप्रकारत्वाऽवच्छिन्नतीर्थकर भवनेच्छाया एव निदानं (त्वं), तेन तीव्रसंवेगवतः 'कतिपयभवभ्रमणतोऽप्यहं सिद्धो भूयासमि' त्यस्येवोक्तसङ्कल्पस्थ न निदानत्वमित्युक्तावपि न क्षतिः । तीर्थ करत्व विभुतेरप्यकाम्यत्वमधिकृत्योक्तमन्यैरपि "देवागमन भोयानचामरादिविभूतयः मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महानि" ।। ति ( आ. मि. १) जं पुण णिरभिस्संगं धम्मा एसो अगसत्तहिओ । णिरूवमसुहसंजणओ अउव्वचितामणीकप्पो || १ || तो एयाणुट्ठाणं हियमणु(ह) वहयं पहाणभावस्स । तेसि पवित्तिसरूवं अत्थावत्तीइ तम
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विशदीकरण - लो० १२ ]
[ २७
दुट्ठ ||२|| (पू० पश्चा० ३८-३९) यत्पुनस्तीर्थ करत्वप्रार्थनं निरभिष्वंगं तददुष्टमिति सम्बन्धः । यथा धर्मात्कुशालानुष्ठानादेष तीर्थकरो भवतीति गम्यम् । किंभूतः १ अनेक सच्वहितः निरुपमसुखसंजननः, अपूर्विचन्तामणिकल्पः । तत्तस्मादेत - तीर्थकरानुष्ठानं धर्मदेशनादि - हितं पथ्यमनुपहतमप्रतिघातं, इतिर्गम्यः । इति प्रधान ( ग ) भावस्य एवंभूतसुन्दराध्यवसायस्य, तस्मिन् धर्मदेशनादौ जिनानुष्ठाने प्रवृत्तिस्वरूपं = प्रवर्त्तनस्वभावं, अर्थाssपच्या न्यायतः, साभिष्वंगस्य तीथकरत्वप्रार्थनस्य दुष्टत्वान्यथानुपपत्या निरभिष्वंगं तददुष्टमिति न्यायप्राप्तम् । न च वैयधिकरण्यं पुत्रस्य ब्राह्मणत्वाऽन्यथानुपपपत्त्या पित्रोब्रह्मणत्वं न्याय्यमितिवदुपपत्तिरिति भावः ।
उभयभावोपरागविनिर्मुक्ततीर्थकरत्वप्रार्थना किं रूपेति चेत् ? औदयिकभावप्रार्थनाविशिष्टा निदानं, क्षायिकभावप्रार्थनाविशिष्टा चाऽनिदानम् । वैशिष्ट्यं सामानाधिकरण्य-तत्तद्वयवधानाभावकूट सम्बन्धाभ्याम् । समूहालम्बनेच्छायां तु मानाभावो, भावे वाssस्तां निदानत्वाऽनिदानत्वे अव्याप्यवृत्तिजाती, इत्यादि प्रमाणार्णवसंप्लवव्यसनिनां गोचरः पन्थाः | तदेवमन्ते स्तत्रफलप्रार्थनारूपं प्रणिधानं भिन्नं, पूर्व तु क्रियमाणस्तवोपयोगरूपं भिन्नमित्यनुपयोगरूपत्वेन द्रव्यस्तवे नाऽवद्याशङ्का विधेयेति स्थितम् || ॥ सम्पूर्णम् ॥
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२८]
कूपदृष्टान्तविशदीकरण मूलम् । नमिऊण महावीरं, तिसिंदणमंसियं महाभागं । विसईकरेमि सम्मं. दवथए कूवदिट्टतं ॥ १ ॥ सपरोवयारजणगं, जणाण ज हकूवखणणमाइलैं । अकसिणपवत्तगाणं, तह दवथओ वि विष्णेओ ॥ २ ॥ इसि दुत्ते ज, एयस्स नवगिवित्तिकारेणं । संजोयणं कयं तं, विहिविरहे भत्तिमहिकिच्च ॥ ३ ॥ इहरा कहंचि' वयण, कायवहे कह णु होज्ज पूयाए। न य तारिसो तवस्सी, जंपइ पुवावरविरुद्ध ॥ ४ ॥ सम्भावणे विसद्दो दिटुंतोऽनणुगुणो पयंसेइ । सामण्णाणुमईए सूरी पुण अंसओ बाहं ॥ ५ ॥ दुगयनारीणाया जइवि पमाणीकया हवइ मत्ती । तहवि अजयणाजणिआ हिंसा अन्नाणओ होइ ॥ ६ ॥ सुद्धासुद्धो जोगो, एसो ववहारदसणाभिमओ । णिच्छयणओ उ णिच्छई, जोगज्झवसाणमिस्सत्तं ॥ ७ ॥ जइ (अ)विहिजुयपूयाए, दुट्ठत्त दवमितहिंसाए । तो. आहारविहारप्पमुहं साहूण किमदुटुं ॥८ ।। जावइओ आरंभो तावइयं दूषणंति गणणाए । अप्पत्तं कह जुज्जइ, अप्पंपि विसं च मारेइ ॥ ६ ॥ “कक्वसवेज्जमसायं बन्धइ पाणाइवायओ जीवो" । इय भगवईइ भणियं ता कह पूयाइ सो दोसो ॥१०॥ आरम्भो दि हु एसो हंदि अणारम्भओत्ति णायव्यो । बहविरईए भणअं जमकक्कसवेयणिज्जं तु ॥११॥ धुवबन्धिपावहे उत्तण ण दम्वत्थयंमि हिंसाए । धुवबन्धा जमसज्झा, सत्ते इयरेयरासयया ॥१२ ।।
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न्यायाचार्य -मुनिपुङ्गवश्रीमद्यशोविजयोपाध्यायोपदीकृता
० वादमाला (२) ० ऐन्द्रश्रेणिनतं नत्वा सर्वशं तत्त्वदेशिनं ।
बालानामुपकाराय वादमाला निबद्भयते ॥१॥ तथा प्राचां गुम्फो विशदरचनाऽऽढ्योपि न यथा,
नीनानां पन्थाः प्रथयति मुदं निर्मलधियाम् । अपि स्नेहोदारास्तरलतरुणीनामिव दृशां,
विकारा वृद्धानामपि किमिह यूनां मदकृते ॥२॥ वादमालामिमां बालाः कुरुध्वं कण्ठभूषणं ।
यया सभायां शोभा स्यान्नवीनैस्तर्कमौक्तिकैः ॥३॥
___तत्रादौ स्वस्ववादः। स्वत्वमतिरिक्तं, प्रतिग्रहादिजन्यस्य यथेष्टविनियोगजनकस्य व्यापारविशेषस्य धननिष्ठस्य स्वामिनिरूप्यस्य कल्पनादिति केचित् । तन्न, चौर्याद्यनन्तरं यथेष्टविनियोगात्तत्रापि स्वत्वकल्पनापत्तेः।स्वरूपसतः स(स्वोत्वस्य यथेष्टविनियोगहेतुत्वे मयेदमर्जितमिति ज्ञानाभावेऽपि यथेष्टविनियोगापत्तेः। तादृशज्ञानविशेषितस्य तस्य तद्धेतुत्वे लाघवादावश्यकत्वाच्च तादृशज्ञानस्यैव तद्धेतुत्वे स्वत्वाऽसिद्धेः । न च स्वत्वज्ञानमेव ततुर्विनियोगरूपायाः प्रवृत्तेरिष्टसाधनताधीजन्यतया तन्निरपेक्षत्वात् । न च स्वत्वविशिष्टस्यैवेष्टसाधनत्वं, स्वत्वास्पदाऽना
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३० ]
[वादमालायां
स्पदयोर्विनियोगे फले विशेषाभावात् , न हि परकीयानभक्षणे बुभुक्षा न प्रशाम्यतीति ।
न च यथेष्टविनियोगत्वं प्रवृत्तिगतो जातिविशेषस्तदवच्छिन्ने स्वत्वज्ञानमवश्यं हेतुरिति वाच्यम्, तादृशजाती मानाभावादनिष्टशङ्काजनितभयाभावादेव यथेष्टत्वोपपत्तः । भावेऽपि तत्रावश्यकन्वेन स्वार्जितत्वादिज्ञानस्यैव हेतुत्वाच्च । न च "प्रतिग्रहादिक्रिया प्रतिग्रहीत्रादिसम्बन्धजनिका कर्मक निरूप्यत्वाद्गमनवदि"त्यनुमानं तयोः स्वत्वाख्ये सम्बन्धे मानम् , कर्मकत भावेन सिद्धसाधनात् , । न च ग्राम गच्छतीत्यत्र संयोगवत्साक्षात्सम्बन्धः साध्यः; ग्रामं त्यजतीत्यादावनैकान्तिकत्वात् । न हि तत्र त्यागक्रियया कत मणोः कश्चित्साक्षात्सम्बन्धो जन्यते । नापि स्वस्वमित्यनुगतप्रत्यय एव स्वत्वे मानम् , तदसिद्धरननुगतस्यैव तद्विषयत्वात् । न चानुगतव्यवहारमात्रात्तत्सिद्धिः, शब्दानुगमेन विषयानुगमस्य कल्पयितुमशक्यत्वादन्यथा सिंहादेष्वपि हरिहरिरित्यनुगतव्यवहारादतिरिक्तो हरित्वपदार्थः कल्पनीयः स्यादिति नैयायिकसम्प्रदायः॥
नव्यास्तु स्वत्वं न यथेष्टविनियोगविषयत्वं, तादृशविनियोगोपायविषयत्वं वा । विषयताया धनस्वरूपत्वे पूर्व क्रयादेरुत्तरं च विक्रयादेः स्वत्वाऽप्रच्यवप्रसङ्गात् । क्रयादिस्वरूपत्वे च तदपगमेऽपि स्वत्वाभावप्रसङ्गात् । न च यद्व्यति
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स्वत्ववादः ]
[३१ रेकेण यथेष्टविनियोगाऽसम्भवनिश्चयः शास्त्राविरुद्धतदुपायविषयत्वरूपं यथेष्टविनियोगयोग्यत्वं स्वत्वम् , तदुपायानां क्रयप्रतिग्रहादीनां क्रियात्वेनास्थिरत्वेऽपि तद्विषयत्वं स्थिरमेव ज्ञाननिवृत्ताविव तद्विषयत्वम् । न चैवं यत्क्रीत्वा विक्रीतं, गृहीत्वा दत्तं, तत्रापि तद्विषयतासत्वाद्विक्रेत्रादिस्वत्वव्यवहारप्रसङ्गो, न हि क्रयाधुपायविषयत्वमात्रं योग्यता किन्तु स्वव्यतिरेकप्रयुक्तयथेष्टविनियोगाऽसम्भवनिश्चयसहकृतं, तत्र च न पूर्वक्रयव्यतिरेकप्रयुक्तो विनियोगाऽसम्भवः किन्तु विक्रयप्रयुक्त इति क्रयजनिता योग्यता विक्रयादेकस्य निवततेऽन्या त्वन्यस्योत्पद्यत इति प्रतियोगितावच्छेदकविशे. षिताऽभावभेदवत्तत्तद्वयतिरेकप्रयुक्तत्वविशेषितविनियोगाऽसम्भवनिश्चयभेदेन योग्यताभेदाभ्युपगमे दोषाभावादिति लीलावत्युपायलिखितेऽप्यास्थावन्धः क युक्तः । शास्त्राविरुद्धत्वविशेषणादाने चौर्यादिना गहीतेऽपि स्वत्वप्रसङ्गात्तदाने च शास्त्रस्यैव "परस्वं नाददीते"त्यादिरूपस्य स्वत्वाप्रतीतावप्रतीतेः । तस्मात्परस्वं नाददीतेत्यादिकं शास्त्रमेवातिरिक्तस्वत्वे प्रमाणमित्याहुः ।
तञ्च स्वत्वं प्रतिग्रहोपादान-क्रयण-पित्रादिमरणैर्जन्यते । दानादिमिश्च नाश्यते, कारणानामेकशक्तिमत्वात्कार्याणां वैजात्याद्वा कार्यकारणभावनिर्वाह इति पदार्थतत्त्वविवेककृतः। अत्र स्वत्वत्वावच्छिन्न प्रति कारणतावच्छेदकतया प्रतिग्रहादि
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३२ ]
[ वादम लायां वेका, स्वत्वनाशत्वावच्छिन्नम्प्रति कारणतावच्छेदकतया विक्रयादिष्वपरा शक्तिस्तृणादीनामिव वह्मौ सिद्धयति ।
स्वत्वत्वञ्च जातिरखण्डोपाधिर्वा । स्वत्वनाशे च जातेरसत्वेऽप्यखण्डोपाधिरेव जन्यतावच्छेदकः । वाकारोऽस्वरससूचनाय, स च बहुतरजातिकल्पनामपेक्ष्यैकस्याः शक्तेरेव कल्पनायां लाघवादिति रामभद्रसार्वमौमाः । प्रतिग्रहादीनामेकशक्तिमत्त्वेन स्वत्वमात्रेऽविशेषेण हेतुत्वे संकल्पभेदेन प्रतिग्रहादेः साधारण्येनाऽसाधारण्येन च स्वत्वोत्पत्तिः, उपादानादेम्त्वसाधारण्येनैवेति व्यवस्थित्यनिर्वाहात्स्वामिनिष्टतया विजातीयस्वत्वे प्रतिग्रहादीनां संकल्पविशेषादिसम्बन्धेन बिशिष्य हेतुत्वे त्वाद्यकल्पाऽस्वरस एव युक्त इति ध्येयम्।
यदि च चैत्रीयस्वत्वत्वावच्छिन्ने चैत्रीयप्रतिग्रहादीनामेकशक्तिमत्त्वेनैकशक्तिमत्सम्बन्धन विषयनिष्टतया हेतुत्वं पुरुषापेक्षया विषयानां बहुत्वेनावच्छेदककोटौ तनिःक्षेपायोगात् । प्रतिग्रहे चैत्रीयत्वञ्च चैत्रोद्देश्यकसंकल्पपूर्वकत्वं, तावदुद्देश्यकसंकल्पपूर्वकप्रतिग्रहाच्च तावत्स्वामिकस्वत्वसम्भव इति कार्यवैजात्यस्याऽनानुभविकत्वात्तदवच्छिन्ने विशिष्य हेतुत्वमयुक्तमिति सूक्ष्ममोक्ष्यते,तदा सार्वभौमोक्तमेव सम्यक् । . यत्तु क्वचिद्विक्रयप्रागभावविशिष्टः क्रयविनाशः, क्वचिच्च दानादिप्रागभावविशिष्टः प्रतिग्रहादिध्वंस एव स्वत्वं,
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स्वत्ववादः ] प्रतिग्रहादेःपूर्व प्रतिग्रहादिध्वंसविरहादाऽऽदानाद्यनन्तरं च तत्प्रामभावविरहान स्वत्वव्यवहारो, विक्रयादिप्रागभावविशिष्टस्य क्रयध्वंसस्य, क्रयध्वंसविशिष्टस्य विक्रयप्रागभावस्य च विनिगमकाभावेन तथात्वादाद्यमादाय स्वत्वमुत्पन्नमित्यस्य द्वितीयमादाय च 'स्वत्वं नष्टमि'त्यस्य प्रत्ययस्य सङ्गतिः, अतिरिक्तस्वत्ववादिना स्वत्वत्वमप्यतिरिक्तमुपेयमित्यावश्यकत्वादास्तामुपदर्शितेषु ध्वंसादिषु स्वत्वकल्पनापीति सार्वभौमैः सम्प्रदायमतं समाहितम् , तच्चिन्तयं, यदेवान्यस्मै दत्तं, कालान्तरे तेन दीयमानमात्मना प्रतिगृहीतं पुनश्चान्यस्मै दत्तं तत्र प्राथमिकदानानन्तरं पुनः प्रतिग्रहादर्वागत्यग्रिमदानप्रागभावविशिष्टताऽप्रच्यवेन स्वत्वव्यवहारप्रसङ्गात् । दानध्वंसाऽसमकालीनत्वेन दानप्रागभावविशेषणे चान्तरा प्रतिग्रहकृतस्वत्वोच्छेदप्रसङ्गात् । न च स्वप्रयोज्यदानप्रागभावोपादानात् प्रतिग्रहांतरप्रयुक्तदानप्रागभावमादायाऽदोष इति वाच्यम्, तथापि यत् प्रतिगहीतमदत्तमेव नश्यति तत्र स्वप्रयोज्यदानप्रागभावाऽमिद्धेः । तत्र शुद्धः प्रतिग्रहध्वंस एव स्वत्वं, शुद्धे ह्यतिप्रसक्ते विशेषणमुपादीयते । निर्विशेषणे च तत्र ध्वस्त. त्वव्यवहारोऽपि नास्त्येवेति चेत् ? न, आश्रयनाशेऽपि तन्नाशानुपपत्तेः । - किश्च क्लृप्तध्वंसादिष्वेवातिरिक्तस्वत्वत्वकल्पनेन स्वत्वापलापे क्लुप्ताधिकरणेष्वेवाऽभावत्वमात्रकल्पनेनाभावस्याप्य
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३४ ]
[ वादमालायां
पलापप्रसङ्ग इति यत्किञ्चिदेतत् । तस्मात्ततत्प्रतिग्रहादिजन्यं, तत्तत्तदानदिनाश्यं स्वत्वमतिरिक्तमेव । एतच्च वृत्तिनियामकविशेषणताविशेषण स्वर्णादिद्रव्यनिष्टं, 'स्वर्णे स्वत्वमिति प्रत्ययात् । निरूपकत्वाख्यविशेषणताविशेषेण च स्वामिनिष्ठम् , 'अत्रास्य पुरुषस्य स्वत्वमिति प्रत्ययात् । न चैवम स्मिन् पुरुषे एतद्रव्यस्वामित्वमि'त्यादिधीः कथं स्यात् ? निरूपकतासम्बन्धस्य वृत्त्यनियामकत्वादन्यथैतस्मिन् पुरुषे एतद्र्व्यस्वत्वमितिप्रत्ययस्यापि प्रसङ्गादिति चेत् १ अत्र वदन्ति निरूपकतासम्बन्धेन स्वत्वमेव न स्वामित्वम् , अपि त्वयमस्य स्वामी त्यादिप्रतीतिसिद्धं तदपि पदार्थान्तरम् । तच्च वृत्तिनियामकविशेषणताविशेषेण स्वामिनिष्टं, निरूपकत्वाख्यविशेषणताविशेषेण च धननिष्ठमिति न दोषः ।
केचित्तु स्वत्वमेव स्वामित्वम् , न तु पदार्थान्तरं, निरूपकतासम्बन्धस्य वृत्यनियामकत्वेऽपि तन्निरूपकत्वस्य स्वरूपसम्बन्धेन वर्तमानत्वादेवात्र पुरुषेऽस्य द्रव्यस्य स्वामित्वमिति प्रत्ययोपपत्तेरित्याहुः। तदसत्, विनिगमकाभावात् , स्वामित्वमेव पदार्थान्तरं तन्निरूपकत्वमेव स्वत्यमिति व्यत्ययस्यापि सुवचत्व त् , । स्वत्वस्वामित्वयोः स्वामित्वस्वत्वनिरूपकतात्मकत्वे स्वस्वामिपदशक्यतावच्छेदकगौरवाद्विभिन्नतदुभयपदार्थकल्पनाया एवौचित्यादिति ।
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स्वत्ववादः ।
अर्थवं स्वत्वस्वामित्वयोभिन्नपदार्थत्वे त्रस्य धनमित्यादौ स्वत्वं वा षष्टयर्थः स्वामित्वं वेत्यत्र विनिगमनाविरहः । न च स्वामित्वस्य षष्टयर्थत्वे चैत्रस्य धनमितिवद्धनस्य चैत्र इत्यपि प्रत्ययः स्याच्चैत्रस्य धननिरूपितस्वामि स्वाश्रयत्वादिति वाच्यम्, स्वत्वस्य षष्टयर्थत्वेऽपि तादृशप्रत्ययस्य दुर्वारत्वाद्धननिष्ठस्वत्वनिरूपकत्वाच्चैत्रस्य । षष्ट्यर्थस्वत्वस्य निरूपितत्वसम्बन्धेनैव प्रकृत्यर्थे विशेष्यतयाऽऽश्रयतासम्बन्धेनैव चानुयोगिनि विशेषणतयान्वयो न तु सम्बन्धान्तरेणेति व्युत्पत्तिकल्पने च स्वामित्वस्य षष्टयर्थत्वेऽपि षष्ठयर्थस्वामित्वस्य निष्ठतासम्बधेनैव प्रकृत्यर्थे विशेष्यतया निरूपकतासम्बन्धेनैव चानुयोगिनि विशेषणतयान्वयो न तु सम्ब. न्धान्तरणेति व्युत्पत्तेरपि सुवचत्वादिति चेत् १, स्वामित्वस्य षष्टयर्थन्वे चैत्रीये धनेऽपि नेदं चैत्रस्येति व्यवहारापत्तेः, स्वामित्वस्य चैत्रवृत्तितया तदभावरय सुतरां धने सत्त्वात् ।
अथ तत्र तत्संसर्गाभावबोधे तत्र तत्पदोपस्थापितस्य प्रतियोगिनः तादात्म्यातिरिक्तसम्बन्धेनान्वयबोधस्तन्त्रम् , नत्वाधाराधेयभावेन । येन च सम्बन्धेन यत्पदोपस्थापितस्य प्रतियोगिनोऽन्धयस्तत्सम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वं व्युत्पत्तिबललभ्यम् , अन्यथा स्वत्वस्यापि संयोगादिनाऽभावस्य सार्वत्रिकत्वेन तवाऽप्यतिप्रसङ्गात् । तथा च प्रकृते निरूपकतासम्ब
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३६ ]
[ वादमालायां न्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकचैत्रनिष्ठस्वामित्वाभावस्य धनादावभावान्नातिप्रसङ्ग इति चेत् ? न, तस्य वृत्त्यनियामकतयाऽत्यन्ताभावप्रतियोगितानपच्छेदकत्वात् । . ननु वृत्त्यनियामकसम्बन्धस्य कथं न प्रतियोगितावच्छेदकत्वम् १ येन सम्बन्धेन यत्र प्रतियोगिग्रहे तेन सम्बन्धेन तत्र तदभावग्रहस्तस्यैव तदभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वात् । येन सम्बन्धेन प्रतियोगिमति तदभावो नास्ति स एव प्रतियोगितावच्छेदक इत्युपगमे संयोगेन रूपाद्यभावादेरप्यसिद्धयापत्तेरिति चेत् ? न, संयोगादिना घटाभावादिप्रत्ययवनिरूपकतया स्वामित्वाद्यभावप्रत्ययविरहावृत्त्यनियामकसम्बन्धमात्रस्याभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वकल्पनात् । यदि च 'भूतलं न घट' इत्यादौ तादात्म्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वमानुभविकं, तत्र तादात्म्य संसर्गाविशेषितप्रतियोगितया घटविशिष्टाभावभानाभ्युपगमे 'घटो न घट' इत्यस्यापि प्रसंगात् , घटे घटात्यन्ताभावसत्त्वात् , धर्मात्यन्ताभावस्य धर्मिभेदत्वेऽपि तादात्म्यावच्छिन्नधर्मिनिष्ठप्रतियोगिताकत्वाभावाद् नातिप्रसङ्ग इति विभाव्यते, तदापि वृत्त्यनियामकसम्बन्धमात्रस्य संसर्गाभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वनियमो निर्वाध एव, तेन क्वचिदपि तदऽप्रत्ययात् । संयोगेन गगनाद्यभावे च गगनादिसंयोगो न प्रतियोगितावच्छेदकः, किन्तु संयोगत्वेन घटादिसंयोग एवेति न दोषः।
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स्वत्ववादः ]
[३७ न चवं स्वत्वस्य षष्टयर्थत्वेऽपि धनस्वामिन्यपि 'नायं धनस्येति व्यवहारापत्तिः, धननिरूपितस्वामित्वस्य पुरुषवृत्तित्वेऽपि धननिष्ठस्वत्वस्य पुरुषावृत्तित्वादिति वाच्यम्, इष्टत्वात् । स्वामित्वस्य षष्टयर्थत्वेऽपि तत्र निष्ठतासम्बन्धेनैव प्रकृत्यर्थान्वयस्य व्युत्पन्नतया तादृग्व्यवहारस्य दुर्वारत्वात् । न च तथापि वृत्त्यनियामकसम्बन्धस्याप्यभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वनये स्वामित्वस्य षष्टयर्थत्वे न किमपि बाधकमिति धाच्यम्, तन्नयेऽपि प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धेन प्रतियोग्यधिकरणत्वस्यैवाभावविरोधितया गगनादिसंयोगिनि घटादौ संयोगसम्बन्धावच्छिन्नगगनाद्यभाववच्चैत्रनिष्ठस्वामित्वनिरू- पकेऽपि धने निरूपकतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकचैत्रनिष्ठस्वामित्वाभावस्य वृत्तौ बाधकाभावेन चैत्रीयेऽपि 'नेदं चैत्रस्येति व्यवहारापत्तेदुरित्वात् ।
__ न चैवं संयोगसम्बन्धायच्छिन्नगगनाद्यभाववद्विषयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकज्ञानाद्यभावस्यापि केवलान्वयित्वं स्यात् , न स्याच विषयतासम्बन्धेन. ज्ञानादेः केवला'न्वयित्वम् , तस्याऽधिकरणत्वानियामकतया तेन सम्बन्धेन ज्ञानाद्यधिकरणत्वस्यैवाऽप्रसिद्धेरिति वाच्यम् , इष्टत्वात् , ज्ञानविषयत्वादेरेव केवलान्वयित्वात् । .. यदि च वृत्त्यनियामकसम्बन्धोऽप्यत्यन्ताभावप्रतियोगिता। वच्छेदकः, प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धेन प्रतियोगिसम्बन्धि
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३८ ]
[ वादमालायां
त्वमेवाभावधीविरोधि । अत एव प्रलय एव परमाणौ, उत्पत्तिकाल एव चावयविनि संयोगसम्बन्धावच्छिन्नगगनाद्यभावो नान्यदा । न च संयोगेन गगनकुण्डादेरवृत्तित्वं तेन तदभावस्वीकारं विना दुर्वचं, यत्सम्बन्धे यत्सम्बन्धावच्छिन्नाधारतायाँ वा यदधिकरणानुयोगिफत्व--यत्प्रतियोगिकत्वोमयाभावस्तेन तत्र तदवृत्तित्वमिति विशिष्यव निर्वचनात् । अत एव ज्ञानविषयत्वादिवद्विषयतासम्बन्धेन ज्ञानादिकमपि केवलान्वयि विषयतासम्बन्धावच्छिन्नज्ञानाद्यभावस्त्वलीकः, इति मतमाद्रियतं, तदाऽस्तु विनिगमकाभावात् स्वत्व- स्वामित्वोभयमेव षष्टयर्थः । तात्पर्यग्रहस्य नियामकत्वादेव च चैत्रस्य धनमित्यादौ नियमत उभयानवगमस्यान्यतरावगमस्य चोपपत्तेः।
इत्थं च निष्ठतया षष्ट्यर्थस्वामित्वान्वयतात्पर्य निरूपितत्वेनैव तत्र प्रकृत्यर्थान्वयस्य व्युत्पन्नत्वा'नायं धनस्ये'त्यस्याप्यनापत्तिरिति ध्येयम् ।
केचित्त अत्र चैत्रस्य स्वामित्वं नात्र चैत्रस्य स्वामित्वमित्यादिप्रतीत्यनुरोधान्निरूपकत्वमपि वृत्तिनियामक मेव । न चात्र स्वामित्वपदं स्वत्वपरं, सप्तम्या वा निरूपितत्वे लक्षणेति कल्पना युक्ता, गौरवात् । एतेनैवात्र स्वत्वनिरूपकत्वमेव स्वामित्वमित्येकदेशेऽपि, स्वत्वे सप्तम्यर्था
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स्वत्ववादः
[ ३६
न्वयो, नअर्थे च स्वत्वनिरूपकत्वसंसर्गाभावे चैत्रस्येत्यस्यान्वय इत्यपि प्रत्युक्तम् , 'नात्र चैत्रस्य स्वामित्वं किन्तु मैत्रस्ये' त्यत्र चैत्रनिष्ठस्वामित्वाभाव-मैत्रनिष्ठस्वामित्वयोरेकवृत्तित्वोल्लेखाच्च । न च निरूपकत्वस्य वृत्तिनियामकत्वे 'धनं स्वामी ति बुद्धिः स्यादिति वाच्यम् , स्वामित्वप्रकारकबुद्धेरिष्टत्वात् । 'स्वामी'त्यभिलापजनिका बुद्धिः स्यादिति चेत्न, तादृशामिलापे स्वामिचैत्रादिगतस्वरूपसम्बन्धेन विशिष्टबुद्धेरेव हेतुत्वात् । अन्यथा कालिकसम्बन्धोऽपि वृत्तिनियामको न स्यात् । 'कालो गौरि'त्याद्यभिलापजनकबुद्धेस्ततोऽभावात् । तस्माद् यथा कालिकसम्बन्धेन विशिष्टबुद्ध रिदानी घट' इत्यादिरेवाभिलापस्तथा निरूपकतासम्बन्धेन स्वामित्वनिष्ठबुद्धेश्चैत्रस्य स्वामित्वमित्यादिरेवाभिलाप इति ।
किं च, चैत्रस्य न धनमि'त्यादौ 'स्वामित्वसम्बन्धेन धनाभावश्चैत्रसम्बन्धी'त्येव बोधः, धनस्य प्रतियोगित्वोल्लेखान्यथानुपपत्या वृत्त्यनियामकस्यापि स्वामित्वादेः सम्बन्धस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वाङ्गीकारात् । अत 'एवाऽधनोऽयं, धनशून्योऽयमपुत्रोऽयं 'पुत्ररहितोऽसावि'त्यादयो व्यवहाराः। न चात्र धनादिपदं तत्स्वामित्वपरं, मुख्य बाधकाभावात् । न च स्वा. मित्वादिसम्बन्धेन धनत्वाद्यवच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावान्तरकल्पनमेव बाधकम् , धनादिस्वामित्वत्वाद्यवच्छिन्नाभावानतिरिक्तत्वात् । तथापि स्वामित्वसम्बन्धावच्छिन्नधनादिनिष्ठप्र
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४० ]
[ वादमालायां
तियोगितान्तरकल्पने गौरवमिति चेत् ? न, प्रतियोगितायाः धनादिस्वरूपायाः क्लृप्तत्वेन गौरवाभावाद्धनादेः प्रतियोगित्वोल्लेखिप्रतीतेगौरवस्य प्रमाणिकत्वाच्च । । - एतेन स्वामित्वादिसम्बन्धेन धनाद्यभावकल्पने तद्बुद्धौ धनादिमत्तानिश्चयत्वेन प्रतिबन्धकत्वान्तरकल्पने गौरवमित्यपास्तम् । स्वामित्वादेः प्रतियोगितानवच्छेदकत्वेऽपि विशेषाऽदर्शिनस्तादृशप्रतीतेस्तत्सम्बन्धेन तथा प्रतिवध्य-प्रतिवन्धकमावस्यापि क्लप्तत्वाच्च । स्वामित्वादिसम्बन्धेन ननोऽभावबोधनेऽनुयोगिपदे षष्टयादेर्नियामकत्वाञ्च नातिप्रसङ्गः ।
किश्च, नेदं चैत्रस्येत्यत्र स्वत्वाभावबोधोपगमे षष्ठ्यर्थस्वत्वाभावबोधम्प्रति प्रथमान्तपदजन्योपस्थितेर्नियामकत्वकल्पने 'पुत्रस्य न धने पितुर्दुष' इत्यादिवाक्यात्पुत्रस्वत्वाभाववद्धने पितुद्वेष इत्यन्वयबोधप्रसङ्गवारणं सम्भवति । स्वामित्वसम्बन्धेन धनाभावबोधोपगमे तु नेतद्वय - त्पत्तिकल्पनं, तत्र धने सप्तम्या निराकाँक्षत्वात् । सामान्यत एवाभावत्वावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपितप्रतियोगित्वसम्बन्धा-- वच्छिन्नप्रकारतासम्बन्धेन नामपदसमभिव्यातनपदजन्यशाब्दबोधे प्रथमान्तपदजन्योपस्थितेः, प्रतियोगित्वसम्बन्धावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितमुख्यविशेष्यतयैवाभावशाब्दबोधे तादृशनपदजन्योपस्थितेर्वा नियामकत्वेनानतिप्रसङ्गादन्यथा भूतले न घटेऽप्रीतिरित्यादेारणाऽसम्भवादिति लाघवमित्याहुः ।
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स्वत्ववाद: ]
[४१ । तच्चिन्यम् , कारणत्वादेरिव स्वामित्वस्य निरूपकताया वृत्त्यनियामकत्वात् । 'घटे दण्डस्य कारणता न पटें' इत्यत्र दण्डनिष्ठकारणतायां घटनिरूपितत्व-पटनिरूपितत्वाभावप्रतीतिवदत्र चैत्रस्य स्वामित्वं नापरत्रे'त्यत्र चैत्रनिष्ठस्वामित्वे एतनिरूपितत्वापरनिरूपितत्वाभावप्रतीतिसम्भवात् । 'चैत्रस्य 'नधन मित्यादेः 'स्वामित्वसम्बन्धेन धनाभावश्चैत्रसम्बन्धी ति बोधाभ्युपगमे च 'दण्डस्य ने पट' इत्यादेरपि 'कारणत्वसम्ब"न्धेन पटोभावो दण्डसम्बन्धी'त्यादिबोधप्रसङ्गः । “दण्डस्य 'पट इत्यत्र कारणतासम्बन्धेन पटवत्ताज्ञानाऽभावाइण्डस्य 'न पट इत्यत्र तेन सम्बन्धेन तदभावावगाही बोधो न कल्प्यते" इति चेत् १ तर्हि चैत्रस्य धनमित्यत्रापि स्वामित्वसम्बन्धेन धनवत्ताज्ञानाभावाच्चैत्रस्य धनमित्यत्रापि न तेन तदभावावगाहियोधकल्पनं युक्तम् । . .
