Book Title: Panch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचंद्र ग्रन्थमाला पुष्प श्रीमद् देवचन्द्र सज्झायमाला भाग-२ पंच भावनादि सज्झाय सार्थ Jain Educationa International सम्पादक युगप्रधान जयन्ती आश्विनकृष्णा २ सं० २०२० -- ३ अगरचंद नाहटा प्रकाशक : भंवरलाल नाहटा व्यवस्थापक - श्रीमद् देवचन्द्र ग्रंथमाला ४ जगमोहन मल्लिक लेन, कलकत्ता- ७ For Personal and Private Use Only १०- ७५ नये पैसे मूल्य ●. www.jainaelibrary.org. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद देवचंद्र ग्रन्थमाला पुष्प --३ श्रीमद देवचन्द्र सज्झायमाला भाग-२ पंच भावनादि सज्झाय सार्थं शीर सम्पादक अगरचंद नाहटा प्रकाशक :भंवरलाल नाहटा व्यवस्थापक-श्रीमद् देवचन्द्र ग्रंथमाला ४ जगमोहन मल्लिक लेन, युगप्रधान जयन्ता आश्विनकृष्णा २ सं० २०२० मूल्य०-७५ नये पैसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचभावनादि सन्माय के भावों को आस्मसात् करने वाले स्वर्गीय श्री मनोहरलाल नाहटा अमर आत्मा को सादर समर्पित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका १ पंच भोवना सज्झाय सर्थ . १ श्रुत भावना २ तप भावनां ३ सत्व भावना ४ एकत्व भावना ५ तत्व भावनो भावना माहात्म्य परिशिष्ट (क) बृहत्कल्प और पांच भावनाएं (ख) पांच अप्रशस्त भावनाएं (ग) तप भावनोक्त तपश्चर्या विधियों (घ) तपस्वी मुनियों की जीवनियों १ ण कुमार २ खंदक मुनि ३ कुरुदत्त मुनि ४ मुनि मेतार्य १ कीतिपर सुकोशल ६ मुनि गजसुकमाल ७ चक्रवर्ती सनत्कुमार . प्रत्येकबुद्ध मुनि करकण्डु है , नमि राजर्षि २० , नगई ११ , दुम्मुही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ मृगापुत्र १३ हरिकेशी १४ चिलातीपुत्र १५ अनाथी मुनि १६ भरत चक्रवर्ती १७ इलापुत्र १८ अमात्य तेतलीपुत्र २ प्रभंजना सज्झाय [सा) * साधु भावना पद [सार्थ] * साधु भावना सभास, साथी ५ साघु समस्या दोधक ६ पद संग्रह पंचेन्द्रिय विषय त्याग : मेरे जीउ क्या मन में तुं चिंता । मेरे पीयु क्युं न आप विकार । पीउ मोराहो सांभनि पिभोरा हो । आतम भाव रमो हो ७ ढंढण मुनि सज्झाय ८ समकित सज्झाय ६ गजसुकुमाल मुनि सझीय १० ध्यानी निग्रन्थ सज्झाय - - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवेशिका • महान तत्वज्ञ श्रीमद् देवचन्द्र जी की रचनाओं का श्वेताम्बर समाफ में बहुत अच्छा प्रमार है । लगभग ५२ वर्ष पूर्व तपागच्चीय योगनिष्ठ श्रीमद कुद्धिसागरसूरिजी का ध्यान उन समस्त स्वनामों को संग्रहीत कर प्रकाशित करने की ओर मया और उनकी प्रेरणा से अध्यात्म ज्ञान प्रसारक माडल द्वारा श्रीमद् देवचन्द्र भाग १-२ के रूप में उनका :प्रकाशन भी हो गया । यद्यपि अयाम प्रेमी ममता ने उनको काफी अपनाया पर हिन्दी भाषातर के अभाव में उसका हिन्दी भाषी जनता में यथेष्ट प्रचार नहो. सका हमारी लोण से कुछ अजालहन गए भी प्राप्त हुई और उनके प्रकाशन का प्रयत्न मी. समय-समय पर किया जाता रहा है। श्रीमद् देवचन्द्र जी के आममसार का हिन्दी अनुवाद बहुत वर्ष पूर्व योगिराज श्री चिदानन्द जी महाराज ने किया था जिसे अमनालालजी कोठारी ने अभयदेवसूरि ग्रन्थमाला से प्रकाशित करवाया। यह प्रस्थ वस्तुतः कागजोंका सार ही है अतः इसका कुछाचिन के साथ हिन्दी रूपान्सर स्वर्गीय मानवमातर सूरिजी ने करके सैलाना से प्रकाशित करवाया । नयचक्रसार का हिन्दी रूपाकर फलोदी से प्रकाशित हुआ है। • अव्यात्म और भक्ति रस प्रधान श्रीमद् की रस्सामों में से स्नान पूजा और बीबीसी भादि का प्रचार सबसे अधिक राहा है। श्वेताम्बर समाज के प्रायः प्रत्येक मन्दिर में स्नात्र-पूजा प्रतिदिन बड़े ही भक्ति भाव से पढ़ाई जाती है इसका प्रथम हिन्दी अनुवाद श्री चन्दनमल सी नागोरी ने व दूसरा श्री उमलवचन्द्र जी अरगड़ ने किया। श्री जरगड़ जी ने चौबीसी का भी संक्षिप्त हिन्दी क्वेि. चन तैयार किया। ये तीनों हिन्दी अनुवाद श्रीजिनदत्तसूरि सेवासंघ, बम्बई से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशित हो चुके हैं । हमारी कई वर्षों से इच्छा थी कि आपकी अन्य महत्वपूर्ण रचनाएं भी हिन्दी अनुवाद सह प्रकाशित की जाय । इसलिये दो वर्ष पूर्व श्री नेमीचन्द्र जैन से बीकानेर में अष्ठप्रवचन माता, पंच भावमा व प्रभंजमा सज्झा का हिन्दी में भावार्थ लिखवाया गया जिनमें से अष्ट प्रवचन. माता का संज्झाय भावार्थसह अलग से प्रकाशित की जा रही है। प्रस्तुत ग्रन्थ में पंच भावना प्रभंजना, साधु भावना पद, साधु भावना सज्झाय अर्थ सहित व अन्य गजसुकुमाल व ढवण मुनि की सज्झाय व कतिपय पद-मज्झाय मूलरूप में प्रकाशित की जा रही है। पेच भावना की सम्झाय बहुत ही महत्वपूर्ण है, सुप्त चितना को जात करने में इसकी तीसरी बौथो ढाले ती इन्जेक्सन से भी अधिक काम करती हैं। इस सज्झाय में उल्लिखित तपस्वी एवं वैरागी मुनिजनों की जीवनियां भी आशा है पाठकों को बहुत ही प्रेरणादायक सिद्ध होंगो। साधु भावना पद और साधु भावना सम्झाय का बालावबोध भी योगिराज ज्ञानसारजी रचित्त उपलब्ध हुआ था। उसके आधार से संक्षिप्त भावार्थ श्री केशरीचन्द्र जी धूपिया ने.सय्यार कर दिया है । एतदर्थ हम उनके आभारी हैं। श्रीमद् की अन्य कई रचनाओं के हिन्दी अनुवाद भी तयार करवाये गये है जिनमें से शान्त-सुबारस का भंवरी बाई कृत अनुवाद मुद्रित हो रहा है। अध्यात्म गीता का हिन्दी भावार्थ श्री उमरावचन्दजी जरगड़ ने तम्पार किया है जिसे शीघ्र ही प्रकाशित किया जायेगा । आशा है हिन्दी भाषा जनखा हमारे - इस प्रयास को अपनाकर पूर्ण सहयोग देगी। अगरचन्द नाहा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच भावनादि सज्झाय-सार्थ ANANAMAN/AAAAMANANAMAMANANJANANAMAN 小公小公公公公公 小小公公公公 AVAMAMMAMAMAVAMAVAMAMAVIMANMINAMAVAN (नाम और गुणानुरूप मनोहर) मृत्युञ्जयी मनोहरलाल नाहटा जन्म सं० १९६२ निधन सं० २०१४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्युञ्जयी मनोहरलाल इस असार संसार में लाखों व्यक्ति प्रतिदिन जन्म लेते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं पर मानव जन्म उन्हीं का सार्थक है जो अपना कल्याण करने के साथसाथ दूसरों के लिए एक आदर्श उपस्थित कर जाते हैं। भाई मनोहरलाल नाहटा एक ऐसा ही प्रतिभासम्पन्न, सदाचारी और सर्व-प्रिय नवयुवक था जिसने अपने अल्प- जीवन में अपने आत्मीय जनों एवं मिलने-जुलने वालों के हृदय में अपने सद्व्यवहार से एक अमिट छाप छोड़ दी उसने "मरण समं नत्वि भयं" लोकोक्ति को मिथ्या प्रमाणित कर दिया। यमराज को भयानक गदा उसे क्लान्त न कर सकी और वह मृत्युञ्जयी बना । मानव-जन्म की सार्थकता है -सम्यग्दर्शन की प्राप्तिमें। भाई मनोहर ने जड़ चेतन की भिन्नता ज्ञातकर देह-ममत्व का परिहार किया और अपने सद्विचारों द्वारा सबको प्रभावित कर-अमृत-तत्व प्राप्त किया। इस तरुण ने सद्विचारशील, सौजन्यमूर्ति स्वर्गीय श्री तिलोकचन्द जी नाहटा के इकलौते पुत्र परलोकगत बालचन्द जी नाहटा के घर विक्रम सं १९६२ के भिती मिगज़र सुदी ५ को जन्म लिया । इसकी माता का नाम धापीबाई हैं । मनोहर अपने ४ वर्ष की ही आयु में पितृ-सुख से वंचित होकर भी अपने संस्कारी जीवन द्वारा सब का प्रेमभाजन हुआ और मेट्रिक तक शिक्षा प्राप्त की। इसकी छोटी बहन मोहिनी जो संसार से विरक्त होकर आत्मोन्नति के मार्ग में आरूढ होने को उत्सुक थी अतः उसकी मातुश्री ने पूज्या भार्यावर्य श्री विचक्षणश्रीजी जैसी विदुषी एवं आलाfoot साश्रेष्ठा के चरणों में समर्पित कर निवृत्तिपचानुगामिनी बनाया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोहर ने अपना अध्ययन पूरा करके व्यापार में प्रवेश किया और करीमगंज की दोही मुसाफिरी में व्यापम की सारी सूक्ष्मताओं में अभिज्ञता प्राप्त कर ली । वहाँ उसने अल्प समय में बगला भाषा का ज्ञान प्राप्त किया और उसमें धारा प्रवाह से बातचीत करने लगा । उसका विनय व्यवहार अद्भुत था। बड़ों के चरणों को प्रतिदिन स्पर्श करे उनकी आज्ञानुसार आचरण करना उसका स्वभाव सिद्ध अभ्यास था । सं० २०१३ के मिती वैशाख बंदी ४ के दिन श्री फागुणचन्दजी पारख की पुत्री किरणदेवी के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ और १ || वर्ष के पश्चात् अपनी पत्नी को सौभाग्य सुख से वंचित कर सं० २०१४ के मिती माघ वदी १० की रात्रि में कलकत्ता के नीलरतन सरकार - अस्पताल में वह स्वर्गगामी हुआ । केवल २२ वर्ष की आयु में इस भव्यात्माका जिस तरह से देहविलय हुआ उसका संक्षिप्त संस्मरण नीचे दिया जा रहा है। मृत्यु के कुछ महीने पूर्व बीकानेर में अभय जैन ग्रंथालय की पुस्तकों की एक पारसल छुड़ाने के लिए वह स्टेशन गया और वापिस लौटते समय