"चैत्रस्य धनमित्यत्र स्वामित्वसम्बन्धेन धनवत्त्वमेव चैत्रे प्रतीयते, स्वामित्वसम्बन्धावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितविशेयतया. शाब्दबोधे च षष्टयन्तपदजन्यपदार्थोपस्थितेहेतुत्वानियमतः षष्ठीप्रयोगस्तादृशनियमार्थमेव षष्टयनुशासनमिति
चैत्रस्य न धनमित्यत्र स्वामित्वसम्बन्धेन धनाभावावगाहित्वं कल्प्यत" इति चेत् ? तर्हि 'दण्डाद् घट' इत्यत्र कारणतासम्बन्धेन, घटवत्वज्ञान. एव पश्चमीप्रयोगस्तन्त्रमिति दण्डान पट इत्यत्र तेन तदभावप्रत्ययोऽपि दुर्वारः ।
AN
.
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४२ ]
[ वादमालायां किंच 'चैत्रस्य धनं न तु मैत्रस्य, मैत्रस्य धनं न तु चैत्रस्ये'त्यादौ एकस्वत्वापरस्वत्वाभावयोरेकधनविशेष्यकत्वानुभवान्न धनस्य प्रतियोगित्वोल्लेखोद्भावनेन स्वामित्वसम्बन्धेन तदभावकल्पनं युक्तम् । अधनोऽयमित्यादिव्यवहारेण स्वामित्वसम्बन्धावच्छिन्नाभावकल्पने चाऽनाथोऽयं भृत्य इत्यादिव्यवहारेण स्वत्वसम्बन्धावच्छिन्नाभावस्यापि कल्पनप्रसङ्गः, तथा च चैत्रस्य न धनमित्यत्र स्वामित्वसम्बन्धेन धनाभावश्चैत्रे, स्वत्वसम्बन्धेन चैत्राभावो वा धने भासत इति विनिगमनाविरहो दुरुद्धर एव । तस्मात्प्रागुक्तदिशा स्वत्वस्य षष्ठ्य र्थत्व एव सर्व सुन्दरम् ।
'पुत्रस्य न धने पितुद्वेष' इति प्रयोगवारणाय च विशिष्य नियमान्तरकल्पनं तु प्रमाणिकत्वाददुष्टम् । चैत्रो न पचतीत्यादेः' 'पाककृत्यभाववान् चैत्र' इत्यादिबोधवारणाय प्रत्ययार्थाभावप्रकारकबोधसामान्य एव प्रथमान्तपदजन्योपस्थितेहेतुत्वाच्चेति दिक।
इदं तु बोध्यं, सम्बन्धत्वस्याऽखण्डोपाधित्वे तदेवषष्ठयाः शक्यतावच्छेदकं, स्वत्वादौ तु लक्षण वेति । नव्यास्तु स्वत्वं स्वामित्वञ्चैक एव पदार्थः । स च विलक्षण विशेषणतयाऽत्र स्वत्वमिदं स्वमि'त्यादिव्यवहारकारी, विलक्षणविशेषणतया चाऽत्र स्वामित्वं पतित्वं वे'त्यादिव्यवहारकारी, तदुभयभेदेऽपि तयोरवश्यं पुरुषधननिष्ठविशेषणताभेदाभ्युपगमादित्याहुः ॥ संपूर्णः स्वत्ववादः ।
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[ ४३ न्यायाचार्य मुनिपुङ्गव-श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायकृतवादमालान्तर्गतः
* सन्निकर्षवादः * अथ सन्निकर्षः ॥ तत्र द्रव्यचाक्षुषे चक्षुःसंयोगो हेतुः, उद्भतरूपश्च तत्सहकारीति न चक्षःसंयुक्तपिशाचादेश्चाक्षषापत्तिः । उद्भतरूपस्य च संग्राहकत्वलाघवादात्मान्यद्रव्यप्रत्यक्षत्वं मूर्तप्रत्यक्षत्वं वा कार्यतावच्छेदकं, तेन वाय्वादेरप्रत्यक्षत्वमेव । द्रव्यसाक्षात्कारत्वावच्छिन्नं प्रति च महत्वत्वेन हेतुतेति परमाणोन साक्षात्कारः, न वा द्रव्यमानसजनकात्ममनःसंयोगसत्त्वात् मनसोऽपि मानसापत्तिः । मनःप्रतियोगिकविजातीयसंयोगस्य द्रव्यमानस हेतुत्वे तु गौरवमिति बोध्यम् ।
__ न च तमःस्थितघटादेरपि चाक्षुषप्रसङ्गः, तत्र तदा चक्षुःसंयोगस्य महत्त्वोद्भतरूपयोश्च सत्त्वात् , न च तदानीं चक्षुःसंयोगे मानाभावः, द्रव्यवृत्त्यभावचाक्षुषहेतुचक्षुःसंयुक्तविशेषणतानुराधेन तत्स्वीकारावश्यकत्वादिति वाच्यम् , महदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकसंयोगस्यापि द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुत्वात् । परमाणुरूपेण तप्तजलस्थेन सुवर्णरूपेण च तेजसा व्यभिचारवारणाय महदादिविशेषणानि । न चालोकचाक्षुष एव व्यभिचारस्तत्राप्यालोकगगनसंयोगसत्वात् ।
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४४ ]
[ सन्निकर्षवादः
. सुवर्णभिन्नं यत्तेजस्तद्भिन्नद्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रत्येवोक्तालोकसंयोगस्य हेतुत्वमित्यन्ये । प्रभासंयोगत्वेनैव हेतुत्वं तु), प्रभात्वं तु जातिविशेष इति तु नव्याः । यद्यप्येवं बिडालादिचाक्षुषे व्यभिचारः, मानुषीयद्रव्यचाक्ष. पत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुत्वोक्तावप्यञ्जनादिना तमसि पश्यतां चाक्षुषेव्यभिचारः । तथापि येषां न कदाप्यञ्जनादिना प्रत्यक्षं, तत्पुरुषीयद्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रत्येव निरूक्तालोकसंयोगस्य हेतुत्वम् , येषां तु कदाचिदञ्जनादिनापि प्रत्यक्षं तत्पु. रुषीयद्रव्यचाक्षुषे तत्पुरुषीयाञ्जनसंयोगाभावविशिष्टालोकसंयोगाभावाभावत्वेन हेतुत्वम् । बिडालादिचाक्षुषे तु बिडालादिचक्षःसंयोगत्वेनैवेति न दोष इति मथुरानाथप्रभृतयः ।।
अत्रालोकसंयोगाभावे तत्पुरुषीयाञ्जनसंयोगाभाववैशिष्ट्य स्वाश्रयचक्षुःसंयोगाधिकरणवृत्ति वसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकतत्पुरुषीयाञ्जनसंयोगाभावस्य विशेषणताविशेपरूपं ग्राह्य, तेन नाञ्जनसंयोगकाले प्यालोकसंयोगाभावे तदभावसत्वादतिप्रसङ्गः, न वा विनिगमनाविरहः । समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाञ्जनसंयोगाभावस्य स्वाश्रय
चक्षुःसंयोगाधिकरणवृत्तित्वसम्बन्धेन वैशिष्टयं तु प्रदेशान्तरे ' तत्सत्वेऽपि तदभावसत्त्वानिवेशनाऽनहम् । उक्तसम्बन्धाव: च्छिन्नतदभावस्तु नाऽव्याप्यवृत्तिरिति न तन्निवेशेऽप्येष दोष इति बोध्यम् ।।
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सन्निकर्षवादः ]
[ ४५
चैत्रीयत्वाद्यनिवेशेन चक्षः संयोगस्य चाक्षुषहेतुत्वे त्वञ्जनसंयोगालोकसंयोगयोः स्वस्वाव्यवहितोत्तरनरचाक्षुषत्वाव च्छिन्न एव हेतुत्वं द्रष्टव्यम् । अथैवमप्येकावच्छेदेना लोकसंयोगवत्यपरावच्छेदेन चक्षसंयोगे चाक्षुषापत्तिरिति चेत् न, चक्षुः संयोगावच्छिन्नालोकसंयोगत्वेन हेतुत्वात् ।
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अत्र मथुरानाथप्रभृतयः - आलोकसंयोगावच्छिन्नत्वं न तत्सामानाधिकरण्यं भिन्नावच्छेदेनोभयसंयोगेऽतिप्रसङ्गात् नापि स्वरूपसम्बन्धविशेषो, मानाभावात्, अन्यथा भूतलनिष्ठघटपटसंयोगयोरपि मिथोवच्छेद्यावच्छेदकभावापत्तेः । न च चतुःसंयोगे द्रव्यचाक्षुपकारणतावच्छेदकतयैवालोकसंयोगावच्छिन्नत्वसिद्धिः, तदवच्छेदकतया तत्र धर्मान्तरसिद्धावपि तदवच्छिन्नत्वासिद्धेः । न चालोकसंयोगावच्छेदकदेशावच्छिन्नचक्षुः संयोगत्वेन हेतुत्वम् विनिगमनाविरहेण चक्षुः संयोगावच्छ्देकावच्छिन्न लोकसंयोगस्यापि हेतुत्वात् कारणतावच्छेदकस्य प्राकू सखापेक्षणाद्वा नालोकविगमेऽपि चक्षुषापत्तिरित्युक्तावपि निस्तारः, यत्रैकस्यैव पटस्यार्द्ध तमसि, अर्द्ध चालोके तत्र तमोऽवच्छेदेन चक्षुः संयोगेऽपि प्रत्यक्षापत्तेः, आलोकसंयोगावच्छेदकीभूतदीर्घ तन्तुव्यक्त्यवच्छेदेन तत्र चक्षुः संयोगाऽप्रतिघातात् । न चालोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नावच्छेदकताकचक्षुः संयोगत्वेन हेतुत्वोक्तावपि निस्तारस्तादृशदीर्घा शुव्यक्तिस्थले व्यभिचारानुद्धारात् । तस्मा'
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४६]
[वादमालायां
द्विलक्षणचक्षुःसंयोगत्वेनैव द्रव्यचाक्षुषहेतुत्वम् । तच्च वेलक्षण्यं फलबलकल्प्यमिति तमसि विलक्षण चक्षुःसंयोगाभावादेव न चाक्षुषमित्याहुः।
तचिन्त्यम् , आलोकसंयोगावच्छेदकभागानवच्छिन्नालोकसंयोगावच्छेदकावच्छिनचक्षुःसंयोगत्वेन हेतुत्वे दोषाभावात् । दीर्घतन्तुव्यवतेरपि तमःस्थभागस्यालोकसंयोगानवच्छेदकत्वात् , अन्यथेयं तन्तुव्यक्तिरियती तमसीयती चालोक इतिव्यवहागनुपपत्तेः । विलक्षणचक्षुःसंयोगाभ्युपगमेनोक्तदोषोद्धारे च विनश्यदवस्थालोकसंयोगदशायां चक्षःसंयोगोत्पच्यालोकसंयोगनाशदशायां घटप्रत्यक्षापत्तिः । न च पूर्वक्षणे चक्षगत्मकाश्रयनाशपूर्व तदानीं चक्षःसंयोगनाशोपगमान्न दोष इति वाच्यं, अनन्तचक्षुरादिनाशकल्पने गौरवाद्विनश्यदवस्थालोकक्षणोत्पत्तिकचक्षुषस्तदानीं नाशायोगाच्च । न च तत्पुरुषीयद्रव्यचाक्षुषे तत्पुरुषीयविलक्षणचक्षुःसंयोगत्वेन विलक्षणालोकसंयोगत्वेन च पृथग्धेतुत्वान्न दोष इति वाच्यम् , चैत्रादिचाक्षुषजनकतावच्छेदकचक्षःसंयोगालोकसंयोगनिष्ठान-- न्तवैजात्यकल्पनापेक्षयाऽस्मदुक्तरीत्या हेतुत्वस्यैव युक्तत्वात्।
यदपि तैरुच्यते-द्रव्यचाक्षुषे न शुद्धचक्षुःसंयोगत्वेन हेतुत्वं, अम्थूलावयवावच्छेदेन चक्षुःसंयोगे चाक्षुषापत्तेः । नापि स्थूलावयावावच्छिन्नचक्षुःसंयोगत्वेन, त्रुटिचाक्षुषे व्यभिचा
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[ ४७
सन्निकर्षवादः ]
रात्तदवयवस्यास्थूलत्वात् । न च स्थूलावयवसमवेतचाक्षुपत्वस्य कार्यतावच्छेदकत्वादयमदोषः, यत्र कपाले परमाण्ववच्छेदेन चक्षुः संयोगाद् घटेऽपि तदवच्छिन्नकपालावच्छेदेनैव सः, तत्कपालात्मकस्थूलावयवावच्छिन्नचक्षुःसंयोगस्य घटे सच्चात्तदानीं तच्चाक्षुषाऽऽपत्यनुद्धारात् । न च निरवच्छिन्नस्थूलावयवनिष्ठावच्छेदकताकचक्षुः संयोगहेतुत्वान्न दोषः, शर्कराद्यवच्छिन्नकपालावच्छेदेन चक्षुः संयोगेऽपि घटाऽप्रत्यक्षतापत्तेः, इति विज तीयचक्षुः संयोगत्वेन चाक्षुषहेतुतये वै तदुपपत्तिरिति ।
तदपि न रमणीयम्, स्थूलावयवसमवेतचाक्षुषत्वावच्छिन्नेऽस्थूलावयवानवच्छिन्नस्थूलावयवाऽवच्छिन्न चक्षुः संयोगस्य हेतुत्वेनैतद्दोषोद्धारात् । त्रुटिचाक्षुषे त्वालोकसंयोगवद्वातायनावच्छिन्नचक्षुः संयोगस्यावश्यं पृथग्धेतुत्वेनानुपपत्यभावात् । यदपि स्वगोलकादेरग्रहणं विलक्षणचक्षुः संयोगाभावादेवोपपादयितुं शक्यमित्युद्भाव्यते, तदपि तुच्छम् अग्रावच्छिन्नचक्षुः संयोगस्य ग्राहकत्वादेव स्थगोलकादेरग्रहणस्य प्रकाशकृतोपपादनात् । युक्तञ्चैतद् अन्यथा यच्चक्षुः क्रियया घटादौ गोलके चैकदा नाना संयोगो जनितः, तत्क्रियाजन्यतावच्छेदेकवै जात्यशालिसंयोगवद्गोलकप्रत्यक्षस्य दुर्निवारत्वात् ।
यदपि 'दर्पणे मुखमि'ति चाक्षुषं दर्पणादिस्वच्छद्रव्यप्रतिहतस्य चक्षुषः स्वमुखादौ विलक्षणसंयोगोत्पादाभ्युपगम एव सूपपदम्, कार्योन्यधर्माणां यथाकार्यमुन्नयनादित्युद्.
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४८ ]
[वादमालायां
घोष्यते । तदप्याऽऽपातरमणीयम् , तत्र मुखविशेष्यकचाक्षुषस्यानभ्युपगमाद्दर्पणविशेष्यकमुखप्रकारकबोधस्यैवाभ्युपगमात्तदुत्तरं दर्पणे मुखमिति मुखविशेष्यकमानसभ्रमस्यापि सम्भवात् । न चैवं दोषकल्पनायां गौरवम् , आदर्शवृत्तित्वांशे भ्रमअनकदोषकल्पनायाः परस्याप्यावश्यकत्वात् । किञ्चैकत्र दर्पणे दशमुखप्रतिविम्यस्थले तव शतमुखचक्षुःसंयोगकल्पनं मम तु दशदर्पणनयनसंयोगकल्पनमेवेति लाघवम् । अपि च तब बहुविधानां मुख चक्षुःसंयोगगतविलक्षणजातीना, तदवच्छिन्नजनकतावच्छेदिकानां क्रियागतजातीनां, तदवच्छिन्नजनकतावच्छेदकाभिघातगतजातीनां च कल्पने गौरवमिति दिक् ।
यदि चालोकसंयोगस्याप्यस्थूलावयवावच्छेदेन तदव च्छिन्नस्थूलावयवावच्छेदेन च सच्चे न प्रत्यक्षमिति स्थूलावयवसमवेतचाक्षुषत्वावच्छिन्ने आलोकसंयोगानवच्छेदकभागानवच्छिन्नालोकसंयोगावच्छेदकास्थूलावयवानवच्छिन्न-- स्थूलावयवावच्छिन्नचक्षुःसंयोगत्वेन हेतुत्वे गौरवाद्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्ने विलक्षणालोकसंयोगत्वेन विलक्षणचक्षुःसंयोगत्वेन च हेतुत्वमेव युक्तं लाघवात् , वैजात्यानन्त्य तदवच्छिन्नहेतुत्वादिकल्पनागौरवस्य च फलमुखत्वादिति विभाव्यते-तदाऽस्तु चक्षुःसंयोगगतं वैजात्यम् , तच्च कर्मजन्यतावच्छेदकजातिव्याप्यम् । चक्षुर्व्यापारं विना कुत्रापि चाक्षुषानुपपत्तेः, पूर्वोत्पन्नचक्षुःकर्मणा कपालनाशकाले यत्र चक्षुर्घटसंयोगस्तत्र
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सन्निकर्षवादः ]
[४६ त्यघटचाक्षुषे संयोगजचक्षुःसंयोगस्य स्फुटव्यभिचाराच्च । तथा च न कर्मजन्यताद्यवच्छेदिकया सांकर्यम् ।
वस्तुतः कर्मसंयोगजन्यतावच्छेदिका नानैव जातयः । कार्यतावच्छेदकानामननुगतत्वेऽपि क्षत्यभावात् । एवं च चाक्षुपोषधायकचक्षुःसंयोगगतं कर्मसंयोगप्रयोज्यं जातिद्वयं द्रव्यचाक्षषप्रयोजकजातेाप्यमेवेति व सांकर्यम् । एतेन यत्र चक्षःकर्मणा कपालचक्षःसंयोगजननकाले घटोत्पादोऽनन्तरं च कपालचक्षुःसंयोगाद् घटचक्षुःसंयोगचक्षुःक्रियानाशौ तत्रोचरकाले घटप्रत्यक्षानुपपत्तिः, कर्मजन्यचक्षुःसंयोगस्य घटे विरहादित्यपास्तम् ।
न चै(न्वे)वं द्रव्यचाक्षुषे उद्भूतरूपस्य हेतुत्वं न स्यात् , पिशाचादौ विलक्षणचक्षुःसंयोगविरहादेव चाक्षुषानुपपत्तेः । चक्षषि च चक्षाप्रतियोगिकविलक्षणसंयोगाभावादेव दोषाभावाद्धत्वन्तरकल्पनापेक्षया क्लृप्तकारणे चक्षुःप्रतियोगिकत्वमात्रनिवेशस्यैव लघुत्वेनौचित्यात् । घटादेः स्पार्शनदशायां चाक्षुषापत्त्या चक्षुःप्रतियोगिकत्वेन चाक्षुषहेतुत्वधौव्याच्च । परमाण्वाद्यवच्छेदेन त्वक्संयोगादपि घटादिस्पार्शनप्रसङ्गेन त्वक्संयोगादेव्यस्पार्शनजनकत्वस्यापि तादृशचैजात्येनैवावच्छेदात् । न च प्रभायाश्चाक्षुषत्वानुरोधेन द्रव्यस्पार्शनजनकतावच्छेदकं वैजात्यं द्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदकवैजात्याद्भिन्नमेव युक्तं न तु तदेवेति वाच्यम् ,
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५० ]
[वादमालायां
तादृशवेजात्यान्तरकल्पने गौरवात् । वायोरस्पार्शनत्ववत् प्रभाया अचाक्षुषत्वेऽपि बाधकाभावात् । भिन्नस्यापि तस्येतरव्याप्यत्वेन घटादौ चाक्षुषजनकस्यैव संयोगस्य स्पार्शनजनकत्वेनोक्तदोषानुद्वाराच्च । किञ्चैकस्य विलक्षणचक्षुःसंयोगदशायामन्यस्य चाक्षुषापत्त्या तत्पुरुपीयद्रव्यचाक्षुपत्वावच्छिन्नं प्रति तत्पुरुषीयचक्षःप्रतियोगिकविलक्षणसंयोगत्वेन गुरुणापि हेतुत्वमावश्यकम् । वस्तुतः समवेतत्वेनेव स्वप्रतियोगिकत्वेन चक्षुर्विशिष्टत्वमेव निविशत इति क गौरवमिति चेत् ?
न, द्रव्यवृत्त्यभावचाक्षुषं प्रत्यपि तादृशचक्षःसंयोगवद्विशेषणतैव प्रत्यासत्तिर्वाच्याऽन्यथा ऽन्धकारेऽपि चक्षःसंयुक्तवाय्यादिविशेषणतया वायवादो रूपाद्यभावग्रहप्रसङ्गात् । इत्थं चालोकसंयोगदशायां वाय्वादौ रूपाद्यभावग्रहवेलायां वाय्वादिचाक्षुषापत्तेरुद्भूतरूपहेतुतयैव वारयितु शक्यत्वात् । न च चतुःसंयुक्तविशेषणतायां द्रव्यचाक्षुषप्रयोजकवैजात्यं न निविशने किन्त्वालोकसंयोगावच्छिन्नत्वमेवेति वाच्यम्, तनिवेशे गौरवस्यैव वैजान्यनिवेशकत्वात् । न चाभावचाक्षषजनकताव. च्छेदकं वैजात्यान्तरमेव कल्पनीयम् , तत्कल्पनापेक्षयोद्भूतरूपहेतुत्वस्यैव युक्तत्वात् । अन्यथा स्ववृत्यभावविषयकघटादिचाक्षुषस्थले घटादावनन्तचक्षुःसंयोगकल्पनापत्तेः, फलमुखगौरवस्यापि कचिद्दोषत्वात् । एवं परमाण्वादौ महत्त्वाभाव
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सन्निकर्षवादः ]
Dxp
प्रत्यक्षजनकचक्षुःसंयुक्तविशेषणतानुरोधेन विलक्षणसंयोगसवध्रौव्ये महत्त्वस्यापि पृथग्घेतुत्वमावश्यकम् ।
यदि च द्रव्यचाक्षषप्रयोजकजातेापकमेवाऽभाचचाक्षुषप्रयोजकजात्यं, अतो न घटादावभावप्रत्यक्षानुरोधेन चक्षुःसंयोगान्तरकल्पना । वाय्वादौ तादृशचक्षुःसंयोगसत्त्वेऽपि द्रव्यचाक्षुषप्रयोजकजात्याश्रयस्याऽसत्त्वान्न तत् प्रत्यक्षमिति विभाव्यते, तदा रूपस्याऽहेतुत्वेऽपि न क्षतिः ।
अथ द्रव्यसमवेतचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति चक्षुःसंयुक्तसमवायस्य प्रत्यासत्तित्वात्तयैव प्रत्यासत्या घटादिप्रत्यक्षसम्भचाच्चक्षःसंयोगत्वेन हेतुत्वे मानाभावः।तर कपालचक्षुःसंयोगानन्तरं घटस्योत्पत्तिक्षणे द्वितीयक्षणे वा तत्प्रत्यक्षस्येव ममापि कपालविनाशदशायां घटचक्षुःसंयोगोत्पत्त्या घटप्रत्यक्षस्याऽ. नुपगमे क्षत्यभावात् । न चात्मप्रत्यक्षानुरोधेन द्रव्यसाक्षाकारत्वावच्छिन्ने इन्द्रियसंयोगत्वेन हेतुत्वाच्चक्षुःसंयोगादेरपि द्रव्यचाक्षुषहेतुत्वमुपपद्यत इति चिन्तामणिकृदुक्तं युक्तम, इन्द्रियत्वस्यैकस्याभावाद्विशिष्यकार्यकारणभावविश्रामे द्रव्यमानसत्वावच्छिन्नं प्रत्यात्ममनःसंयोगत्वेन हेतुत्वेऽपि द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्ने चक्षुःसंयोगत्वेन हेतुत्वस्य नियुक्तिकत्वात् । न चैवं पिशाचतद्रूपादेः प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गः, द्रव्यसमवेतचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रतिस्याश्रयसमवेतसम्बन्धेनोद्भतरूपत्वे
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५२
[ वादमालायां
नापि हेतुत्वात् । इत्थं च द्वयणुकसिद्धिरप्यावश्यकी, तदसत्त्वे त्रसरेण्वप्रत्यक्षतापत्तेः । महत्त्वं च समवायेन द्रव्यसाक्षात्कारत्वावच्छिन्नं प्रत्येव, द्रव्यान्यतत्समवेतसाक्षात्कारत्वावच्छिन्नं प्रति च स्वाश्रयसमवेतत्वप्रत्यासत्या हेतुस्तेन न द्वयणुकस्य तदीयरूपादेर्वा साक्षात्कार इति चेत् ?
उच्यते-द्रव्यसमवेतचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति चक्षुःसंयुक्तसमवायत्वेन हेतुतया न निर्वाहः । परमाणु-- द्वयणुक-पिशाचादिसन्निकर्षादपि द्रव्यत्वसत्तापृथिवीत्वादिचाक्षुषत्वापत्तेः, घटादिगतमहत्त्वोद्भूतरूपयोरपि तत्र स्वा. श्रयसमवेतत्वप्रत्यासत्या सत्त्वात् । महत्त्वोद्भूतरूपयोः प्रत्यासत्तिमध्ये निवेशे च त्रुटेरचाक्षुषत्वाऽऽपत्तेः । द्रव्यान्यद्रव्यसमवेतत्वस्य कार्यदिशि प्रवेशे त्रुटिचाक्षयानुरोधेनैव द्रव्यचाक्षुषे चक्षुःसंयोगहेतुतावश्यकत्वात् । न च त्रुटिचाक्षु. षत्वावच्छिन्नं प्रत्येव तद्धेतुत्वं, द्रव्यत्वापेक्षया त्रुटित्वस्य गुरुत्वात् । घटाद्यनन्तव्यक्तीनां कार्यतावच्छेदककोटिनिवेशे गौरवानिश्चिताऽव्यभिचारकंत्रुटिचाक्षषत्वमेव कार्यतावच्छेदकमिति पुनरुत्तानाः।
परमाणवाद्यवच्छेदेन घटादिसन्निकर्षेऽपि तद्गतरूपाद्यग्रहाद् द्रव्यसमवेतचाक्षुषप्रयोजकचक्षुःसंयोगगतवैजात्यस्वीकारेणैव परमाण्वादिघटितसन्निकण द्रव्यत्वाद्यग्रहोपप
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सन्निकर्षवादः ]
[ ५३ त्तावपि तादृशविजातीयसंयोगस्य द्वयणुके स्वीकारे तद्गतरूपादिप्रत्यक्षापत्तिस्तत्र तदस्वीकारे च त्रुटेरचाक्षत्वापत्तिरिति त्रुटिचाक्षुषानुरोधेन द्रव्यचाक्षुषे चक्षुःसंयोगस्य हेतुत्वमावश्यकमिति बोध्यम् । एतेन विजातीयैकत्वनिवेशोऽपि व्याख्यातः ।
यसु गुरुत्वत्वस्य तद्वयाप्यतोलकत्वादेः स्पर्शत्वरसत्वादेश्चाक्षुषत्ववारणाय तादात्म्येन तत्तद्वयक्तित्वेन चाक्षुषप्रतिबन्धकत्वकल्पनामपेक्ष्य जातिचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रत्याश्रयचाक्षुषस्य हेतुत्वमेव कल्प्यते लाघवात् । तथा च परमाण्वादिमात्रसन्निकर्षदशायामाश्रयचाक्षुषाभावादेव द्रव्यत्वाधचाक्षुषत्वोपपत्तेद्र व्यसमवेतचाक्षुषं प्रत्येव संयुक्तसमवायत्वेन हेतुत्वं निराबाधम् । न चैकजात्यायचाक्षुषादपरजातिप्रत्यक्षापत्तिः, विषयतया जातिचाक्षयं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेनाश्रयचाक्षुषस्य हेतुत्वात् । न च यत्र घटनाशदशायां घटस्य चाक्षुषप्रत्यक्षं, तदुत्तरं च पिशाचेन चक्षुःसंयोगस्तत्र द्रव्यत्वचाक्षुषप्रसङ्गः, आश्रयचाक्षुषसन्निकषयोः सत्वादिति वाच्यम्, इष्टत्वादिति मतम् । तदतिस्थवीयः । विनापि घटचाक्षुषं घटघटत्व योरेकदा निर्विकल्पकचाक्षुषोत्पत्त्या व्यभिचारात् ।
न च जातिचाक्षुषत्वमाश्रयचाक्षुषजन्यतावच्छेदकं, किन्तु गुणकर्मजातिसाधारण्येन लाघवाद्व्यभिन्नसमवेतचाअषत्वमेव । घटत्वस्येव घटीयरूपादेरपि घटनिर्विकल्पकोपरमेव चाक्षुषोपगमेऽपि क्षत्यभावात्पिशाचक्रियारूपादीना
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५४ ]
[ वादमालायां
मप्याश्रयचाक्षुषविरहादचाक्षुषत्वसंभवात् । तथा च द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति चक्षुःसंयोगत्वेन हेतुत्वमायाति न तु संयुक्तसमवायस्य प्रत्यासत्तित्वमपीति न किञ्चिदेतदिति दिक् ।
स्वतन्त्रास्तु द्रव्यचाक्षुषं प्रत्येव चक्षुःसंयोगत्वेन हेतुत्वं न तु द्रव्यसमवेतचाक्षुषादौ चक्षुःसंयुक्तसमवायत्वादिना, गौरवात् । गुरुत्वत्वरसत्वगन्धत्वादिचाक्षुषवारणाय द्रव्यान्यसमवेतचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रत्याश्रयचाक्षुषत्वेन हेतुत्वावश्यकतया तत एवातिप्रसङ्गात्तत्तज्जातित्वेन प्रतिबन्धकत्वपर्यवसितस्याऽयोग्यत्वस्य कल्पने गौरवात् । अत एव सत्यपि सन्निकर्षे निखातवंशादिपरिमाणगतवैजात्यस्य द्विहस्तत्वादेरग्रहः। परिमाणप्रत्यक्षं प्रत्यावरकद्रव्यसंयोगस्य विरोधितयाश्रयप्रत्यक्षविरहात् । न च तत्र परिमाणं गृह्यत एव, तद्गतवैजात्यं तु न गृह्यते, तद्ग्रह एवावरकसंयोगस्य विरोधित्वादिति वाच्यम् , एकत्रावरकसंयोगसत्त्वेऽप्यन्यत्र द्विहस्तवंशसन्निकण तादृशवैजात्यस्य प्रत्यक्षतया तद्ग्रहं प्रत्यावरकसंयोगस्य विरोधित्वासम्भवात् । न चैवमपि घटपरमाण्वोघंटाकाशयोर्वा संयोगस्य प्रत्यक्षं, परैरप्ययोग्यतया तस्य वारणीयत्वाद्दव्यान्यसमवेतचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति महत्त्वविशिष्टरूपत्वावच्छिन्नाभावस्याखण्डस्य स्वाश्रयसमवेतत्वेन प्रतिबन्धकत्वेन तन्निराससम्भवाच्च । एवञ्च सत्यपि चक्षुःसन्निकर्षे प्रथमं घटस्यैव प्रत्यक्षं न तु घरत्वादेः, हेतुभूताश्रयचाक्षुपस्य प्रागसत्त्वात् । अनन्तरं
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सन्निकर्षवादः ]
__ [ ५५ घटत्वादिजातिरूपादिगुणानां, तदुत्तरं रूपत्वादेश्चाक्षुषं, पूर्वपूर्वाश्रयचाक्षषात्मकहेतुसम्पत्तेरित्यवश्यं निर्विकल्पकसिद्धिरपि, . सामग्रीविरहेण प्रागेव विशिष्टबुद्धयसम्भवात् । न च यत्र घटचा संयोगनाशदशायामेव घटस्य चाक्षुपं, तत्रेन्द्रियसन्निकर्षविगमोत्तरमपि क्रमेण तदीयरूपरूपत्वलौकिकचाक्षुषापत्तिः, कारणीभूताश्रयचाक्षुषस्य पूर्वपूर्व सत्त्वादिति वाच्यम् , द्रव्यचाक्षुषे चक्षुःसंयोगस्य कार्यसहवृत्तितया हेतुत्वेन तत्र घटस्यैव प्रत्यक्षानुपपत्तेरुक्तक्रमेण प्रत्यक्षस्वीकारेऽपि क्षत्य. भावाच्चेत्याहुः।
परे तु द्रव्यान्यद्रव्यसमवेतचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति नाश्रयचाक्षुषत्वेन हेतुता, तथा सति चक्षुःसंयोगस्येव महत्वस्यापि द्रव्यचाक्षुपं प्रति हेतुत्वकल्पनापत्तेः अन्यथा परमाण्वादेश्चाक्षुषत्वप्रसङ्गाद् , द्रव्यान्यद्रव्यसमवेतत्वयोर्विशेषणविशेध्यभावे विनिगमकाभावेन कार्यकारणभावद्वयापत्तेश्च, किन्तु द्वयणुकान्यवृत्तिगोचरचाक्षुषत्वावच्छिन्नंप्रतिद्वयणुकान्यवृत्तिवृत्तिविषयतया, चाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रत्येव वाऽऽश्रयचाक्षुषत्वेन हेतुत्वम् । तथा च द्वयणुकस्यापि द्वयणुकान्यसमवेतत्वादाश्रयचाक्षुषविरहादेवाप्रत्यक्षन्वसम्भवान्न महत्त्वापेक्षा । एवं च द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रत्यपि चक्षःसंयुक्तसमवायत्वेनैव हेतुत्वं, न तु चक्षुःसंयोगत्वेन, परमाणोश्चाक्षुषत्वप्रसङ्गादिस्याहुः।
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[वादमालायां ननु घटायेकैकचक्षुःसंयोगदशायां घटपटयोः संयोगस्य द्वित्वस्य च प्रत्यक्षवारणार्थमवश्यं व्यासज्यवृत्तिधर्मप्रत्यक्षे यावदाश्रयसन्निकर्षों हेतुर्वाच्यः, तथा च तत्तद्रव्यविषयकतत्तत्समवेतचाक्षुपत्वावच्छिन्ने तत्तद्र्व्यचक्षुःसंयोगत्वेनैव हेतुत्वं पर्यवसन्नमन्यस्य दुर्वचत्वाच्च । तथा च तत एवासनिकृष्टद्रव्याप्रत्यक्षतोपपत्तौ द्रव्यचाक्षुपं प्रति चक्षुःसंयोगस्य हेतुत्वे मानाभावः । न च तत्तद्रव्यविषयकेत्यधिकं, विनापि तत्कपालचक्षुःसंयोगं कपालान्तरचक्षुःसंयोगदशायां तत्कपालसमवेतद्रव्यत्वादिजातिघटयोःप्रत्यक्षोत्पादेन तद्वयभिचारवारकत्वात् । न च तथापि तत्तद्रव्यचक्षुःसंयोगहेतुतया कपालविषयघटचाक्षपो. पपत्तावपि तदविषयकतदुपपादनार्थं द्रव्य चाक्षुपे चक्षुःसंयोगत्वेन हेतुत्वमावश्यकमिति वाच्यम् , कपालादिविषयकस्यैव घटचाक्षुषस्योपगमात् । अत एवोक्तहेतु विना तदविषयकतदापत्तिर(न ?)युक्ता तस्याप्रसिद्धत्वेनाऽनापाद्यत्वात् । न चैवं घटाकाशसंयोगादिप्रत्यक्षापत्तिः, गुरुत्वादेरिव तस्यायोग्यतयैवाप्रत्यक्षत्वसम्भवात् । यदि चातत्त्वतत्वेन योग्यत्वस्य प्रतिबन्धकत्वविश्रामे गौरवं, तदाऽस्तु द्रव्यान्यद्रव्यसमवेतचाक्षषत्वावच्छिन्ने स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन चाक्षुषाभावस्यानुगतप्रतिबन्धकत्वादेव तदप्रत्यक्षत्वम् । न चैवं द्रव्यप्रत्यक्ष महत्त्वस्य द्रव्यचाक्षुषे च रूपस्य हेतुत्वं न स्याद् , इष्टत्वाद् । परमाणुपिशाचाद्यन्तर्भावेन तत्समवेतचाक्षुपत्वावच्छिन्नं प्रति
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सन्निकर्षवादः ]
तच्चक्षुः संयोगत्वेन हेतुत्वस्याक्लृप्तत्वात्तदऽप्रत्यक्षतोपपत्तेरिति
चेत् ?
अत्र वदन्ति तत्तद्द्रव्यीय संख्या चाक्षुषत्वमेव तत्तद्द्रव्यचक्षुः संयोगत्वावच्छिन्नजन्यतावच्छेदकम्, न तु तत्तद्रव्यविषयक्रतत्समवेतचाक्षुषत्वं, गौरवात् । एकावच्छेदेन चक्षुः संयोगेऽप्यन्य देशावच्छिन्नसंयोगविभागयोः साक्षात्कारापच्या तदवच्छिन्नवृत्तिकचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति तदवच्छिन्नचक्षुःसंयोगत्वेन हेतुतायाः स्वातन्त्र्येणाऽऽवश्यकत्वात् । अस्तु वा तत्तद्घटीयगुणचाक्षुक्त्वावच्छिन्नं प्रत्येव प्रत्येकं तत्तद्घटचक्षुः संयोगत्वादिना हेतुत्वं, निरुक्तकार्यतावच्छेदकतयैव द्वित्वद्वि (दि) पृथक्त्वादिषु गुणत्वसिद्धेः । तथा च द्रव्यचाक्षुषे चक्षुःसंयोगस्य हेतुत्वमावश्यकमन्यथा विप्रकृष्टस्यापि घटादश्चाक्षुषत्वप्रसङ्गात् । एवञ्च परमाणुपिशाचप्रत्यक्षवारणाय रूपमहत्त्वयोरपि हेतुत्वमिति ।
[ ५७
-
·
तचिन्त्यं तदवच्छिन्नवृत्तिकचाक्षुषे तदवच्छिन्नचक्षुःसंयोगस्य पृथग्वेतुत्वे गौरवात् । अवच्छेदकतासमवायान्यतरसम्बन्धेन तत्तद्द्रव्यवृत्तितत्तद्द्रव्यविषयकचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति तत्तद्द्रव्यचक्षुःसंयोगत्वेन हेतुत्वौचित्यात् । अवच्छेदकाविषयक संयोगादिप्रत्यक्षोपपादनाय तदवच्छिन्नचक्षुः संयोगत्वेन पृथग्धेतुत्वे च कपालाविषयकघटप्रत्यक्षोपपादनाय चक्षुःसंयोगत्वेन पृथग्वेतुत्वमिति तु युक्तम् ।
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५८]
[ वादमालायां
यत्त तत्तद्रव्यविषयकतत्समवेतचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति तत्तद्रव्यचक्षुःसंयोगत्वेन हेतुत्वेऽपि यत्र द्वित्रिक्षणावस्थायिघटादिव्यक्तिषु न द्वित्वाधुत्पत्तिः, संयोगस्तु योग्यो यावदाश्रयसन्निकर्षदशायां न जातस्तत्रैव द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति चक्षुःसंयोगत्वेन हेतुत्वं कल्प्यते लाघवात् , न हि तत्तद्वयक्तिचक्षुःसंयोगदशायामपि तत्समवेतस्य कस्यचिन्न प्रत्यक्षं येन तत्राप्युक्तविशेषहेतुता कल्प्येतेति,
तत्तुच्छम् , तथा सति द्वित्रिक्षणावस्थायिघटादीनां रूपसंख्याप्रत्यक्षानुरोधेन द्रव्यसमवेतचाक्षुपं प्रति चक्षुःसंयुक्तसमवायत्वेन हेतुत्वावश्यकत्वे चक्षुःसंयोगहेतुताऽसिद्धेरिति दिक् । अत्र द्रव्यचाक्षुषे चक्षुःसंयोगस्य कार्यतावच्छेदकः सम्बन्धो न विषयत्वमात्रम् , "चैत्रस्यायं पुत्र" इत्यादिचाक्षुषे चैत्रायंशे व्यभिचारात् , किन्तु लौकिकत्वाख्योऽविषयताविशेषः, अवच्छेदकधर्मविधयेवाऽवच्छेदकसम्बन्धविधयापि पदार्थसिद्धेः ।। [इति सन्निकर्षवादः]]
॥ इति वादमाला ॥
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न्यायाचार्य-महोपाध्यायश्रीमद्यशोविजयगणिविनिर्मितः
॥ विषयतावादः ॥ ॥ एँ नमः ।। 'विषयता स्वरूपसंबन्धविशेषो ज्ञानादीनां विषये, न त्वतिरिक्ता मानाभावादिति प्राश्चः । तदसत् । तथाहि-विषयताया ज्ञानस्वरूपत्वे घटवद्भूतलमित्यादिज्ञाननिरूपितानां घटभूतलादिवृत्तिविषयतानामभेदापत्त्या तादृशज्ञानानंतरं 'घटप्रकारकज्ञानवानहमि'त्यादिप्रतीतिवद् 'भूतलप्रकारकज्ञानवानहमित्यादि प्रतीतिप्रसङ्गः, घटनिष्ठप्रकारत्वा'. ख्यतज्ज्ञानरूपविषयताया एव भूतलवृत्तित्वात् । एवं 'घटपटावि'त्यादिसमूहालम्बनधियो भ्रमत्वापत्तिः । पटनिष्ठतज्ज्ञानरूपविशेष्यतायाः * तज्ज्ञानरूपघटत्वप्रकारतानिरूपितघटविशेष्यताऽभिन्नत्वेनतादृशज्ञानस्य घटत्वप्रकारतानिरूपित पटविशेष्यताशालित्वात् ।
विषयस्वरूपत्वे च घटभूतलसंयोगा इत्याद्याकारकसमूहालम्बनविशिष्टबुद्धयोर्वैलक्षण्यानुपपत्तेः । न च विशिष्टज्ञाने संबन्धसंबन्धोऽपि भासते न समूहालम्बने इत्यत एव तयोर्वैल
१-'विषयता च' इति दे. प्रतौ । २-'प्रत्ययप्रसङ्गात्' इति दे० ३-'प्रकारत्वाख्ये' इति दे०। ४-पत्तिश्च' इति दे० । ** चिह्नद्वयान्तर्गतपाठस्थाने घटनिष्ठघटत्वप्रकारतानिरूपिता तज्ज्ञानरूपविशष्यत्वामिन्नतया' इति पाठः दे०। ५-'पटनिष्ठ०' इति दे।
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६० ]
[विषयतावादे
क्षण्यमुपपत्स्यते इति वाच्यम् . संबम्धसबम्धमादायापि समूहालम्बनसंभवात् । तस्माद् ज्ञानविषयाभ्यामतिरिक्तमेव विषयत्वमित्यनन्यगत्या स्वीकरणीयम् । तच्चाश्रयतया विषये ज्ञाने च निरुपकतासंबंधेन वर्तत इति ।
एतेन विषयित्वमपि व्याख्यातम् । न च विषयताप्रतियोगित्वमेव विषयित्वमस्तु, किं तस्यातिरिक्तत्वस्वीकारेण ? इति वाच्यम् , विषयित्वमेवातिरिक्तं तत्प्रतियोगित्वमेव विषयत्वमित्यस्यापि वक्तु शक्यत्वात् तस्माद् विनिगमनाविरहेणोभयमेवातिरिक्तम् । विषयत्वादिकं तु विषयभेदेन भिद्यतेऽन्यथा 'घटवद्भूतलमित्यादि'ज्ञानीयघटभूतलादिविषयतानां 'घटापटावि'त्यादि'ज्ञानीयघटपटादिविषयतानां चाभेदप्रमङ्गेन पूर्वोक्तानुपपत्तितादवस्थ्यात् । न तु ज्ञानव्यक्तिभेदेनापि तद्भेदो, मानाभावात् । । तच्च द्विविधम् , किंचिद् विषयत्वाऽनिरूपितं तनिरूपितं च । तत्र निर्विकल्पकनिरूपितविषयता विषयत्वानिरूपिता निर्विकल्पकीयघटत्वादिविषयताया घटादिविषयतानिरूपितत्वे मानाभावाद् । विशिष्टबुद्धिविषयता च विषयत्वांतरनिरूपिता, प्रकारताविशेष्यतासंसर्गतारूपाणां तासां परस्परं निरुप्यनिरूपकभावसत्त्वात् । अन्यथा 'घटवद् भूतलम् पर्वतो वह्निमानि'
१-'दिजातीय'० इति दे० । २- दिविजातीय' इति दे ।
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विषयताद वे विध्यनिरूपणम् ]
[ ६१
त्याकारकज्ञानविषयतातः: 'घटवान् पर्वतो वह्निमद् भूतलमि'त्याकारकज्ञानविषयताया अवैलक्षण्यप्रसङ्गात् । मन्मते प्रथमे घटप्रकारकत्व भूतलविशेष्यकत्व योर्वह्निप्रकारत्व पर्वतविशेष्यत्व-योश्च परस्परं निरूप्यनिरूपकभावः, द्वितीये च वह्निप्रकारक त्वभूतल विशेष्यत्वयोर्घटप्रकारत्व पर्वतविशेष्यत्वयोरिति वैलक्षण्योपपत्तिः ।
एवं च, 'घटवद् भूतलम् घटवान् पर्वत' इत्याकारकसमूहालम्बने घटादिरूपैकैकप्रकारनिष्ठप्रकारताया अपि भूतलपर्वतादिविशेष्यभेदेन 'घटवद् भूतलं पटवच्चे' त्यादिसमूहालम्बने च भूतलाद्येकैकनिष्ठविशेष्यताया अपि घटपटादिप्रकारभेदेन भेदो बोध्यः । उभयविशेष्यतानिरूपितत्वस्यैकप्रकारतायां उभयप्रकारतानिरूपितत्वस्य चैकविशेष्यतायां स्वीकारे तादृशसमूहालम्बनादावतिरिक्तविषयता कल्पनप्रसङ्गात् । मन्मते 'घटवद् भूतलमि'त्याद्याकारकप्रत्येकज्ञानी' यप्रत्येक विशेष्यतानिरूपितप्रकारताभ्यां प्रत्येकप्रकारतानिरूपितविशेष्यताभ्यामेवोपपत्तेः । समूहालंबने प्रकारताभेदेन विशेष्यत्वाभेदे 'घटवद् भूतलं पटवच्चे त्यादिसमूहालम्बना ' देकत्र द्वयमिति रीत्या एकधर्मिणि नानाधर्मवैशिष्टयावगाहि 'घटवद् भूतलं पटवदि त्यादिज्ञानस्य वैलक्षण्यप्रसङ्गः । मम तु समूहालम्बने प्रकार
१- 'व्यनिरूपिताप्रत्येक विशेष्यता निरूपित प्रकारताभ्यां ' इति दे।
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६२ ]
[ विषयतावादे
भेदेन विशेष्यताभेदो न त्वेकत्र द्वयमिति रीत्या तादृशवोधः इति समूहालम्बनतस्तस्य वैलक्षण्योपपत्तिरिति ।
विशेष्यत्वं प्रकारत्वं च द्विविधम् , किश्चिद्धर्मावच्छिन्नं निरवच्छिन्नं च । तत्र किंचिद्धर्मावच्छिन्नविशेष्यता भूतलत्वद्यकविशेषणविशिष्ट घटादिरूपाऽपरधर्मवैशिष्टयावगाहिज्ञाने, तत्र घटादिप्रकारतानिरूपितभूतलविशेष्यताया भूतलत्वावच्छिनत्वात् । अन्यथा केवलमेकत्र द्वयमिति रीत्योभयवैशिष्टयावगाहिनो 'भूतलं घटवदिति ज्ञानात्तस्य वैलक्षण्यानुपपत्तेः । किंचिद्धर्मावच्छिन्नप्रकारता च वैशिष्टनिरूपितवैशिष्टयावगाहि 'घटवदि'त्याकारकज्ञाने, तत्र घटादिप्रकारताया घटत्वाद्यवच्छिन्नत्वात् । अन्यथा केवलं विशेष्ये विशेषणम् तत्र च विशेषणान्तरमि'त्येवंरीत्या 'घटत्वाद्यवगानिस्तथाविधज्ञानाद् विशिष्टवैशिष्टयबोधस्य लक्षण्यानुपपत्तिः, अपश्चितं चेदमधिकमन्यत्र ।
तदंशे विशेषणतापनस्यैव तन्निष्ठविषयतावच्छेदकत्व. मिति तु बोध्यम् । तद्धर्मावच्छिन्नविषयता च न तद्धर्मप्रकारतानिरूपिता, तस्यास्तथात्वे मानाभावात् । न चैवं 'भूतलं घटयदि'त्यादिज्ञानानां भूतलत्वादिप्रकारतानिरूपितविशेष्यताशालित्वानुपपत्तिरिति वाच्यम्, केवल मेकत्र द्वयमिति रीत्या
१- 'घटपटत्वाद्य०' इति दे । २.-'न' इति नास्ति दे० ।
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विशेष्यताद्वैविध्यविचारः ]
[६३ भूतलत्वघटवैशिष्टयावगाहिज्ञानीय भूतलत्वादिनिष्ठानवच्छिन्नप्रकारतानिरूपितविशेष्यतानियामकसामग्र्या अपि तादृशविशिष्टवैशिष्टयबोधकाले सत्वात् तस्य तादृशविशिष्टविषयताशालित्वस्यावश्यकत्वात्ततएव तथात्वोपपत्तेः ।।
वस्तुतस्तु, विशिष्टवैशिष्टयबोधविचारे निरवच्छिन्नविषयत्वादीनां विशिष्टवैशिष्टयबोसाधारण्यस्य खण्डितत्वात्तादृशविशेष्यताशून्यबोधस्य भूतलत्वादिप्रकारतानिरूपितविशेष्यताशालित्वोपपत्तये भूतलत्वाद्यवच्छिन्नविशेष्यताया एव तत्प्रकारतानिरूपितत्वं स्वीकरणीयम् ।
अथैवं तादृशज्ञानस्य भूतलत्वप्रकारतानिरूपितभूतलत्वाद्यवच्छिन्नविशेष्यताशालित्वाद् भूतलत्वादिविशिष्टे भूतलत्वादिवैशिष्टयावगाहिनो 'भूतलं भृतलमि'त्याकारकज्ञानाद् ‘भूतलं घटवदि'त्याकारकज्ञानस्य वैलक्षण्यानुपपत्या तादृशज्ञानाद् भूतलत्वविशिष्टे भूतलत्ववैशिष्टयावगाहिस्मरणापत्तिरिति चेत् ? न, 'घटवद्भूतलमि'त्याद्याकारकज्ञानीयभूतलविशेष्यताया भूतलत्वप्रकारतानिरूप्यत्वेऽपि तस्या भूतलत्वावच्छिन्नत्वविशिष्टविशेष्यतात्वेन न तन्निरूप्यत्वम् , किंतु भूतलविशेष्यतात्वेन । 'भूतलं भूतलमि'त्यादौ च भूतलत्वावच्छिन्नत्व
१-'भूतलवाद्यनवच्छिन्नभूतलत्वादिप्र०'इति दे० । २-'अखिलविशिष्ट' इति दे० । ३-'तादृशज्ञानानन्तर' इति दे० ।
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६४ ]
[ विषयतावादे विशिष्टविशेष्यतात्वेनैव भूतलप्रकारतानिरूपितत्वमित्यभ्युपगमेन तद्वैलक्षण्योपपत्तेः।
अवच्छेदकत्वमपि द्विविधम्-अवच्छिन्नं, निरवच्छिन्नं च । तत्रावच्छिन्नमवच्छेदकं जातिमद् भूतलं घटवदित्यादी, तत्र भूतलत्वा'दिनिष्ठविशेष्यतावच्छेदकताया जातित्वाद्यवच्छिन्नत्वात् । भूतलं घटवदित्यादौ च भूतलत्वादिनिष्ठविशेष्यतावच्छेदकत्वादिकं निरवच्छिन्नमिति । एवमवच्छेदकतानिरूपितावच्छेदकत्वादिकमपि व्याख्यातम् । अवच्छेदकतावच्छेदकं त्ववच्छेदकांशे विशेषणतापनमेवेति बोध्यम् ।
विषयतावद्विषयादिभेदेनानुगतानां विषयतानामनुगमकं विषयतात्वमप्यधिकमाख्येयम् , अन्यथा घटो ज्ञानविषयः
पटो ज्ञानविषय इत्याकारिकाया अनुगतप्रतीतेग्नुपपत्तः । घटत्वविशिष्टबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति घटत्वादिविषयकज्ञानत्वादिना हेतुत्वानुपपत्तेः, घटत्वाद्यकैकवृत्तिविषयतानामेव प्रकारताविशेष्यत्वादिभेदेन नानाविधतया कारणतावच्छेदकाननुगमेन व्यभिचारप्रसङ्गात् । __ एवं विशेष्यतात्व-तत्तदवांतरावच्छेदकत्व-प्रकारता त्वादिकमप्यनुगतप्रतीतिबलादतिरिक्तमुपगंतव्यम् । अत एव
दिनिष्ठविशेष्यताया' इति खं० प्रती । २ 'घटो' इति दे० । ३ 'विषयतात्व' इति दे० । ४ 'तात्वविशेष्यतात्वादि०' इति दे।
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[ ६५
पर्वतत्वाद्यवच्छिन्नविशेष्यकवहून्याद्यनुमितित्वावच्छिन्नं प्रति पर्वतत्वाद्यवच्छिन्नविशेष्यतानिरूपितवह्निव्याप्यधूमादिप्रकारताशालिज्ञानत्वादिनानुगत हेतुत्वकल्पनमुपपद्यते । अन्यथा तत्तद्धूमादिभेदभिन्नानां प्रकारतात्वादीनां अननुगमेन तदनुपपत्तेः । प्रकारतात्वविशेष्यतात्वादिकं न मिथो विरुद्धम्, 'घठवद् भूतलमि'त्यादिज्ञाने घटत्वादिप्रकारता निरूपितघटादिनिष्ठविशेष्यताया एव भूतलादिनिष्ठविशेष्यतानिरूपितप्रकारतारूपतया तत्र विशेष्यतात्वप्रकारतात्वयोः समावेशात् । तत्र तादृशप्रकारताविशेष्यतयोर्भेदे 'घटवद् भूतलं 'द्रव्यं, ' 'द्रव्यवद् भूतलं घटश्चे' ति ज्ञानयोर्वैलक्षण्यानुपपत्तेः । उभयत्रैव घटत्वप्रकारतानिरूपिताया घटविशेष्यताया घटप्रकारतानिरूपितभूतल विशेष्यतायाश्च सत्त्वात् । मन्मते प्रथमे घटत्वप्रकारतानिरूपित घट विशेष्यता भूतलनिष्ठविशेष्यतानिरूपितप्रकारत्वाभिन्ना द्रव्यत्वप्रकारता निरूपित विशेष्यता च तद्भिन्ना । द्वितीये च द्रव्यत्वप्रकारतानिरूपित घटविशेष्यता भूतलविशेष्यतानिरूपितप्रकारताभिन्ना, घटत्वप्रकारतानिरूपित विशेष्यताच तद्भिन्नेति वैलक्षण्योपपत्तेः ।
विशेष्याविचारः ]
एवं 'रक्तदण्डवान् पुरुष' इत्यादिज्ञाने रक्तत्वप्रकारतानिरूपितदण्डत्वावच्छिन्नविशेष्यतैव ( युक्ता ) पुरुषविशेष्यता -
१ 'द्रव्यं' इति नास्ति दे । २.दे. प्रतौ अधिकः पाठः ।
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६६ ]
[ विषयतावादे निरूपितप्रकारतारूपा स्वीकार्या । तद्भेदे 'रक्तो दण्डो, दण्डवान् पुरुष'इत्यादिसमूहालंबनतादृशविशिष्टबुद्धेवै लक्षण्यानुपपत्तेः । उभयत्रैव रक्तत्वप्रकारतानिरूपिता या दण्डप्रका. रता तन्निरूपितविशेष्यतायाः सत्त्वादिति ।
केचित्तु उद्देश्यत्वविधेयत्वे अपि विषयताविशेषौ । न च किंचिद्धर्मावच्छिन्नविशेष्यत्वमेवोद्देश्यत्वम् , तादृशविशेष्यतानिरूपितप्रकारत्वमेव विधेयत्वमस्तु, किं तयोरतिरिक्तत्वस्वी. कारेणेति वाच्यम् , तथा सति 'वह्निमान् पर्वतो घटवानि'त्यादिबोधस्यापि पर्वतत्वावच्छिन्नोद्देश्यतानिरूपितवयादिविधेयताशालित्वात् 'पर्वतो वह्निमानि'त्यनुमित्यनंतरमिव तादृशानुमित्यनंतरमपि 'पर्वते वह्निमनुमिनोमी'त्याद्यापत्तेः । मन्मते तु तादृशज्ञानव्यावृत्तायाः पर्वतादिविशेष्यतानिरूपितप्रकारताविलक्षणपर्वतादिनिष्ठोद्देश्यतानिरूपितवयादिविधेयताया एव तादृशानुव्यवसायविषयत्वाभ्युपगमादेव तादृशानुव्यवसायाऽऽपत्यसंभवात् ।।
अथ पर्वतविशेष्यकवह्निप्रकारकानुमितित्वमेव तादृशानुव्यवसायविषयः, विषयतासंबंधेन तादृशानुव्यवसायं प्रति पर्वतविशेष्यकवहिव्याप्यवत्ताज्ञानजन्यानुमितित्वेन तादात्म्य
१ नास्ति दे० प्रतौ । २ रक्तत्वप्रकारतानिरूपितदण्डविशेष्यताया दण्डप्रकारतानिरूपितपुरुषविशेष्यतायाश्च सत्त्वात् इति दे । ३ 'अथे' त्यस्य अष्टषष्टिपृष्ठे 'चेत् ?' इत्यनेन सहान्वयःकार्यः।
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उद्दे श्यता-विधेयताविचारः ]
[ ६७ प्रत्यासत्त्या हेतुत्वोपगमान्न 'वह्निमान् पर्वतो घटवानि'त्याकारकानुमित्यनंतरं तथाविधानुव्यवसायापत्तिरिति किमतिरिक्तविधेयतया ?
न च तादृशगुरुधर्मावच्छिन्नस्य तथाविधानुव्यवसायहेतुत्वकल्पनापेक्षया पर्वतविशेष्यतानिरूपितवह्निविधेयताकानुमितित्वेन तद्हेतुत्वकल्पने लाघवादतिरिक्तविधेयता सेत्स्य. तीति वाच्यम् , लाघवमात्रेणातिरिक्तविषयतासिद्धौ धूमपरामर्शादिजन्यतावच्छेदकतयापि विलक्षणविषयतासिद्धिप्रसङ्गात् । क्लप्तविषयतायास्तजन्यतावच्छेदकत्वे 'तस्या' आलोकलिङ्गकानुमितिसाधारणतया तत्र व्यभिचारवारणायाऽव्यवहितोत्तरत्वस्य कार्यतावच्छेदककोटौ प्रवेशेऽतीवगौरवम् । ___ अथातिरिक्तविधेयतानभ्युपगमे सिद्धयभावजन्यतावच्छेदकं दुर्वचम् । तथाहि-'पर्वतो वह्निमानि'त्यादिसिद्ध्यभावस्य जन्यतावच्छेदकं न पर्वतत्वावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपितवहिनप्रकारताकानुमितित्वम् , 'वहिनमान् पर्वतो घटवानि'त्येताहशानुमितौ व्यभिचारात् । नापि पर्वतत्वावच्छिन्नविशेष्यताकवह्निव्याप्यवत्ताज्ञानजन्यानुमितित्वम् , 'वह्निव्याप्यधूमवान् पर्वतो घटव्याप्यवांश्चे'त्याद्याकारकसमूहालंबनजन्यायां तथाविधानुमितौ व्यभिचारादिति चेत् १ न, वह्नित्वान्यधर्मानवच्छिन्नप्रकारतानिरूपितपर्वतत्वावच्छिन्नविशेष्यताकानुमिति-- त्वस्यैव 'पर्वतो वह्निमानि'त्येतादृशसिद्ध्यभावजन्यतावच्छेद
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६
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[विषयतावादे
कत्वस्वीकारात् । 'वह्निमान् पर्वतो घटवानि'त्याद्याकारकानुमितिविशेष्यताया वह्नित्वान्यघटत्वावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितत्वेन व्यभिचारानवकाशात् ।।
न चैवमपि 'वह्निमत्पर्वतवान् देश' इत्याद्याकारकानुमितौ व्यभिचारो दुरस्तादृशानुमितिविशे यताया वह्नित्वान्यधर्मानवच्छिन्नप्रकारतानिरूपितत्वादिति वाच्यम् , तादृशमुख्यविशेष्यताया एव निवेशनीयत्वात्। न चैत दपेक्षया पर्वतत्वावच्छिन्नोद्देश्यतानिरूपितवहिनत्वावच्छिन्नविधेयतायास्ताशसिद्धयभावजन्यतावच्छेदकत्वे लाघवात्तत्सिद्धिरिति वाच्यम् लाघवेनातिरिक्तविषयतासिद्धेः प्रागेव निरस्तत्वादिति चेत् ?
मैवम् , अतिरिक्तविधेयतानभ्युपगमे 'वहिं नानुमि. नोमी ति प्रतीतेरनुमितिनिष्ठो वह्निप्रकारत्वाभावः, आत्मनिष्ठो वह्निप्रकारकानुमितित्वावच्छिन्नाभावो वा विषयो वाच्यस्तथा च 'वह्निमान् पर्वतो घटवान् , वह्निमत्पर्वतवान् देश' इत्याधनुमितिकाले तथाप्रतीत्यनुदयप्रसँगस्तादृशानुमितो वह्निप्रकारत्वाभावस्यात्मनि च तथाविधानुमितित्वावच्छिन्नाभावस्यासत्त्वात् । मम तु वह्निविधेयकत्वाभावस्यानुमितौ वह्निविधेयकानुमितित्वावच्छिन्नाभावस्यात्मनि वा तादृशप्रतीतिविषयत्वोपगमान्नानुपपत्तिः । . न च तदानीं भ्रमरूपैव तादृशप्रतीतिरुत्पद्यते, तत्र च विषयासचमकिंचित्करमिति वाच्यम , यथाकथंचित् प्रमात्व
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उद्देश्यताविधेयताविचारः ]
[ ६६ स्य शक्योपपादनत्वे प्रतीतिभ्रमत्वकल्पनाया अन्याय्यत्वात् । न च वह्निव्याप्यवत्ताज्ञानजन्यानुमितित्वावच्छिन्नाभावस्यैव तद्विषयत्वोपगमान्नानुपपत्तिः तादृशानुमितेरतथात्वादि'(अतिरिक्तविषयतानभ्युपगमेऽपि न तथाविधप्रत्ययानुपपत्तिरित्य)ति वाच्यम् , तथा 'सत्यपि 'वह्निव्याप्यधूमवान् पर्वतो घटव्याप्यवानिति' परामर्शजन्यानुमित्यनंतरं तथाप्रतीत्यनुपपत्तितादवस्थ्यात् । अनुमितिपरामर्शयोः कार्यकारणभावाग्रहदशायामपि तादृशप्रत्ययस्य सर्वानुभवसिद्धत्वात्तादृशाभावस्य तद्विषय(क)त्वासंभवाच्च ।
अथैवमपि विधेयत्वमेवातिरिक्तमास्ताम् , उद्देश्यत्वं तु विशेष्यत्वरूपमेवास्तु । किं च, विधेयतावद् विधेयतात्वमप्यवश्यमतिरिक्तं स्वीकरणीयम् , अन्यथा विधेयतानां तत्तद्विधेयादिभेदेन भिन्नतयाऽननुगमात्तद्घटितोपदर्शितधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्याभावस्यैकस्यासंभवात् , तावदभाव. कूटस्य दु यतया तादृशप्रतीत्यनुपपत्तितादवस्थ्यात् । तथा चातिरिक्तविधेयत्वादिकल्पनमनर्थकम् , 'पर्वतो वह्निमानि'. त्याद्याकारकप्रत्यक्षसाधारणवन्यादिप्रकारतायां विधेयतात्वस्वीकारेणेवोपपत्तेः ।
न च तादृशप्रत्यक्षादिसाधारणवान्यादिप्रकारतातो 'वह्निमान् पर्वतो घटवानि'त्यादिज्ञानीयप्रकारताया भेदे
५. ( ) कोष्टगतः पाठः दे०प्रतावधिकः । २-'सत्यपि पूर्वोक्तसमूहालम्बनजन्यतथाविधानुमित्यनन्तरं तथाः' इति दे ।
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७० ]
[ विषयतावादे
मानाभावात् तत्र विधेयतात्वस्वीकारे तथाविधानुमितिदशायां 'वह्नि 'नानुमिनोमी'त्यनुव्यवसायानुपपत्तितादवस्थ्यमिति पाच्यम्, 'वह्निमान् पर्वतो घटवानि'त्यादिज्ञानीयवह्निप्रकारताया घटादिप्रकारतानिरूपितपर्वतत्वावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपिततया 'पर्वतो वह्निमानि'त्येतादृशज्ञानीयवह्नयादिप्रकारतायाश्चातथात्वेऽनयोर्भेदस्यावश्यकत्वादिति चेत् ?