रांचडी चौक में साईकिल पर सवार होते हुए भी वहां एक कुत्तों ने मनोहर के पैर में काटलिया । चौक में रहने वालों में किसी को पता नहीं था कि कुत्ता पागल है। इसलिए उचित मल्हम - दवाई लगाने पर थोड़े समय में उसका पैर अच्छा हो गया । कुछ दिन पश्चात् उसके करीमगंज जाने की आवश्यकता हुई और रवाने हो गया - बदी रविवार का दिन था । मैं प्रातः काल गद्दी में आकर बैठा का1 करीब ८ बजे सिलचर का टेलीफोन आया । उसमें इन्द्रचन्द्र बोथरा ने कहा, "कि मनोहर बीमार है - करीमगंज से फोन आया है कि कल रातसे पानी देखकर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमक उठता है । अत: यहां के डाक्टरों ने अविलम्ब उसे कलकत्ते भेजने की राय दी है । उसके मोटर द्वारा करीमगंज से आने पर सिलचर के डाक्टरों को दिखा कर हवाई अड्डे भेज रहा हूं। साथ में ब्रजरतन जी पारख रहेंगे। इसलिए आप अभो से पागल कुत्ते से कटे रोगी के चिकित्सक डाक्टर की खोज करें और चार बजे दमदम हवाई अड्डे पर उचित व्यवस्था करके तयार रहें।" यह संवाद पाकर मैं स्तब्ध रह गया क्योंकि इस रोग की असाध्यता मालम हो गयो । उसी समय मैंने अपने मित्र श्रीशांतिमलजो मेहता के साथ जा कर डा० सुराणा से परामर्श लिया। उन्होंने मेडिकल कालेज के टोपिकल होस्पिटल के डा. वीरेन्द्रकृष्ण वसु और डा० बनर्जी से मिलकर रोगी को देखने का समय निर्धारित कर लेने का परामर्श दिया। हम लोगों ने वहां जाकर उनकी खोज की। रविवार का दिन होने के कारण उन दोनों डाक्टरों में कोई भी उस समय उपस्थित नहीं था । अन्त में दफ्तर में डाक्टरों की एक सूची मिल गयी। जिससे उन डाक्टरों के घर का पता व टेलीफोन नम्बर मालूम किया और उनसे डा० सुराणा और उपरोक्त दोनों डाक्टरों से सम्पर्क स्थापित किया । ठीक चार बजे सिलचर का प्लेन दमदम हवाई अड्डे पर पहुंचा और श्री वृजरतनजी पारख के साथ उतरते हुए मनोहर को लेकर हम ने उसे मोटर में बिठाया। उसने वहां जल पीने की इच्छा व्यक्त की और हमने सन्तरा खाने को कहा पर मुंह के पास ले जाते ही चौंक उठा । हम सीधे डा० सुराणा के यहां पहुंचे । उसका पानी पीने का आग्रह था अतः दो बार जल मंगाया गया और ने ज्यों ही ग्लास सामने की वह भड़क कर बेकाबू हो जाता था। आधी घंटा प्रतीक्षा करने पर डाक्टर साहब आये और पंखा खोलने पर एवं पानी सामने आते ही चौंक उठने के लक्षण देखकर हमें भविष्य निराशाजनक बतलाया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधारणतया ७२ तथा हमें गद्दी में ले जाने को कह कर आध घण्टा के भीतर ही स्पेशलिस्ट डाक्टर को लेकर पहुंचने का कहा । हम उसे गद्दी में लाए । आते ही भगवान और गुरुदेव के चित्रों को नमस्कार कर सबको प्रणाम किया फिर मेरे गोडे पर मस्तक रखकर सोया । डाक्टर ने आते ही पंखा खोल, बत्ती जलाई तो वह चौंकने लगा। डाक्टर ने श्री कानमल जी सेठिया की गद्दी में जाकर मुझे बुलाया और कहा, " रोगी को हम किसी भी हालत में बचा नहीं सकते । घंटे से अधिक इस हाइड्रोफोबिया का डेवलप होने के बाद कोई रोगी बच नहीं सकता । विश्व के विज्ञान की इस रोग के आगे पराजय है । गवर्नमेंट इसकी 'औषधि निर्माण के लिये कोटि कोटि रुपये व्यय कर सकती है पर अभी तक तो यह विश्व में रिकार्ड है कि इस रोग का कोई इलाज नहीं । हम आपसे ६६ परसेन्ट १ पोइन्ट निराशा - जनक कह सकते हैं। हमने कहा होश- हवास बात-चीत आदि सब ठोक है फिर ऐसी क्या बात है ? उन्होंने कहा, "यह स्थिति तो अन्तिम स्वांस तक रहेगी। आप अविलम्ब अस्पताल में भरतो कर दीजिए ।" हम अपने प्रयत्न में न्यूनता नहीं रखेंगे पर इलाज़ वही होगा कि जब तक जिये सुख से जिये, शक्ति बनी रहे । ! टेलीफोन करके तुरन्त हो एम्बुलेंस गाड़ी मंगा ली गयी और शाम को ६ ॥ बजे नीलरतन सरकार अस्पताल में भर्ती करा दिया । पास में उपचारिका रख दी एवं हम लोग मन्त्रतंत्रादि के उपचारों की भी चेष्टा करने लगे । रात १२-१२॥ बजे तक घूमते फिरते एक होमियोपेथ डाक्टर ने हमें आशा बंधाई और दवा दी। हमने डाक्टरों से अनुमति मांगी, उन्होंने उस समय तो ना कहा पर दूसरे दिन हमारे आग्रह पर उन्होंने उपचार करने को सहर्ष स्वीकृति दे दी । हमने नियमानुसार होमियोपेथिक दवाई दी पर कोई विशेष लाभ न हुआ । 'सारे डाक्टर इन तरुण रोगी में दिलचस्पी लेते थे । लेडी 6 डाक्टर और नर्सों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आखों में आंसू लाकर परमात्मा से मनोहर के अच्छे हो जाने को प्रार्थना करतो यो । मंगलवार की रात को ६ बजे उसने थोड़ा दूध लिया, दो एक कमला निम्बू की फांक भी खाई एवं थोड़ा पानी भी पिया। ७२ घंटे व्यतीत हो जाने से हमें आशा की किरण दिखाई दी। पर आयुष्य कर्म के अनुसार टूटी हुई डोर फिर संध न सकी और उस आत्मा ने आयु की अवधि पूर्ण होते ही उस विनश्कर देह का त्याग कर दिया। ___ मनोहर जब तक जीवित रहा-असाधारण शान्ति और समता के साथ उसने अनन्त वेदना सही। उसके शब्दों में कभी भी दैन्य भाव नहीं आया और मोह ममता को त्याग कर केवल आत्मानन्द में लीन रहा । शारीरिक अवशता से कभी कोई ऐसी चेष्टा हो जाती तो वह तुरन्त कहता “भाई जी मेरी अज्ञानता वश हो कोई अनर्गल बात निकल जाय तो पता नहीं किन्तु मेरे मन में पूर्ण शान्ति है । यह शरीर नाशवान है । आत्मा अजर अमर अविनाशी है तो इस शरीर के लिए क्यों चिन्ता की जाय । जब मैं बीकानेर में किताबों की पार्सल लेकर रांघडी चौक में आया तो एक कुत्ते ने मुझे काट खाया। डा. हर्ष ने कहा कि यदि पागल कुत्ता नहीं था तो हाइड्रोफोविया के कोर्स की आवश्यकता नहीं। दो एक पेनीसिलिन के इंजेक्सनों से घाव सूख गया और मैं निश्चिन्त हो गया, यदि उस समय उचित कोर्स पूरा कर लिया जाता तो यह दशा आज क्यों होती ! पर यह. सब विकल्पमात्र हैं। मैं इसके लिए किसी को दोषी नहीं ठहराता। मेरे बन्धे हुए कर्म मुझे ही भोगने पड़ेंगे" । मेरे द्वारा समभाव की अनुमोदना करने पर, मनोहर ने कहा "ज्ञानो वेदे धैर्य थी, अज्ञानी वेदे रोय" उसने कहा 'भाई जी, मेरी मां को बुलवा दीजिये। मेरे मन में दो ही इच्छाएँ हैं एक तो मां के चरणो में मस्तक टेक कर उसका मुंह देख सकू, दूसरी-गुरुदेव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबाजी श्री सहजानन्दजी के दर्शन करने की बड़ी तीव्र इच्छा है मैंने कहा भाई ! तुम्हारी मां को लेकर आने के लिए पूज्य श्री काकाजी को तार और फोन द्वारा कहा जा चुका है और वे कल पहुंच जावेगें । मनोहर ने कहा भाईजी ! मेरी मां को कैसे लावगे । वह तो रेल में भी घबराती है प्लेन में तो आ नहीं सकेगी। यदि किसी भी तरह एक वार उसके दर्शन हो जाते तो अच्छा होता " मैं उसे आश्वासन देता रहा पर भावी प्रबल है, जब उसकी माता और उसकी पत्री पहुंची तब तक उसकी नाशवान देह, भस्म के रूप में परिणत हो कर पतितपावनी गंगा के अजस्र प्रवाह में विलीन हो चुकी थी 1 उसकी दूसरी प्रबल इच्छा गुरुदेव के दर्शनों की थी। उसने कहा भाई जी ! मुझे गुरुदेव के दर्शन कराइये। मैं ने गुरुदेव का एक चित्र मनोहर को अस्पताल में दिया । उसने अनन्य भक्ति पूर्व के मस्तक के लगाया और मुझे गुरुदेव का प्रत्यक्ष दर्शन कराने के लिए आग्रह किया । मैंने कहां भाई तुम एक काम करना । तुम्हें आज रात को गुरुदेव के दर्शन अवश्य होगें । उसने कहा कि मुझे मार्ग बताइये । मैने कहा " अपने शरीर की सारी वेदना भूलकर - श्वासोच्छवास के साथ गुरूदेव का स्मरण करना और आत्मा के अविनाशीपत का सतत् ध्यान रखना । पूर्ण व्याकुलता के साथ गुरुदेव का स्मरण करने से, वे तुम्हें अवश्य दर्शन देंगे एवं उस समय यदि तुम अपने अध्यवसायों को एकाग्र रख सके तो तुम्हें उनकी वाणी भी सुनाई देगी। उसने मेरे कथन को स्वीकार किया एवं मुझे कहाकि मैं आपक कथनानुसार ऐसा ही करूंगा । आप मेरी ओर से प्रभु शान्तिनाथ भगवान चरण भेट एवं स्नात्रपूजा करादें । मैने जब दूसरे दिन प्रभुचरण भेटने की बात कही तो उसने अनुमोदन करते हुए कहा कि कल फिर मेरे नाम से पूजा करें, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवस्था में जाने की कोई जीवन में किसी का बुरा कभी हाथ खराब किया । भाई जी ! मेरे मन में ऐसे भाव आते हैं कि मुझे भवभव में जैन धर्म मिले, प्रभुकी पूजा - भक्ति करूं। मुझे आप लोगों जैसे बाबा, भाई आदि मिले हैं, मैं अपने को धन्य मानता हूं। मुझे २२ वर्ष को तरुण चिन्ता नहीं है । मुझे इतना सन्तोष है कि मैंने अपने नहीं किया । अपनी नजर खराब नहीं की और न भाईजो ! मैने तो कोई पाप नहीं किया फिर यह दशा क्यों ? मैने कहा भाई ! सात कर्मों की प्रकृतियों का बन्ध तो सदैव होता ही रहता है पर आयुष्य-कर्म तो एक भव में एक ही वार भावी भव का बन्ध करता है अतः पूर्व जन्म के बंधे हुए युष्य बंध को न्यूनाधिक करने में तीर्थंकर चक्रवर्ती भी असमर्थ है तो फिर दूसरों की बात ही क्या ? यह शरीर तो नाशवाने है । एक जाने से फिर दूसरा वस्त्र पहनते हैं, इसी प्रकार यह चोला छोडकर नयी देह धारण करनी होती है । इस विनाशी देह पर मोहन करके - आत्मभावना में लीन रहने से ही मृत्यु पर विजय प्राप्त की जासकता है । मनोहर ने कहा- आपका कथन यथार्थ है, मुझे मृत्यु से लेशमात्र भी भय नहीं। मैं अजर अमर अविनाशी हूँ, आप लोग कोई भी मेरे लिए चिन्ता न करें । देखिये ! मेरे सुसराजी सामने खड़े हैं, उनकी आंखों में आंसू न आने पावे । वस्त्र जीर्ण हो - फिर मनोहर से कहा : " सुसराजी ! मैंने आयु थोड़ी पाई। आपकी पुत्रो से. १९ ॥ वर्ष का हो संबंध था । इस अवधि में मैंने जो कुछ अनुचित व्यवहार किया हो उसके लिए मन, वचन, काया से क्षमा प्रार्थी हूं।" भाईजो ! मेरी माँ को किसी प्रकार का कष्ट न हो । आप लोग इस बात का ख्याल रखें और संसार को प्रत्यक्ष अनित्यता देख कर यदि उसका दीक्षा का परिणाम हो जाय तो आप लोग उसे अवश्य ही संयम मार्ग की पथिक बनादें । मेरी स्त्री चाहे पिता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहां रहे, चाहे दोक्षा ले अथवा मेरी मां के पास रहे, वह स्वतंत्र है । पर मेरो माँ दीक्षा ले तो मुझे संतोष होगा। मेरी बहन चन्द्रप्रभाश्री जी को चतुर्मास के हेतु बीकानेर अवश्य बुलावें। दूसरे दिन जब मैं अस्पताल गया तो वह “खामेमि सव्वे जीवा" तथा "खामिय खमाविय व चौदह जीव निकाय" आदि गाथायें बोल रहा था। मुझे देखते ही कहा, "भाई जी मेरे लिए आपही गुरुदेव हैं । जिन्होने मुझे गुरुदेव का दर्शन करा दिया। आज मुझे रात में गुरुदेव के दर्शन हो गये। मैं धन्य हो गया । अब मुझे प्रत्यक्ष दर्शन कराइए ! मैंने कहा:- तुम्हारे ठीक होते ही तुम्हें गुरुदेव के दर्शन कराने के लिए क्षत्रियकुण्ड ले चलूगा । उसने कहा यह तो दुराशा मात्र है। क्योंकि डाक्टर लोग अंग्रेजी व बंगला में बातें करते हैं, वह अविदित नहीं है । मैंने कहा भाई यदि बच गये तो गुरुदेव के दर्शन अविलम्ब करोगे अन्यथा भवान्तर में अवश्य दर्शन होंगे। उसने बंगला में निश्चयपूर्वक कहा--"निश्चयई आमि क्षत्रियकुण्ड जाबो एवं गुरुदेवेर चरण सेवाय थाकबो । मैंने कहा भाई ! तुम इस प्रकार के उत्तम मन के परिणाम को रखते हो, अतः तुम धन्य हो । ज्ञान ध्यान की बातें बना लेना सहज है पर समय पड़ने पर असमाधि को त्याग कर आत्म-स्थिरता में, समभाव में स्थिर रहने में कोई विरला ही समर्थ हो सकता है । तुमने तो वही स्थिति प्राप्त की है जो अत्यन्त दुर्लभ है। "आज रात में तुम फिर एकाग्र ध्यान से गुरुदेव को स्मरण करना, तुम्हें गुरुदेव के प्रत्यक्ष दर्श नहोंगे और वाणी भो सुन पाओगे । उसने मेरी बात स्वीकार की आगे अपने को समभाव में लीन रखकर वेदना को सहन करने लगा। इस रोग के रोगी दौड़ना, भागना, दूसरों को काट खाना आदि पागलपन विशेष करने लग जाते हैं, पर मनोहर न अपना विवेक इतना जागृत रखा कि डाक्टरों ने जो उसके हाथ लग में बाँध रखे थे, खोल दिये। नर्स जब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमपूर्वक उसके सिरहाने खड़ी हुई मस्तक सहला रही थी तो उसने कहा"नर्स तोमार हाथ तो आमार माएर हाथेर मोतोन अत्यन्त प्रिय लागे।" उसने सब लोगों को याद करके क्षमतक्षामना की। जब कोई उसके पास जाता तो वह उसके साथ धर्म की ही बातें करता। मंगलवार की रात में करीब११बजकर २० मिनट पर नर्स से कहा- 'नर्स ! आमार दादा के डेके दाओ, आमाके नवकार मंत्र दिवे ।" इतना कहने के कुछ ही क्षण बाद उसकी आत्मा स्वर्ग को ओर चली गई । हम लोगों ने प्रात:काल दुःखी हृदय से उसकी अन्त्येष्टि क्रिया की । दूसरे दिन उसकी माँ और काकाजी शुभराजजी कलकत्ता पहुंचे, पर उन्हें उसका मुख देखना नहीं बदा था, उसकी माँ अस्पताल जाने के लिए आग्रह करने लगी, पुत्र का मुख देखने के लिए हठ करने लनी । मैंने जब उसको अन्तिम भावना और पण्डित-मरण की बातें बतलाई तो उनका चित्त कुछ ठिकाने आया । दो दिन बाद जब काकाजो अगरचन्दजी का पत्र आया और उनमें उल्लिखित श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज की अमरवाणी पढ सुनाई तब मनोहर को माँ का चित्त स्थिर हुआ। "परिजन मरतो देखिने, शोक करे मन मूढ़ ! अवसर वारो आपणो, सहु जन नी ए रूढ़" (पंच भावना सज्झाय) मैंने पूज्य गुरुदेव श्रीसहजानन्दजी को एवं श्रीविचक्षणश्रीजी महाराज को उसके समाधि-मरण के दु:खद समाचार लिखे। श्रीगुरुदेव ने प्रत्युत्तर में लिखा:-मनोहर नी उत्तम भावना हतो तेथी उत्तम गति थई छ, फिकर कर्या जेवूनथी" । तमारो सद्भावनाए काम कयु छै । आवी मददज कामनो छे, बाको तो जीव अनादिनां फुटारामा फटकातो आवे जाय छ, तेमांथी जेओ समाधि-मरण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग्य थई देह त्यागे ते जीव धन्य छे" ॐ शान्ति" ___ क्षत्रियकुंड से श्री सुखलाल भाई का कार्ड (मिती माघ सुदी ४) आया जिसमें उन्होंने लिखा था:- "आपने भाई मनोहरलालजी के बारे में लिखा सो जान कर ऐसा मालूम होता है कि उनको भावना उत्तम थी। उसका प्रत्यक्ष साक्षात् पूज्यश्री को मालूम हुआ। वे पत्र पढ़ते थे। उसीसमय एक बिजली का पलकारा जैसा हुआ और गुरुदेव ने पास में बैठे हुए हम लोगों से कहा देखो एक रोशनी का पलकरा हुआ। जब हम लोगों ने ऐसा ख्याल किया कि वह आत्मा देवयोनि से यहां आकर पूज्यश्री के दर्शन करके चली गई। पूज्यश्रीने कहा कि भावना सुन्दर थी। . जब मनोहर का दुखद समाचार अजमेर स्थित श्रीचन्द्रप्रभाश्रीजी को मिले तो वे इस विकल्प में चिन्तित थे कि न मालम उसके मृत्यु के समय कैसे परिणाम रहे होंगे ! पर जब मेरा पत्र मिला तो उन्हें भी मनोहर के समाधि-मरण से सन्तोष हुआ । मितो माघ सुदी ३ के पत्र में श्रीचन्द्रप्रभाश्रीजी ने लिखा: _ “मनोहरलालजी के समाचार जब से सुने थे, तब से हृदय में गहरी चोट लगी थी पर आपके पत्र ने मरहम-पट्टी का काम किया । युवावस्था के अन्दर इस प्रकार की उत्तम भावनाओं का होना धन्यवाद के योग्य है। आश्चर्य होता है कि उन्होंने एकदम ही जड़ और चेतन का भान किस तरह पाया। आपर्क पत्र के पूर्व येही विचार मस्तिष्क में घूमते रहे कि न मालूम किस प्रकार से देह छूटी होगी? क्या परिणाम रहे होंगे? बस इसी चीज का दुख होता था । पर आपके पत्र ने सब विचारों को दबा कर आत्मा को भी सन्तोष दिया। मरने के दुख से ज्यादा सुख, उनके ऐसे उच्च परिणामों से हुआ ।" दूसरे रविवार को रात्रि ७॥ बजे जैन भवन के स्वाध्याय सभा में उसके समाधि-मरण और आत्म परिणामों के गुणानुवाद करने के पश्चात कुछ समय मौन रह कर स्वर्गीय आत्मा की शांतिकामना की गई। भंवरलाल नाहटा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ भावना भवनाशिनी ॥ अध्यात्मरसिक श्री देवचन्द्रजी कृत साधु की पांच भावनायें दोहा स्वस्ति सीमंधर पाम, धर्मध्यान सुख ठाम । स्यादवाद परिणामधर, प्रणमूच तन-राम ॥१॥ भावार्थ-किसी भी शुभकार्य के प्रारम्भ में मंगलाचरण करना आवश्यक है। मंगल दो प्रकार के माने जाते हैं,-द्रव्य और भाव । द्रव्य-मंगल की लौकिक-कार्यों में प्रधानता रहती है, तथा लोकोत्तर कामों में भाव-मंगल काम में लिया जाता है। सारे भाव मंगलों में प्रथम मंगल-अरिहंत है, +अत: ग्रन्थकर्ता इस विधि का पालन कर रहे हैं। धर्मध्यान रूपी सुख के स्थान, स्याद्वाद के परिणामों को धारनेवाले, आत्म स्वरूप में रमण करने वाले, महा विदेह क्षेत्र में विचरने वाले कल्याणकारी श्री सीमंधर स्वामी को प्रणाम करता हूँ। अरिहंतव सिद्धस्वरूपी चेतन्य आत्मा को भी प्रकारान्तर से नमस्कार है ।१।। महावीर जिनवर नमी, भद्रबाहु सूरीश । वंदी श्री जिनभद्र गणी, श्री क्षेमेन्द्र मुनीश ॥२॥ +मंगलाणं च सम्बेसि पढमं हवइ मंगलं। (नमस्कार सूत्र ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु की पांच भावनायें भावार्थ-अभी भरतक्षेत्र में अंतिम तीर्थङ्कर श्री महावीर स्वामी का शासन पल रहा है, अत: श्री वीरप्रभु को नमस्कार करता हूँ। तदनन्तर श्री तीर्थङ्कर देवों प्रतिनिधि "अजिणा- जिण संकासा" कहे जाने वाले आचार्यों को नमस्कार करना उचित ही है ।दोहे के दूसरे चरण में श्री भद्रबाहु स्वामी को, तीसरे पाद में श्री जिनभद्र-गणो (क्षमाश्रमण ) को तथा चोथे चरण में श्रीक्षेमेन्द्रसूरि को मस्कार किया है ॥२॥ प्रस्तुत पांच भावना के वर्णन का आधार वृहत् कल्प सूत्र है उसके रचयिता भद्रबाहु स्वामी है और टोकाकार क्षेमेन्द्रसूरि हैं अतः उनको प्रारम्भ में नमस्कार किया गया है। सद्गुरु शासन-देव नमी, बृहत्कल्प अनुसार । शुद्ध भावना साधुनी, भाविश पंच प्रकार ॥३॥ भावार्थ उपयुक्त नाम निर्देश करने के बाद ग्रन्यकर्ता सोचते है, कि अब नाम की बजाय ऐसा शब्द लिखा जाय, ताकि सारे योग्य व्यक्तियों को नमन हो सके, इसलिए सद्गुरु-देव ( स=सच्चे गुरु-गौरवशाली ) को नमस्कार किया है चोवीस तीर्थङ्करों के चौवीस शासन देव होते हैं, अत: जैन शासन को रक्षा में सचेष्ट रहने वाले शासनदेवों को नमस्कार किया है । देव-गुरु-तथा शासनदेव को नमस्कार करके कवि कहते हैं, कि मैं :श्री वृहत्कल्पसूत्र के अनुसार साधु की “पांच प्रशस्त भावनाओं का वर्णन करूंगा-भादूंगा ॥३॥ इन्द्री-योग-कषाय ने, जीपे मुनि निःशंक । इण जीते कुध्यान जय, जाये चित्त तरंग ॥४॥ भावार्थ-निर्भयता के साथ मुनि अपने आंतरिक रितुओं को जीते। पांच इन्द्रियाँ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु की पांच भावनायें पार कषाय, तीन योग रूप इन बारह (कर्म बंध के स्वरूप शत्र ओं को जीतने से अपध्यान पर विजय पाता है और चित्त की तरंगें ( विकल्प ) शान्त व शमित होती है ॥४॥ प्रथम भावना श्रुत तणी, बीजी तप तिय सत्त्व । तुरिय एकता भावना, पंचम भाव सुतत्व ॥शा भावार्थ-पांच भावनाओं के नाम ये हैं १ श्रुत भावना २ तपभावना । सत्त्व भावना-४ एकत्त्व-भावना और ५ तत्त्व भावना ॥५॥ श्रत-भावना मन थिर करे, टाले भवनो खेद । तप भावना काया दमे, वामे वेद उमेद ॥६॥ भावार्थ-कोनसो भावना से कौनसा लाभ होता है ! यह इस पद्य में कहा गया है । पहली श्रुत-भावना से मुनि अपने मन को स्थिर करे तथा संसार से उत्पन्न खेद को टाले । दूसरो तप भावना द्वारा बाह्य-दृष्टि से काया का दमन करे । और आंतरिक भावों से वेद (स्त्री-पु-नपुंसक ) की उमेद को घोड़े (अर्थात् वेदोदय को उपशमावे ) ॥६॥ . सच भावना निर्भय दशा, निज लघुता इकभाव ॥ तत्व भावना आत्म गुण, सिद्ध साधना दाव॥७॥ भावार्थ-तीसरी सत्त्व-भावना से निर्भय-दशा को प्राप्त करे । चोथी एकत्व भावना से अपनी लघुता ( कों वपापों का हल्कापन ) को पावे तथा पाँचवीं भावना तत्त्व से आत्म गुणों की साधना द्वारा सिद्ध बनने का दाव लगावे ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल-पहली श्रुत भावना की लोक स्वरूप विचारो आतम हित भणीरे---ए देशी श्रत अभ्यास करो मुनिवर सदा रे, अतिचार सहु टोलि हीण अधिक अक्षर मत उच्चरो रे, शब्द अरथ संभालि।श्रतक्ष ___ भावार्थ-ये भावनायें मुनियोंके लिए बतलाई गई हैं इससे कोई यह न समझे, कि श्रावकोंके लिए इनका क्या उपयोग है ? परन्तु यह एक ऐसी वस्तु है, कि सदा बोर सभी के लिए उपयोगी थी, है, और रहेगी । भावनाओं के प्रधान अधिकारी मुनि होते है अतः मुनियों को सम्बोधित करके कहा गया है कि हे मुनिवर ! सदा ज्ञान का अभ्यास करो। यहां पर 'सदा' शब्द हमें सूचित करता है, कि निरस्तर का श्रुताभ्यास जड से भी जड व्यक्ति को श्रुतधारी ( ज्ञाता ) बना सकता है। कहा भी है; कि “हमेशा एक श्लोक याद करो, एक न कर सको तो आधा करो, आधा न कर सको तो चौथाई करो और वह भी न कर सको तो चतुर्थांश का अष्टमांश अर्थात् एक अक्षर तो अवश्य याद करो।" ज्ञानाभ्यास करते समय यह भी आवश्यक है, कि ज्ञान के सारे अतिचार दोष) टाले जायें। जो पाठ जिस रूप में है, उससे हीन (कम) अक्षर तथा अधिक मक्षर बोलना आदि चौदह अतिचार ( दोष ) हैं। फिर जो पाठ बोला जाय, उसका शब्द (व्याकरण ) और अर्थ भी संभालो (ध्यान में लो)। क्योंकि तोते वाली रटना कल्याणकारिणी नहीं हो सकती ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत भावना सूक्ष्म अर्थ अगोचर दृष्टि थी रे, रूपी रूप विहीन । जेह अतीत अनागत वर्तता रे, जाणे ज्ञानी लीन । २ श्रु० | भावार्थ = अतीत, अनागत ( भविष्य ) और वर्तमान काल के जो रूपी ( मूत) और अरूपी ( अमूर्त ) सूक्ष्म-अर्थ ( रहस्य ) हैं, ज्ञानी पुरुष उन्हें अपनी अतीन्द्रिय (आत्म) दृष्टि ( ज्ञान चक्षु ) से जानता है ॥२॥ नित्य अनित्य एक अनेकता रे, सदसद् भाव स्वरूप । छः ए भाव एक द्रव्य परिणम्या रे, एक समय मां अनृप । ३ श्रु ५० भावार्थ -- यह त्रिकाल सत्य है, कि एक ही समय (सूक्ष्म से सूक्ष्म - काल) में, एक ही पदार्थ में निज निज स्वरूप से छहों भाव परिणमते हैं । वे छः भाव ये है -१ नित्यता, अनित्यता, ३ – एकता, ४4. - अनेकता, ५--सत् ओर ६० असत् । श्रुत ज्ञान द्वारा द्रव्यों के इन ६ भावों को विचारे ॥ ३ ॥ उत्सर्ग अपवाद पदे करी रे, जाणे सहु श्रुत चाल । वचन विरोध निवारे युक्ति थी रे, थापे दूषण टाल । ४ श्रु ०। भावार्थ... श्रुत की सारी चाल ( गति ) को उत्सर्ग ( निश्चय ) और अपवाद ( व्यवहार मार्ग ) से जाने, कि कौन-सा वचन उत्सगं का है, और कौनसा कथन व्यवहार आश्रयी है । आगम-वचनों में भी यदि कहीं-कहीं वचन - विरोध दृष्टिगत हो, तो उसे युक्तियों द्वारा हटाकर निर्दोष वचन की स्थापना करे ॥ ४॥ द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक घरे रे, नय-गम-भंग अनेक | नय सामान्य विशेष बेहुँ ग्रहे रे, लोकालोक विवेक । ५ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच भावना सज्झाय भावार्थ- किसी शास्त्रीय पद की स्थापना करते समय द्रव्यार्थिक नय ( द्रव्यके गुणोंकी अपेक्षादृष्टि) और पर्यायार्थिक नय ( पर्याय अवस्था की अपेक्षा दृष्टि ) को ध्यान में रखे । नय - गम और भङ्ग अनेक अर्थात् अनन्त हैं, उनका यथासाध्य लक्ष्य रखें पर उनका पार नहीं । अतः कम-से-कम सामान्य और विशेष इन दोनों नयों को लेकर लोका- लोक का विवेचन करे ॥ ५ ॥ नन्दि सूत्रे उपगारी कह्यो रे, वलि अशुच्चा द्रव्य श्रुत ने वांद्यो गणधरे रे, भगवई अंगे भावार्थ पांच ज्ञानों में से उपगार करनेवाला एक श्रुतज्ञान ही है । बाकी के चार ज्ञान तो स्थापना मात्र हैं, ऐसा श्री नन्दीसूत्र में कहा है । तथा श्री भगवती सूत्र के शतक १ उद्देश ३१ में “ असोच्चा केवली" के अधिकार में भी इसका प्रमाण है । इसी सूत्र के प्रारम्भ में स्वयं श्री गणधरदेव के द्रव्य श्रुत को नमस्कार करने का पाठ भी है... " नमो सुयदेवयाए" । अतः श्रुताभ्यास का महत्व स्वतः सिद्ध है ॥ ६ ॥ श्रत अभ्यासे जिनपद पामिये रे, छह अंगे साख । श्रुत नाणी केवलनाणी समोरे, पन्नवणिजे भाख । ७ श्रुत। भावार्थ... श्री ज्ञाता सूत्र के अन्दर तीर्थङ्कर पद प्राप्ति के वीइ स्थानों का वर्णन है । उनमें श्रुत अभ्यास से भी तीर्थङ्कर गोत्र कर्म का बन्ध होना बतलाया है । श्री पन्नवणा सूत्र में तो श्रुतज्ञानी को केवलज्ञानी के समान कहा है । केवलज्ञान से जाने हुए पदार्थों की प्ररूपणा तो श्रुतज्ञान के आधार से ही नहीं है । तथा होती है । केवलज्ञानी और श्रुतज्ञानी की प्ररूपणा में कोई अन्तर जो पदार्थ श्रुतज्ञान के अविषय हैं, उनकी प्ररूपणा न तो किसी केवलज्ञानी ने की है, न कोई कर सकता है ॥ ७ ॥ Jain Educationa International ठाम । नाम । ६ श्रुत । For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत भावना श्रतधारी आराधक सर्व ते रे, जाणे अर्थ स्वभाव । निज आतम परमातम सम ग्रहे रे, ध्यावे ते नय दाव । ८श्रुत । भावार्थ...श्रतधारी को सर्व आराधक कहा है, तथा श्रुतविहीन चारित्री को देश ( अंश)...आराधक। क्योंकि ज्ञानी पदार्थो के स्वभाव को पिछानता है, तथा संग्रह नय की दृष्टि से अपनी आत्मा को परमात्मा के समान समझता हुआ ध्यान करता है। ॥ ८ ॥ संयम दरशन ते ज्ञाने बधे रे, ध्याने शिव साधंत ! भव स्वरूप चउगति नो लखे रे, तेणे संसार तजंत । ६ श्रुत । भावार्थ... दर्शन और चारित्र की मूलभित्ति ज्ञान है। कहा भी है--- 'नाणेण विना न हुंति चरण गुणा', अर्थात ज्ञान के बिना चारित्र गुण नहीं होता । ज्ञान से ही दर्शन और चारित्र की शुद्धि तथा वृद्धि होती है । ज्ञानी पुरुष ध्यान द्वारा मोक्ष को साधना करता है । ज्ञान से ही चारों गतियों का स्वरूप जाना जाता है । जानने के पश्चात् संसार का त्याग करने का काम भी ज्ञानी पुरुषों का है, "ज्ञानस्यफलं विरतिः ॥ ६ ॥ इन्द्रिय सुख चंचल जाणी तजे रे,नव-नव अर्थ तरंग। जिम-जिम पामे तिम मन उल्लसे रे, वसे न चित्तअनंग।१०श्रुत । भावार्थ...श्रुताभ्यासी मुनि इन्द्रिय-सुखों को चञ्चल जान कर छोड़ता है। तथा ज्यों-ज्यों शास्त्रों के नये-नये अर्थों की लहरियों को प्राप्त होता है, त्यों त्यों उसका मन उल्लास से भर जाता है। ऐसे मुनि के मन में अनङ्ग ( काम वासना) नहीं बस सकता । वह तो शास्त्राभ्यास व चिंतन में ही लीन रहता है ।१. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच भावना सज्झाय काल असंख्याता ना भव लखे रे, उपदेशक पण तेह । परभव साथी आलंबन खरो रे, चरण विना शिव गेह ।११श्रुता ___भावार्थ...