मैवम् , प्रकारत्वाद्यतिरिक्तविधेयत्वादीनामनभ्युपगमे 'पर्वते वह्नि'रित्यादिवाक्यजन्यशाब्दबोधस्य वहन्यादिविधेयकत्वपर्वतोद्देश्यकत्वानुपपत्तिरित्यतिरिक्तविधेयत्वादिकल्पन' मावश्यकम् ।
न च 'पर्वतो वह्निमानि तिवत्तत्र नास्त्येव पर्वतवहन्योरुद्देश्यविधेयभावः, किंतु विशेषणविशेष्यभावापन्नयोर्वह्निपर्वतवृत्तित्वयोरेवेति वाच्यम्, शाब्दबोधस्थले प्रागनिर्दिष्टस्यैवोद्देश्यतया चरमनिर्दिष्टपदार्थस्यैव विधेयतया तादृशवाक्यजन्यशाब्दबोधे वह्निपर्वतवृत्तित्वयोरुद्देश्यविधेयभावाऽसंभवात् , अन्यथा 'वह्निः पर्वते' 'पर्वते वह्नि'रित्येतादृशवाक्यजन्यशाब्दबोधयोर्विशेषणविशेष्यभावाऽवलक्षण्येन वैलक्षण्यानुपपत्तेः । अत एव 'गुणानां गुणत्वमि'त्यत्र गुणत्वस्यैवोद्देश्यतावच्छेदकत्वं तस्यैव विधेयत्वमित्यभिप्रायेणोपाये उपायकृतोद्देश्यतावच्छेदकत्वविधेययोर क्ये शाब्दबोधानुपपत्तिरा. ऽऽशंकिता।
१-'मनु' इति दे० २-'वाच्यम्' इति नास्ति दे ।
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उद्दे त्यताविधेयताविचारः ]
[ १ यदि च विशेषणविशेष्ययोरेवोद्देश्यविधेयभावस्तदा तत्र गुणत्वस्यो'द्देश्यतावच्छेदकतया गुणवृत्तित्वस्य विशेषणतया गुणत्वस्याऽतथात्वेन तदसंगतमेव स्यादिति विधेयत्वादीनां प्रकारताविशेषादिरूपत्वे 'इतरव्यापकीभूताभावप्रतियोगिमती पृथिवी'त्यादिपरामर्शजन्यायाः 'पृथिव्यामितरभेद' इत्याद्याकारकायाः साध्यविशेष्यकानुमितेस्तविधेयकत्वानुपपत्या तदुत्तर मितरभेदं नानुमिनोमी'त्याद्यनुव्यवसायाऽऽपत्तिः ।
__ न च तादृशज्ञानीयेतरभेदविशेष्यतायामेव विधेयतात्वोपगमान्न . तादृशानुमितेरितरभेदादिविधेयकत्वानुपपत्तिरिति वाच्यम् , तथा सति 'पृथिवीव्याप्यवानितरभेद' इत्याद्याकारकपरामर्शजन्याया 'आधारतासंबंधेन पृथिव्यादिसाध्यकतथाविधानुमितेरपीतरभेदादिविधेयकत्वोपपत्तेस्तथाविधानुमित्यो-- वैलक्षण्याभावप्रसंगात् । ____अथ 'पर्वते वह्नि'रित्यादिशाब्दबोधे 'पृथिव्यामितरभेद' इत्याद्यनुमितावतिरिक्तविधेयत्वादिसिद्धावपि 'पर्वतो वह्निमान् , पृथिवीतरभेदवती'त्याद्याकारकानुमित्यादौ प्रकारतातिरिक्तविधेयत्वादौ मानाभावः, वन्यादिवृत्त्यै कैकप्रकारत्वादिनिरूपकीभूतानंतानुमित्यादिव्यतिरिक्त विधेयतासंबंधकल्पनापेक्षया तादृशप्रकारत्वादौ विधेयतात्वादिकल्पनाया
१- विशेष्यताव०' इति दे० । २- तदत्यन्ताऽ०' इति० दे० । ३- आधेयता०' इति दे० ४-'विषयता०' इति दे० ।
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७२ ]
[ विषयतावादे
एवोचितत्वादिति चेत् ? न, प्रत्यक्षादिसाधारणप्रकारताया विधेयत्वांगीकारेऽनमित्यादिस्थले वाधबुद्धयादीनां प्रतिबंधकतायां इच्छाधीनप्रत्यक्षे व्यभिचारवारणाय प्रत्यक्षान्यत्वस्य प्रतिबध्यतावच्छेदककोटौ निवेशे गौरवप्रसंगात् । मन्मते तु विधेयताया एव तादृशप्रतिवध्यतावच्छेदककोटी निवेशनीयतया तस्याश्च प्रत्यक्षसाधारण्याऽनभ्युपगमे '(अनाहार्यप्रत्यक्षे) व्यभिचारविरहेण प्रत्यक्षान्यत्वस्याऽनिवेशात् । न च परोक्षत्वजातेः प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वोपगमेनैवाहार्यप्रत्यक्ष व्यभिचारवारणसंभवेन मयापि प्रत्यक्षान्यत्वं न निवेश्यत इति पाच्यम् , परोक्षत्वजातेरन्यत्र दूषितत्वात् ।।
अथ लाघवेनातिरिक्तविषयतासिद्धेः प्रागेव निरस्तत्वात् कथमेतादृशयुक्त्यातादृशानुमित्यादावतिरिक्तविधेयता सेत्स्यतीति चेत् ? न, एतादृशयुक्त्यैतादृशविषयता न कल्प्यते, किन्तु, 'पर्वते वह्निः पृथिव्यामितरभेदः' इत्याद्याकारकशाब्दानुमित्यादौ पूर्वोक्तयुक्त्या सिद्धस्य विषयताविशेषस्य 'पर्वतो वह्निमान्' 'पृथिवीतरभेदवती'त्याद्याकारकानुमित्यादावेताहशलाघवेन संबंधः कल्प्यते इति न काचिदनुपपत्तिरिति ।
अथ 'पृथिव्यामितरभेद', 'इतरभेदवती पृथिवी'त्याद्या. कारकानुमित्योरे'तादृशविधेयतास्वीकारे साध्यविशेष्यकानु
१-अधिकोऽयं पाठः दे० प्रतौ । २- रेकविधे०' इति दे ।
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उद्देश्यताविधेयताविचारः ]
[ ७३ मितौ साध्यप्रसिद्धेः प्रतिबध्यतावच्छेदकं दुर्वचम् । तथाहिइतरभेदज्ञानस्य प्रतिबध्यतावच्छेदकं यदीतरभेदविशेष्यकानुमितित्वं तदा इतरभेदः पृथिवीव्याप्यवानि'त्यादिपरामर्शजन्येतरभेदपक्षकानुमितौ व्यभिचारः । इतरभेदविधेयकत्वे सति तद्विशेष्यकानुमितित्वस्य प्रतिवध्यतावच्छेदकत्वेऽपि 'पृथिवीतरभेदव्याप्यवतीतरभेदः पृथिवीव्याप्यवानि'त्याद्याकारकसमूहालंबनजन्यायाः 'पृथिवीतरभेदवती पृथिव्यामितरभेद' इत्येतादृशसमूहालंबनानुमितौ व्यभिचारः, तादृशानुमितेरितरेतरभेदविधेयकत्वात् तद्विशेष्यकत्वाच्च । मन्मतेऽत्र प्रकारताभिन्नेतरभेदविधेयतेवेतरभेदज्ञानप्रतिवध्यतावच्छेदिकेति न व्यभिचारः । तादृशसमूहालंबनानुमितिनिरूपितेतरभेदविधेयतायाः प्रकारतारूपतया तदन्यत्वाभावादिति चेत् ?
__न, इतरभेदविशेष्यकपरामर्शाजन्येतरभेदविशेष्यकानमितित्वस्यैव मन्मते इतरभेदज्ञानप्रतिबध्यतावच्छेदकत्वोपगमात् । 'पृथिवीव्याप्यवानितरभेद'इत्याद्याकारकपरामर्शजन्यानुमिते. श्वेतरभेदविशेष्यकपरामर्शजन्यत्वेन व्यभिचारानवकाशात् । न चैतादृशगुरुधर्मस्य साध्यसिद्धिप्रतिबध्यतावच्छेदकत्वे गौरवात् 'पृथिवीतरभेदवती'त्याद्याकारकानमितिनिरूपितप्रत्यक्षादिसाधारणेतरभेदादिप्रकारतायां विधेयतात्वकल्पनमेवोचितमिति वाच्यम् . तथा सति धर्मितावच्छेदकभेदेनानन्त
१-'मर्शाऽजन्य' इति दे।
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[ विषयतावादे
बाधबुद्ध्यादिप्रतिबंधकतायां प्रतिबध्यतावच्छेदककोटौ प्रत्यक्षान्यत्व निवेशेन गौरवात्तदपेक्षया धर्मिविशेषामिश्रितसाध्यप्रसिद्धिप्रतिबंधकतायां तादृशधर्मस्य प्रतिबध्यतावच्छेदककोटिनिवेशनौचित्यादिति ।
७४ ]
एवमापत्तिस्थले आपाद्यत्वमपि विषयताविशेषः । आपत्तिनिरूपितप्रकारतासामान्यस्यापाद्यता रूपत्वे 'वह्निमान् पर्वतो घटवान् स्यादित्याद्याकारकापत्तेरपि वयादेरापाद्यतापत्तेः । 'पर्वतो वह्निमानित्याद्याकारकवह्नयाद्यनवच्छिन्नविशेष्यताशालिज्ञानीय विलक्षणवह्नयादिप्रकारतायास्तत्त्वोपगमेऽपि 'वह्निमान् पर्वतः पर्वतो घटवान् स्यादित्याद्याकारकापत्तौ वह्वयादेस्तथात्वापत्तेदु' वरित्वात् । अथ स्वव्यतिरेकनिर्णयजन्य तदापत्तिविषयत्वमेव स्वस्य तदापत्तिनिरूपितमापाद्यत्वमस्तु, किमतिरिक्तविषयता स्वीकारेण ? उक्तसमूहालम्बनापत्तौ घटव्यतिरेक निर्णयस्यैव हेतुतया वयादेस्तदापाद्यत्वाऽसंभवादिति चेत् ? न तादृशव्यतिरेकनिर्णय जन्यत्वाद्यनुपस्थितावपि वह्वयादिनिष्ठापाद्यत्वावगाहिंनो 'वह्निमापादयामी' त्याद्यनुव्यवसायस्यानुभवसिद्धतयाऽऽपाद्यत्वस्य स्वव्यतिरेकनिर्णयजन्यतदापत्तिविषयरूपत्वाऽसंभवात् ।
अथ वयादिप्रकारकापत्तित्वमेव तादृशानुव्यवसायविषयः, तादृशधर्म' प्रकारतात्वावच्छिन्नविषयतासंबंधन ताह
१ प्रकारतानिरूपित वि०' इति दे. |
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आपाद्यताविचारः ]
[ ७५
शानुव्यवसायं प्रति वह्न्यभाववत्तानिर्णयजन्यताया हेतुत्वानोपदर्शितसमूहालम्बनानन्तरं तादृशानुव्यवसायप्रसंग ः । आपत्तित्वं च मानसत्वव्याप्यजातिविशेषः ।
'वमापादयामीत्याद्यनुव्यवसायसाक्षिक 'पर्व
न तादिविषयतानभ्युपगमे वह्न्यादिव्याप्यवत्तादिनिर्णयजन्यतावच्छेदकं वह्न्यादिप्रकारकापत्तित्वमेव वाच्यम्, तथा च तादृशसमूहालंबनऽऽपत्त्यादौ व्यभिचार इति वाच्यम्, अनुमितिस्थलीय कार्यकारणभाव इव कारणवैशिष्ट्य निवेश्यैव व्यभिचारस्य वारणीयत्वात् । भवन्मतेऽप्यन्यापादकापत्तौ व्यभिचारवारणाय वैशिष्ट्यनिवेशस्यावश्यकत्वात् । एवं वह्न्यभाववत्तानिर्णयजन्यतावच्छेदककोटावपि तद्वैशिष्टयस्य निवेशनीयतया न तस्य समूहालंबनापत्यादौ व्यभिचारः । भवन्मतेऽपि वह्निमभेदादिनिर्णयजन्यवह्नयाद्यापादकाऽऽपत्तौ व्यभिचारवारणाय तदुद्वैशिष्ट्यनिवेशस्यावश्यकत्वात् ।
न च पर्वतत्वाद्यवच्छिन्नविशेष्य का ह्वया दिविशिष्टबुद्धौ पर्वतत्वाद्यवच्छिन्नविशेष्य कव हून्यभावादिमत्तानिर्णयाभाव हेतुतायां 'पर्वतो वह्निमान् स्यादि' त्यापत्तौ व्यभिचारवारणाय पर्वतत्वाद्यवच्छिन्नविशेष्यकवह्नयाद्यापादकापत्त्यन्यत्वं जन्यतावच्छेदककोटौ निवेश्यमिति तज्जन्यतावच्छेदककोटिप्रविष्टतया विशेव्यताविशेषसिद्धिः, वह्नि प्रकारकान्यत्वस्य तत्र निवेशे 'वहि१' पर्वतातिरिक्त वि.' इति दे. । २ - 'प्रकारकापत्त्यन्य०" इति दे० ।
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७६ ]
[ विषयतावादे मान् पर्वतः, पर्वतो घटवान् स्यादि'त्यादिसमूहालंबनानां तादृशबोधदशायामापत्तेरिति वाच्यम् ; जन्यतासंबंधेन वह्नयभाववत्तानिर्णयवदन्यत्वस्यैव तत्र निवेशनीयतया व्यभिचारापत्तेर्वारणसंभवात् । न च जन्यत्वनिवेशनापेक्षया विषयताविशेषनिवेशे लाववात्तसिद्धिरिति वाच्यम् , कार्यतावच्छेदकलाघवेनातिरिक्तविषयतासिद्धौ 'तत्तदापाद्यव्यतिरेकज्ञानजन्यतावच्छेदकतया विषयताविशेषाणां सिद्धिप्रसंगात्।
वस्तुतस्तु बाधाभावजन्यतावच्छेदककोटी जन्यतासंबंधेन बाधवदन्यत्वस्य निवेशनमेवोचितम् । अन्यथा बाधकालीनेच्छाजन्यज्ञाने व्यभिचारवारणायेच्छाया उत्तेजकत्वे गोरवात्। 'मन्मते-आहार्यज्ञानस्यापि बाधजन्यतया तस्य तादृशकार्यतावच्छेदकानाक्रान्ततयैव व्यभिचारसंभवेनेच्छाया उत्ते. जकत्वानभ्युपगमात् ।
न च बाधकालीनेच्छाधीनज्ञाने बाधहेतुताया अप्रमाणिकतया एतदनुरोधेन तत्कल्पने च गौरवादिच्छाया उत्ते. जकत्वमावश्यकमिति वाच्यम् ; आपत्तिस्थले बाधहेतुताया आवश्यकत्वात्तत्रापत्तित्वमनिवेश्येच्छाकालीनज्ञानसाधारण-- तादृशबाधाऽव्यवहतोत्तरज्ञानत्वस्यैव तज्जन्यतावच्छेदकत्वोपगमादतिरिक्तकारणत्वाऽकल्पनात् । न चैवमापत्त्यन्यज्ञानस्यापि बाधकाले इच्छां विनापत्तिरिति तत्रेच्छाहेतुत्वकल्पने १-'तत्तदापादवत्ताज्ञान' इति दे० । २-'मन्मते' इति नास्ति दे० ।
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[ ७७
आपाद्यताविचारः] गौरवमिति वाच्यम् , इच्छाया उत्तेजकत्वेऽप्रामाण्यग्रहादिभिः सममिच्छाऽभावस्य विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहेणानुगतत्वादिच्छाया हेतुत्वकल्पनस्यैवोचितत्वादिति चेत् ?
___ मैवम् , आपाद्यत्व'रूपविशेषानभ्युपगमे ज्ञाननिष्ठो वयादिप्रकारकापत्तित्वाभाव आत्मनिष्ठस्तादृशापत्तित्वावच्छिन्नाभावो वा 'वह्निमापादयामी' त्यनुव्यवसायविषयो वाच्यः, न तु वहयादिव्यतिरेकनिर्णयजन्यत्वविशिष्टापत्तित्वाघभावः, तादृशजन्यत्वाद्यनुपस्थितिदशायामपि तादृशप्रतीतेः सर्वानुभवसिद्धत्वात् । तथा च, पूर्वोपदर्शितसमूहालंबनदशायां 'घटमापादयामि, न वह्निमि'त्याद्यनुव्यवसायानुपपत्तिरिति तादृशविषयतास्वीकार आवश्यक इति । एवं च तादृशविषयतानिरूपकत्वमेवापत्तित्वं न तु जातिविशेषो, मानाभावात् । आपन्यन्यज्ञाने तादृशविलक्षणविषयताभावादेवा'ऽऽपादयामी'त्याद्यनुव्यवसायविरहोपपत्तिरिति बोध्यम् । . अत्रेदमवधेयम्-विधेयत्वमेवापत्तिः स्वीक्रियते । तथा चापत्तिनिरूपितविधेयत्वमेवापाद्यत्वम् । 'पर्वतो वह्निमान्, पर्वतो घटवान् स्यादि'त्याद्याकारकापत्तौ घटस्यैव विधेयत्वमुपगम्यते न तु वनेरतो न तादृशापत्त्यनंतरं 'घटमापादयामि, न तु वहिनमि'त्याद्याकारकानुव्यवसायानुपपत्तिः । विधेयताया अनुमित्यादिसाधारण्येऽपि तत्रा
१-'रूपविषयतावि०' इति दे० ।
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( विषयतवादः
पत्तित्वाख्यजातिविशेषाभावान्न तदनंतर मापादयामी' त्यनुव्यवसाय: । आपत्तित्वजातौ मानाभाव' इति तु न वाच्यम्, ‘आपादयामी'त्यनुव्यवसायस्यैव मानत्वाद् । विषयभेदेनानन्तविषयता कल्पनापेक्षया जातिकल्पने लाघवस्यैव विवादभञ्जकत्वात् ।
1
न च भवन्मते वाधबुद्धिप्रतिबध्यतावच्छेदककोटौ तद्विधेयकविजातीयज्ञानभिन्नत्वं निवेश्यं तद्विधेयकान्यत्वनिवेशेऽनुमित्याद्यसंग्रहापत्तेः मम तु तन्निष्ठविलक्षणविषयताकान्यत्वमेव निवेश्यत इति वाच्यम्, इच्छाधीनज्ञाने व्यभि 'चारवारणायोत्तेजकत्वकल्पनापेक्षया लाघवेन जन्यतासंबंधेन बाधवदन्यत्वस्यैव निवेशितत्वा तेनैवापत्तावपि व्यभिचारवारणात्, तदन्यत्वस्यैवानिवेशात् कार्यतावच्छेदकत्वादिलाघनातिरिक्तविषयतासिद्धेः, प्रतिबंधक सहस्रकवलितत्वात् ।
७८ ]
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एतेनानुमित्यादिसाधारण विलक्षण विषयताया आपच्यादिसाधारण्येन तत्स्थलीयप्रतिबंधकतायां प्रतिबध्यतावच्छेदककोटौ प्रत्यक्षान्यत्वमापत्य न्यत्वंनिवेशनीयमिति गौरव मित्यपि परास्तमिति कृतं पल्लवितेन ॥ श्रीः ||
॥ समाप्तो विषयतावादः ॥
१- 'वादिति' इति खं० प्रतौ ।
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महोपाध्याय-न्यायाचार्य
श्रीमद्यशोविजयगणिप्रणीतम् वायूष्मादेः प्रत्यक्षाप्रत्यक्षत्वविवादरहस्यम् ।
।ऐं नमः॥ वायोश्चाक्षुषसाक्षात्कारवत् स्पार्शनोऽपि न साक्षात्कार इति नैयायिकसिद्धान्तो न श्रद्धेयः, वायोरस्पार्शनत्वे शरीग्वायुसंयोगानन्तरं 'शीतो वायुर्वाती' त्यादिवायुमुख्य विशेष्यकलौकिकस्पार्शनानुपपत्तेः । न चासौ न स्पार्शनोऽपि तु मानस एवेति वाच्यम् , 'वायोः शीतस्पर्श स्पृशामि, ‘वातं स्पृशामी'त्याद्यनुव्यवसायानुपपत्तेः । न चासौ भ्रमो बाधकाभावात् । न च वायूनां विषयविधया तत्तद्वयक्तित्वेन स्वविषयकलौकिकप्रत्यक्षं प्रति कारणत्वकल्पनागौरवमेव बाधकमिति वाच्यम् , विषयस्य तत्तद्यक्तित्वेन कारणत्वे मानाभावात् , विषयस्य तत्तद्वयक्तित्वेन कारणतावृद्धिभियाऽतीन्द्रियत्वाभ्युपगमे घटादेपि तथात्वापत्तेः ।
___ न चोद्भूतरूपस्य द्रव्यचाक्षुषवत् द्रव्यस्पार्शनेऽपि हेतुत्वात् कारणाभाव एव बाधक इति वाच्यम्, मानाभावात् । प्रमायाः स्पार्शनवारणाय उद्भूतस्पर्शस्य द्रव्यत्वस्पार्शनहेतुत्वावश्यकतया तत एव पिशाचादेगनादेश्वाऽस्पार्शनत्वोपपत्तेः । न च 'प्रभा हि तेजसो रूपमिति नये विनिगमनाविरहादेवोद्भूतरूपस्यापि द्रव्यस्पार्शनहेतुत्वमिति वाच्यम् ,
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८० ]
[ वायूष्मादेः तथाऽप्युक्तप्रतीतेभ्रमत्वकल्पनाया एव विनिगमकत्वात् । उद्भूतरूपस्य हेतुत्वेऽपि मरेणुस्पार्शनवारणाय द्रव्यस्पार्शनं प्रति उद्भूतस्पर्शस्य हेतुत्वावश्यकताया विनिगमकत्वाच्च । न चैवमृष्मणो भर्जनकपालस्थवढ्यादेश्च स्पाशनापत्तिः स्पार्शनं प्रति रूपस्याऽहेतुत्वादिति वाच्यम् , इष्टत्वात् । न च वायूष्मणोस्त्वाचाभ्युपगमे वृत्तिसंख्यादेरपि त्वाचापत्तिरिति वाच्यम् , इष्टत्वादिति मीमांसकाः।
तत्र प्राश्चो नैयायिकाः, सामान्यतो मानसेतरद्रव्यलौकिकप्रत्यक्षत्वाद्यवच्छेदेनैव द्रव्यलौकिकचाक्षुषं प्रत्युद्भू तरूपस्य हेतुत्वान्न वायोः स्पार्शनसाक्षात्कारसंभवः, सामान्यसामग्या सहिताया एव विशेषसामग्र्याः कार्योपधायकत्वात् । न च तादृशकार्यकारणभावे मानाभाव इति वाच्यम् , वाम्बादेः पिशाचादेगत्मनश्च लौकिकचाक्षुषवारणाय द्रव्यलौकिकचाक्षुषं प्रत्युद्भूतरूपस्य हेतुत्वावश्यकतया तस्यैव सामान्यतो मानसेतरद्रव्यलौकिकप्रत्यक्षत्वस्य कार्यतावच्छेदकत्वात् , असति बाधके सामान्यधर्मावच्छेदेनैव कार्यतादिग्राहकप्रमाणप्रवृत्तेरित्याहुः । तदसत् । मानसेतरद्रव्यप्रत्यक्षत्वस्याऽऽत्मेतरद्रव्यप्रत्यक्षत्वमादाय विनिगमनाविरहग्रस्ततया द्रव्यचाक्षुषत्वमपेक्ष्य शरीरगुरुतया च द्रव्यचाक्षुषत्वस्यैवोद्भूत(रूप)कार्यतावच्छेदकत्वौचित्यात् । बाधकसत्त्वे सामान्यस्याऽकिश्चित्करत्वात् ।
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प्रत्यक्षाऽप्रत्यक्षत्वविवादरहस्यम् ]
[८१ नैयायिकैकाशिनस्तु मूर्तलौकिकप्रत्यक्षत्वद्रव्यलौकिकचाक्षुषत्वयोः समशरीरतया विनिगमकाभावादुभयमेवो
द्भूतरूपकार्यतावच्छेदकम् , अतो न वायुष्मादेः स्पार्शनसाक्षात्कारसम्भवः । न च मूर्तलौकिक प्रत्यक्षत्वस्य कार्यताव च्छेदकत्वेऽपि द्रव्यलौकिकचाक्षुषत्वं कार्यतावच्छेदकमावश्य(क)म् , अन्यथा आत्मन्युद्भूतरूपाभावान्मूर्तप्रत्यक्षोत्पत्त्यसंभवेऽपि चक्षुःसंयोगलक्षणसन्निकर्षसत्त्वेन द्रव्यलौकिकचाक्षषोत्पत्निप्रसङ्गस्य दुर्वारत्वात , तथा चेदमेव विनिगमकमिति वाच्यम् , मूर्तलौकिकप्रत्यक्षवमात्रस्य कार्यतावच्छेदकत्वेऽपि मूर्तलोकिकप्रत्यतातिरिक्तस्य द्रव्यलौकिकचाक्षषस्याऽलीकतया सामान्यसामग्रीविरहादेवाऽऽत्मनि द्रव्यलौकिकचाक्षषोत्पत्ते धारणसम्भवात् । न च द्रव्यान्यद्रव्यसमवेतस्पार्शनं प्रति वसंयुक्तत्वाचवत्समवायत्वेन सन्निकर्षस्य करणता, न तु स्वसंयुक्तप्रकृष्टमहत्त्वोद्भूतस्पर्शवत्समवायत्वेन, महत्त्वोद्भूतस्पशयोः उभयोः प्रवेशे गौरवात् । त्वाचवत्वं चोपलक्षणं न च विशेषणं, तेन सर्वत्र पूर्वमाश्रयत्याचविरहेऽपि न क्षतिः । तथा च वाय्वादेरस्पार्शनत्वे तांत्तस्पर्शस्पार्शनानुपपत्तिरेव मृतलौकिकप्रत्यक्षत्वस्योद्भूतरूपकार्यतावच्छेदकत्वाभावे विनिगमकमिति वाच्यम्, एकस्यामेव व्यक्तौ कालभेदेन त्वाचानामनन्ततया त्वक्संयुक्तत्वतत्समवेतत्वमपेक्ष्य त्वक्संयुक्तमहत्त्वोद्भुतस्पर्शवत्समवायसमवायत्वस्यैव लघुत्वात् । ननु
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८२ ]
[ वायूष्मादेः तथापि विनिगमनाविरहेण मृतलौकिकप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रति उद्भूतरूपस्य हेतुतया माऽस्तु वायुष्मादेः त्वाचसाक्षास्कारः. माऽस्तु च संख्यापरिमाणादिसाधारणव्यासज्यवृत्तिगुण(त्वाचीत्वाचत्वावच्छिन्नं प्रति आश्रयत्वाचाभावस्य प्रतिबन्धकतया वाय्वादिवृत्तिसंख्यागुणस्यापि त्वाचादिसाक्षाकारः, वाय्वादिवृत्तिक्रियायाः वाय्वादिघटितसन्निकर्षण चायवादिवृत्तिवायुत्वोष्मत्वद्रव्यत्वादिजातेश्च त्वाचसाक्षात्कारस्तु मीमांसकाभिमतो दुर्वार एव, द्रव्यान्यद्रव्यसमवेतत्वाचत्वावच्छिन्नं प्रति त्वक्संयुक्तप्रकृष्टमहत्त्वोद्भूतस्पर्शवत्सम वायत्वेनैव प्रत्यासत्तित्वात् , त्वक्संयुक्तप्रकृष्टमहत्त्वोद्भूतरूपस्पर्शवत्समवायत्वेन प्रत्यामत्तित्वे गौरवात् , वायुष्मादिस्पर्शस्वाचे व्यभिचाराच । न च त्वक्संयुक्तप्रकृष्टमहत्त्वोद्भूतरूपसमवायस्य स्पर्शतरमूर्तसमवेतप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रति सन्निकर्षतया न वाय्वादिवृत्तिक्रियादेः स्पार्शनम् । स्पर्शप्रत्यक्षं प्रति तु त्वक्संयुक्तप्रकृष्टमहत्त्वोद्भूतस्पर्शवत्समवाय एव सन्निकर्ष इति वाच्यम् , गुरुतरकार्यकारणभावद्वयकल्पते गौरवान्मानाभावाच । वाय्वादिवृत्तिक्रियायाः वाय्वादिघटितसन्निकर्षण वाय्वादिवृत्तिवायुत्वोष्मत्वादिजातेश्च त्वाचप्रत्यक्षत्वस्येटत्वात् , प्राचामनभ्युपगमभावस्याऽकिश्चित्करत्वादिति नैयायिकसिद्धान्तं परिष्कुर्वन्ति ।
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[ ८३
प्रत्यक्षत्वाऽप्रत्यक्षत्व विवाद रहस्यम् |
,
तदभ्यसत् । यथा त्रसरेणुव्यावृत्तविजातीयमहत्त्वस्य सामान्यतो द्रव्यलौकिकप्रत्यक्षत्वमेव कार्यतावच्छेदकं लाघवात् द्रव्यस्पार्शनस्य तु कार्यतावच्छेदकत्वे द्रव्यचाक्षुषं प्रति पृथग्महत्त्व मामान्यस्य कारणत्वकल्पनापत्तेरतस्त्रसरेणुर्न चाक्षुषः किन्तु तद्वृत्तिरूपादिकमेव चाक्षुषमित्यस्य सुवचत्वेsपि ' त्रसरेणुश्वलतीति' प्रत्ययानन्तरं 'त्रसरेणु पश्यामी' त्यबाधितानुव्यवसायबलात् द्रव्यस्पार्शनस्यैव विजातीय महत्त्व -- कार्यतावच्छेदकत्व स्वीकारस्तथा 'शीतो वायुर्वाती' त्यादिप्रत्ययानन्तरं 'वायु ं स्पृशामि' इत्यबाधितानुव्यवसायानुपपतेरेव मूर्त्तलौकिकप्रत्यक्षस्योद्भूतरूपकार्यतावच्छेदकत्वाभावे विनिगमकत्वात् । मूर्त्तलौकिकप्रत्यक्षत्वस्य नित्यसाधारणतया कार्यतावच्छेदकत्वायोगाच्च । नित्यव्यावृत्तेधर्म (में) कार्यताव - च्छेदके संभवति असति लाघवे तत्साधारणधर्मेण कार्यत्वकल्पनानुदयात् ।
न वै मूर्त्तलौकिकप्रत्यक्षं लौकिक विषयतासम्बन्धेन मूर्त्तस्ववत्त्वम् । मूर्त्तलौकिकप्रत्यचे मुत्तत्वजातेरपि भाननियमात् । तच्च न नित्यसाधारणं, भगवत्साक्षात्कारे लौकिकविषयताविरहात् मूर्त्तनिष्ठाया लौकिकविषयतायाः कार्यतावच्छेदकसम्बन्धत्वाभ्युपगमाश्च न समूहालम्बनप्रत्यक्षमादाय मूर्त्तवृत्तिगुणादौ व्यभिचार इति (चन) वाच्यम्, भगवत्साक्षात्कारसाधारणसाक्षात्कारत्वावच्छिन्नविषयतातिरिक्तलौकिकविषयतायां
"
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८४ ]
[ वायूष्मादेः मानाभावात् । त्वाचीयलौकिकविषयित्वमूर्त्तत्वयोः प्रवेशेन शरीरगौरवत्वेन च द्रव्यलौकिकचाक्षुषत्वमपि लौकिकविषयतासम्बन्धेन द्रव्यत्वव(वा)चाक्षुषत्वं, द्रव्यलौकिकचाक्षषे द्रव्यत्वभानानियमात् । द्रव्यनिष्ठलौकिकविषयतायां मानाभावात् । त्वाचीयलौकिकविषयित्वः कार्यतावच्छेदकप्रत्यासत्तिस्तेन समूहालम्बनचाक्षुषमादाय गुणादौ न व्यभिचारः । तथा च चाक्षुषत्वप्रवेशात् मूर्त्तत्ववच्चाक्षुषत्वमादाय विनिगमकाभावेन च क्षुषत्वद्रव्यत्वादिमत्त्वयोर्विशेषणविशेष्यभावेन च कार्यकारणभावचतुष्टयप्रसङ्गाच्च इदमेव गुर्विति वाच्यम् । चाक्षपत्वमात्रस्य कारितावच्छेदकत्वात् । तद्रव्यनिष्ठलौकिकविषयतायाः कार्यतावच्छेदकसम्बन्धत्वावश्यकत्वादेव व्यभिचारविरहात् । प्रत्यक्षत्वस्य नित्य साधारणतया तन्मात्रस्य कार्यतावच्छेदकत्वाऽसम्भवात् ।
किञ्च वायूष्मादेः प्रत्यक्षत्वसन्देहेन मूर्तलौकिकप्रत्यक्षत्वस्य प्रत्यक्षत्वस्य वा सन्दिग्धव्यभिचारकत्वात् चाक्षुषत्व व्यापकत्वाच्च न तयोः कार्यतावच्छेदकत्वसंभवः । सम्भवति निश्चिताऽव्यभिचारके रूपे इक्ष्यमाणव्यभिचाररूपेण कारणत्ववकार्यत्वस्यापि विना लाघवमकल्पनात् । सम्भवति क्लुप्ताऽगु रुविशेषधर्मेऽवच्छेदके व्यापकरूपेण कारणत्ववत् कार्यस्यापि बिना लाघवमकल्पनाच्च । व्याप्तिग्रहोपाये तदुपादानमेव शङ्काप्रतिवन्धकमिति व्याख्यानानन्तरमनुगताऽगुरुविशेषानु
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प्रत्यक्षत्व'ऽप्रत्यक्षत्व विवादरहस्यम् ]
.. [ ८५
पस्थितावेव सामान्यधर्मावच्छेदेन कार्यकारणभावग्रह इति भट्टाचार्यैरभिहतत्वात् । न च कारणताहमात्र परं, कार्यकारणभावग्रह इत्यभिधानादविशेषेणोभयपरत्वात् , घूमत्वावच्छेदेन च कार्यताग्रहस्यैव तत्र प्रकृनत्वेन कारणताग्रहमात्रपरत्वस्याऽयुक्तत्वाच्च ।
न च प्रत्यक्षस्य नित्यसाधारणत्वेन व्यापकधर्म वे सन्दिग्धव्यभिचारकत्वेऽपि तदेवोद्भूतरूपस्य कार्यतावच्छेदकम् , मृतत्वविशिष्टे लौकिकविषयता च कार्यतादिशि प्रत्यासत्तिलाघवात् , चाक्षुषत्वस्य कार्यतावच्छेदकत्वे द्रव्यत्वविशिष्टलौकिकविषयत्वं कार्यतादिशि प्रत्यासत्तिमूर्त्तत्वविशिष्टलौकिकविषयत्वं वेत्यत्र विनिगमकाभावेन कार्यकारणभावद्वयापत्तेः, प्रत्यक्षत्वस्य कार्यतावच्छेदकत्वे आत्मप्रत्यक्ष व्यभिचारापत्त्या द्रव्यत्वविशिष्टलौकिकविषयत्वस्य कार्यदिशि सम्बन्धत्वाऽसदावादिति वाच्यम्, मूर्तत्वविशिष्टलौकिकविषयतासम्बन्धेन प्रत्यक्षत्वावच्छिन्नस्य कार्यत्वेऽपि द्रव्यत्वविशिष्टलौकिकविषयतासम्बन्धेन चाक्षुषत्वावच्छिन्नं मूर्त्तत्वविशिष्टलौकिकविषयतासम्बन्धेन चाक्षुषत्वावच्छिन्नं च प्रत्येकमादाय विनिगमनाविरहेण कार्यकारणभावत्रयापत्तेदुर्वारत्वात् । वस्तुगत्या द्रव्यनिष्ठस्य लौकिकविषयत्वस्य कार्यतावच्छेदकसम्बन्धत्वेन द्रव्यत्वविशिष्टत्वस्य सम्बन्धाऽघटकतया विनिगमनाविरहाच । द्रव्यनिष्ठचाक्षुषविषयत्वमूर्तनिष्ठचाक्षुषविषयत्वयोदाभावात् ।
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८६]
[ वायूष्मादेः न च चाक्षुषत्वस्य कार्यतावच्छेदकत्वे स्पार्शनप्रत्यक्षं प्रति उद्भूतरूपस्याऽजनकतया रसनस्य स्पार्शनवारणाय द्रव्यस्पार्शनं प्रति उद्भूतस्पर्शजनकतायां जलस्पर्शनिष्ठशीतत्वव्याप्यानुद्भूतत्वाभावस्याप्यवच्छेदककोटौ प्रवेशावश्यकत्वे गौरवापत्तेः, प्रत्यक्षत्वस्य कार्यतावच्छेदकत्वे स्पार्शनप्रत्यक्षं प्रति उद्भूतरूपस्य जनकतया तदभावादेव रसनस्पार्शनासम्भवान्न तत्प्रवेशः, उद्भूतरूपानुद्भूतस्पर्शवतो जलस्याभावादिति वाच्यम् , प्रत्यक्षस्य कार्यतावच्छेदकत्वे त्वाचीयलौकिकविषयत्वानामपि कार्यतावच्छेदकसम्बन्धकोटौ प्रवेशेन मह. गौरवात् ।
ननु तथापि प्रत्यक्षत्वस्योद्भूतरूपकार्यतावच्छेदकत्वे स्पर्शनिष्ठानुद्भूतत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकानुद्भूतकाभावकूटत्वेन द्रव्यस्पार्शनं प्रति हेतुत्वं, गगनादावाप तादृशाभावकूटसत्त्वेऽप्युद्भूतरूपात्मककारणान्तरविरहादेवास्पार्शनत्वोप - पत्तः । चाक्षुषत्वस्य कार्यतावच्छेदकत्वे तु स्पर्शनिष्ठ नुद्भुतवाभावकूटवत्स्पर्शत्वेनैव द्रव्यस्पार्शनं प्रति हेतुत्वमुपेयमन्यथा गगनादेरपि स्पार्शनापत्तेः, उद्भूतरूपस्य स्पार्शनाऽहेतुत्वात् । तथा च स्पर्शत्वस्य प्रवेशात्स्पर्शत्वानुद्भूतत्वाभावकूटयोविशेषणविशेष्यभावे विनिगमकाभावेन कार्यकारणभावद्वयप्रसंगाच महद्गौरवमतः सन्दिग्धव्यभिचारकत्वादिदमपि प्रत्यक्षत्वमुद्भूतरूपकार्यतावच्छेदकं लाघवादिति चेत् ? न, अपे
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प्रत्यक्षत्वाऽप्रत्यक्षत्वविवादरहस्यम् ]
[८७ क्षाबुद्धिभेदेन कूटत्वस्य नानाविधतया तादृशानुद्भूतत्वाभास्कूटत्वेन हेतुत्वेऽनन्तकार्यकारणभावापत्तेः। अनुद्भुतत्वाभावकूटवत्स्पर्शत्वेन हेतुत्वे तु स्वरूपतोऽनुद्भूतत्वाभावकूटानां स्पर्शत्वस्य चैकत्र द्वयमिति न्यायेन व्यासज्यवृत्त्यवच्छेदकतया कूटत्वस्य कारणतावच्छेदककोटौ प्रवेशात् ।
वस्तुतस्तु अनुद्भूतस्पर्श मानाभावात् , सामान्यतः स्पर्शत्वेनैव द्रव्यस्पार्शनं प्रति हेतुत्वम् । न त्वनुद्भूतत्वाभावप्रवेशोऽपीति क गौरवसम्भावना । नं च तथापि मूर्तलौकिकप्रत्यक्षत्वस्य वा उद्भूतरूपकार्यतावच्छेदकत्वे द्रव्यस्पार्शनं प्रति स्पर्शस्य न हेतुत्वमुद्भूतरूपाभावादेवाऽस्पार्शनत्वोपपत्तेः, चाक्षुषत्वस्य कार्यतावच्छेदकत्वे तु गगनादेस्त्वाचवारणाय द्रव्यत्वाचं प्रति स्पर्शस्यापि पृथगहेतुत्वमाव(व)श्यकमतो गौरवमिति वाच्यम् , मूर्तलौकिकप्रत्यक्षत्वस्याऽप्रत्यक्षत्वस्य वा कार्यतावच्छेदकत्वेऽपि प्रभाया वायोश्च स्पार्शनवारणाय द्रव्यत्वाचं प्रति स्पर्शस्य पृथग्हेतुताया आवश्यकत्वात् ।
स्वतन्त्रास्तुचक्षरयोग्यद्रव्यस्यापिवायुष्मादेः स्पार्शनत्वे स्पार्शनजनकतावच्छेदकैकत्वनिष्ठजातिमादाय चाक्षु(ष)जनकतावच्छेदकैकत्वनिष्ठवैजात्याऽनभ्युपगमे द्रव्यस्पार्शनं प्रति स्प
विजातीयमहत्त्वयोः कारणत्वकल्पनाप्रसङ्गात् , चाक्षुषजनकतावच्छेदकैकत्वनिष्ठजात्यनभ्युपगमे द्रव्यचाक्षुषं प्रति महत्व
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म]
[ वायूष्मादेः
"
सामान्यरूपयोः कारणत्वकल्पनाप्रसङ्गात् इति चाक्षुषजनकतावच्छेदकैकत्वनिष्ठवैजात्यस्य व्याप्यत्वमेव स्पार्शनजनकतावच्छेदकैकत्वनिष्ठ वै जात्यमतः कुतो वाय्वादेः स्पार्शनम् । अथ साङ्कर्यभिया वाय्वादेर्न स्पार्शनम्, त्रसरेण्वादेर्वा न च क्षयमित्यत्र विनिगमकाभावः । त्रसरेण्वादिरूपादेरेव चाक्षुपं न त्रसरेण्वादेरिति तत्रापि सुवचत्वात् । न च त्रसरेणुः रूपवान् त्रसरेणुश्चलतीत्यादिप्रत्यक्षानन्तरं त्रसंरंणु पश्यामीत्यबाधितानुव्यवसायवलात् त्रसरेण्यादेवःक्षुषमावश्यकमिति वाच्यम्, तदा शीतो वायुवती 'ति प्रत्यक्षानन्तरं 'व यू' स्पृशामी' त्यबाधितानुव्यवसायबलात् द्वयोरपि स्पार्शनन्वस्यावश्यकत्वात् । त्रसरेणु पश्यामीत्यनुव्यवसायम्य वा बाधितत्वं निश्चितं, 'वायु' स्पृशामी' त्यस्य वा बाधितत्वं सन्दिग्धमित्यस्य (श) पथमात्रनिर्णेयस्त्रादिति चेत न, एवंविधविरोधे विषयमात्रासिद्धेः विनिगमनाविरहादुभयोरेव साङ्कर्यवारणाय भ्रमत्वकल्पनेऽपि वाय्वादेः प्रत्यक्षत्वादिसिद्धेश्व | एकत्वनिष्ठेकवैजात्यस्यैव द्रव्यचाक्षुपस्पाई नोभयजनकतावच्छेदकत्वादिति नैयायिक सिद्धान्तं परिष्कुर्वन्ति । प्रबलतरयुक्त्या तदपि न सम्यगिति प्रतिभाति । स्पार्शनजनकतावच्छंदकवैजात्यव्यापकत्रसरेण्वेकत्वसाधारण जात्यं हि नित्यैकत्वसाधारणं निखिलतद्व्यावृत्तं वा ? आद्ये यदि नित्यैकत्वेषु मध्ये परमाण्वेकत्वमात्रसाधारणं तदा द्रव्यचाक्षुपं प्रति महत्त्वस्य
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प्रत्यक्षत्वाऽप्रत्यक्षत्वविवादरहस्यम् ]
[८१ कारणत्वमावश्यकम् । यदि च गगनाद्येकत्वमात्रसाधारणं तदा द्रव्यचाक्षुषं प्रति रूपस्य कारणत्वमावश्यकम् । तथा च कार्यकारणद्वयमविशिष्टमेव, एकत्वनिष्ठवैजात्यकल्पनं पुनरधिकम् । अन्त्येऽपि कार्यमात्रवृत्तिजातितया तदवच्छिन्नं प्रति कस्यचित्कारणत्वस्यावश्यकतया द्रव्यचाक्षुषं प्रत्येकत्वस्य कारणत्वमादाय कारणताद्वयकल्पनमविशिष्टमेव, । एकत्वनिष्ठवैजा. त्यकल्पनं पुनरधिकमेव. कार्यमात्रवृत्तिमातेः कार्यतावच्छेदकत्वनियमस्य सकलप्रामाणिकसिद्धत्वात ।
किश्च घटाकाशसंयोगद्वित्वादेः स्पार्शनवारणाय व्यासज्यवृत्तिगुणत्वाचं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन लौकिकविषयत्वावच्छिन्नत्वाचाभावस्य प्रतिबन्धकत्वमावश्यकम् । तस्य च प्रतिबध्यतावच्छेदकं न व्यासज्यवृत्तिगुणत्वाचत्वम् । गुणादित्वाचं प्रति प्रकृष्टमहत्त्ववदुद्भुतस्पर्शवत्समवायस्यातिरिक्तकारणत्वकल्पनापत्तेः । अपि तु निखिलगुणकर्मत्वाचसाधारणं द्रव्यान्यसत्त्वाच्चत्वमेव तत्प्रतिबध्यतावच्छेदकम् । द्रव्यान्यसत्त्वं च प्रतिबध्यतावच्छेदकतया विशेषगुणकर्ममात्रवृत्तिजातिविशेष इति त्वक्संयुक्तसमवायादिसन्निकर्षहेतुत्वनिराकरणावसरे प्रपश्चितम् । तथा च वायुष्मादेरस्पार्शनत्वे सद्वृत्तिस्पर्शस्याप्यस्पार्शनोपपत्तिः । न च स्पर्शतरद्रव्यान्यसत्त्वाचत्वमेव तत्प्रतिबध्यतावच्छेदकमिति वाच्यम् , स्पर्शतरत्वप्रवेशे गौरवापत्तेः । स्पर्शतरत्वप्रवेशे घटाकाशसंयोगादौ
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१०]
स्पार्शनसामान्यापत्तिवारणाय स्पार्शनं प्रति स्पर्शत्वेन परमाण्वादिस्पार्शनवारणाय प्रकृष्टमहत्वत्वेन चातिरिक्तका ( रणत्वाऽऽ ) पत्तेश्चेति समासः । स्पर्शाभावस्य विजातीय स्पार्शाभावस्य वा तत्प्रतिबन्धकत्वे तु न किश्विदेतत् । वैजात्यं तु फलबलकनृप्यमिति ध्येयम् ।
वायूष्मादेः प्रत्यक्षत्वाप्रत्यक्षत्वविवाद रहस्यं समाप्तम् ॥
1
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महोपाध्याय - न्यायविशारद - न्यायाचार्य पण्डितशिरोमणि श्रीमद्य शोविजय गणिविरचिता
|| वादमाला ( ३ ) ॥ ऐ नमः ||
ऐन्द्रश्रेणिनतं नत्वा जिनं तत्त्वार्थदेशिनम् । वादमालां वितनुते यशोविजयपण्डितः ॥ १ ॥
तत्र पूर्व वस्तुलक्षणं विविच्यते । सामान्यविशेषात्मकं वस्तु । तत्र सामान्यमनुवृत्तिप्रत्ययाऽसाधारण हे तुर्वस्त्वंशः । भवति खलु भिन्नप्रदेशकनानाव्यक्तिविशेष्य कैकत्वप्रकारकप्रतीतौ तादात्म्येन तिर्यक्सामान्यं हेतुः । एकप्रदेशकनानापर्यायव्यक्तिविशेष्यकैकत्वप्रकारकप्रतीतौ च तादात्म्ये नोर्ध्वता सामान्यं हेतुरित्येतद्विविधमप्यनुवृत्तिप्रत्ययाऽसाधारणकारणमिति ।
विशेषो व्यावृत्तिप्रत्ययाऽसाधारण हेतुर्वस्त्वंशः । भवति खल्वेकविशेष्यकानेकत्वप्रकारकप्रतीतौ तादात्म्येन विशेषो हेतुरिति । न च 'घटा अनेके' इति प्रतीतावने कविशेष्यकत्वस्यैवानुभवादसंगतमेतदिति वाच्यम्, विशेषग्रहणाभिमुखक्षयो पशमसामर्थ्यादेकविशेष्यकानेकत्वप्रकारकबोधेऽपि तथाभिलापसम्भवादेकसामान्यतादात्म्याऽऽपन्नव्यक्तीनां कथंचिदेकत्वस्याप्यविरोधादिति । तदात्मकत्वं च तदुभयत्वम् । तच्च
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[ वादमालायां
भेदाभेदसम्बन्धेनैकविशिष्टाऽपरत्वम् । अतिरिक्त द्वित्वे माना
६२ ]
भावात् ।
"
यत्त्वविशिष्टयोरप गोत्वाश्वत्वयोरुभयत्वप्रत्ययादतिरिक्तमेव द्वित्वमिति दोधितोमापदर्शितं तत्र तत्राप्येकज्ञानविषयत्वादिसम्बन्धेन वैशिष्टयस्य सम्भवात् । एतेन विरोधभ्रमेप्युभयत्वप्रतीतेभूतत्वमूर्त्तत्वा (द्यो १) योरपि न विशिष्टत्वरूपमुभयत्वमिति विद्योतन लिखितमप्यपारतम् । एकसम्बन्धेन विरोधभ्रमेऽपि सम्बन्धान्तरेण वैशिष्ट्यबुद्धेरप्रत्यूहत्वात् ।
ननु यदि सामान्यविशेषोभयस्य वस्तुत्वं तदा केवले सामान्ये केवले च विशेषे वस्तुत्वं न स्यादिति चेत् न, केवलस्य तस्याप्रसिद्धेः । तथापि 'एको न द्वावि'तिवत् 'सामान्यं विशेषो वा न वस्त्विति स्यादिति चेत ? स्यादेव, अत एव सामान्यं विशेषो वा न वस्तु नाप्यवस्तु किन्तु वस्त्वेकदेश इति सिद्धान्तः । तत्त्वं च तत्तादात्म्ये सति तच्च - पर्याप्त्यनधिकरणत्वम्, यथा पटतादात्म्ये सति पटत्व पर्याप्त्यनधिकरणत्वात्तन्तुषु पटैकदेशत्वव्यवहारः । पटसमवायिकारणत्वमात्रेणैव तदुपपादने तु तन्तुसहस्त्रे सहस्रसंख्यावच्छेदेनापि सहस्रतन्तुक पटैकदेशत्वव्यवहारप्रसङ्ग इति विभावनायम् ।
अत्र च सामान्ये विशेषे वा प्रत्येकं वस्त्वेकदेशत्वमेवोभूतम् । नयतात्पर्यभेदेन तु वस्तुत्वाऽवस्तुत्वोभयत्वाऽन
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वस्तुलक्षणम् ]
[ १३ वचनीयत्वादिप्रकारैः सप्तापि भङ्गाः प्रवर्तेरन् । अनन्तधर्मात्मकवस्तुनयप्रवृत्त्यपरिज्ञानवतां त्वेकत्र द्वित्वाभ्युपगमेऽपिव्याकुलीभाव एव, समायविषयत्वेनैव 'द्वावि' त्यादिप्रतीत्युपपादने ‘एको दावित्यादिप्रतीतिप्रसङ्गात् । न च पर्याप्तिसम्बन्धाभ्युपगमेपि निस्तारस्तस्यैकत्राऽसत्त्वे द्वयोरप्यभावप्रसङ्गात् । प्रत्येकावृत्तेः समुदायाऽवृत्तित्वनियमात् ।
अथ 'एकत्र द्वाविति न शाब्दधीरेकत्वाद्यवच्छिन्ने द्वित्वाद्यन्वयस्य निराकक्षित्वात् । नापि तथा प्रत्यक्षं, तत्र यावदाश्रयसनिकर्षस्य हेतुत्वात् । नचोभयाश्रयसभिकर्षकालीनस्याऽय'मेको द्वौ 'अयं च एको द्वाविति'प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यं स्यादिति वाच्यम्, तत्प्रामाण्यस्य यावदाश्रयविशेष्यताकत्वघटितत्वात् । एकघटवति च द्वित्वावच्छिन्नाधिकरणताविर• हादेव नोभयघटवत्ताधीरिति द्वित्वस्य पर्याप्त्यनभ्युपगमेपि नानुपपत्तिरिति चत् १ न, तथापि द्वित्वव्याप्यधर्मेणैकत्र द्वित्वानुमित्याऽऽपत्तेः, ‘एको न द्वौ' 'द्वो नैक' इति प्रयोगाऽयोग्यताऽऽपत्तेश्च ।
अथ पर्याप्तिसम्बन्धेनैकत्वद्वित्वादेवृत्ताविदंत्वद्विन्वा. दिकमवच्छेदक, नचात्माश्रयः, द्वित्वादिव्यक्तिभेदेनापि तत्संभवात् , तेन 'अयमेक' 'इमौ द्वावि'ति प्रमा, न तु 'दावेको' 'अयं द्वावि'त्यादिकम् । 'घटावि'त्यादिशाब्दधीस्त्वव.
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१४ ]
[ वादमालायां च्छेदकाऽविषयैव तथा । पर्याप्त्यवच्छिन्नाऽवच्छेदकताकेकत्वद्वित्वाद्यवच्छिन्नभेदवृतौ तु द्विवेत्कत्वाद्यवच्छेदकम् , तेन 'द्वौ नेक' ‘एको न द्वाविति प्रमा, न त्वयं नैको' 'द्वो न द्वावि'त्यादि । न वा विरोधः,मूलाग्रवदिदं त्वद्वित्वाद्यवच्छेदकभेदात् । द्वित्वाद्यत्यन्ताभावस्य तु पर्याप्त्यनवच्छिन्नसमवायमात्रस्य प्रतियोगितावच्छेकत्वात् । द्वित्ववति द्वित्वात्यन्ताभावानङ्गीकागद्वा 'एकस्मिन् द्वित्वमिति न प्रतीतिः । ‘एको न द्वावित्यादिधियामेकत्वादी द्वित्वाद्यवच्छेदकत्वाभावविषयत्वमेव नत्वेकस्मिन् द्वित्वाद्यभावविषयत्वमिति तु न युक्तम् , एवं सति 'मूले वृक्षः कपिसंयोगी'ति प्रत्ययस्यापि मूले कपिसंयोगानवच्छेदकत्वावगाहित्वाऽऽपत्तेरिति नैयायिकमतपरिष्कारे को दोष इति चेत् ?
शृणु । तथापि व्यापकत्वविशिष्टसमवायरूपामतिरिक्ता वा पर्याप्तिं विनाऽपि शुद्धसमवायेन 'अयं द्वौ' 'द्वावेक' इत्यादिप्रतीत्याऽऽपत्तिः, द्वयोरेकैकस्मिन्नपि द्वित्वस्य द्वित्वावच्छिन्नाधिकरणतासत्त्वा'देको द्वावि'ति प्रतीत्यापत्तिश्च । स्वाधिकरणतावच्छेदकद्वित्वादिविशिष्ट एव द्वित्वाद्यन्वयस्य साकांक्षत्वे 'घटावि'त्यादिप्रयोगस्यानुपपत्तिः।
किञ्च, इदंत्वस्यैकत्ववृत्त्यवच्छेदकत्वे इमो द्वावि'त्यत्रेवत्वोल्लेखानुपपत्तिः । द्वित्ववृत्तौ द्वित्वावच्छिन्नमेवेदंत्वमवच्छेदक न तु शुद्धमिति न दोष इति चेत ? म, अवच्छेदकावच्छेदक
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वस्तुलक्षणम् ]
[१५
स्यावच्छेदकन्यूनवृत्तित्वनियमात् । तदन्ताद्वयत्वमेव बुद्धिविशेषविषयत्वरूपमवच्छेदकमिति चेत् ? तथापि घटपटोभयवृत्त्येकत्वस्यैव घटपटोभयमेदवृत्त्यवच्छेदकत्वे 'घटौ न घटपटावि'त्यस्या(:) प्रसङ्गः । घटपटोभयत्वान्यसंख्याव्यक्तीनां विशिष्य तदवच्छेदकत्वोपगमे च 'इमे घटा इमे च पटा न घटपटाविति व्यक्त्यपेक्षबहुत्वावच्छेदेन जात्यपेक्षद्वित्वा. वच्छिन्नभेदप्रतीतिप्रमङ्गः ।
किश्च, 'द्वौ नैक' इत्यत्रानुभवबलाद्वयासज्यवृत्तिधर्मावच्छिन्नाधिकरणताकभेदसिद्धौ तत एवान्यत्रापि तेन व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाधिकरणताकाभावेन च स्वपररूपविधिनिषे. धाऽविरोधसिद्धौ स्याहावनीत्यैव सर्वसामञ्जस्ये किं क्लिष्टकल्पनाकष्टशतेन ! अत एव सामान्यविशेषागुवण्ठितस्यानादाऽविरोधेनैकत्रापि धर्मभेदोपरागेणेकत्व द्वित्वयोरविरोधमभिप्रेत्य 'एगे भवं दुवे भवमिति सोमिलप्रश्ने 'दव्वट्ठयाएएगे अहं नाणदंसणट्टयाए दुवे अहमि'ति(भग.सू.६४८)प्रत्युवाच परमेश्वरः। तत्र संग्रहनयाभिप्रायेण प्रथममुत्तरं, द्वितीयं च व्यवहारनयाभिप्रायेणेति । ततः स्थितमेतत् सर्वनयोपग्रहेण 'सामान्य-विशेषात्मकं वस्त्विति ।
ननु 'सामान्य-विशेषात्मकं वस्त्वि'ति न वस्तुनो लक्षणम् । सकलतद्वत्तित्वे सति तदितराऽवृत्तिधर्मस्य तम्रक्षणत्वात् । इतरव्यावृत्तिनिश्चयार्थ हि लक्षणं प्रयुज्यते न च वस्त्वि.
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६६ ]
[ वादमालायां
तरत् प्रसिद्धमस्ति यदनेन लक्षणेन व्यावर्त्येतेति चेत् १ वस्त्वितरत्केवलसामान्यादिकं शसशृङ्गादिकं वा विकल्पप्रसिद्धं व्यावर्त्तयदिदं वस्तुलक्षणं घटत इति सम्प्रदायः । वस्तुतो नेतरव्यावृत्तिमात्रं लक्षणप्रयोजनं किन्तु व्यवहारविशेषोऽपि, ततोऽदोषशब्दार्थोभयत्वावच्छेदेन काव्यवच्त्वव्यवहारायाऽदोषशब्दार्थोभयस्य काव्यलक्षणत्ववत्सामान्यविशेषोभयत्वावच्छेदेन वस्तुत्वव्यवहाराय सामान्य विशेषोभयस्य वस्तुलक्षणत्वमविरुद्धम् ।
न चात्र तदितरावृत्तित्वाऽप्रसिद्धिः, त्वन्मतेऽपीतरत्व सामान्ये तत्प्रतियोगिकत्वस्वाधिकरणानुयोगिकत्वो भयाभावस्य तत्प्रतियोगिकन्व सामान्ये स्वसमानाधिकरण भेदवृत्तित्वाऽमावस्य वा निवेशात्, तद्वृत्त्यभावाऽप्रतियोगित्वे सति स्वसम्ब न्धिवृत्तिभेदाऽप्रतियोगितत्कत्वस्य तल्लक्षणत्वपर्यवसानात् । अत एव ' केवलव्यतिरेकि हेतु विशेष एव लक्षणमित्यनादृत्य शिवादित्योऽपि 'प्रमितिविषयाः पदार्था' इति पदार्थ सामान्यलक्षणं कृतवान् ।
यत्तु
·
'परस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणमिति वार्त्तिकवचनमनुरुध्याऽसाधारणधर्मवचनं न लक्षणं दण्डादेरतद्धर्मस्यापि देवदत्तलक्षणत्वाद्, अव्याप्तलक्षणाभासातिव्या प्तेश्चेति धर्मभूषणेन दूषितं तत्र तु वयं न सम्यक्कौशलमवगच्छामः, 'सजातीयविजातीयव्यावृत्तिफलकत्वेनाऽसाधारण
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सामान्यवादः ]
[ ७
9
धर्मो लक्षणमित्यर्थस्याSSकरे व्यवस्थितत्वात् । निरुक्ताऽसाधारणधर्मस्याऽव्याप्ताऽवृत्तित्वात् दण्डादेस्तु विशेषणत्वमात्रेणैव लक्षणत्वाभिधानात् । इत्थमेव भाष्योक्तपूर्वपदव्यमिचार्यादिलक्षणव्यवस्थोपपत्तेः । परस्परव्यतिकरे सती' ति विशेषणमहिम्ना रूपान्तरेण स्वेतर भेदाभावसमावेशाय सिद्धस्य स्वेतर भेदवृत्त्यवच्छेदकधर्मस्य लक्षणत्वलाभेऽपि दण्डादेरति: प्रसक्तस्याऽतथात्वात् । किञ्चैवं केवलान्वयिलक्षणमपि न सुष्ठु घटत इति प्रसिद्धनीत्यैव सर्वमवदातम् ॥ १॥
[ वस्तुलक्षणवादः समाप्तः ]
[२] सामान्यवादः ।
de
1.
द्रव्यगुणकर्म वृत्तिपदार्थान्तरमेव सामान्यमिति नैयायिकाः । अपाहरूपमेव तदिति सौगताः । वस्तुन एव समानः परिणामस्तदिति परमपुरुषवचनानुसारिणः ।
"
3
i
तत्र नैयायिकास्तावदित्थं प्रमाणयन्ति - सर्वत्रानुगताकारप्रती तीनामेकविषयत्वौचित्यात् 'सत्सदिति 'द्रव्यं द्रव्य - मि' ति 'घटोयं घटोयमित्यादिप्रतीतिभिः सत्त्व द्रव्यत्व-घट - त्वादिसामान्यसिद्धिः । तच्च सामान्यं द्रव्यादित्रयवृत्त्येव । सामान्यस्य सामान्यवृत्तित्वेऽनवस्थाप्रसङ्गात् । क्लृप्तजातिषु जातित्व स्वीकारे स्वस्वसहित स्वपि तासु जातित्वांतरकल्पने तत्साम्राज्यात् । सामान्यस्य सामान्यसमवायित्वे द्रव्याश्रि
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१८]
[वादमालायां
तत्वे सति समवायित्वेन गुणाधन्यतरत्वप्रसङ्गादवस्थाभावोऽनवस्थेत्यन्ये।
विशेषे तत्स्वीकारे च रूपहानिप्रसङ्गो, न हि जात्या समानतापनानां विशेषाणां व्यावर्तकत्वं सम्भवति । सम्भवे वा नित्यद्रव्यगतैरेकत्वादिभिरेव तत्सम्भवे विशेषस्यैव वैयर्थ्यप्रसङ्गः । समवायाऽभावयोश्च समवायरूपसम्बन्धाऽभावान्न जातिमत्त्वमिति । सामान्यादौ 'सामान्यं सामान्यमि'त्याद्यनुगतधीस्तूपाधिनैव । असावपि परंपरासम्बद्धजातिस्वरूप एव, तत्र 'सत्सदितिधीस्तु सत्तैकार्थसम्बन्धात् । अभावे तु विरोधग्रहादेव न सत्ताधीरभावावृत्तिसत्तैकार्थसम्बन्धेनैव सत्ताग्रहे वा सिदि'त्यभिलापान तत्र सत्ताभिलाप इति । _ तदेतदखिलमिन्द्रजालकल्पम् । पदार्थान्तरभूतस्य सामान्यस्य तत्सम्बन्धस्य च समवायरूपस्य सर्वगतत्वेन पटादावपि घटत्वादिवत्ताधीप्रसङ्गात् । - अथ पटादौ घटत्वादिसमवायसत्त्वेऽपि समवायेन न घटत्वादिवत्ता, तदाधारताया घटादिस्वरूपत्वादतो नोक्तदोषः न च तदीयसम्बन्धवत्त्वं तद्वत्त्वनियतम्, गगनीयसंयोगे व्यभिचारात् । वृत्तिनियामकत्वविशेषणान्नैवमिति चेत् १ न, करवृत्तितानियामककपालसंयोगवत्कपालस्य स्वाऽमाववत्त्वेन व्यभिचारात् । तत्र तवृत्तितानियामकः सम्बन्धस्तत्र तद. त्तानियत इति चेत् १ अनुमतमेतत् , अत एव घटत्वादिसम
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सामान्यवादः ]
वायस्य पटादिवृत्तिताऽनियामकत्वेन तत्र तद्वत्ताऽभावाभ्युपगमात् । सन्नपि तत्र तत्समवायः कथं न तद्वृत्तिनियामक इति चेत् १ तदिदमनुमवं प्रति प्रष्टव्यम्, यो घट एव घटत्वमिति नयत्येन समुन्मीलतीति ।
एतेन सामान्यस्य सर्वगतत्वं यदुच्यते तत् किं सर्वसर्वगतत्वं व्यक्तिसर्वगतत्वं वा ? आद्ये अंतराले पटादिव्यवतावपि तदुपलब्धिप्रसङ्गः । अव्यक्तत्वात्तत्र तस्यानुपलम्भे च व्यक्तेरपि तत एव तदुपपत्तौ सर्वगतत्वं किं न स्यात् ? असत्वादन्तरानुपलम्भस्तूभयत्र तुल्यः । न च घटादिव्यक्तीनां घटत्वादिव्यं जकत्वादन्यत्रानुपलम्भः, तासामेव तदभिव्यक्तिहेतुत्वे तत्कल्पनानर्थक्यप्रसङ्गात् । कार्याऽसहभावेन सन्निकर्षस्य हेतुत्वे घटनाशकाले घटचक्षुः संयोगसच्चात्तदुत्तरं घटप्रत्यक्षवारणाय लौकिकविषयतया घटप्रत्यक्षं तादात्म्येन घटस्य हेतुत्वेन त्वन्मतेऽपि तस्य घटत्वाभिव्यञ्जकत्वानुपपत्तेश्च । न च तादात्म्यसमवेतत्वान्यतरसम्बन्धेनैव तद्धेतुता, सत्येवाश्रये रूपादिनाशकाले रूपादिप्रत्यक्षवारणाय रूपादीनां पृथक्कारणस्वावश्यकत्वे तथा हेतुत्वे मानाभावात् एवमपि घटे पटत्वप्रत्यक्षापत्तेरनुद्धाराच्च । इत्थं च घटतद्वृत्तिजात्यन्यतरप्रत्यक्षे - तादात्म्यानवच्छिन्नसमवेतत्वान्यतरसंबन्धेन घटहेतुत्वेऽपि न निस्तारः । न च घटत्वादिसन्निकर्षे घटादिविषयान्तर्भाव एव तदूव्यञ्जकत्वं द्रव्यसमवेतचाक्षुषत्वावच्छिन्ने चक्षुः संयु
[ ९९
♦
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१०० ]
[ वादमालायां क्तसमवेतत्वेन सामान्यत एव प्रत्यासत्तित्वाद् , घटाद्यन्तर्भावेन विशिष्य नानासनिकर्षहेतुत्वकल्पने महागौरवात् । द्वितीय पक्षेपि चोत्पद्यमानव्यक्तौ सामान्यस्य व्यक्त्या सहैवोत्पादे व्यक्त्यन्तराद्वा समागते स्वीक्रियमाणे तस्य नित्यत्व-क्रियावत्त्व-व्यक्त्यन्तरनिःसामान्यत्वाद्यापत्तिरिति प्रत्याख्यातम् , घटादिस्वरूपापाया एव घटत्वाद्याधारतायाः स्वीकारेण तस्य व्यक्तिसर्वगतत्वव्यवस्थानादिति चेत् ?