ज्ञानी पुरुष असख्यात-काल के पिछले जन्मों को देख सकता है । श्रुत के आधार पर उन्हें बतला भी देता है । अत: परभव में जाते समय खरा साथी श्रुतज्ञान है । सभी को श्रुत का ही सहारा है । श्रुत का बल हो, तो द्रव्य चारित्र के बिना भी मोक्ष पाया जा सकता है । यहां यह ध्यान रहे कि भावचारित्र के बिना तो किसी को भी मुक्ति नहीं हुआ करती। ॥ ११ ॥ पंचमकाले श्रु तबल पण घट्यो रे, तो पण ए आधार । 'देवचन्द्र' जिनमत नो तव ए रे,श्रुत सूधरज्यो प्यार१२ श्रुत भावार्थ...यद्यपि पञ्चमकाल ( कलियुग ) में श्रुत की शक्ति बड़ी क्षीण हो गयी है। फिर भी मुमुक्षुओं को आधार तो श्रुत ज्ञान का ही है। जिनेश्वरदेवके मार्गका यही सार है कि, ज्ञानसे प्यार धरना अर्थात ज्ञान पाने की रुचि रखना। श्री देवचन्द्रजी महाराज यों कहते हुए पहली श्रुत-भावना को सम्पूर्ण करते हैं १२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल ? तप भावना की अनुमति दीधो माए रोवती... ए देशी... १ रयणावली २ कनकावली, ३ मुत्तावली ४ गुणरयण ५वज्जमध्य ने ६जवमध्य ए,तप करि ने होजीपोरिपु मयण ।। भवियण तप गुण आदरो, तप तेजे रे छीजे सहु कर विषय विकार सहु टले,मन गंजे रे भंजे भव भर्म । भवि० २। भावार्थ...श्रुत भावना के पश्चात् तप भावना का स्थान है। क्योंकि शानी पुरुषों को भी पुरातन कर्मो को तोड़ने के लिए तप का सहारा लेना पड़ता है । हे भव्यजनो ! तपस्या के गुण अपनाओ ! इस तपके तेज से सारे कर्म छीज बाते हैं और विषय विकार टल जाते हैं । मन वश में आ जाता है। जन्म-मरण का भ्रम दूर हट जाता है । आगमों में तप करने की अनेक विधियाँ बतलायी हुई है, उनमें से रलावली, कनकावली, मुक्तावली, गुणरल सम्वत्सर, वज्रमध्य,जवमध्य, जैसी कठिन तपस्याओं से अन्तरङ्ग शत्रु मदन ( काम वासना ) को अवश्य जीतो। शरीर एवं इन्द्रियों की कमजोरी से वासना भी निर्बल बन जाती हैं। १-२ । जोगे जय इन्द्रिय जय तदा, तप जाणो हो कर्म सूडण सार । उवहाणे योग वहा करी, शिव साधेरे सूधा अणगार । ३भ० । . भावार्थ...तपस्या से योगों ( मन-वचन-काया ) तथा इन्द्रियों पर विजय पायी जाती है, इसलिए कर्मों को तोड़ने में तप सारभूत है । उपधान तथा योगोदबहन करके सरल व शुद्धाचारी मुनि मोक्ष को साधे...! ३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच भावना सज्झाय जिम-जिम प्रतिज्ञा दृढ थको, वैरागीयो तपसी मुनिराय। तिम-तिम अशुभ-दल छीजवे, रवितेज रे मशीतविलाय.४ाम. ___ भावार्थ...तपस्या भी वैराग्य एवं दृढ़ मनोबल के बिना नहीं हो सकती; देहासक्ति का त्याग तो तप के लिये अत्यावश्यक है । इसलिये कहा गया है कि पैरागी और तपस्वी मु नि ज्यों-ज्यों अपनी की हुई ( व्रत व तप की) प्रतिज्ञा पर दृढ़ होते जाते हैं, कष्ट उठा कर भी दृढ़ निश्चय पर डटे रहते हैं; त्यों-त्यों अशुभ कर्मों का समूह छीजता जाता है। जैसे कि शरदियों में ज्यों-ज्यों सूर्य का प्रकाश फैलता है त्यों-त्यों शीत का विनाश होता जाता है । ४ ॥ जे भिक्ष पडिमा आदरे, आसन अकंप सुधीर । अतिलीन समता भाव मां, तृण परे हो जाणंत शरीर शाम भावार्थ...जो मुनि भिक्षु-पडिमा ( साधु के लिए बारह प्रकार की विशेष प्रतिज्ञाएं ) आदरता है, वह धैर्यवान मुनि अपने आसन को अकम्प ( अचल ) रखता है अर्थात उपसर्ग आने पर भी डोलता नहीं । तथा समता में इतना लीन हो जाता है कि अपने शरीर को भी तृण तुल्य समझता है अर्थात शरीर की भी परवाह या सार सम्भाल नहीं करता ॥ ५॥ जिण साहु तप तलवार थी, सूडयो छै हो अरि मोह गयंद तिण साधु नो हूँदास छ, नित्य वंदु रेतसपय अरविन्द।६।भ. ___ भावार्थ-जिस साधु ने तप रूपी तलवार लेकर शत्रु के समान मोहरूपी हाथी को मार डाला है,उस साधु का मैं दास हूँ। और उसके चरणकमों को नित्य वंदना करता हूं-६ टिप्पणी...१ से ६ तप का विवरण परिशिष्ट में देखो। - Rom Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप भावना आचार सूयगडांग मां, तिम कहयो हो भगवई अंग। उत्तराध्ययन गुणतीशमें, तर संगे हो सहु कर्म नो भंग भि. भावार्थ-आचोरांग, सूयगडांग, भगवती, तथा उत्तराध्ययनसूत्र के उनतीसबै अध्ययन में कहा है कि, तपस्या से सारे कर्मों का नाश हो जाता है ॥७॥ ते दुविध दुक्कर तप तपे, भव पास आश विरत्त । धन्यसाधमुनि ढढण समा,२ऋषिखंधकहोतीलग कुरूदत्ताभ. ___ भावार्थ-वे मुनि बाह्य आम्यंतर इन दोनों प्रकार का दुष्कर कठोर तप करते हैं और सांसारिक बंधन स्वरूप किसी वस्तु के प्रति अभिलाषा नहीं रखते, सांसारिक आशाओं से विरक्त रहते हैं ऐसे निष्काम भावों से तपस्या करने वाले १ ढंढण २खंधक, ३तीलग, तथा ४कुरुदत्त जैसे मुनियों को धन्य है ॥८॥ निज आतम कंचन भणी, तप अग्नि करी शोधंत । नव नवी लब्धि-बल छतै, उपसर्ग हो ते सहंत महंत हाम० __ भावार्थ अपनी आत्मा रूपी सोने को तपस्या रूपी आग द्वारा तपाकर कर्मोंका मैल निकाल डाले, ऐसे उन्नतपस्वियों को नई नई लन्धियाँ और सिद्धियां प्राप्त हो जाती है किंतु सिद्धियों के होते हुए भी उनका योग वे.स्व कष्ट-निवारण के लिए नहीं करते हैं अपितु कष्टों को समता से सहन करते रहते हैं ~~ धन्य ! तेह ज धन गृह तजी, तन स्नेह नो करी छेह । निःसंग वनवासे वसे, तपधारी हो ते अभिग्रह गेह ।१०म० *१-२-४ इनकी जीवनियां परिशिष्ट में पढ़िये । तीलप का वृतांत बात नहीं हो सका। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पंच भावना सज्माय भावार्थ धन्य है उन मुनियों को, जिन्होंने धन-संपत्ति-और घर छोड़कर साधु जीवन स्वीकारा है । उनमें भी तपस्वी मुनियों की तो और भी विषेशता है किउनने तो शरीर के स्नेह का भी अंत कर डाला है। उन तपस्वियों में भी विशेष प्रकार के अभिग्रह (त्याग ) धारी मुनि तो नि संग ( राग रहित ) बनकर वनवासी ही हो गये हैं । अतः वे विशेष-विशेष धन्यवाद के पात्र हैं। अर्थात् एक-एक से बढकर सराहनयी हैं ।१०। धन्य ! तेह गच्छ-गुफा तजी, जिनकल्प भाव अफंद । परिहार विशुद्धि तप तपे, ते वंदे हो 'देवचन्द्र' मुनीन्द ।१शभ० ___ भावार्थ इस दूसरी ढाल के अंतिम पद्य में जो धन्यवाद दिया है, उसके अधिकारी बहुत कम हुआ करते हैं। इस युग में तो ऐसे मुनियों की नास्ति सी है । जिन्होंने गच्छरूपी गुफा को छोड़कर जिनकल्प१ को अपनाया है तथा निश्छल भाव से परिहारविशद्धि नामकर तपस्या करते हैं, उन्हें धन्यवाद के साथ श्री देवचन्द्रजी वंदना करते हैं ।-११ १ वज ऋषम नाराच संहनन वाला, नववे पूर्व की आचार नामक तीसरी वस्तु का जानकार, अभिग्नह सहित तीसरे प्रहर में अलेप आहार और विहार वाला, मुनि जिनकल्पी होता हैं। विशेष विवरण के लिए व्यवहारसूत्र के भाष्य की गाथा १३७६ से १४१७ तक पढिये...। २ नव साधुओं का समूह मिलकर परिहारविशुद्धि तप करता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल तीसरी -सत्त्व भावना की (हवे राणी पदमावती-- ए देशी...) रे जीव ! साहस आदरो, मत थाओ दीन । सुख दुःख संपद आपदा, पूरव कर्म आधीन । रे जीव १। भावार्थ=अब तीसरी सत्व-भावना का वर्णन चलता है । कहीं कहीं ऐसा हुआ करता है कि महान तपस्वी मुनियों को भी सत्त्व-हीन भावना मटका देतो है। इसलिये मुनियों को ही क्या, प्राणीमात्रको सत्त्व भावना की आवश्यकता है। रे जीव ! साहस रखो । दीन मत बनो। तेरे जीवन में होने वाले ये सुख, दुःख, संपदा, आपदा ( विपत्ति) पूर्व-कर्मों के आधीन हैं। तुम हिम्मत मत हारो। यह समझो कि यह सारा सुख व दुख अपने ही किए हुये कर्मों का फल है। मोर इन्हें समभाव से भोग लेना ही कल्याण का मार्ग है ॥ १॥ क्रोधादिक वसे रण समे, सह्या दुःख अनेक । ते जो समता मां सहे-तो खरो विवेक-रे जीव । रे । भावार्थ-क्रोध, अहंकार, लोभ, प्रतिशोध आदि की भावनाओं से तो तेने युद्ध क्षेत्र में अनेक कष्ट सहे हैं । परन्तु उदयमें आये हुए कर्मों के फल स्वरूप कष्ट यदि तू समभाव से सह लेता हैं तो तुम्हारा विवेक सच्चा-खरा कहा या गिना जायगा ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच भावना सज्झाय सर्व अनित्य अशाश्वतो, जे दीसे एह । तन धन सयण सगा सहु, तिणसु श्यो नेह ।रे ३। भावार्थ-इस जगत में जो भी दृश्यमान पदार्थ हैं, । वे सभी पौद्गलिक हैं क्योंकि द्रव्यों में रूपी द्रव्य वह एक ही है ये सारे दृश्यमान पदार्थ अनिस्य और मशाश्वत हैं। इसलिए धन-तन-स्वजन -सगों आदि अनित्य वस्तुओं पर स्नेह कसा ? अर्थात् इन सब से स्नेह करना उचित नहीं है ॥३॥ जिम बालक बेल तणा, घर करीय रमत । तेह छते अथवा ढहे, निज-निज गृह जंत । रे ।। भावार्थ-जैसे बच्चे गीली रेत के घर बनाकर खेलते हैं। उन घरों के प्रति पालकों के मन में क्षणिक आसक्ति ही होती है क्योंकि उन घरों के ढह जाने पर गा उनके रहने पर भी उन्हें वैसे ही छोड़कर बालक अपने-अपने घर चले जाते हैं। इसी तरह संसारी लोग भी अपने बनाये हुए घरों को छोड़कर परलोक को चल देते हैं। अतः इनको अपना मानकर आसक्त होना उचित नहीं ॥