न, घटादिस्वरूपाया घटत्वाद्याधारताया भूतलघटादिवृत्तित्वाऽवृत्तित्वाभ्यां तेषु तत्प्रतीत्यप्रतीतिप्रसङ्गात् । घटादिस्व. रूपमप्याधारतात्वेन घटादिवृत्त्येवेति न दोष इति चेत् १, न आधारतात्वाऽनिरुक्तेः । एकत्र स्ववृत्तित्वस्वावृत्तित्वयोः शबलवस्त्वभ्युपगमं विनाऽसम्भवात् । अत एव घटत्वसमवाये घटपटाद्याश्रयभेदेन वृत्तिनियामकत्वाऽनियामकत्वभेदोऽपि दुरुपपादः ।
अथाऽऽधारता नाधाररूपा नाऽप्यतिरिक्ता, किन्तु कुण्डादौ बदरादेबंदरादिप्रतियोगिकत्वविशिष्टसंयोगरूपैव, घटादौ च घटत्वादेः समवायरूपैव, नवीनैः समवायनानाऽभ्युपगमे दोषाऽभावदिति चेत् ? न तथापि पीतघटे नीलत्वविशिष्टघटत्ववत्ताधीप्रसङ्गात् । विशिष्टसमवायस्याप्यतिरिक्तत्वान्न दोष इति चेत् ?न,तथा सति विशिष्टस्यैवातिरिक्तत्वकल्पनौचित्यात् । अत एव'नीलत्वविशिष्टघटत्वं न पीतघटवृत्ति' इति
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सामान्यवादः ]
[ १०१ प्रत्ययः तत्तवृत्तीत्यप्रत्ययश्च सर्वसिद्धः । इत्थं च 'प्रतिव्यक्ति विशिष्टरूपेण भिन्नं, शुद्धरूपेण चाऽभिन्न सामान्यमनुभूयत इति कथं सर्वथैकं सामान्यं ? विशिष्टाऽविशिष्टयोआंद' एवेतिसार्वभौममतं तु भेदे निराकरिष्यामः॥
अतिरिक्तं सामान्य व्यक्तिष्वेकदेशेन समवेयात्कात्स्न्येनवा! आद्य सावयवत्वप्रसङ्गः अन्त्ये च प्रतिव्यक्ति नानात्वापत्तिः । , न च व्यक्तिवृत्तित्वं सामान्यस्योपगम्यत एव, देशकात्ययोस्तनुपगमादापादकाऽभाव इति वाच्यम् , उक्ताऽभ्यतरप्रकारव्यतिरेकेणान्यत्र वृत्त्यदर्शनात् । अत्रान्यतरप्रकाराश्रयणेऽन्यतरदोषाऽऽपत्तेः उभयाऽसिद्धौ च वृत्तित्वविशेषाभावसमुदायेन वृत्तित्वसामान्याभावापत्तेर्वज्रलेपत्वादिति सम्मति. टोकाकृतामाशयः।
ननु देशकात्य॑वृत्तित्वे किञ्चित्सर्वावयवावच्छिन्नसंयुक्तत्वलक्षणे द्रव्यवृत्तित्वस्यैव विशेषौ, न तु वृत्तित्वसामान्यस्येति नेयमापत्तिघंटत इति चेत् ? न, अवच्छिन्नाऽनवच्छिन्नवृत्तित्वविशेषाभावाभ्यां तदवृत्तित्वाऽऽपत्तेराधेऽव्याप्यवृत्तित्वस्य द्वितीये च प्रतिव्यक्ति भेदस्याऽऽपत्तेरित्याशयात् । अत एवैतद्घटवृत्तिघटत्वमपरघटावृत्ति. एतद्घटपर्याप्तत्वादेतद्घटेकत्ववदित्यप्यापादितं . न्यायालोकेऽ. स्माभिः । किञ्च, समानानां स्वभाव एव सामान्यं नत्व
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१०२1
[ वादमालायां
रिक्तम् , अत एव स्वस्वातिरिक्तपदार्थेषु प्रमेयत्वस्वभावेन 'प्रमेयमिति बुद्धिवद्भावत्वस्वभावेनैव 'सदिति धीः । सत्स त्तयोविलक्षणसम्बन्धावगाहिनी सत्ताधीः पुनरसिद्धा । यथा च भावत्वस्य नियतानुगतव्यावृत्तव्यपदेशनियामकत्वं तथा सिद्धान्तपक्षे निरूपयिष्यामः ।
द्रव्यजन्यतावच्छेदकतया सिद्धं सत्त्वं गगनादो द्रव्यस्वादिना सांकर्यभियेव स्वीक्रियते, न तु सामान्यादौ मानाभावात , अतस्तत्रैकार्थसमवायेनेव सत्ताधीरिति पदार्थमालालिखनं तु न ज्यायः, अवच्छिन्नसमवेतत्वेनैव द्रव्यजन्यतावच्छेदकत्वसम्भवात् । उपाधिसांकर्यस्येव जातिसांकर्यस्याप्यदोषत्वात् । परस्पराभावसमानाधिकरणजातित्वेन परस्पराभाव. ध्याप्यत्वे मानाभावाच्चेति दिक् ।
सौगतास्तु संगिरन्ते पदार्थान्तरभूतं सामान्यं ताववाहतरेव निराकृतम् । अत्यन्तविलक्षणस्वलक्षणस्वरूपं च विरोधादेव तन्न सम्भवति, व्यक्त्यंतरात्मजात्यात्मताया व्यक्त्यंतरानुगमे स्वलक्षणत्वव्याघातात् । ततो गौौरित्याद्यनुगताकारप्रतितेरन्यव्यावृत्तिमात्रेणेव व्यक्तिषु प्रसिद्वरप्रामाणिक एव सामान्यस्वीकार इति । तदप्यसत् । अन्यव्यावृत्तहिगेवादिव्यक्तिवृत्तित्वे सामान्यरूपताया दुर्निवारत्वात् । सकल व्यक्तिगतस्यानुगतस्य रूपस्याऽस्मन्मते भावाभावरूपत्वात् ।
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सामान्यवादः ]
: [१०३ . आन्तरत्वे तु तस्या बहिराभिमुख्येनोल्लेखो न स्यात् । नान्तर्बहिर्वा सेति तु स्वाभिप्रायमात्रं, तादृश्यास्तस्या अलीकत्वेन तथाभूतप्रत्ययजनकत्वाऽयोगात् । अनाविवासनानिर्मित एवायमिति चेत् ? तर्हि तत्र कथं बाह्यार्थविशेषापेक्षा ?
अथ दृष्ट एवार्थे वासना सामान्यविकल्पजननी दर्शन एव च बाह्यार्थविशेषापेक्षा, न तु विकल्पे, तच्च स्वविषयसामान्यव्यवसायिविकल्पोत्पादनद्वारा वस्तूपदर्शयदर्थप्रापकं सत् प्रमाणं स्यादित्यस्माकं प्रणालीति चेत् ?, न, अपोहरूपस्य सामान्यस्याऽवस्तुत्वे तद्विषय(क)व्यवसायजनकस्य वस्तूपदर्शकत्वविरोधात् संशयविपर्ययकारणदर्शनवत् । अथ दृश्यविकल्प्ययोरेकीकरणाद्वस्तूपदर्शक एव विकल्पोऽत एव विकल्पितस्य सामान्यस्य बहिराभिमुख्येनोल्लेख इति चेत् ? किमिदमेकीकरणम्-एकरूपतापादनमेकत्वाध्यवसायो वा ? नाद्योऽन्यतरपर्यवसानप्रसङ्गात् । नापि द्वितीयः, उपचारतेन दृश्यविकल्प्यैक्येन वस्तूपदर्शकत्वाऽयोगात् ।
किश्च, तदेकत्वाध्यवसायो दर्शनेन विकल्पेन ज्ञानान्तरेण वा भवेत् ? नाद्यः पक्षो, दर्शनस्य विकल्प्याऽविषयत्वात् । न द्वितीयो, विकल्पस्य दृश्याऽविषयत्व त् । न तृतीयो, ज्ञानान्तरस्य निर्विकल्पसविकल्पकविकल्पयुगलानतिक्रमेण दृश्यविकल्प्यविषयद्वयविरोधात् । न च तदुभयाऽगोचरं ज्ञानं तदुभयैक्यमाकलयितुमलमिति ।
माजामाता .
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१०४]
[ वादमालायां
अथ दृश्याऽगृहीताऽसंसर्गकविकल्प्यविषयत्वमेव विकल्पस्य दृश्यविकल्प्यैकीकरणं, तेनैव सामान्यस्य बहिरर्थनिष्ठतोल्लेरवः । न चैवमवस्तुभूतसामान्यविषयस्य व्यवसाय य वस्त्वनुपदर्शकत्वात्तज्जनकत्वेन दर्शनस्य प्रामाण्यं दुर्घटमिति पाच्यम् , परमार्थतो वस्त्वनुपदर्शकमपि व्यवसायं द्वारीकृत्यार्थप्रापकत्वेन दर्शने व्यावहारिकप्रामाण्यस्येवोपगमात् । 'यत्रैव जनयेदेनाम् , तत्रैवास्य प्रमाणते'ति ग्रन्थस्य व्यावहारिकप्रामाण्यप्रयोजकरूपप्रदर्शनपरतयैव व्यवस्थितत्वात् । क्षणक्षयस्वर्गप्रापणशक्त्यादावपि दर्शनस्यानुरूपविकल्पानुत्पा. दनेन व्यवहारत एव न प्रामाण्यं, परमार्थतन्तु क्षणक्षयादेरपि वस्तुस्वरूपत्वात्तत्रापि सन्मात्रविषयत्वरूपं प्रामाण्यं स्वग्रायमेवेति न स्वोत्पत्तौ स्वज्ञप्तौ वा विकल्पमपेक्षते । नचाऽसद्विषयत्वाऽभावव्याप्यसद्विषयत्वादिना सन्मात्रविषयत्वादि ग्राममिति कथं तत्र स्वग्राह्यतेति वाच्यम्, असद्विषयत्वाऽभावादेरपि स्वरूपानतिरेकात्स्वरूपतः स्वग्राह्यतायाम्तत्राप्यऽप्रत्यूहत्वात् । तत्तद्रपेण तु विकल्पविषयतव । न चैवं तेषामसवाऽऽपत्तिः, स्वरूपातिरिक्तत्वेन तदसत्त्वस्येष्टत्वात् । न हि निर्वि. कल्पकं सन्मात्रावलम्बनमित्यादिबुद्धिनां बौद्धाः प्रमाणत्वमुपयन्ति, तथा सत्ययं घट इत्यादिबुद्धरपि प्रामाण्याऽऽ. पत्तेः । न चैवं ज्ञानप्रामाण्यस्य स्वतांग्रहे प्रामाण्यसंशयाऽनुपपत्तिः, निर्विकल्पके तदसिद्धेः, तदुत्तरोत्पन्नज्ञाने च समु.
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सामान्यवादः ]
: [ १०५ .ल्लिखिताऽनुगताकारे, प्रमाणाभावेन, स्वतःप्रामाण्याऽग्रहाऽयोगादेव तत्संशयोपपत्तेः । न चानुगताकारविषयत्वेनैव प्रामाण्याभावनिश्चयात्तत्संशयो दुर्घटस्तस्य तद्वयाप्यत्वाऽनिश्चयदशायां सन्देहसाम्राज्यात् । सन्दिह्यता वा दर्शनेऽपि विशेषाऽनाकलनदशायामर्थप्रापकत्वरूपं व्यावहारिकं प्रामाण्यमिति चेत् १ . . . . . .
_न, सामान्यस्याऽवस्तुत्वे गवादिदर्शनेऽपि गवादिविषयत्वस्य, नियन्तुमशक्यत्वात् । तत्तद्वयक्तिविषयत्वमेव गवादिविषयत्वमिति चेत् । तत्रापि गवादिरूपत्वं नत्ववादिरूपत्वमिति नियतसामान्यसम्बन्धं विना कथं नियन्तु शक्यम् ? कथं वाऽवस्तुभूतसामान्यविषवत्वेऽनुमानस्याऽपि प्रमिाणत्वं सुपपादम् । कथं च सामान्यास्याऽवस्तुत्वेऽयं गौरित्यादिविकम्पानां शश-शङ्गादिविकल्पतुल्यत्नाऽप्रमाणत्वानिक्मतः प्रवर्तकत्वम् ? भध्यक्षविषयविषयकन्वरूपसंवादाभिमानेन तत्र प्रामाण्याभिमानादेव तथात्वमिति चेत् न, क्रमिकाध्यक्षव्यक्त्योरप्येकपरमार्थसद्विषयकत्वाऽभावेन तत्र प्रामाण्यसहचारा'ऽज्ञानात् । - इत्थं च चानुमानप्रमाणमप्यनभ्युपगच्छतः सर्वत्र सम्भावनयैव व्यवहारमुपपादयतः सामान्यापलापिनश्चोर्वाकस्यापि मतमपास्तम् , सामान्याभावे विकल्पे सम्भावनाय चा-संवादप्रामाण्ययोरकगमानुपपत्तेः। अथ विकल्पेध्यक्षमूलक.
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१०६ ]
[ वादमालायां
त्वमेव संवादः, सम्भावनायां त्वध्यक्षमूलकविकल्पविषय विषयकत्वमेव, तस्य च यद्यपि न वास्तवप्रामाण्येन सहचारस्तथापि ततः पराभिप्रेतप्रामाण्याभिमानाद्वयवहारोपपत्तिरिति वाच्यम्, ( १ चेन्न) गोदर्शनोत्तरभावितुरग विकल्पस्याप्यध्यक्षमूलकत्वेन प्रामाण्यप्रसङ्गात् । अथ तत्र गोदर्शने गोरूपस्य तुरगत्वाऽसंसर्गस्य ग्रहाद् दृश्याऽगृहीताऽसंसर्गकविकल्प्यविषयत्वरूपं प्रामाण्यं नास्तीति चेत् ? न, गोत्वस्यालीकत्वे तदसंसर्गस्य गोदर्शने - नापि ग्रहात्तत्पृष्ठभावि गोविकल्पस्याप्यप्रामाण्यापत्तेः, दृश्यवृतिरसंसर्गत्वप्रकारक ग्रह भावस्त्वसंसर्गग्रह का लेप्यस्ति दृश्यस्य विकल्पाऽविषयत्वात् ।
9
यत्तु - विकल्प्याऽवच्छिन्नत्वेन दृश्यं विकल्पेऽपि भासते, तत्र च कल्पित सामान्यसंसर्गवति कल्पित सामान्यप्रकारकत्व - मेवोपचरितं विकल्पस्य प्रामाण्यमबाधम् मुख्यं सन्मात्र - विषयत्वलक्षणं तु निर्विकल्पक एवेति तत्त- मिथ्यैव, यथार्थ - प्रवृत्त्यादिनिर्वाहार्थं विकल्पे परमार्थतो यथार्थत्वव्यवस्थितेः । स्वेच्छामात्रकृतायाः परिभाषाया अन्याय्यत्वात् । तस्मात्सामान्योल्लेखी विकल्प एव प्रमाणत्वेनानुभूयमानः सामान्यस्य वस्तुत्वसाधकः, इत्यधिकं लतायाम् ॥
तदेवं नेयायिक सौगतमतसामान्यानुपपत्याः वस्तुनः समानपरिणाम एव सामान्यमित्याह तमतमेवादरणीयं निपुण
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सामान्यवादः ।
[ १०७
बुद्धिभिः । विशेषात्मना व्यावृत्तस्यैव तस्य स्वरूपेणानुवृत्तस्योपलम्भात् । सत्तात्मनाह्यनुवृत्ता हि सत्ता घटायमच्छिन्ना, तत्तद्देशकालादिव्यावृत्तैवोपलभ्यते-'इह देशे घरः समान्यत्र, 'इदानीं घटः सन्न पूर्वेद्यु'रिति देशकालादिव्यावृत्तसत्ताप्रत्ययादेव सत्तासामान्यं नास्तीत्यस्तु दोधितिकृन्मतमेव मम्यगिति चेत् १ न, एवं सति घटत्वादिसामान्यस्याप्यनुगतस्यापलापा पत्तः, 'अस्यां मृदि घटत्वं नान्यस्याम्' 'इदानीं मृदि घटत्वं नान्यदेति तस्यापि देशकालादिव्यावृत्तस्यैवानुभवात् । कार्यता वच्छेदकत्वादिना घटत्वादेरेकस्य सिद्धिं पुरस्कृत्य तन्नानात्वप्रत्ययापलापे च घटाभावप्रकारकज्ञानप्रतिवद्वयतावच्छेदकत्वादिना घटादेरप्येकस्य सिद्धिं पुरस्कृत्य तन्नानात्वप्रत्यय. स्याप्यलापप्रसङ्गात् । घटत्वविशिष्टघटादेर्दण्डादिकार्यता घटादिविशिष्टमृदादेर्वेति विनिगन्तुमशक्यत्वात् ।
__ व्यावृत्तत्वे कथमनुवृत्तत्वं सामान्यस्येति तु द्रव्यत्वादिकं सामान्यविशेषमभ्युपगच्छता न वक्तु शक्यम् । यथा हि द्रव्यत्वादिकमद्रव्यादिव्यावृत्तिरूपं सदपि परेषां मते भावां न जहाति तथा कथंचिद्वयक्तिरूपं सदपि सामान्यमस्मन्मते सामान्यरूपता न हास्यतीति । अत्यन्ताभावाऽत्यन्ताभावः प्रतियोग्येवान्योन्याऽभावात्यन्ताऽभावस्तु प्रतियोगितावच्छेकमिति प्राचीनप्रवादो न युक्तोऽभावत्वप्रतीतेरतिरिक्ताऽभावविषयत्वात् ,अभावाभावादेरतिरिक्तत्वस्वीकारात्तृतीयाऽभावादेः
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. १०८ ]
[वादमालायां प्रथमाभावादिरूपत्वेन नाऽनवस्थेति नवीनसिद्धान्तात् । सामान्यविशेषत्वं च न सामान्यत्वे सति विशेषत्वं किन्तु सत्ताव्याप्यत्वे सति तद्वयाप्यव्यापकत्वमिति सामान्यत्वविशेषत्वयोर्विरोध
एवेति चेत् ? न, तयोः प्रत्यक्षेणैवाऽविरोधसिद्धेः, घटत्वाभा. वाभावादेघटत्वाद्यतिरिक्तत्वे मानाभावादभिलापमात्रभेदेना
भेदेऽतिप्रसङ्गात् । घटत्वाभावादिज्ञाने घटत्वज्ञानत्वादिना पृथकप्रतिबन्धकत्वकल्पने गौरवाच्चेति । न च घटवस्याऽघटघ्यावृत्तित्वे 'घटोयमि'तिज्ञानकाले न अघटोयमि' ति ज्ञाना. ऽऽपत्तिरघटव्यावृत्तित्वस्य प्रतियोगिज्ञानव्यंग्यत्वात् । ... नचाऽतद्वयावृत्त्यात्मकविशेषरूपत्वं सामान्येस्त्वनुगतत्वा. ऽव्याघातात्तत्तद्वयक्तिविशेषात्मकत्वं तु न सम्भवत्यनुगतत्व. . ठयाघातादिति वाच्यम् . सामान्यविशेषत्ववलुप्त द्वित्वेनेव
तत्तद्वयक्त्यात्मकत्वकृतानेकत्वेनाप्येव त्यस्याऽविरोधाद्वस्तुन
एकानेकस्वभावत्वस्य प्रामाणिकत्वात् । केवलं घटत्वाऽतद्वथा. प्रत्योरनवच्छिन्न एवाभेदः । घटत्वे तत्तद्वयक्त्यभेदस्तु तत्त
व्यक्तित्वाद्यवच्छेदेनैव । त दस्तु स्वरूपत एवेति कथंचिदनुगमव्यावृत्तिमत्सामान्यम् , स्वरूपतः सामान्यस्यैकत्वाच्च सामान्यमेकमिति मुख्यो व्यवहारः । सामान्यमनेकमिति व्यवहारस्त्वनेकत्वाऽवच्छेदकधर्मवाचकपदसममभिव्याहारमपेक्षते । युगपद्विरुद्धधर्मप्रतीत्योश्चावच्छेदकभेदविषयत्वं नियतं यथा पूर्वमयं घटः श्यामो न त्विदानीम् । 'मूले वृक्षः कपि
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विशेषवाद: ]
[his
संयोगी न तु शाखायामिति । ततः स्यात्सामान्यमेकं स्यादने- ' कमित्यनेकान्त एव कान्तः ।
[सामान्यवादः समाप्नः ] ३-विशेषवादः
विशेषो नित्यो नित्यद्रव्यवृत्तिः पदार्थान्तरमिति नैया' यिकाः तदसत् तत्र प्रमाणाभावात् । नचात्यन्तसजातीयानां नित्यद्रव्याणां परस्परभेदग्रहो न विशेषं विनेति तरिसडि:, योगिनां तद्भेदग्रहे व्यावर्त्तकधर्मदर्शनस्याऽहेतुत्वात् ।
न च 'समवायित्वे सति समवायियद्व्यक्तेर्यद्वयावृत्तं तत्तदसमवेतसमवेतशून्यधर्मसमवायी' ति व्याप्तेर्घटपटादाव वधारणात् सजातीयनित्यद्रव्यद्वये परस्पराऽसमवेतसमवेतशून्यधर्मसिद्धावर्थाद्विशेषसिद्धि: । अत्र द्रव्यत्वादिभिः सिद्धसाधनवारणाय ' तदसमवेति' ति. एकत्वादिभिस्तद्वारणाय 'समवेत शून्ये' ति । अभावव्यक्तिभिस्तद्वारणाय समवायी' ति । अभावे व्यभिचारवारणाय हेतौ 'समवायित्वे सत्ती' ति । घटादावभावव्यावृत्तिसच्वेनाभावसमवेतत्वाऽप्रसिद्धया व्याप्यत्वाऽसिद्धिः स्यादिति 'समवायी' ति । नोपादेयमेव वा तत् साध्ये तदसमवेतत्वं परित्यज्य स्वाऽसमवायितत्कत्वस्य निवेशनीयत्वादिति चेत् १
न, सजातीयघटद्वये व्यभिचारात् स्वाश्रयसमवेतसमवेतत्वादिघटितपरंपरा सम्बन्धेन साध्यत्वं विशेषमादाय तत्रापि
"
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११०]
[वादमालायां साध्यसत्वाद्वयभिचारवारणे च पक्षे बाधप्रसङ्गात् , स्वसमवायित्वस्वाश्रयसमवेतत्वादिघटितपरंपरासम्बन्धान्यतरसम्बन्धेन साध्यत्वेऽपि नित्यद्रव्यवृत्तिरूपादौ व्यभिचारात् । स्वाश्रयसमवेतत्वस्यापि सजातीयद्वयणुकसाधारणस्यान्यतरमध्ये निवेशान्नदोष इति चेत ? न. इदृशसम्बन्धेन साध्यस्य व्याप्तिग्रहाभावात् । 'समवायित्वे सती' त्यपहाय 'नित्यद्रव्यत्वे सती' ति निवेशने न दोष इति चेत् ? न, दृष्टान्ताऽप्रसिद्धः ।
किञ्च, विशेष समवायेन तदवृत्तिधर्ममन्तरेणापि तदवृत्तिधर्ममात्रसत्वेन यथा तद्वयावृत्तिस्तथा प्रकृतेऽपीत्यप्रयोजकत्वादुक्तव्याप्ति रेवाऽसिद्धा यो यद्वयावृत्तः स तदवृत्तिधर्मवानित्येव व्याप्तेः । किश्च, नित्यद्रव्यव्यावृत्तये विशेषपदार्थस्वीकारे तद्गतरूपादिव्यावृत्तिः कुतः ? स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन तत्रापि विशेष एव व्यावर्त्तक इति चेत् ? तर्हि रूपादिगत एवासौ किं न कल्प्यते ?, तस्यापि स्वाश्रयसमवायित्वसम्बधेन नित्यद्रव्यव्यावर्तकत्वसम्भवात् । रूपादीनां बहुत्वात्तत्र विशेषपदार्थकल्पने गौरवं, नित्यद्रव्यव्यक्तेश्चकत्वात्तत्र तत्कल्पने लाघवमिति चेत् ? न,तथापि प्रत्येकं विनिगमकाभावात् । रूपादिनिष्टत्वे तस्य सजातीयघटद्वयपर्यन्तः परंपरासम्बन्धो बहुघटितः स्यादिति चेत् ? किं ततो ? नाना. रूपवदवयवारब्धावयविनो नीरूपत्वमते तत्प्रत्यक्षत्वाय परमाणुगतरूपस्य तवृत्तितानियामकसम्बन्धविशेषवदिहापि तादृश
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विशेषवादः ]
[ १११
सम्बन्धविशेषकल्पने तव रसनाया अव्याहतप्रसरत्वात् । योगिनो विशेषमीक्षन्त इति चेत् ? तहिं त एव प्रष्टव्याः किं ते विशेषमतिरिक्तमीक्षन्तेऽनतिरिक्तं वेति श्रद्धामात्रगम्य एवायं विशेषपदार्थः।
___ अस्माकं तु विशेषपदार्थो वस्तुन एव व्यावृत्त्यंशः । घटादि गतानां पटादिव्यावर्तकधर्माणां पटादिव्यावृत्तीनां च कथंचिदघटादिरूपत्वात् । पटादिव्यावृत्तीनां स्ववृत्तित्वांशेऽभेदस्य नियामकस्य कलप्तत्वेन घटादिवृत्तित्वांशेऽपि तस्यैव नियामकत्वौचित्यात् । अभेदविशेषणतयोद्वयोस्तनियामकत्वे गौरवात् । न चैवं शकटादावपि पटव्यावृत्यात्मनो घटस्योपलम्भाऽऽपत्तिस्तत्त्वेन तदुपलम्भस्येष्टत्वाद् , घटत्वेन घटोपलम्भे तु घटत्वावच्छिन्नस्य नयनाभिमुख्यं नियामकमिति न दोषः । अस्तु वाऽनन्तपर्यायात्माकत्वाद. स्तुनो घटत्वावच्छिन्नायास्तस्या घटात्मकत्वेऽपि तदभावावच्छिन्नायास्तस्या अतदात्मकत्वम् , अनेकान्ताऽविरोधात् । प्रतीयते खल्वेकस्यामगुल्यामग्रावच्छिन्नाऽपराङ्गुलिसंयोगवत्तादात्म्येऽपि मूलावच्छिन्नतद्वभेदः । नचैवं देशस्कन्धः रूपान्तराद्यवच्छिन्नभेदाभेदादिघटितबहुधर्मसमावेशात् प्रतीतिनियमानुपपत्तिः, व्यवहाराद्यभ्यासवशाद्यथाक्षयोपशमभेदं तनियमोपपत्तेः, इति दिक् ॥
[३-विशेषवादः समाप्तः]
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११२ ]
[ वाद मालाव ४-वागादीनामिन्द्रियत्वनिराकरणवादः।
स्पर्शनरसन-प्राण-चक्षुःश्रोत्रवाक्-पाणि पाद-पायपस्थमनोलक्षणान्येकादशेन्द्रियाणीति सांख्याः । तन्न, वागादीनामिन्द्रियत्वे प्रमाणाभावात् । न च तेषामपि वचादानविहरणोत्मर्गानन्द-संकल्प-व्यापारकाणामात्मनः क्रियाजनने करणत्वेनोपकारकत्वात् स्पर्शनादिवदिन्द्रियत्वमव्याहतमिति वाच्यम् , आत्मनो विज्ञानोत्पत्तो प्रकृष्टोपकारकस्यैवेन्द्रियत्वात् । यो काञ्चनक्रियामुपादाय करणत्वेनेन्द्रियत्वाभ्युपगमे च भ्र दरादेरप्युत्क्षेपादिकरणत्वेनेन्द्रियत्वप्रसङ्गात् । किश्च, इन्द्रियाणां स्वविषयनियतत्वान्नान्येन्द्रियकार्यमन्यदिन्द्रियं कर्तु मलम् । श्रोत्रादीनां चक्षुरूपलभ्यरूपावलोकनाद्यसमर्थत्वात् । यस्तु रसाधुपलम्भे शीतस्पर्शादरप्युपलम्भः, स सर्व व्यापित्वात्स्पर्शनेन्द्रियजनित एवेति न दोषः । पाण्यादीनां तु तच्छेदेऽपि तत्कार्यस्याऽऽदानादिलक्षणस्य दशनादिनापि निवर्त्यमानत्वान्नेन्द्रियत्वम् । मनसस्तु सर्वेन्द्रियोपकारकत्वादन्तःकरणत्वमिष्यत एवेति सम्प्रदायः।
नन्वेवं ज्ञानं प्रति प्रकृष्टकारणत्वमिन्द्रियत्वमिति पयंघसम्मम् । अत्र च कः प्रकर्षः ? व्यापारत्त्वत्वमितिचेत् ? न, आत्मनोप्यात्ममनोयोगरूपव्यापारसवात् । अविलम्बेन क्रियोत्पादकत्वमिति चेत् १ न, चक्षुरादेरपि व्यासङ्गदशायां ज्ञानानु.
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इन्द्रियवादः]
[ ११३
त्पत्तेः ज्ञानत्वव्याप्यधर्मावच्छिन्नकारणत्वमिति चेत् १ न, स्मृतित्वावच्छिन्नहेतावनुभवेऽतिव्याप्तेः । अनुभवत्वव्याप्यधर्मावच्छिचहेतुत्वमिति चेद ? न, अनुमितित्वाद्यचच्छिमहेताचनुमानादावतिव्याप्तेः । प्रत्यक्षत्वव्याप्यधर्मावच्छिमहेतुत्वमिति चेत् ? न, अन्धकारेतरविषयकाञ्जनाद्यसंस्कृतनयननरचाक्षुषसाक्षात्कारत्वावच्छिन्नहेताबालोकेऽतिव्याप्तेरिति चेत?
अत्र ब्रमः । मतिज्ञानप्रत्यक्षत्वसाक्षाद्वयाप्यधर्मावच्छिन्नहेतुत्वमेवेन्द्रियलक्षणम् । अस्ति हि चक्षुरादीनों चक्षुराद्यवग्रहादिसाधारणमतिज्ञानप्रत्यक्षत्वसाक्षायाप्यचाक्षुषत्वाधवच्छिन्नहेतुत्वम् । मनसस्तु यद्यपि मनोऽवग्रहादिसाधारणमतिज्ञानप्रत्यक्षत्वसाक्षाव्याप्यमानसत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुत्वमस्ति तथापि व्यक्तानुमानादिसाधारणदीर्घकालिकसंज्ञात्वावच्छिन्नं प्रत्यपि हेतुत्वात्तत्र नोइन्द्रियत्वप्रवादः । तथा च स्पर्शनादीनि पञ्चैवेन्द्रियाणीति जैनी परिभाषा।
नैयायिकास्तु मनःसहितानि तानि षडिन्द्रियाण्याहुः । इन्द्रियत्वं च तेषां स्मृत्यजनकज्ञानजनकमनःसंयोगाश्रयत्वम् । स्मृत्यजनकत्वमत्र स्मृतिस्वरूपाऽयोग्यत्वम् । मन:संयोगश्च मनोवृत्तिः संयोगो, नातः स्मृत्यनुपधायकप्रत्यक्षाधुपधायकमनोयोगवत्यात्मादावतिप्रसङ्गः, न च मनाप्रतियोगिकसंयोगविरहिणि मनस्यव्याप्तिः। ननु "त्वगिन्द्रियाऽन्याप्तिः, त्वङ्मनोयोगस्य जन्यज्ञानमात्रहेतुत्वेन स्मृतिस्व
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११४ ]
[ वादमालायां
रूप योग्यत्वात्, अन्यथा सुषुप्तिकाले ज्ञानोत्पच्यापत्तेः । अथ तत्काले चाक्षुपादिज्ञानानुत्पादश्चक्षुरा देर्विषयेण मनसा च संयोगाऽभावात्, अनुमित्याद्यनुत्पत्तिश्च व्याप्तिज्ञानाद्यभावात् । न च सुषुप्त्यनुकूलमनः क्रियया मनःसंयोगनाशकाले उत्पन्नेन परामर्शेन सुषुप्तिसमकालोत्पतिकमनोयोगसहकृतेन सुषुप्ति द्वितीयक्षणेऽनुमितिरुत्पद्यतामिति वाच्यम्, असमवायिनः कार्यसहभावेन हेतुत्वान्मनोयोगनाशकाले परामर्शोत्पादाऽसम्भवादन्यथा सुषुप्तिकाले प्राक्तनत्वमनोयोगात्तवापि मसृणतूलिकादिसन्निकर्षेण त्वाचप्रसङ्गात् । तत्सामग्रीभूतव्याप्तिस्मृत्यादेः फलैककल्प्यत्वेन तत्काले परामर्शोत्पत्तौ मानाभावाद्वेति चेत् न, तत्काले आत्मादिमान सोत्पत्तेर्विना त्वमनोयोगहेतुत्वं दुर्वारत्वादिति" । मैवं आत्मनो विशेषगुणोपधानेनैव मानेन तदा विशेषगुणाभावेन तत्प्रत्यक्षाभावात्तत्तद्गुणानां विषयतया तद्भानहेतुत्वात् । सविषयकप्रकारकात्ममानसत्वस्यैव मनोयोगादिकार्यतावच्छेदकत्वाद्वा । यदि चैवमतिगौरवम्, तदा चर्ममनोयोग एव जन्यज्ञानमात्र हेतुरस्तु त्वमनोयोगस्य रासनादिकालेऽनुपगमात् ।
चर्मत्वं तैजसचर्मत्वादिसाधारणं न जातिरिति चेत् ? तथापि मानसत्वावच्छिन्न एव त्वमनोयोगो हेतुर्न तु जन्यज्ञानत्वावच्छिन्ने । न चैवं त्वाचत्वावच्छिन्नं प्रति पृथकारणत्वे गौरवं प्रामाणिकत्वेन तस्याऽदोपत्वात् । अन्यथा रास -
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इन्द्रियवादः ]
[ ११५ नाद्युत्पत्तिकाले ज्ञानमात्रहेतोस्त्वङ्मनोयोगस्य सत्वे कथं न त्वाचोत्पत्तिः, आयुष्मता रसनमनोयोगादेस्त्वाचप्रतिबन्ध. कत्वकल्पने महागौरवावाचत्वावच्छिन्ने विजातीयत्वङ्मनोयोगत्वेन पृथकारणत्वावश्यकत्वात् । न च त्वाचत्वावच्छिन्नं प्रति त्वाचेतरसामग्रीत्वेनैव प्रतिबन्धकत्वादनतिप्रसङ्गः, त्वाचेतरसामग्या विशिष्य विश्रामात् । न च रसनाधवच्छेदेन त्वचो विषयेण समं विलक्षण संयोगस्यैवाऽनुपगमात्त्वङ्मनोयोगस्य त्वाचं प्रति विशिष्य हेतुत्वाऽकल्पनमिति वाच्यम् , रसनाद्यवच्छेदेनापि शीतलजलस्पर्शानुभवादीर्घशष्कुल्यादौ रासनकालेऽपि त्वग्विषयसम्बन्धाऽबाधाच्च ।
अस्तु वा परात्मादेः पराप्रत्यक्षत्वाय विजातीयात्ममनोयोगत्वेनाऽऽत्ममानसे हेतुताया अवश्यवक्तव्यत्वात्तदेव वैजात्यं जन्यज्ञानसामान्याऽसमवायिकारणताऽवच्छेदकमिति तादृशसंयोगाऽभावादेव सुषुप्तौ ज्ञानानुत्पादः । तदा तादृशसंयोगे मानाभावाददृष्टादेव श्वास-प्रश्वासादिसन्तानोपपत्तौ जीवनयत्नाऽनुपगमात्तदनुरोधेनाऽपि तदऽकल्पनात् । न च यत्र त्वक्रियया त्वङ्मनःसंयोगनाशे पुरीतक्रियया पुरीतन्मनःसंयोगरूपा सुषुप्तिः सम्पद्यते, तत्र प्राक्तनात्ममनोयोगोऽस्तीति वाच्यम् , सर्वत्र मनःक्रिययैव सुषुप्तिस्वीकारान्नाडीतदवयवादिक्रियाकल्पने गौरवादिति ।
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११६ ]
[ वादमालायां त्वङ्मनोयोगस्य ज्ञानमात्राहेतुत्वेऽपि ज्ञानाऽसमानाधिकरणज्ञानकारणमनःसंयोगाश्रयत्वमिन्द्रियत्वं, त्वक्त्वस्य जातित्वावङ्मनोयोग एव ज्ञानहेतुर्न तु शरीरमनोयोगः, शरीरत्वस्योपाधित्वादिति शरीरे नाऽतिव्याप्तिः । यदि च समवायेन चैत्रीयमनोयोगस्य शरीरनिष्टस्यावच्छेदकतया चैत्रीयज्ञानहेतुत्वं तदा ज्ञानसमानाधिकरणज्ञानकारणसंयोगाऽनाश्रयवृत्तिमनोवृत्तिज्ञानकारणसंयोगाश्रयत्वं तत् । आत्मशरीरयोरिणाय प्राथमिकं वृत्त्यंत संयोगविशेषणम् । शरीरात्ममनसां ज्ञानसमानाधिकरणज्ञानकरणसंयोगाश्रयत्वात् शरीरमनोयोगात्ममनोयोगयोर्न तदाश्रयवृत्तित्वमित्याऽऽत्मशरीरयोव्यु दासः। शरीरतदवयवनाडयादिनाऽऽत्मसंयोग एव चेष्टावदात्मसंयोगत्वेन हेतुरतो न स्वमवहनाडीमनोयोगमादाय तन्नाड्यामतिव्याप्तिः । चक्षुर्वटादिसंयोगमादाय घटादावतिव्याप्तेर्वारणाय 'मनोवृत्ती' ति । मनोघटसंयोगादिकमादायातिव्याप्तिवारणार्थ 'ज्ञानकारणे'ति । शरीरावच्छेदेन प्राणमनःसंयोगत्वेन न हेतुत्वं, किन्तु शरीरप्राणसंयोगत्वेनैवेति न प्राणेऽतिव्याप्तिरिति ।
तदेतनिजगृहपरिभाषामात्रम् । इन्द्रियवर्गणादिजन्यतावच्छेदकत्वेन सिद्धस्य प्रकृष्टज्ञानकारणत्वाऽभिव्यंग्यस्य द्रव्यनिष्टस्येन्द्रियत्वस्य प्राणादाविव मनस्यवृत्तित्वादन्यथा द्वीन्द्रियादिवधे त्रीन्द्रियादिवधजन्यदोषप्रसङ्गात् । न चैकेन्द्रियादि
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इन्द्रियवादः ]
[ ११० जीवभेदव्यवस्था परं प्रत्यसिद्धति द्वीन्द्रियादेस्त्रीन्द्रियादित्वोपगमेपि न क्षतिरिति वाच्यम् , ज्ञानापकर्षस्येन्द्रियनियम्यतया एकेन्द्रियपर्यन्तविश्रान्तत्वेनैकेन्द्रियादिव्यवस्थायाः सिद्धान्तसिद्धायाः स्वेच्छामात्रेणाऽन्यथाकत्तु मशक्यत्वात् । न च शरीरभेदादेव ज्ञानापकर्षभेदो नत्विन्द्रियभेदादिति वाच्यम् , ज्ञानापकर्षस्येन्द्रियापकर्षान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् ।
किश्च मनसः कालत्रयावच्छिन्नार्थग्राहिणोऽनुमानावधिज्ञानादिवद्वर्त्तमानार्थग्राहिश्रोत्रादिसाधारणं नेन्द्रियत्वम् , किन्तु श्रोत्रेन्द्रियादपि पटुतरज्ञानजनकत्वेन नो(इ)न्द्रियत्वमेवेति 'पञ्चैवेन्द्रियाणी'ति समीचीनः पन्थाः।
तानि च द्रव्यभावभेदाद् द्विधा । तत्र द्रव्येन्द्रियाणि नित्युपकरणभेदाद्विधा । तत्र निवृत्तिः संस्थानरूपा बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विधा । तत्र बाह्या निवृत्तिर्मनुष्यशशकादेर्नानारूपा, अन्तर्निवृत्तिस्तूत्सेधागुलाऽसंख्येयभागप्रमितशुद्धात्मप्रदेशावच्छिन्नकदम्बपुष्पाद्याकारमांसगोलकरूपा । उपकरणं च श्रोत्राद्यन्तर्निवृत्तेविषयग्रहणशक्तिः, खङ्गस्येव च्छेदशक्तिर्वहनेरिव च दाहशक्तिः ।
अतिरिच्यते चेयमन्तनिवृत्तीन्द्रियात् । तत्सत्त्वेऽपि वातपित्तादिना विषयपरिच्छेदशक्तिविनाशे शब्दादिविषयाऽग्रहणोपपत्तेः। न च तदुपग्राहकाऽदृष्टविशेषविनाशादेव तदुपपत्तिः,
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११८ ]
[ वादमालायां मण्यादिना वहन्यादिनिष्टदाहशक्तेरिव वातपित्तादिनेन्द्रियनिष्टपरिच्छेदकशक्तेरेव विनाशस्वीकागैचित्यादन्यथौपधपानविशेषेण तदननुग्रहप्रसङ्गात् । तेन विहितनिपिद्धान्येनाऽदृष्टान्तरोत्पादनाऽयोगात् । इन्द्रियनिष्टपरिच्छेदकशक्तेश्वोत्तेजकेन वह्निनिष्टदाहशक्तेरिव तेनोत्पादनस्य तस्य वस्तुयुक्तत्वात् । किञ्चैवमदृष्टोपग्रहस्य नियामकत्वे इन्द्रियस्यैवाऽसिद्धिप्रसङ्गः, . तदुपगृहीतकर्णशष्कुल्यादिनैव तत्कार्यसम्भवात् । एतेन कर्मशष्कुल्यवच्छिन्नाकाशमेव श्रोत्रमदृष्टविशेषोपग्रहाच्च नातिप्रसङ्ग इत्यादि नैयायिकमतमपास्तम् ।
भावेन्द्रियाण्यपि लब्ध्युपयोगभेदाद् द्विधा । तत्र लब्धिस्तदावरणकर्मक्षयोपशमः, प्रमाणं च तत्र तुल्येपि द्रव्येन्द्रियविषयसम्बन्धे पुरुषभेदेन बहुबहुविधादिविषयपरिच्छेदभेद एव, तत्सन्निधानादेव चात्मा द्रव्येन्द्रियनिवृत्ति प्रति व्याप्रियत इति । उपयोगश्च लब्धिनिमित्तो मनःसाचिच्यादा. त्मनोऽर्थग्रहणं प्रति व्यापारः, प्रमाणं च तत्र सुपुप्तौ ज्ञाना. भावान्यथानुपपत्तिः । संयोगादौ क्रियाया इवार्थग्रहण आत्मनोप्याभिमुख्यस्य नियामकस्य स्वीकारात् , तस्येवोपयोगरूपत्वात्सुषुप्तौ तदभावादेव ज्ञानानुत्पादसम्भवाद्वयासङ्गोप्यर्थात(न्त)रानुपयोगादेव सम्भवति, नत्विन्द्रियान्तरेणाणो. मनसोऽसम्बन्धादन्यथा रूपादिकं पश्यतो जातायां गीतादि. बुभुत्सायां सद्य एव गीलादिश्रवणानुपपत्तेः । बुभुत्सया मनो
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[ ११६
इन्द्रियवादः ]
वह नाडीप्रयत्नद्वारा श्रोत्रमनोयोगस्योत्पादनाऽयोगादसर्वज्ञरस्यां नाड्यां मनो विद्यते संयोक्ष्यते चानेनेन्द्रियेणेति प्रत्ये तुमशक्यत्वात् । कथं चैवमादरेण रूपादिकं पश्यतो वेगवत्तरमहामेघसङ्घट्टजन्मनो झनझनाशब्दस्य झटित्येव साक्षात्कारः ? उपयोगस्य नियामकत्वे तु न किञ्चिदनुपपन्नं, चलवति विषये उपयोगस्य सद्य एव सम्भवात् ।
"
अत्रोपयोगमाश्रित्य सर्वेऽपि जीवा एकेन्द्रिया, एकस्मिन् काले एकोपयोगवच्चात् शेषेन्द्रियापेक्षया चैकेन्द्रियादिभेदः । अथवा लब्धीन्द्रियापेक्षयापि सर्वेषां पञ्चेन्द्रियत्वमेव, बकुलादीनामपि कामिनीवदनार्पितमदिरागण्डूषादिना पुष्पपल्लवादिदर्शनात् । तस्य ज्ञानविशेषाऽऽहितप्रीतिविशेषाऽऽहतेष्टपुद्गलनिमित्तकत्वात् । सुप्तेऽपि कुम्भकारे कुम्भनिवृत्तिशक्त्या कुम्भकारत्ववद् बकुलादौ लब्ध्येन्द्रियपञ्चकसद्भावेऽपि पञ्चेन्द्रियत्वव्यपदेशो निवृत्यादिद्रव्येन्द्रियसम्बन्धाऽभावान्न भवतीति भाष्यसम्प्रदायः । अत्र च निवृत्युपकरणेन्द्रियसमुदायो न पञ्चेन्द्रियत्वव्यपदेशनिबन्धनमुपहतनयनादीनामपि तद्वयपदेशात्, किन्तु पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्मविपाकोदय एवेत्यत्र तात्पर्यमत एव जातिनाम्नो नेन्द्रियपर्याप्त्यान्यथासिद्धिः । निर्माणाङ्गोपाङ्गनामारचितनिष्पादितबाह्यनिवृत्युपग्रहेण तस्याः प्रतिनियतपूर्णेन्द्रियनिष्पादकत्वेप्येकेन्द्रियादिव्यपदेशभेदस्य जातिनामभेदनिमित्तकत्वादित्यन्यत्र
·
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१२० ]
[वादमालायां विस्तरः । नचैवं हिंसादिदोषभेदेऽपीन्द्रियभेदनियामकत्वं विलीनमिति वाच्यम्, इन्द्रियघटितप्राणवियोगरूषायां हिंसायामिन्द्रियस्यापिप्रवेशादितिदिक् ।।४ । [इन्द्रियवादः समाप्तः)
५ अतिरिक्तशक्तिपदार्थवादः।
द्रव्यादयः पडेव पदार्था इति वैशेषिकाणां पदार्थविभागोऽनुपपन्नः, शक्तेरप्येवं पदार्थान्तरत्वात् । तथा हि, यादृशादेव करतलानलसंयोगाद्दाहो जायते, सति मण्यादौ प्रतिबन्धके तादृशादेव न जायत इति मण्यादिनाश्यं वहिनिष्टं किञ्चिदतीन्द्रियं दाहानुकूलं स्वीकर्त्तव्यं, सेव शक्तिः ।
न च मण्याद्यभावानामपि दाहहेतुत्वादेव तदा दाहानुत्पत्तिः, नचाऽभावस्य न कारणत्वं, कार्यत्वस्येव कारमत्वस्यापि भावत्वाऽव्याप्यत्वादिति वाच्यम् , उत्तेजके सत्यपि तत्र दाहाऽनाऽऽपत्तेः । नचोत्तेजकाभावविशिष्टमण्याद्यभावानां हेतुत्वाददोषः, एकोत्तेजकसत्त्वेप्यपरोत्तेजकाऽभावसत्वेन तदोषाऽनुद्धारात् , उत्तेजकत्वस्य च शक्त्यनभ्युपगमे एकस्य दुर्वचत्वेन तदवच्छिन्नाऽभावस्य निवेशयितुम शक्यत्वात् । तत्तदुत्तेजकाभावकूटनिवेशे च परस्परं विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहान्नानाकार्यकारणभावकल्पने गौरवात् । दाहत्वावच्छिन्ने विलक्षणशक्तिमत्वेन हेतुत्वकल्पनाया एवोचितत्वात् ।
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[ १२१
अतिरिक्तशक्तिवादः ]
न च भवतामपि शक्तिनाशे उत्तेजकाऽभावविशिष्टमण्यादीनां तावत्कार्यकारणभावकल्पना गोरव तौल्यमेव, अधिकं च नानाशक्तितत्कार्यकारणभावादिकल्पनागौरवमिति वाच्यम्, अस्माकं विलक्षणशक्ति मच्त्वेनानुगतीकृतोत्तेजकानां प्रतिबन्धकशक्तिनाशकत्वमेकं कल्पनीयमपरं च दाहशक्तिनाशत्वावच्छिन्ने विलक्षणशक्तिमत्वेन मण्यादीनां कारणत्वम्, अन्यच्च दाहशक्तौ तदनुकूलशक्तिमत्वेन वनेरेव भवतां तूक्तरीत्या - ऽनन्तकार्यकारणभावाः कल्पनीया इति लेशतोपि साम्याभावात् । नानाशक्तिनाशोत्पादादिकल्पनागौरवस्य फलमुखत्वेनादोषत्वात् ।
ननु भवतां प्रतिबन्धकदशायां कृशानौ दाहशक्त्यनुकूलशक्तिरस्ति न वा १ नास्ति चेत् ? कुतः पुनरुत्पद्यते शक्त्यंतर सह कृतादग्नेरेवेति चेत् ? तर्हि सापि शक्त्यंरसह - कृतात्तस्मादेवेत्यनवस्था । वस्तुतस्तद्वहूने रेकत्वात्तच्छक्तेः स्वकारणप्रभवत्वे 'प्राक् सा नास्तीति वचनस्यैव व्याघातः । कारणान्तरप्रभवत्वे च किं तया ? कारणान्तराद्दाहशक्त्युत्पत्तेरेव वक्तु ं युक्तत्वात् । अथाऽस्ति तदा तदानीमपि दाहोत्पादिकां शक्ति सम्पादयेत् ततोऽपि दाहः स्यादेवेति चेत् १ अत्री. च्यते प्रतिबन्धकावस्थायामप्यस्त्येव
दाहशक्तिसम्पादकं
शक्त्यंतरं, तदुत्पन्नोत्पन्नदाहशक्तेः प्रतिबन्धकेन च नाशाच्च
-
,
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५२२ ]
[ वादमालायां न तदा दाहोत्पत्तिः । प्रतिबन्धकापगमे तु दाहव्यक्तिः स्फुटेवेति व्यक्तं स्याद्वादरत्नाकरे ।
नन्वेवं विनश्यदवस्थयाऽपि दाहशक्त्या प्रतिबन्धकदशायां दाहजननाऽऽपत्तिः, कारणस्य कार्यप्राक्कालसत्ताया एवाऽपेक्षितत्वादिति चेत् ? न, कार्यसहभावेनैव तस्या हेतुत्वात् । न च तथापि क्षणिकत्वाऽऽपत्तिः, पर्यायार्थतः क्वचित क्षणिकताया अपीष्टत्वात् । न च शक्तिधाराऽऽपत्तिरेकशक्तिनाश एवाऽपरशक्तिजननादिति बोध्यम् ।
__ अन्ये त्याहुः-प्रथमं वलयादिकारणजन्या वयादिनिष्टा शक्तिः प्रतिबन्धकेन च तस्या विनाशः, उत्तेजकेन पुनस्तदुत्पत्तिः । न च शक्तिहेत्वननुगमः, शक्त्यनुकूलशक्तिमत्त्वेना ऽनुगमादिति । अस्मिन् मते उत्तेजकेन मण्यादेः शक्त्यनाशे उत्तेजकजनितदाहशक्तेमण्यादिना नाशादुत्तेजकसत्वेपि दाहा. ऽनापत्तिः । उत्तेजकजन्तिदाहशक्तेमण्याद्यनाश्यत्वे चोत्तेजका. पसारणदशायामपि दाहापत्तिः । उत्तेजकेन मण्यादेः शक्तिनाशेऽप्येतद्दोषतादवस्थ्यमेवोत्तेजकनाशिताया मण्यादिशक्तेः पुनरनुत्पादादुत्तेजकाऽभावस्य तद्धेतुत्वे चाभावकारणत्वप्रसङ्गो, मण्यादेरेव तदुत्पादकत्वे च वन्यादेरेव दाहशक्तिहे. तुत्वमुचितमित्याकरपक्ष एवं ज्यायानिति बहुतरमूहनीयम् ।
अपि च तृणारणिमणिषु वह्निजनकतावच्छेदकतया शक्तिसिद्धिदुवारा । तृणवादिना वह्नित्वावछिन्नहेतुत्वाऽ
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अतिरिक्तशक्तिवादः ]
[ १२३
योगात् । तुणादिकं विनाऽरण्यादितोऽपि वनरुत्पादात् । न च वह्निनिष्टजातित्रयकल्पनाददोषः, तदपेक्षया तृणफूत्काराऽरणिनिर्मथन-मणितरणिकिरणसंयोगेष्वेकशक्तिकल्पनायां लाघवात् । सम्बन्धत्रयनिष्टैकजात्यङ्गीकारेच नोदनात्वादिना सङ्करप्रसङ्गः। यदि चान्वय-व्यतिरेकाभ्यां तृणादेरपि कारणत्वमिष्यते तदा तेषामप्येकशक्तिमत्वेन तदस्तु. तथापि जातित्रयकल्पनापेक्षया शक्तिद्वयकल्पनाया लघुत्वात् । तेष्वपि जात्यङ्गीकारे च मणित्वादीना सङ्करप्रसङ्ग इति।।
अथ तृणादौ वह्निकारणताऽनवच्छिन्नैवाऽस्तु किं शक्तिकल्पनया ? नहि 'कारणता किश्चिद्धर्मावच्छिन्नैवे' ति व्याप्तिरस्ति प्रमाणाऽभावात् । 'तन्तुत्वेन तन्तुः पटकारणं,' 'पटत्वेन पटस्तन्तुकार्यमिति प्रतीत्या तत्राऽवच्छेदकसिद्धावपि प्रकृते तदभावात् । 'शक्तिविशेषेण तृणं वह्निहेतुरि'ति प्रतीतेरसिद्धेः, शक्तेरतीन्द्रियत्वोपगमात् । अस्तु वा सर्वत्राऽपि कार्यता कारणता च निरवच्छिन्नैव । तन्तुः पटकारणमित्यादिको हि लोकानामनुभवो, न तु तन्तुत्वादिनापि । 'द्रव्यत्वेन न तन्तोः पटकारणत्वं किन्तु तन्तुत्वेने' त्यादिकाः प्रतीतयस्तु केवलं तांत्रिकाणामेवेति चेत् १ न, लोकरपि सामान्यविशेषोपयोगपरैर्वस्तुमात्रस्येव कारणत्वस्य कार्यत्वस्य चावच्छिन्नानवछिन्नस्यैवाऽनुभवात् । सप्तभङ्गया तत्सङ्कलनमात्रस्यैव शास्त्रार्थत्वात् । वह्निनिरूपितकारणतायास्तृणत्वेन
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१२४ ]
[वादमालायां तृणनिरूपितकार्यतायाश्च वह्नित्वेन प्रथमतोग्रहेऽपि वह्निसामान्यतणसामान्यकार्यकारणभावोपयोगे तृणत्वेन व्यभिचार स्फूतौ शक्तिविशेषेणैव तृणे वह्निसामान्यहेतुताया ऊहाख्यप्रमाणेन परिच्छेदात् । न चेदेवं, दण्डघटायोरपि कार्यकारणभावो दुरुपपादः स्यात् , घटत्वस्य मृत्वस्वर्णत्वादिसंकीर्गतया जातित्वाऽसिद्धेः, तस्यैकत्ववृत्तित्वाभ्युपगमेऽपि दोषादेकत्वाऽग्रहे तदग्रहापत्तेः, नव्यमते एकत्वस्याप्येकत्वाच्च ।
न च कुलालस्वर्णकारादिजन्यतावच्छेदकमृत्त्वस्वर्णत्वादिव्याप्यनानाघटत्वाऽभ्युपगमेऽपि निस्तारो, दण्डत्वस्याऽपि तद्वदेव नानात्वेन व्यभिचारात् । यावद्दण्डभिन्नाऽवृत्तिजातित्वेनानुगतीकृत्य तन्निवेशे गौरवात् । विजातीयसंयोगव्यापारकत्वस्य च कारणान्तरघटितत्वेन तेन रूपेणाप्यहेतुत्वात् । न च भ्रमिप्रयोजकावयवसंयोगविशेषवत्त्वेनैव हेतुत्वमस्त्विति वाच्यम् , तद्विशेपस्यापि जातिरूपस्याऽसिद्धेर्नोदनात्वादिना साङ्कर्यादिति शक्तिविशेषेणैव दण्डादेर्घटादिसामान्यहेतुत्वमुचितमिति दिक् ।
उत्तानास्तु तत्तत्सम्बन्धान्यतमत्वेन सम्बन्धानां तृणाधन्यतमत्वेन च तृणादीनां हेतुत्वान्न शक्तिसिद्धिः । न घ तत्तदन्यतमत्वं तत्तदन्यत्वविशिष्टतदन्यत्वाऽवच्छिन्नप्रतियो. गिताको भेदस्तथा च विशेषणविशेष्यभावे नानाकार्यकार
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अतिरिक्तशक्तिवादः ]
[ १२५
णभावप्रसङ्ग इति वाच्यम् , एकस्यैव भेदस्य तादृशनानाप्रतियोगिताकत्वेन परिचितस्याऽखण्डस्य स्वरूपतो निवेशादित्याहुः । तदसदित्थं सति सर्वत्राऽपि भेदविशेषेणैव कार्यकारणभावसम्भवे कुत्राऽपि तदवच्छेदकतया जात्यसिद्धिप्रसङ्गाद् भेदविशेषेण बुद्धिविशेषेण वा हेतुत्वमित्यविनिगमाच्छक्तिविशेषस्यैवाऽवच्छेदकत्वेन कल्पनौचित्याच्च ।
किश्च, बीह्यादिजनननियामकोऽपि व्यापारविशेषः शक्त्याख्योऽवश्यं कल्पनीयः । अन्यथा ब्रीह्यादिवापे व्रीह्यादीनामाऽपरमाण्वन्तभङ्गे व्रीह्यारम्भकपरमाणुभित्रीहय एव जन्यन्त इति नियमो न स्यात्तैरपि कदाचिद्यवाद्यारम्भात् । न च पाकजविलक्षणरूपरसादिविशिष्टपरमाणूनामेव यवाद्या. रम्भकत्वान्नेयमाऽऽपत्तिरिति वाच्यम् , पाकजविलक्षणरूपरसादीनां बहूनां जनकतावच्छेदकत्वादिकल्पनापेक्षयैकशक्तिकल्पनस्यैव न्याय्यत्वात् ।
किञ्च, तव मते यत्र पाकजा न विशेषास्तत्र जलादौं क्वचिदुद्भूतरूपादिकं क्वचिन्नेत्यत्र शक्ति विना किं नियामकम् ? तव शक्तिविशेषप्रयोजकोऽदृष्टविशेष एव, ममोद्भः तरूपादिनियामक इति चेत् १ न, मम शक्तिविशेषानुकूलशक्तेरेव शक्तिविशेषप्रयोजकत्वात् । कारणपरंपरानवस्थावच्छक्तिपरंपराऽनवस्थाया अदोषत्वात् , अदृष्टे पापपुण्यरूपे साङ्कर्यादनुगतविशेषाऽसम्भवाच्च ।
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१२६ ]
[ वादमालायां
किञ्च, नानापरमाणुनिष्पादितस्य बादरस्कन्धस्य नानारूपरसगन्धस्पर्शसमन्धितत्वात् क्वचिदेव कस्यचिदुद्भवानुद्भवार्थमवश्यं शक्तिविशेषः स्वीकर्तव्यो, नीलाद्यवयरेवनिलाद्यवयवी जन्यत इत्यत्र प्रमाणाऽभावात् । नीलादिपरमाणुभिरेव कदाचित्पीतादिजननात् । तत्र पाकादिना नियमतो रूपादिपरावृत्तेरवयविनीलादाववयवगतनीलाभावादेः प्रतिबन्धकत्वस्य पाकाऽजन्यावयविनीलादाववयवनीलादेविलक्षणनीलादौ विजातीयतेजःसंयोगादेहे तुत्वस्य च कल्पनामपेक्ष्योद्भूतनीलादौ शक्तिविशेषस्यैव हेतुत्वौचित्यात् । - एतेनेदं परेषां कल्पनाशतमपास्तम् । तथाहि, 'अबयवोद्भूतरूपादिकमेवावयव्युद्भूतरूपादौ तन्त्रम् , रसनाधारम्भकाः परमाणवो योग्यजलारम्भकाद्भिन्ना एवे' त्येके। 'अनुद्भूतत्वस्यैव जाति वाज्जन्यानुद्भूतरूपेऽनुद्भूतेतररूपाभावोऽववय विशुक्लादौ चावयवशुक्लादिकं हेतुः, इत्थं च न परमाणुभेदस्वीकारो न वा भर्जनकपालस्थवह्नावुद्भूतरूपतेजःप्रवेशादुद्भूतरूपानुपपत्तिरित्यन्ये । 'पृथिवीत्वादे रूपनिश्चयेऽपि नीलत्वादिना निश्चयाऽभावान्नीलादिविजातीयमेवानुद्भूतम् , इत्थं चैकमेवाऽनुद्भूतत्वं नीलत्वादिव्यापकमु
द्भूतत्वमेव वैकं, अनुभूतत्वं तु तदभावः । उद्भूतान्यसमवेतत्वादेव हि घटादिना चक्षुराकाशसंयोगादिकं न चाक्षपं, अवयव्यनुद्भूताऽसमवायिहेतुतावच्छेदिका जातिर्वास्तु, रसना
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अतिरिक्तशक्तिवादः ]
[ १२७ द्यारम्भकास्तु योग्यजलानारम्भकाः । शुक्लेतररूपवता शुक्लरूपवदनारम्भादित्यपरे । पृथिवीत्वादिना क्लुप्तकार्यकारणभावकनीलाद्यन्यतमसिद्धेर्घाणादौ नीलाधकतरनिश्चयस्यानुद्देश्यत्वान्नान वानुद्भूतत्वमित्यन्ये। शुक्लत्वव्याप्यमेकमेवाऽनुद्भतत्वं, चक्षुरादिरूपे भास्वरत्वादिजातो मानाभावाद्, वाय्वाद्याऽऽकृष्टचम्पकादिभागास्तु चम्पकानारम्भकाः शुक्ला एव रूपवैषम्येऽपि गन्धसम्भवादि'त्यपरे । 'एकत्वनिष्टमेवोद्भतत्वं विषयविशेषत्वमेव वा प्रत्यक्षप्रयोजक, रूपं तु सर्व समानमेवे' त्यन्ये इति । .
___ अपि चाभिमन्त्रितपयःपल्लवादौ विषचालनादिनियमार्थमपि शक्तिरावश्यकी । न च तत्र मन्त्रपाठतः पुरुष एवाऽऽदृष्टस्वीकारान्निर्वाहः, किश्चिदशीचाऽभावस्य क्वचित् प्रयोजकत्वादशौचेऽपि क्वचिदधिकारादशुचिपुरुषेऽपि ततोऽदृष्टोपपत्तेरिति वाच्यम् . पुरुषनिष्टस्याऽदृष्टस्य सम्बन्धविशेषेण जलादिनिष्टव्यापारस्यैव कल्पनौचित्यात् । किश्च मन्त्रपाठादिना पुरुष. निष्ठस्याऽदृष्टस्य स्वीकारे मन्त्रितजलस्याऽशुचिस्थानमोचनादिनाऽपि तत्फलाऽऽपत्तिः । न च ततस्तददृष्टनाशः कल्प. नीयो, व्यधिकरणस्य तस्य तदनाशकत्वात् । - किश्च नानापुरुषोद्देशेन मन्त्रितस्य साधारणजलस्य नानापुरुषेभ्यो विभज्य दत्तस्यैकेनाऽशुचिस्थाननिवेशेऽदृष्ट
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१२८ ]
[ वादमालायां नाशात्सर्वस्याप्यसंस्कृतत्वेन्येषामपि फलं न स्यात्, तदनाशे चाऽशुचिस्थानसंसृष्टतजलपानादपि फल स्यात् । एतेनाऽनेकजलादिनिष्टव्यापारकल्पने गौरवादेकात्मनिष्टव्यापारकल्पनमेवोचितमित्यपास्तम् । अनन्यगत्या जलादिगतनानाव्यापारकल्पनावश्यकत्वात् । 'अशुचिस्थानसंसर्गाद्यनवच्छिन्नसम्बन्धविशेषेणाऽदृष्टस्य नियामकत्वान्नानन्यगतिकत्वमि' ति चेत् ? न, तथाप्येकपुरुषीयविषचालनप्रतिबन्धोद्देश्यकप्रतिबन्धकमन्त्रेण साधारणविषचालकमन्त्रपाठजनिताऽदृष्टनाशाऽनाशाभ्यासर्वेषामेकस्य चाधिकृतस्य फलाऽनापत्त्यापत्तिभ्यां व्यापारनानात्वकल्पनध्रौव्यात् । ततत्पुरुषोद्देश्यकप्रतिबन्धकमन्त्राभावविशिष्टविलक्षणमन्त्रत्वेन तत्तत्पुरुषीयविषचालनादौ पृथक्कार णत्वकल्पने च गौरवात् ।
किश्च यत्र मणिविशेषस्पृष्टजलपानाद्विषचालनं तत्र शक्ति विना का गतिः १ न हि तत्रापि मणिविशेषाददृष्टमुत्पद्यते, सम्बन्धविशेषेण जलगतप्रयोक्तृनिष्टतदुत्पादाभ्युपगमे दाहप्रतिबन्धकस्याऽपि मण्यादिसमवधानजन्यस्य सम्बन्धविशेषेण काष्टादिगतस्याऽदृष्टस्यैव कल्पनापत्तेः। किञ्च यत्र योगीन्द्रपदरजःस्पर्शविशेषादृष्टकुष्टादिनाशकं तीर्थजलमुत्पन्नं तत्र शक्तिविशेषाभ्युपगमं विना न निर्वाहः । तत्स्पर्शध्वंसस्य तज्जलोपादानकजलान्तरेऽसंक्रमाद् ध्वंसेन भावव्यापारान्यथासिद्धावदृष्टसंस्कारादेरपि विलयाऽऽपत्तेश्च । अपि च सिद्धरस
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अतिरिक्तशक्तिवादः ]
[ १२६
}
स्पर्शाल्लोहादौ तपनीयपरिणामः शक्तिविशेषनिर्वाह्य एव सिद्धरसस्पर्शध्वंस विशिष्टलोहे तपनीयारम्भस्य त्वया वक्तुमशक्यस्वात् । लोहस्यांत्यावयवित्वात्तत्र लोहनाशतपनीयावयचाऽऽगमनकल्पनं तु नानुभव युक्त्यनुरोधि ।
अस्माकं तु शक्तिवैचित्र्यान काप्यनुपपत्तिः सुवर्णाऽभिन्नद्रव्यशक्त्या स्थितस्यैव लोहस्य सिद्धरसस्पर्शाहितशक्त्या गुरुत्वरूपविशेषाद्यात्मकतपनीयपरिणामोत्पादकत्वाऽविरोधात् । न चैवं कृतस्यैव करणापत्तिः, कथंचित्तस्य दृष्टेष्टत्वात् । अत एव घटोपि रूपितया पूर्वकृत एव, संस्थानजलाहरणशक्तिभ्यां च पूर्वमकृतः, रूपित्व संस्थानशक्तिसमुदायेन च कृताऽकृतः । आद्यसमयावच्छेदेन च क्रियमाणः क्रियते । घटत्वेन पूर्व कृतः, पटत्वेन पूर्वमकृतो, घटत्वपटत्वाभ्यां पूर्व कृताकृतः । क्रियमाणश्चोत्पत्तिसमये पटतया न क्रियत इत्यस्माकं कृताऽकृतत्वसिद्धान्तस्तथा च भाष्यम् "रुवित्ति कीरह कओ, कुम्भो संठाणसत्तिओ अकओ । दोहिवि कथाकओ सो । तस्समयं कजमाणो अ । पुव्वकओ उ घडतया । परपज्जा एहिं तदुभयेहिं च । कज्जंतो य पडतया ण कीरए सव्वा कुम्भो । ति || [ विशेषावश्यके - ४०६८-४८११]
१- रूपीति क्रियते कृतः कुम्भःसंस्थानशक्तित अकृतः । द्वाभ्यामपि कृताकृतः स तत्समयं क्रियमाण इति ।। पूर्वकृतस्तु घटतया परपर्यायैः तदुभयैश्च । क्रियमाणश्च पटतया नक्रियते सर्वथा कुम्मः ॥ [ इति सं०]
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१३० ]
[ वादमालाया
यत्तु "अकृतप्रतिष्ठे प्रतिमादौ पूजाफलाऽभावात्प्रति. ष्ठादेः क्षणिकत्वात्तदाऽऽहिता शक्तिश्चाण्डालादिस्पर्शनाश्या पूजाफलप्रयोजिका स्वीकार्या । न च यजमानगताऽदृष्टं तदाहितं तथा, चाण्डालादिस्पर्शन व्यधिकरणेन तन्नाशाऽयोगात् , यजमानस्य तददृष्टक्षये पूज्यताऽनापत्तेश्चेति मीमांसका नैयायिकानाक्षिपन्ति तत्र पुनरस्माकमाचार्याणां न स्वारस्यम् । प्रतिष्ठाविधिना मुख्यदेवतास्वरूपालम्बनस्य निजभावस्य स्वात्मन्येव व्यवस्थापनात्प्रतिमायां स एवायमि'त्यभेदोपचारस्यैव पूज्यताप्रयोजकत्वात् । प्रतिमायां वर्द्धमानत्वाद्याहार्याऽऽरोपजनकेष्टसाधनताज्ञानविषयताऽवच्छेदकत्वेन. व प्रतिष्ठाया उपयोगात् ।
अनादिमत्यां हि प्रतिमायां सर्वस्यामेव भगवदभेदाध्यारोप इष्टसाधनम्, आदिमत्यां तु प्रतिष्ठितायामेवेति ततः प्रतिष्ठाऽऽहितशक्ति कल्पनमनतिप्रयोजनमित्यापातदर्शिनः । अत्रेदमवधेयम् , यद्यपि प्रतिमायां प्रतिष्ठितत्वज्ञान प्रतिष्ठाविधिप्रतिसन्धानोत्थापितवचनादरभगवद्बहुमानाऽहितसमापत्तिद्वारा विशिष्टफलप्रयोजकम् । अत एव मूलोत्तरगुणसहस्रसमेतसाधुकृतप्रतिष्ठेवोत्सर्गतःप्रमाणम्, प्रतिष्ठोत्कर्षस्य समापत्त्युत्कर्षकत्वात् । तथापि वस्तुतः प्रतिष्ठितायां प्रतिमायां भगवदारोपस्तत्पूजनं वा सामान्यफलं नातिक्रामतीति तनियामकशक्तिसिद्धिः । विषयभेदात्फलभेद इति व्यवहारनयसाम्राज्यात् ।
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अतिरिक्तशक्तिवादः ]
[ १३१
अत एव साधुत्वासाधुत्वविवेचनाभावेऽपि पात्रभेदाद्दानफलभेदस्तत्र व्यवतिष्ठते । आलम्बनमतन्त्रं भावभेद एव फल मेदहेतुरिति तु नयान्तरमतमिति गुरुतत्वविनिश्चये विवेचितमस्माभिः ।।
यत्तु प्रतिष्ठाविधिना प्रतिमादौ देवतासन्निधिरहङ्कारममकाररूपः क्रियते, विशेषदर्शनेऽपि स्वसादृश्यदर्शिनश्चित्रादाविवाऽऽहाऽऽरोपसम्भवाद्, ज्ञानस्य नाशेऽपि संस्कारसत्त्वाच्च न पूजाफलाऽनुपपत्तिः, अस्पृश्यस्पर्शादिना च तन्नाश इति परेषां मतं तदत्यन्तमसम्बन्धम् । वीतरागदेवस्थले इत्थं वक्तुमशक्यत्वात् सरागे देवताबुद्धेरेव च मिथ्यात्वादसर्वज्ञमरागदेवानां व्यासङ्गदशायां व्यवहितनानादेशेषु प्रतिष्ठाकर्मबाहुल्ये चाहङ्क रममकाराऽनुपपत्तेः संस्कारनाशेऽपूज्यत्वापत्तेः, तज्ज्ञानसंस्कारयोरननुगतयोः पूजाफलप्रयोजकत्वे गौरवाच्चेति । न च भवतामपि व्यासङ्गवशात् प्रतिष्ठितत्वज्ञानाभावे पूजाफलानुपपत्तिरिति वाच्यम्, विशेषफलाभावेऽपि प्रीत्यादिना तदा सामान्यफलानपायस्योक्तत्वाद् | यैस्तु यथार्थप्रतिष्ठितत्वप्रत्यभिज्ञानं पूजाफलसामान्य एव प्रयोजकमिष्यते; तेषामयमपि दोष एव ।
यत्पुनरुच्यते चिन्तामणिकृता - 'प्रतिष्ठितं पूजयेदि - तिविधिवाक्येन प्रतिष्ठायाः कारणत्वं न बोध्यते, किन्तु भूतार्थेक्तानुशासनादतीतप्रतिष्ठे पूज्यत्वं बोध्यते, तथा च
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१३२ ]
[ वादम लाथां प्रतिष्ठाध्वंसः प्रतिष्ठाकालीनयावदस्पृश्यस्पर्शादिप्रतियोगिकानादिसंसर्गाभावविशिष्ठः पूज्यत्वप्रयोजक इति तदप्यविचारि(त) रमणीयम् । प्रतिष्ठायाः क्रियेच्छारूपत्वेन तवंसस्य प्रतिमानिष्ठत्वाभावात् । क्तप्रत्ययस्थलेऽपि 'प्रोक्षिता व्रीहय' इत्यादौ ध्वंसव्यापारकत्वाऽकल्पनात्, कालान्तरभाविनि फले चिरनष्टस्य कारणस्य भावव्यापारकत्वनियमाच्च । अन्यथाऽपूर्वोच्छेदापत्तेः।
किच किञ्चिदवयवनाशेन प्रतिमान्तरोत्पत्तौ तत्र प्रतिष्ठाध्वंसानभ्युपगमात् पूज्यतानापत्तिरुक्तसंसर्गाभावानां बहूनामवच्छेदकत्वनिवेशे गौरवात् , प्रतिष्ठायाः शक्तिविशेषे तन्नाशेऽस्पृश्यस्पर्शादीनां चैकशक्तिमत्त्वेन हेतुत्वे लाघवात् । एतेन प्रागभावाऽसत्त्वे क्वचित् तत्प्रतिष्ठाध्वंसमात्रं क्वचित्तत्तच्चाण्डालस्पर्शध्वंसविरहविशिष्टं तत्पूजाफलप्रयोजकमि' ति नव्यमतमप्यपास्तमिति दिक् ।।५।
[शक्तिवादः समाप्तः]
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[ १३३ ६ अदृष्टसिद्धिवादः। 'कालान्तरभाविफलानुकूलविहितनिषिद्धक्रियाजन्यभावव्यापाररूपमदृष्टमप्रामाणिकमिति बाह्याः । तन्न दानदयात्रमचर्यादिक्रियाणां वैफल्यप्रसङ्गात् । 'दृष्टधान्याद्यव्या(वा)प्तिफलककृष्यादिक्रियावद्दानादिक्रियाणामपि दृष्टमनःप्रसादादिफलकत्वमेवेति चेत् ? न, मनःप्रसादादेरपि फलवत्वान्यथाऽनुपपत्त्याऽदृष्टस्यैव सिद्धः। अथ दानादिक्रियाणां श्लाघादियत्किञ्चिदृष्टफलेनैव पर्यवसितत्वान्न शुभाऽदृष्टजनकत्वम् , यथा मांसभक्षणादिदृष्टप्रयोजनपर्यवसितानां पशुहिंसादिक्रियाणां प्रमाणाभावान्नाऽशुभाऽदृष्टजनकत्वम् । न चाऽदृष्टफलोद्देशने लोकप्रवृत्तिरेवाऽदृष्टे प्रमाणम् , दृष्टफलोद्देशेनैव बहूना प्रवृत्तः तदसंख्येयभागस्याप्यदृष्टफलोद्देशेनाऽप्रवर्तमानत्वादिति चेत? न, दृष्टफलोद्देशेन बहूनां प्रवृत्तेरेवाऽनन्तसंसारिजीवान्यथानुपपत्तेरदृष्टसिद्धयाऽऽवश्यकत्वात् ।। दृष्टफलमुद्दिश्य कृष्यादिप्रवृत्तानामपि पापलक्षणमदृष्टमनभिलषितं बद्ध्वा. ऽनन्तसंसारपरिभ्रमणादनन्तावस्थानोपपत्तेः। अदृष्टफलोद्देश्य
कदानादिक्रियाप्रवृत्तानां धर्मरूपमदृष्टमासाद्य स्वल्पानामेव क्रमेण मुक्तेः।
_ 'कृष्याद्यर्थप्रवृत्तानामभिलषिताऽशुभाऽदृष्टस्य लाभः कुत ?' इति चेत् ? अविकलकारणस्य फलजनने आशंसाया
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१३४ ]
[ वादमालायां अप्रयोजकत्वात् । वत्राऽज्ञातस्यापि कोद्रवादिबीजस्य कोद्रवाद्यंकुरजनकत्वदर्शनात् । कृष्यादिक्रियाणां च हिंसादिमयीनां क्वचिद् दृष्टफलव्यभिचारिणीनामप्यऽशुभाऽदृष्टजननेऽव्यभिचारित्वात् । न चेदेवं, तदा कृष्यादिक्रयाकतणामनभिलषिताऽशुभाऽदृष्टानुत्पादाज्जन्मान्तरीयशरीरप्ररिग्रहाऽभावादयत्नेन मुक्तरुच्छिन्नप्रायः संसारः स्यात् । स्याच हिंसादि. क्रियाणामेवेत्थमक्लेशफलत्वं, दानादिक्रियाणां चाभिलषिताऽदृष्टफलानां जन्मान्तरीयशरीरपरिग्रहवीजत्वात् क्लेशबहुलत्वमिति महदसमञ्जसमिदमापद्येत ।
तस्माददृष्टफलं प्रति सर्वा अपि क्रिया अव्यभिचारिण्य एव, दृष्टफलं प्रति तु क्वचिद्वयभिचारिण्योऽपीति प्रतिपत्त. व्यम् । दृष्टफलविघातोऽपि च तासामदृष्टहेतुक एव । न हि समानसाधनारब्धतुल्यक्रियाणामेकस्य दृष्टफलविधातोऽन्यस्य तु नेत्येतददृष्टहेतुमन्तरेणोपपद्यते । तत्रापि दृष्टकारणवैगुण्यमेव कल्पनीय'मिति चेत् ? न, आपेक्षिकवैगुण्यस्य प्रयो जकत्वात्तात्विक गुण्यस्य चाऽदर्शनात् । न हि यादृश एव क्षेत्रे एकस्य शस्योत्पत्तिस्तादृश एवाऽपरस्य तदनुत्पत्ता. वतत्कालीनत्वादिकं विनाऽन्यत्क्षेत्रवैगुण्यमस्ति ।
किश्च दृष्टकारणविघातोऽपि तत्राऽदृष्टहेतुक एव । सत्यां लि'सायां भोगसाधनलाभाऽभावस्य लाभान्तर(राय).
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अष्टसिद्धिवादः ]
प्रयोज्यत्वात् । एतेन तत्क्षेत्रे तदा तदीयशस्योत्पत्त्यनुकूलशक्त्यभावादेव न शस्योत्पत्तिरित्यपास्तम् । शक्तिविघात - स्याऽपि तत्राऽदृष्टप्रयोज्यत्वात् ।
किञ्चैकजातीयेष्टाऽनिष्टसाधनसम्प्रयोगेऽपि पुरुषभेदेन
[१३५
-
सुखदुःखानु
भवतारतम्यदर्शनात्तेषामदृष्टप्रयोज्यजातिव्याप्यजा
त्यवच्छिन्नं प्रत्येव हेतुत्वाददृष्टविशेषसिद्धिः । न च भेषजवद्धातुसात्म्यादिद्वारकमेव तत्तारतम्यमिति वाच्यम्, ततः साक्षात्सुखादि - तौल्याद्धातुवैषम्यादेरुत्तरकालीनत्वात् । न च शरीरविशेषादेव सुखादिविशेषसिद्धिरिति शरीरविशेषाऽदर्शनेऽपि सर्वतोनुकूल वेदनीयोदये भोगविशेषदर्शनात् । तदिद मुक्तं भगवता भाष्यकृता
जो तल्लाहणाणं फले विसेसो ग सो विणा हेडं । कज्जत्तणओ गोयम ! घडोव्व हेऊ अ से कम्मं ॥ति (वि० आ० भा० २०६८)
ननु यदि क्रियामात्रजन्यमदृष्टं भवद्भिरभ्युपगम्यते तदा चरमशरीरिणामपि गृहस्थावस्थाजिंतबहुभव भोग्यानामवस्थानधौव्यात्संसारानुपरमः स्यादिति चेत् १ स्यादयं तेषां दोषो ये एकान्तत एकरूपं भोगेकनाश्यं च कर्माभ्युपगच्छेयुः । वयं तु सर्वं कर्म प्रदेशतो नियतभोगमनुभागतश्च भज
१ - यः तुल्यसाधनानां फले विशेषः न स विना हेतुम् । कार्यत्वद् गौतम ! घट इत्र हेतुश्च तत्कर्म ॥ इति छाया ।
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१३६ ]
[ वादमालायां नीयभोगं वदाम इति न कोपि दोषः । चारित्रवीर्येण बहू नामव्यवस्थितकर्मणां प्रक्षयेण मोक्षोपपत्तेः ।
एतेन यदुच्छ खलैरुच्यते दानादीनामागमबोधितनियतस्वर्गादिफले स्वध्वंस एव व्यापारोऽस्तु, किमदृष्टकल्पनया ! न चैवं दानादेः प्रतिबन्धकत्वव्यवहारापत्तिः, संसर्गाभावत्वादिना कारणीभूताभावप्रतियोगित्वेनैव तद्वयवहारात् । न चैवं प्रायश्चित्तकीर्तनादिविशिष्टकर्मणोऽपि फलापत्तिस्तद्ध्वंसातिरिक्तध्वंसस्यैव व्यापारत्वात् । अस्तु वा प्रायश्चित्वाद्यभाववत्कर्मत्वेन हेतुत्वम् । इत्थं च प्रायश्चित्तादौ प्रवृत्त्यादिकं सूपपादम् । द्विष्टाभावोद्देशेन द्वेषयोनिप्रवृत्तेविरोधात् । न चैवं दत्तादत्तफलोद्देश्यकप्रायश्चित्ते कृतेऽदत्तफलादपि फलं न स्यात् , स्याद्वा दत्तफलादपि फलमिति वाच्यम् , तत्तत्प्रायश्चित्तविशिष्टाऽदत्तफलध्वंसातिरिक्तधंयस्याऽदत्तफलनिष्टोद्देश्यतया तदभावस्य वा निवेशात् । एतेन 'प्रायश्चित्तं न नरकादिप्रतिबन्धकम् , आशुविनाशित्वेन तदुत्पत्यवारकत्वात् , नापि तद्ध्वंसः, प्रायश्चित्तानन्तर कृतगोवधादितोऽपि नरकानुत्पत्त्यापत्तेः, तत्तत्प्रायश्चित्तप्राग्वर्तिगोवधादिजन्यनरके तत्तत्प्रायश्चित्तध्वंसस्य प्रतिबन्धकत्वे च प्रागजन्मकृतगोवधादितोऽपि नरकानुत्पत्त्यापत्तिः, तज्जन्मकृतत्वस्य प्राग्यर्तिगोवधविशेषणत्वे त्वप्रसिद्धिरित्यपास्तम् । अथ 'मिथ्याज्ञानवासनाया अदृष्टहे तुत्वं सम्भवति न तु दानादिध्वंसहेतुत्वं भोग
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मदृष्टसिद्धिवादः ]
- [१३७ हेतुत्वं वा, तत्त्वज्ञानिनां दानादेरनंतत्वाऽऽपत्तेभॊगानापत्तेश्च, तथा च तत्त्वज्ञानिना मुक्तिदुर्लभे' ति चेत् १ न, तद्ध्वंसातिरिक्तध्वंसव्यापारत्वात्तत्र स्वर्गानुत्पत्तेः । तस्माद्दानादिकं स्वर्गजनकजनकमित्याद्यनुमितौ क्लुप्तध्वंसविषयत्वादतिरिक्ता(ऽदृष्टाऽ)सिद्धिरिति'
तत्सर्वमपास्तम् । तत्त्वज्ञानप्राक्कालीनकर्मणां बहूनामवस्थितिध्रौव्येन तेषां ध्वंसव्यापाराऽप्रच्यवादविकलफलत्वे मोक्षानुत्पादप्रसङ्गात् । अथ 'तत्त्वज्ञानविशिष्टध्वंसातिरिक्तध्वंसस्य व्यापारत्वान्न दोषो, अत एव 'ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुतेऽर्जुने ति संगच्छते, इदमेव हि सर्वकर्मभस्मसातकारित्वं यत्सर्वकर्मफलविघटकन्वमिति चेत् ? न, एवं सति तत्वज्ञानिनां प्रारब्धफलस्याप्यनापत्तेः । 'तत्वज्ञानविशिष्टाऽदत्तफलध्वंसातिरिक्तध्वंसस्य व्यापारत्वात्तद्भवभोग्यकर्मणश्च दत्तफलत्वान्न दोष' इति चेत् ? नैहिकामुष्मिकनानाफलजनककर्मणां तद्भवानुभूतकिश्चित्फलानां तथाप्यनाशे मोक्षानुपपत्तितादवस्थ्यात् । किश्च क्रियाजन्याऽदृष्टानभ्युपगमे मोक्षार्थिनां प्रवृत्तिरपि दुर्घटा स्यात् , कर्मक्षयार्थमेव तस्या उपपत्तेः । दुःखध्वंसस्य स्वत एव सम्भवेन तदर्थं तदनुपपत्तेः । चरमदुःखध्वंसत्वेन च न काम्यता, चरमदुःखमुत्पाद्य तवंसस्य तत्त्वज्ञानेनोत्पादने दुःखहेतौ प्रवृत्त्याऽऽपत्तेः । सिद्धोपरागेण सिद्धासि द्वविषयकेच्छाभ्युपगमे कृत्स्नकर्मक्षय
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१३८ }
[ वादम'लायां त्वेनेतरथा तु विशिष्टकर्मक्षयत्वेन काम्यता तु नाऽनुपपन्नेत्य. वसेयम् ।
किश्च महाप्रायश्चित्त धर्मसंन्यासादीनामन्ततस्तत्त्वेनैककालोत्पत्तिकानन्ताऽदृष्टध्वंसे हेतुत्वमेवोचितम् । तत्तद्ध्वंसातिरिक्तत्वेन व्यापारविशेषणे तत्तत्प्रायश्चित्ताद्यभावविशिष्टत्वेन कारणत्वे चाऽतिगौरवम् । न च समूहालम्बनदुःप्रणिधानाद्यनुरोधेन तत्तत्प्रायश्चित्ताधभावोऽवश्यं निवेश्य इति वाच्यम् , समूहालम्बनदुःप्रणिधानजन्यस्य समानविषयकप्रायश्चित्तनाश्यस्यातिरिक्तस्यैवाऽदृष्टस्य स्वीकारात् । अपि च न यथाबद्धमेव कर्म सवेद्यते, बन्धोत्तरमुत्कृष्टस्याऽपकृष्टस्य परिणामविशेषवशात्प्रकृत्यन्तरसक्रमेणाऽन्यादृशस्य च वेदनात् । अत एव हिंसादिफलेऽपि मिथो महदन्तरं तत्र तत्र प्रसिद्धम् । न चायं प्रकारो ध्वंसे सम्भवतीत्यवश्यं विचित्रमदृष्टमङ्गीकर्त्तव्यम् ।
[अदृष्टस्यात्मविशेषगुणत्वनिरासः] एतेन आत्मनो विशेषगुणरूपमप्यदृष्टंयत्परैरुपगम्यते, तदपि निरस्तं भवति, धर्मविशेषात् प्राक्तनपापकर्माऽपत्रपस्य प्राचीनपुण्योत्कर्षस्य सङ्क्रमजनितवलक्षण्यस्य चाऽदृष्टगुणत्वेऽसम्भवात्सूक्ष्मकर्म पुद्गलरूपाऽदृष्टपक्ष एव सर्वस्याऽस्यार्थस्य घटमानत्वात् । अथ 'भवतां तत्र क्रियायाः फलव्यभिचारवदस्माकमदृष्टव्यभिचारोऽपि न दोपाये' ति चेत् ? न,
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अदृष्टसिद्धिवादः ।
[ १३६ अस्माकं तत्र साक्षात्फलस्याऽदृष्टरूपस्याऽव्यभिचारात्परम्पराफलभेदस्य चाऽर्थसिद्धस्योपपत्तेः । कियाऽदृष्टस्य गुणरूपत्वे तत्र पक्वाऽपक्वादिभेदाऽभावाद्दानादिजन्याऽदृष्टात्तदानीमेव स्वर्गाद्यापत्तिः । न च स्वर्गीयशरीरादिविशेषकारणाभावान्न तदापत्तिः, तस्याप्यदृष्टहेतुकत्वेनाऽऽपत्तितादवस्थ्यात, तत्कालविशेषादनतिप्रसङ्गे च तस्यैव सर्वत्र कार्यनियामकत्वे एककारणपरिशेषाऽऽपत्तेः। .
एतेन लब्धवृत्तिकत्वमपि निरस्तम् । तस्यापि सहकारिविशिष्टत्वकालविशेषविशिष्टत्वरूपविकल्पद्वयाऽनतिक्रमात् । न च तददृष्टजन्यफले तददृष्टप्राग्वय॑दृष्टत्वाऽवच्छिन्नाऽभावस्य हेतुत्वादनतिप्रसङ्ग इति वाच्यम्, एकभवेऽपि दानहिंसादिजन्यानां बहूनामदृष्टानामर्जनात् । वस्तुतः सयोगजीवव्यापारत्वेनैव कर्मबन्धत्वाऽवच्छिन्नहेतुत्वात्सयोगिजीवव्यापारक्षण. त्वस्य कर्मबन्धव्याप्यत्वात्तददृष्टप्रागवय॑दृष्टाऽभावस्य क्वाप्यसिद्धेः। फलावच्छिन्नप्राग्वय॑दृष्टाभावस्य हेतुत्वे न दोष इति चेत् ? न, ऐहिकाऽदृष्टभोगकालेऽप्यत्युग्रपुण्यपापफलदर्शनादायुःशरीरसुखदुखलाभाऽलाभकामक्रोधादितारतम्यनियामकनानाऽदृष्टानां युगपत्फलदर्शनेन तेषां मिथोऽविरोधाच्च । तथापि मनुष्यस्य स्वर्गसुखादिजनकाऽदृष्टानां विरोधित्वान्मनुजाऽदृष्टसत्त्वे न स्वर्गाऽऽपत्तिरिति चेत् ? न, अदृष्टस्य
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१४० ]
[ वादमालायां
गुणरूपत्वे बन्धोदयादिविरोधी तरादिभेदस्याप्यनुपपत्तेः प्रकृतिरसादिभेदेन तद्वयवस्थानात् ।
किश्च स्वर्गादिजनका दृष्टस्य फलनाश्यत्वे प्रथमफललाभानन्तरमेव तद्विलयाऽपत्तिरन्यथा च तदनन्तत्वापत्तिः । न च प्रतियोगिताऽदृष्टनाशे जनकतया चरमफलस्य नाशहेतुत्वादयमदोषश्वरमत्वस्य जातित्वे तदवच्छिन्ननियामकस्य गवेषणीयत्वापत्तेः । फलान्तरप्रागभावासमानाधिकरणत्वरूपत्वे च प्रागभावस्य विशिष्याऽहेतुत्वे तेन तदनन्तत्वाऽ पत्त्यवारणात्तखे च तत एवाऽनतिप्रसङ्गे फलस्याऽदृष्टनाशकत्वे मानाभावाददृष्टाऽनन्तत्वापत्तेः । तस्माद् योगानुभावोपात्तविचित्रप्रकृतिप्रदेशकं कषायाऽध्यवसायविशेषोपनीतविचित्रस्थित्यनुभवं च कर्म पुद्गलरूपमेव प्रतिपत्तव्यम् । अत एव कर्मणः प्रकृत्याद्यात्मकत्वे मोदकदृष्टान्तं वर्णयन्ति समयविदः ।
,
अथ 'चैत्रशरीरं चैत्रविशेषगुणपूर्वकम् चैत्रभोग्यत्वाच्चन्दनादिवदित्यनुमानाददृष्टस्य गुणत्वसिद्धि' रिति चेत् न, चैत्रभोग्यत्वे मैत्रविशेषगुणपूर्वकत्वस्येव चैत्रविशेषगुणपूर्वकत्वस्यापि व्याप्तौ प्रमाणाभावाददृष्टद्वारकजन्मान्तरीयप्रयत्नेनाऽर्थान्तरप्रसङ्गाच्च । चैत्रभोग्यत्वावच्छिन्ने चैत्र विशेषगुणत्वेन साक्षाद्धेतुत्वं चाऽसिद्धमिति दिक् ।
किञ्चादृष्टस्य गुणत्वे तदप्रत्यक्षत्वाय मानस लौकिकप्रत्यक्षं प्रति तस्य तादात्म्येन प्रतिबन्धकत्वं कल्पनीयमिति
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अदृष्टसिद्धिवादः ]
[ १४१ तव मते गौरवम् । न चाऽयोग्यत्वादेव तदप्रत्यक्षत्वमिति न तत्कल्पनम् , अयोग्यत्वस्य प्रतिबन्धकत्वे विश्रामात् । न च गुणलौकिकमानसत्वावच्छिन्नं प्रति जनकतावच्छेदकतया ज्ञानेच्छादिगतजातिविशेषस्यैव कल्पनान्न तत्कल्पनमिति पाच्यम् , निर्विकल्पादिगतज्ञानत्वादिना साङ्कर्यात् । तथा सुखदुःखादिवैचित्र्यनियामकस्याऽऽहाराऽनलादिवद्धर्मिग्राहक-- प्रमाणादेव पुद्गलरूपत्वं सिध्यति । आत्मतद्धर्मव्यतिरिक्तत्वे सति बाह्यकारणाधीयमानोपचयत्वात्परिणामित्वाच्च स्नेहाद्याहितबलघटवत् क्षीरादिवच्च पुद्गलरूपत्वमेवाऽदृष्टस्येत्यप्याहुः ।
परिणामित्वं च कर्मणः कर्मपरिमाणावच्छिन्नावगाहनाया नियतशरीरोपादानावच्छेदकत्वेन सिद्धयति । अत एवाऽऽद्यबालशरीरं शरीरान्तरपूर्वकं, शरीरत्वादिन्द्रियादिमवाद्वा.युवशरीरवदित्यनुमानादपि शरीररूपस्य कर्मणः सिद्धेस्तस्य पौद्गलिकत्वम् । न च जन्मान्तरीयशरीरेणार्थान्तरं, परिणामिशरीरान्तरपूर्वकत्वस्य साध्यत्वात्परिणामिनश्च व्यवधाना(त्यो)त् । अत एवौदारिकादिशरीरपरिणामिनः कर्मण औपश्लेषिकमुपादानत्वं गीयते । अथ शरीरत्वं न शरीरान्तरपूर्वकत्वव्याप्यमनवस्थाप्रसङ्गादिति चेत् ? न, वीजाङ्कुरस्थानी याया एतस्याअनवस्थाया अदोषत्वात् । न च वृद्धिमच्छरीरत्वस्योपाधेः सत्त्वादुक्तव्याप्त्यसिद्धिरिति शङ्कनीयम्, प्रत्यात्म कर्मशरीरयो/जाङ्कुरन्यायेन हेतुत्ववादेऽवस्थितस्यैवपरि.
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१४२ ]
[ वादमालायां
माणभेदरूपाया वृद्धेः पक्षेऽपि सखेन तस्य साधनव्यापकत्वात् ।
I
अथ 'स्वभाव एवाऽभ्रादिविकारवच्छरीरादिवैचित्र्यनियामकोsस्तु, किमदृष्टकल्पनेने 'ति चेत् ? स किं वस्तुविशेषो वा अकारणता (वा) वस्तुधर्मो वा १ आद्ये तस्य मूर्त्तत्वे नामान्तरेण कर्मण एवाभ्युपगमप्रसङ्गोऽमूर्त्तत्वे चाऽऽकाशादिवत्तस्य शरीरादिपरिणामित्वानुपपत्तिः । द्वितीये चाऽकारणता यद्यहे - तुकत्वं तदा तस्य नियामकत्वे युगपदेवाऽशेपदेहोत्पादप्रसङ्गः, कारणाभावस्य समानत्वात् । यदि च तलः स्वार्थकत्वात्कारणपदस्य नियत्यन्यकारणपरत्वादकारणता नियतिकारणमात्रमुच्यते, तदा तन्मात्रजन्यत्वे शरीरादेरभ्रादिविकारवदाऽऽदिमत्प्रतिनियताऽऽकारत्वं न स्यात् । आदिम-प्रतिनियताssकारत्वादेव घटादिवच्छरीर। देरुपकरणसहितकतृ'निवर्त्यत्वेन कर्मजन्यत्वस्यैव सिद्धेः । तृतीयपक्षेऽपि वस्तुधर्मो यद्यमूर्त्त इष्यते तदा तस्य शरीरादिपरिणामनियामकत्व विरोधो, यदि च मूर्त्त इष्यते तदा कर्मणोऽपि पुद्गलास्तिकायपर्यायविशेषत्वेन वस्तुधर्मत्वात्सिद्धसाध्यतैवेति सर्वभवदातम् ॥ ६
अदृष्टसिद्धिवादः समाप्तः
तत्समाप्तौ च समाप्ता तृतीया चादमाला |
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परिशिष्ट-ग्रन्थसङ्ग्रहगत-विशेषनामसूचिः
नाम
पृष्ठांकः
१५
१६, १७
१३२
१०२ १३६
४४, ४५
१२४
पृष्ठ - नाम अभयदेवसूरि
भगवती (सूत्र) अर्जुन
१३७ | मगवतीवृत्ति अष्टकवृत्ति
| बाहय आकर
१७, १२२ महावीर आहेत
मथुरानाथ उच्छृखल
| महानिशिथ उत्तान
महाभाष्य उपदेशपद
मीमांमक उपायकृत
यशोविजय कर्मप्रकृति वृत्ति
रामभद्रसार्वभौम गुरुतत्त्वविनिश्चय
१३१ / लता चिन्तामणिकृत १३१, ५१ । प्रकाशकृत जैनीपरिभाषा
११३ भट्टाचार्य तत्त्वविवेक
भरत दीधितिकृत् १२, १०७ भाष्य दुगतनारी
६, १० माष्यकृत् धर्मभूषण
भाष्यसम्प्रदाय नव्य ३०, ४२, ४४, १२४; १३२ | लोलावती नियुक्ति
२३ विद्योतन नैयायिक ३०, ७६,८०, ८१, ८२, | बादमाला ८८,९४,९७,१०६,१०६,११८,१३०, | शिवादित्य न्यायालोक
| षोडशक पञ्चाशकवृत्ति २, ५, १५, | सप्तभंगी पदार्थमाला
१०२ सम्मतिटीकाकृत् पदार्थतत्त्वविवेककृत १३ | समयविद्
१७, १२६
१३५
११६
२६, ६१
१२३
१४०
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नाम
सांख्य
सार्वभौम
सोमिल
सौगत
परिशिष्टानिः
पृष्ठांक:
१६२
- १०१ +
६५.
स्वतन्त्र
६७ १०२ | हरिभद्रसूरि
नाम
स्कन्दकाचार्य
स्याद्वाद
स्याद्वादरत्नाकर
* शुद्धिपत्रक
पृष्ठ / पंक्ति अशुद्ध शुद्ध
७ /१३ द्रष्टव्यम् दृष्टव्यम् ७/२१ त्येत० इत्येत
१४ /११ = विधि० = (अ) विधि० १६ / १३. ००याद्य (१धा ) ०
हध्या (१धा) द्य०
२७/४ अपूर्विच० अपूर्वचि ३२/१२ ०स्वत्वस्त्रा० ०स्वत्वत्वा● ३४/२ ०दानदि० ०दानादि० ४०/१७०व्याहत० ० व्याहृत० ४५/१४० छिन्नलोक ०
पृष्ठांक:
भूतल ० बांसा०
अशुद्ध शुद्ध
पृष्ठ / पंक्ति
६१/२०
नि०
६२ / ६ वैशिष्ट
६३/१.
६३/६
७२ / १६
८१/१७ तद्वृत्त० ८२/१६ ०कल्पते ९६ / २१ ० व्यावृत्ति० व्यावृत्ति १०५/१८ इत्थं च
' तादृश०
१९२
५४,८७
५. १०
१८
९५
'व्यनि०
विशिष्ट०.
'भूतल०
०बोधसा०
' तादृश०
तद्वृत्तिο ०कल्पने
इथं
प्यपला०
०दिग०
घ्राण
१०७ /१२ व्यला०
foatian०
० दिग०
१११ / ६ - ११२/२
प्राण
४७/८ विज तीय० विजातीय० ५७/९ ० चाक्षुक्त्वा०० चाक्षुषत्वा ११२ / १८ ०२ स्वत्व० ०क्व०
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________________ सनमा तित्थरम प्रकाशा मोजमगुरुधाम्य श्रीभारतीय प्राध्यतत्यप्रकासन समिति पिंदवाडा मेसिन समस्याका दीपक प्रिन्टरी / अहमदाबाद-३८०००१