४॥ पंथी जम सराय मां, नदी नाव नी रीति । तिम ए परियण तो मिल्यो, तिण थी शीप्रीति । रे! भावार्य जैसे धर्मशाला में पथिक ( राहगीर) मिलते हैं और विछुर जाते है। मथवा नदी को पार करने के लिये जहां नौकायें लगी हुई हों, वहां उन नावों पर साथ में बैठकर पार उतरने वाले मुसाफिर अपने-अपने रास्ते से चले जाते हैं। वैसे ही इस संसार में स्वजन संबन्धियों का मेला मिला है, इनसे प्रीति कैसी ? ये सारे अपना-अपना आयुष्य अथवा स्वार्थ पूरा होने पर उठ जायेंगे, विधुर पायेगे ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य भावना ज्यां स्वारथ त्यां सह ए सगा, विण स्वारथ दूर। पर काजे पापे भले तूं किम होये शुर ६ रे। भावार्य=रे जीव ! जिनको तू सगा समझता है, वे स्वार्थ पर्यन्त सगे है । बिना स्वार्थ दूर हो जायेंगे । सोच तो सही तू औरों के लिगे पाप कार्य करने में बूरवीर क्यों हो रहा है ?--॥ ६ ॥ तज बाहिर मेलावडो, मिलियो बहुवार । चे पूरव मिलियो नहीं, तिणसू धर प्यार । रे ७। भावार्थ=रे जीव ! यह वाहिर का मेला (मिलाप-लाप) छोड़ दे। ऐसा मेग जो तुझे पहले भी बहुत वार मिल चुका है। जो मेला तुझे कभी नहीं मिला, ऐसे अपूर्व आंतरिक ( आत्मस्वरूप ) मेले से प्रेम कर ! महापुरुषों, सत्पुरुषों व आत्मिक सद्गुणोंसे प्रेम कर ! उनको ही प्राप्ति दुर्लभ है, अबतक मिल न सकनेसे अपूर्व है। ' चक्री हरि बल प्रतिहरी, तस विभव अमान । ते पण काले संहरया, तुज धन श्ये मान । रे । भावार्थ-रे जीव ! तेरे पास वैभव है कितना हीक ? इस तुच्छ वैभव पर भी तूं इतना अभिमान करता है ? जरा सा सोच ! कि, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, प्रतिवासुदेव आदि महापुरुषों का वैभव अमित होते हुए भी कालने सारा हरण कर लिया अर्थात् नामो-निशान मिटा डाला । तब तेरी हस्ती ही क्या है ? उनकी तुलना में तेरा धन है कितना सा ? ॥८॥ हा हा हुँतो तू फिरै, परियण नी चिंत । नरक पड्यां कहै तुजने, कोण करे निचिंत ।रे । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच भावना सम्झाय भावार्थ-बड़ा खेद है कि त् परिजनों की चिंता करता हुआ थर-उपर पर काट रहा है और दिन रात पापकर रहा है। परन्तु उन पापोंके पाल स्वरूप तेरी दुर्गति होगी, तब तुझे निश्चित करनेवाला (छुड़ानेवाला) कौन है ? अर्थात् कोई नहीं। परिजनों की तो तू. इतनी चिंता करता है पर अपने आत्म कल्याण की चिन्ता नहीं करता, यही सबसे बड़े दुख की बात है ॥ ६ ॥ रोगादिक दुःख ऊपने, मन अरति म धरेव । पूरव कृत निज कर्म नो; ए अनुभव देव । रे १० । भावार्थ=रे जीव ! रोग-शोक आदि दुःख उत्पन्न होने पर तू मन में परति ( अशान्ति ) मत धारण कर । यह सोच कि वह तब तेरे ही किये हुये पूर्व कर्मों के फल का अनुभव ( परिणाम ) है ।-१० एह शरीर अशाश्वतो, खिण में छीजत। प्रीत किसी ते उपरे,जे स्वारथवंत ।रे ११ । भावार्थ-तू औरों की बात जाने दे। तेरा यह शरीर भी एक क्षण में छीजनेवाला है, अशाश्वत है। स्वार्थी है। इससे प्रीति कैसी ? अर्थात् इस स्वार्थी परीर से भी प्रीति करना उचित नहीं।-११ ज्यां लगे तुज इण देह थी, छ पूरव संग। त्यां लगे कोटि उपाय थी, नवि थाये भंग ।रे १२ । भावार्थ =यह भी निश्चित है कि, जबतक इस देहके साथ तेरा पूर्वसंग (आयु कष्ट बंबन ) है तब तक तो कोटि उपाय करने पर भी इसका नाश महीं होगा, इसलिए इसके नष्ट होने की चिन्ता न कर ॥१२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्व भावना आगल पाछल चिहुं दिने, जे विणसी जाय रोगादिक थी नवि रहे, कीधे कोटि उपाय ॥१३रेजीव०॥ भावार्थ =दो दिन पहले हो या पीछे, पर यह शरीर विनाश होनेवाला ही है, और कोड़ उपाय करके भी उसे रोगादि से मुक्त नहीं रखा जा सकता। अतः नष्ट होनेवाले एवं रोगों के भंडार इस शरीर पर प्रीति करना युक्त नहीं -११ अंते पण एने तज्यां, थाये शिव सुख । ते जो छूटे आप थी, तो तुज़ श्यो दुःख ॥१४ रे जीव०॥ ___ भावार्थ-आखिर तो इस शरीर (कर्म) को छोडने से ही मोक्ष के सुख मिलेंगे । अतः यह शरीर अपने आप छूट रहा है, तो तुझे दुःख क्यों होना चाहिए। एक न एक दिन इस शरीर को तो छोडना ही पडेगा न ? -१४ ए तन विणसे ताहरे, नवि कोई हाण । जो ज्ञानादिक गुण तणो, तुज आवे झाण ॥१५रेजीव०॥ भावार्थ-तुझे यदि यह ध्यान हो जाय, कि ज्ञान-दर्शन-आदि गुण' ही मेरी चीजें है। तो इस शरीर के विनाश होने से तेरी कोई हानि नहीं है, क्योंकि तेरे गुण तो तेरे पास हैं। शरीर तो पुद्गलों से बना होने से आत्म से पर ही है, यह जाता है तो जाने दे, उसके जाने की चिन्ता न कर ।-१५ तू अजरामर आतमा, अविचल गुण राण । क्षण भंगुर जड देह थी, तुज किहां पिछाण।।१६ रेजीव०॥ भावार्थ-तू अजर-अमर-अविचल गुणों का राजा-आत्मा है। इस क्षणभंगुर जा (बचेतन) शरीर से तेरी पहिचान वास्तविक नहीं है । तेरी पहचान तो शान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच भावना सज्झाय दर्शन आदि आत्मिक गुण एवं चैतन्य स्वभाव से है । शरीर जड हैं, आत्म चेतन है अत: जड पदार्थ से तेरी पहिचान नहीं हो सकती । =१६ छेदन भेदन ताडना, वध बंधन दाह । पुद्गल ने पुदगल करे, तू अमर अगाह || १७ रे जीव० ॥ भावार्थ = काटना, टुकड़े करना, ताड़ना, मारना, बांधना, जलाना, वगैरहतो पुद्गलों द्वारा एव पुद्गलों का ही होता है। रे जीव ! तू तो अछेद्य, अभेद्य, अदाह्य, अमर तथा अगाध है । यदि तुझे कोई कष्ट दे, तब तू ऐसा सोच कि कष्ट देनेवाला भी देहादि जड़ पदार्थों से देता है और जिसे देता है वह शरीर भी पुद्गल रूप जड ही है । आत्मा को तो कोई वध, बंधन, दाह होता ही नहीं है अतः तूं उसके लिए दुखी मत हो - १७ कर्म उदये सही, जे वेदना थाय । घ्यावे आतम तिण समे, ते ध्यानी राय ॥ १८ ॥ रे जीव० ॥ भावार्थ = पूर्व- कर्मों के उदय से जो भी व जब भी वेदना का अनुभव हो तू समभाव व शांति रख। ऐसे वेदना के समय में जो आत्मा का ही ध्यान करता है - वही विशिष्ट घ्यानी है अर्थात् वेदना, ध्यानी के लिए परीक्षा का समय है । उस समय शरीर का ध्यान न कर आत्मा का हो ध्यान रखता है वही ध्यानियों में श्रेष्ठ है 1-१८ ज्ञान-ध्यान नी वातड़ी, करणी आसान । अंत समे आपद पडयां, बिरला करे ध्यान ॥ १६ रे जीव० || ܐ भावार्थ = ( उच्च कोटिके) ज्ञान एवं ध्यान की बातें बनानी तो आसान है । परंतु जब अंतकाल (मृत्यु के निकट) आने पर, वेदनाओं व विपत्तियों के पहाड़ टूटते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्व भावना हैं तब कोई विरले पुरुष ही आत्मा का ध्यान घर सकते हैं अर्थात् केवल बातों से कुछ सिद्धि नहीं होती, अंतिम समय आपदाओं के आनेपर भी समभाव व मात्म ध्यान बना रहे, तभी सिद्धि मिलेगी -१६ अरति करी दुःख भोगवे, परवश जिम कीर । तो तुज जाणपणा तणो, गुण केवो धीर ॥२० रे जीव०॥ भावार्य =यह तो निश्चित है कि रोग और विपत्तियाँ के सहे बिना कोई चारा नहीं। चाहे कोई रो कर सहे, या हंस कर। जैसे पिजरे में पड़ा हुआ तोता परवशता से दु:ख भोगता है, वैसे ही यदि तू रो करके कष्ट के दिन गुजारता है तो हे धीर ! तेरे पाये हुये ज्ञान का कौन सा गुण हुआ ? फलितार्थ यह है कि विपत्तिकाल में हाय । यह दुख क्यों आ गया, कैसे छूटेगा ? ऐसा आत ध्यान नये कर्मो का बंध करने वाला है। समता से कष्टों के :सहने का यह लाभ है कि पिछले कर्म भोग लिये जाते हैं और नये कर्मो का बंध नहीं पड़ता-२० शुद्ध निरंजन निरमलो, निज आतम भाव । ते विणशे कहे दुःख किसो, जे मिलियो आव।।२१ रेजीव०॥ भवार्थ =तेरी आत्मा का स्वभाव या स्वरूप तो शुद्ध निरंजन और निर्मल है इसके अलावा जो कर्मों के योग से शरीर, धन परिजनादि मिले हैं,उ नके विनास से तुझे दुःख कैसा ! अर्थात् किंचित भी कष्ट नहीं होना चाहिये, क्योंकि उनका आत्मा के साथ कोई तात्विक सबंध नहीं।-२१ देह गेह भाड़ा तणो, ए आपणो नोहि । तुज गृह आतम ज्ञान ए, तिण मांहे समाहि ॥२२रेजीव०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच माना समाय भावार्षअसे किराये पर लिया हुआ मकान अपना नहीं होता है, वैसे ही यह करीर रूपी आवास थोड़े दिन के लिए ग्रहण किया हुआ है; अत: इसे पब कभी भी छोड़ना ही है । तेरा अपना घर तो आत्म-ज्ञान है । उसी में रहने से समाधि है । अर्थात् शरीर पर अपना ममत्व त्यागकर आत्म स्वरूपमें निवास किया कर ।-२२ मेतारज सुकोसलौ, वली गजसुकुमाल । सनतकुमार चक्री परे, तन ममता टाल ॥२३ रे जीव०॥ भावार्थ =मुनि मेतार्य, १ मुनि सुकोसल, २ मुनि गजसुकुमाल, ३तथा सनत्कुमार चक्रवर्ती की तरह तू भी अपने शरीर की ममताको टाल, हटा ।- २३। कष्ट पड यां समता रमे, निज आतम ध्याय । 'देवचन्द्र तिण मुनि तणां, नित वंदु पाय ॥२४रे जीव०॥ भावार्थ-जो मुनि कष्ट पड़ने पर भी अपनी आत्माको ध्याते हुये समतामेर मते हैं। उन मुनियों के चरणों में मैं नित्य वंदना करता हूं, यों श्री देवचन्द्र जी महाराज कहते हैं। नोट-१-२-३-४ की जीवनियां परिशिष्ट में पढिये । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल४-चौथी एकत्व भावना की (प्राणी घरीए संवेग विचार-ए देशी ) ज्ञान ध्यान चारित्र ने रे, जो दृढ करवा चाह । वो एकाको विहरतां रे, जिन कल्पादि साय रे प्राणी। एकल भावना भाव ! शिव मारग साधन दाव रेप्राणी ॥१॥ भावा-बौथो भावनाको आधार-शिला स्वरूप तीसरी सत्त्व-भावना जक । क्योंकि पोथी एकत्व भावना का अधिकारी वही मुनि है, जो कि गत्तबाली है। चाहे शानी हो, तपस्वी हो, यदि सत्त्वहीन हो, तो वह एकाकी विचरने के अयोग्य है । इसलिए सत्त्व के पश्चात एकत्व का स्थान है। हे पुनि ! एके शान, ध्यान, और चारित्र को दृढ बनाने की इच्छा हो, तो एकाकी विचरता वा जिनकल्पीपना साध । रे प्राणी ! तू एकत्व-भावना रखा कर । यही मोष का मार्ग है । अर्थात सिदिसाधना का दाव ( उपाय ) है । १ ... साधु भणी गृहवास नी रे, छटी ममता तेह । तो पण गच्छवासी पणो रे, गण गुरुपर छै नेह,रे प्राणी।। भावार्थ—यद्यपि साधु बनने से गृहवास की ममता तो छूट गई। फिर भी गच्छवासी अवस्था में अपने सम्प्रदाय और गुरु पर स्नेह तो विद्यमान है ही। इसलिए कहते है कि त इनका प्रतिबंध भी छोड़ ... ।२ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पंच भावना सज्झाय वन-मृगनी परे तेहथी रे, छांड़ि सकल प्रतिबंध | तू एकाकी अनादि नोरे, किण थी तुज प्रतिबंध रेप्रा० ||३|| भावार्थ-सारे प्रतिबंधों को छोड़कर वन-मृग की तरह विचर । जब कि तू अनादिकाल से अकेला है, तब तेरे पर प्रतिबंध लगाने वाला कौन है । अर्थात ये प्रतिबंध अज्ञान एवं कल्पना के कारण ही है, इनसे ऊपर उठ । ३... शत्रु मित्रता सर्व थी रे, पामी बार अनन्त । कोण सयण दुश्मन किश्यो रे, काले सहु नो अंतरे प्रा० || ४ || भावार्थ- तू सभी जीवों के साथ एकवार नहीं, किंतु अनंतवार शत्रुता और मित्रता का सम्बंध बांध चुका है । तब कौन मित्र है और कौन तेरा शत्रु ! आखिर समय आने से शत्रु और मित्र सभी का अंत हो जाता है । अत: शत्रु या मित्र किसीका भी सम्बन्ध व प्रतिबध न रख ॥ ४ ॥ बांधे करम जीव एकलो रे, भोगवे पण ते एक । किण ऊपर किण वातनी रे, राग द्वेष नी टेक रोप्रा० ॥५॥ 'भावार्थ - यह जीव कर्मबंध भी अकेला करता है और भोगता भी अकेला ही है । फिर किसी पर राग और द्व ेष की टेक किस बात के लिये रखता है । ५ जो निज एक पण ग्रहे रे - छोड़ी सकल परभाव । शुद्धतम ज्ञानादिशु रे एक स्वरूपे भाव रे प्रा० ॥६॥ भावार्थ – यदि तू सारे परभावों को छोडकर अपना एकत्व भाव ग्रहण करले तो तू ज्ञानादि से एकस्वरूप याने अभिन्न हैं ऐसी ज्ञानादि गुण सम्पन्न शुद्धात्मा की भावना कर -६. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्व भावना आन्यो पण तू एकलो रे, जाइश पण तू एक ॥ तो ए सर्व कुटुम्ब धीरे, प्रीत किसी अविवेक रे प्रा०||७| भावार्थ - तू अकेला ही आया और अकेला ही जायेगा अरे अविवेकी ! फिर तुझे सारे कुटुंब से प्रीत कैसे हो रही है ? अर्थात यह अविवेक छोड ॥ ७ ॥ वन मांहे गज सिंहादि थीरे, विहरतां न टले जेह | जिण आसन रवि आथमेरे, तिण आसन निशि छेह रेप्रा० ||८|| भावार्थ- जगल में विहार करते समय यदि दुष्ट हाथी, सिंह वगेरे हिंसक जानवर सामने आजाये तो भी जिनकल्पी मुनि अपना मार्ग बदलते नहीं, अपितु निर्भय होकर उनके सम्मुख जाते हैं ओर जिस स्थान पर, जिस आसन से खड़े या बैठे सूर्यास्त हो गया, तो उसी आसन से सारी रात बिता देते हैं। इधर उधर हिलने डोलने तक का काम नहीं । एकत्व भावना वाले मुनि ऐसे ध्यान मग्न होते है कि रात भर एक ही आसन से ध्यान करते रहते हैं । आहार ग्रहे तप पारणे रे, करमां लेप विहीन । एक बार पाणी पीवतां रे, वनचारी चित्त अदीन रे प्रा० ॥६॥ वह पात्र भावार्थ - जनकल्पी मुनि तपस्या के पारणे में ही आहार ग्रहण करते हैं । अर्थात् प्रतिदिन कोई न कोई तप चालू रहता ही हैं । आहार भी लेप न लगे वैसा, अर्थात रूखा सूखा लेंगे वह भी कर में । वे आहार के समय ही पानी भी एक ही वार पीते हैं । वे वनचारी अर्थात सदा वन में विचरते हुए भी चितमें नहीं लाते कि मेरा क्या होगा ॥ ६ ॥ एह दोष पर ग्रहण थी रे, पर-संगे गुण हाण । पर-धन-ग्राही चोर ते रे, एकपणो सुख ठाण रे प्रा० ॥ १० ॥ wxternali Jain Educationa International ... For Personal and Private Use Only २३ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच भावना सज्झाय भावार्थ- यह जितना भी दोष है, वह सारा पर (पुद्गल ) को ग्रहण करने से है। पर-संग (पुद्गलों के संग ) से आत्म गुणों की हानि होती है । व्यवहार दृष्टि से भी "पर धन नाही' चोर कहा जाता है व कष्ट पाता है । आहारादि ग्रहण करना भी पर पुद्गलों का ही ग्रहण हैं। अतः पर संग को छोड़ कर एकाकीपन रखना ही सुखों की खान है ॥ १० ॥ पर संयोग थी बंध छ रे, पर वियोग थी मोक्ष । तेणे तजी पर मेलावडो रे, एकपणो निज पोष रे प्रा०॥१॥ मावार्थ =पुद्गलों के संयोग से बंध है और इनके वियोग से मोक्ष । इसलिये पर का मिलाप छोडकर एकाकीपन का पोषण कर अर्थात् तेरा इन पर संयोगों से कोई सम्बन्ध मान । मैं अकेला हूँ, मेरा इनसे कोई सम्बन्ध नहीं, ऐसे भाव को पुष्ट करता रह -११ जन्म न पाम्यो साथ को रे-साथ न मरशे कोय । दुःख व्हेंचवा को नहींरे, क्षणभंगुर सहु लोय रे प्रा.॥१२॥ भावार्थ- न तो कोई तेरे साथ जन्मा है न कोई तेरे साथ मरेगा ही। बीते-जी भी तेरे रोगादि दुख में हिस्सा बंटानेवाला कोई नहीं है, अपने कष्ट तुझे स्वयं ही भोगने पड़ते हैं । सोच ! सारा संसार ही क्षणभंगुर है ॥ १२ ॥ परिजन मरतो देखीने रे, शोक करे जन मूढ । अवसर वारो आपणो रे, सहु जन नी ए रूढ रे प्रा०॥१३॥ भावार्थ-किसी कुटुम्बी का मरण देखकर मनुष्य शोक करता है। परन्तु सोचना चाहिए, कि अवसर आने पर तेरा भी बारा आनेवाला है । क्योंकि यो बन्मे है, वे सारे मरनेवाले है ॥१३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाय । सुरपति चत्री हरि बलि रे, एकला परभव तन धन परिजन सहु मिली रे, कोई सखायन थायरे प्रा० ॥ १४ ॥ भावार्थ - इन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, जैसे महापुरुष भी परभव में अकेले हो जाते हैं । तन, धन, परिजन में से कोई भी उनका सहायक व सांधी नहीं बनता -- ॥ १४ ॥ ज्ञायक रूप हूँ एक छूरे, ज्ञानादिक गुणवंत । बाह्य जोग सहु अवर छैरे, पाम्यो बार अनंत रे प्रा० ॥ १५॥ भावार्थ-ज्ञानादिक अनन्त गुणोंवाला मैं शायक स्वरूप अकेला बामा इन बाह्य संयोगों को छोड़ने में ढील नहीं हूँ । मैं बाकी के सारे बाह्य संयोग मेरे से भिन्न है। पार पा चुका हूँ । इसलिये इनको २५ करना चाहिए । १५ ॥ करकंड१ नमि२ नग्गई ३ रे, दुम्मुह४ प्रमुख ऋषिराय । मृगापुत्र५ हरिकेशीना६ रे, वंदू हूँ नित पाय रे प्रा० ॥ १६ ॥ साधु चिलाती७ सुत भलो रे, वलि अनाथी तेम । इमनि गुण अनुमोदतां रे, 'देवचन्द्र' सुख क्षेम रेप्राणी |१७| भावार्थ - करकंडु, नमिराजर्षि, नगई, दुम्मुह, ये ४ प्रत्येक बुद्ध हैं । मृगापुत्र, हरिकेशी, चिलातीपुत्र, तथा अनाथी मुनि वर्गर मुनियों के चरणकमलों में नित्य नमस्कार करता हूं। क्योंकि ऐसे मुनिजनों के ( प्रशंसा ) करने से सुख और कल्याण होता है। महाराज कहते हैं ॥ १६-१७ ॥ नोट :-१-२-३-४-५-६-७-८ को जोगनियाँ परिशिष्ट में पढ़िये । Jain Educationa International गुणों की अनुमोदना यों श्री देवचन्द्र जी For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल ५ पांचवीं तत्त्व भावना की ( इणि परे चंचल आउखो जीव जागो रे......ए देशी ) चेतन ए तन कारिमो तुमे ध्यावो रे शुद्ध निरंजन देव भविक तुमे ध्यावो रे, शुद्ध स्वरूप अनूप भविक १ आंकणी । भावार्थ-रे चेतन ! इस तन को अनित्य समझो। शुद्ध निरंजन देव का ध्यान धरो । तथा आत्मा के अनुपम शुद्ध स्वरूप को ध्यावो ॥१॥ नरभव श्रावक कुल लयो,तुम०,लाधो समकित सार भविका जिन आगम रुचि सुसुणो,तुम आलस नींद निवार भविकर। भावार्थ-रे जीव ! तुझे मनुष्य का जन्म मिला। श्रावक का कुल मिला । सारभूत समकित मिला । अब आलस्य और नींद को त्याग करके रुचि पूर्वक जैनागमों को सुना कर ॥२॥ समयांतर सहभाव नो, तु०, दर्शन ज्ञान अनंत । भ० । आतम भावे थिर सदा; तु०, अक्षय चरण महंत । भ० ३। __ . भावार्थ- जिसे समकित की प्राप्ति हो गयी, उसे किसी न किसी समय केवलज्ञान अवश्य होगा। केवलज्ञान और केवल दर्शन सहभावी हैं, मतान्तरा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं तत्त्व भावना २७० नुसार समयांतर से । आत्म भावों की सदा के लिये स्थिरता हो जाना ही अक्षय चारित्र है । ज्ञान दर्शन चारित्र यहो मोक्ष मार्ग हे ॥ ३ ॥ तीन लोक त्रिहुं कालनी, तु० परिणति तीन प्रकार भ० । एक समे जाणे तिणे, तु० नाण अनन्त अपार । भ० ४ । भावार्थ-केवलज्ञान एक ही समय में तीन लोक (ऊर्ध्व-मध्य-अधोलोक) तथा तीन काल ( अतीत-अनागत-वर्तमान ) की, तोन प्रकार ( उत्पाद-व्ययध्रौव्य ) की परिणति को जान लेता है । अनन्त द्रव्य तथा अनन्त द्रव्यों की अनन्त अवस्थाओं को एक ही साथ में जानने के कारण ज्ञान अनन्त एवं अपार कहा जाता है ।४। सकल दोपहर शाश्वतो, तु० वीरज परम अदीन । भ० । सूक्ष्म तनु बंधन विना, तु० अवगाहना स्वाधीन । भ० ५ । भावार्थ-आत्म वीर्य ( आत्म शक्ति ) सारे दोषों को हरनेवाला हैं । तथा परम उल्लासमय और शाश्वत है। सूक्ष्म शरीर (तैजस और कार्मण ) के बन्धन बिना उसकी स्वाधीन ( स्वतंत्र ) अवगाहना है ॥ ५ ॥ पुद्गल सकल विवेक थी, तु० शुद्ध अमूर्ति रूप । भ० । इन्द्रिय सुख निस्पृह थई, तु० अकषाय अबाह स्वरूप । भ० ६ । भावार्थ-सारे पुद्गलों को दूर करने पर आत्मा अमूर्त और शुद्ध है। इन्द्रियजनित सुखों को स्पृहा त्यागने से आत्म स्वरूप निखर आता है, आत्मा को अकषाय तथा अव्याबाध स्वरूप माना गया है ।। ६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ पंच भावना सज्झाय द्रव्य तणा परिणाम थी, तु० अगुरू लघुत्व अनित्य । भ० । सत्य स्वभाव मयी सदा, तु० असत्य तजोतुमे मित्त । भ० ७। भावार्थ-जोव द्रव्य को परिणमनशीलता से तू अगुरुलघु ( न हल्का न भारी ) ओर नित्य है । सदा सत्यस्वभाव वाला है। हे मित्र ! असत्य-परभावों को छोड़ दे ॥७॥ निजगुण रमता रामए, तु० सकल अकल गुण खाण । भ० । परमातम पर ज्योति ए, तु० अलख अलेप बखाण । भ० ८। भावार्थ-यही चेतन निज गुणों में रमण करने से "रमताराम" है । सारे ही अकलनीय गुणों की खान है। परमात्मा है । परंज्योति है। मन है। निलप है ॥ ८ ॥ पंच पूज्य थी पूज्य ए, तु० सर्व ध्येय भी ध्येय । म० । ध्याता म्यान अरु ध्येय ए,तु० निश्चै अभेद ए श्रेय । म०१ । ___ भावार्थ-निश्चय दृष्टि से यह आत्मा पांचों ( अहंत, सिद्ध, प्राचार्य, पाध्याय, साप ) पूज्यों से पूज्य, सारे ध्येयों से ध्येय है। माता भी यही है, ज्यान मी यही है, तथा ध्येय भी आत्मा ही है। निश्चय नप की दृष्टि में यह मभेदभाव ही श्रेय--कल्याणकारी है ॥ ६ ॥ अनुभव करतां एहनो, तु० थाये परम प्रमोद । भ० । एक रूप अभ्यास सु, तु० शिव सुख छ तसु गोद । भ०१० भावार्ष-इस आत्म तत्त्व का अनुभव करने से ही आनन्द प्राप्त होता है। जिसे एकरूप ( अभेदभाव ) से इस का अभ्यास है; मोक्ष सुख तो उसकी चोद में ही समझो, अर्थात् वह जीवन्मुक्त पुरुष है ॥ १०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंनी लामाका २१. बंध अबंध ए आतमा, तु० करता अकरता एह । म०।। एह भोगता अभोगता, तु० स्यादवाद गुण गेह । भ०.११ । भावार्थ-यह आत्मा बन्ध भी है अबन्ध भी है । कर्ता भी है अकर्ता भी है । भोक्ता भी है, अभोक्ता भो है । इस प्रकार स्याद्वाद रूप विभिन्न गुणों का घर है ॥ ११ ॥ एक अनेक स्वरूप ए, तु० नित्य अनित्य अनादि । भ० । सदसद भावे परिणम्या, तु० मुक्त सकल उन्माद । भ० १२। भावार्थ-यह आत्मा एक भी है अनेक भी है । नित्य भी है, अनित्य भी है, अनादि है । सत् भो है असत् भी है। ऐसे अनन्त धर्मों से युक्त अनादि आत्मा सारे उन्मादों से मुक्त है ॥ १२ ॥ जप तप किरिया खप थकी, तु० अष्ट करम न विलाय । भ० । ते सहु आतम ध्यान थी, तु० क्षण में खेरू थाय । भ० १३ । भावार्थ-बड़े प्रयत्न पूर्वक जप और तप आदि क्रियानुष्ठान करने से भी जिन अष्ट कर्मो का क्षय नहीं होता, वे सारे कर्म आत्मा के ध्यान से एक क्षण में क्षय हो जाते हैं ॥ १३ ॥ शुद्धातम अनुभव विना, तु० बंध हेतु शुभ चाल । भ० । आतम परिणामे रम्या, तु० एहज आश्रव पाल । भ० १४ । भावार्थ-जिस पुरुष को शुद्धात्मा का अनुभव नहीं है, उसके लिये शुभ-कार्य भी बंधन के कारण हैं । और आत्म भाव में रमे हुये मुनिके लिये वही कार्य आश्रय (बंध ) को रोकने वाले संवर स्वरूप हो जाते हैं 'जे वासवा ते परिसवा ४, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. पंचं भावना सज्झाय इम जाणी निज आतमा, तु० वरजी सकल उपाध । भ० । उपादेय अवलंब ने, तु. परम महोदय साध । भ० १५ । भावार्थ =रे जीव ! यों समझ करके सारी उपाधियों को छोडकर, उपादेय आत्म तत्त्व का अवलंबन ( सहारा ) लेकर परम महोदय ( मोक्ष) की साधना कर ।-१५ भरत१,इलासुतर,तेतली३,तु० इत्यादिक मुनिवृन्द भ० । आतम ध्यान थी ए तरया, तु० प्रणमे ते देवचन्द्र भि० १६। भावार्थ भरत चक्रवर्ती, इलापुत्र, तेतली प्रधान आदि मुनिगण, जो आत्मा के ज्यान मात्र से तरे हैं। उन्हें श्री देवचन्द्र जो महाराज प्रणाम करते हैं। -१६ नोट.-१-२-३ का जीवन पढ़िये, परिशिष्ट ढाल ६ छठी(प्रशस्ति)भावना महात्म्य ( “सेलग शत्रु जे सिद्धा" ए देशी ) भावना मुक्ति निशाणी जाणी, भावो आसक्ति आणीजी । योग कषाय कपटे नी हाणी, थाये निर्मल जाणी जी।१। __ भावार्थ -मोक्ष की निशानी समझकर तन्मय पूर्वक ( अंतर राग से) ये पांचों भावनायें भावो। जिससे योग, कषाय-कपट का नाश होकर आत्मा निर्मल होती है ।-१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्ति पंच भावना ए मुनि मन ने, संवर खाणी बखाणी जी। बृहत्कल्प सूत्र नी वाणी, दीठी तेम कहाणी जी । २ । __ भावार्य =मुनि जोवन के लिये तो ये पांचों भावनायें संवर की खान बतलाई हैं । जैसा "श्री बृहत्कल्प सूत्र" में देखा, वेसा इनका स्वरूप यहाँ कहा गया है ।२। कर्म कतरणी शिव निसरणी, ध्यान ठाण अनुसरणी जी। चेतन राम तणी ए घरणी, भव समुद्र दुःख हरणी जो । ३ । __ भावार्थ -ये भावनायें कर्मों को काटने के लिए कैंची, मोक्ष महल पर आरोहण करने के लिये सीढ़ी, शुभ ध्यान के स्थानों का अनुगमन करनेवाली, चेतनराम की गृहिणी, तथा भव समुद्र के दुःखों को हरण करने वाली हैं ।-३ जयवंता पाठक गुण धारी, राजसागर सुविचारी जी। निर्मल ज्ञान धरम सम्भाली पाठक सहु हितकारी जी । ४ । भावार्थ =अब ग्रन्थ समाप्ति करते हुए कवि अपनी गुरु परंपरा का वर्णन करते हैं । "श्री राजसागर" नाम के उपाध्याय बड़े अच्छे विचारशील, गुणवान, तथा जयवंत हुये । उनके शिष्य श्री "ज्ञानधर्म" नामक उपाध्याय बड़े निर्मल और हितकारी हुये।-४ राजहंस सद्गुरू सुपसाये, देवचन्द्र गुण गाय जी । भविक जीव जे भावना भावे, तेह अमित सुख पायजी।५। भावार्थ =उनके शिष्य "श्री राजहंस” उपाध्याय हुये। इनकी कृपा से मुनि देवचन्द्र भावनाओं के गुण गाता है। जो कोइ भव्यजीव इन भावनाओं को भावेगा, वह अमित सुख (मोक्ष) पायगा।-५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ पंच भावना सझाय जेसलमेरी साह सुत्यागी, वर्द्धमान बड़भागी जी। पुत्र कलत्र सकल सोभागी, साधु गुण ना रागी जी।६। ____ भावार्थ =जेसलमेर निवासी सेठ श्री वर्धमान शाह बड़े त्यागी और सज्जन ये। पुत्र-स्त्री-इज्जत आदि सुखों की दृष्टि से भी भाग्यशाली थे। और साधुओं के गुणों के अनुरागी ( भक्त ) थे ।-६ तस आग्रह थी भावना भाई, ढालबंध मां गाई जी। भणशे गुणशे जे ए ज्ञाता, लहशे ते सुखसाता जी । ७। भावार्थ उनके आग्रह से इन भावनाओं को ढालबद्ध लोक-देशियों की रागिनीमय पद्यबद्ध बनाया है। जो कोई जानकार जीव पढ़ेगा, व मनन करेगा उसे सुख और शान्ति की प्राप्ति होगी ॥७॥ मन शुदध पंचे भावनाभावो, पावन जिन गुण पावोजी। मन मुनिवर गुण संग बसावो, सुख सम्पति गृह थावोजी। ८ । ___ भावार्थ यह अंतिम पद्य शिक्षात्मक और आशीर्वादात्मक है। हे भव्यों ! मन की शुद्धि पूर्वक ये पांचों भावनायें भावो । और पवित्र जिन गुण को पाओ । मुनिजनों को, उनके गुणों के साथ अपने मन में वसावो। तुम्हारे घर सुख और संपति हो ।-८ "इत्यलम्" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (क) बृहत्कल्प और पांच भावनायें श्रीमद् देवचन्द्र जी महाराज ने मंगलाचरण के तीसरे दोहे में पंचभावनाओं का आधार बृहत्कल्प सूत्र बतलाया है । श्री बृहत्कल्प सूत्र में भावनाओं को संख्या तो यही है, किन्तु नाम और क्रम में अन्तर है । सूत्रानुसारी नाम और क्रम इस प्रकार है । ( १ ) तपो भावना- ( २ ) सत्त्व भावना - (३) सूत्र - भावना - ( ४ ) एकत्व भावना - ( ५ ) और बल भावना । इनमें दूसरी सत्व भावना और पांचवीं बल भावना में शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से विशेष अन्तर नहीं है । किन्तु भाष्यकार ने शारीरिक शक्ति को बल गिनवाया है। तथा सत्व-भावना के अभ्यासार्थ पांच विशेष प्रतिज्ञायें बतलाई हैं । वे ये हैं - ( १ ) उपाश्रय में ( २ ) उपाश्रय से बाहर ( ३ ) चौराहे पर ( ४ ) शून्यगृह में तथा ( ५ ) श्मशान भूमि में जाकर ध्यान करना । पहली प्रतिज्ञाका पालन करते समय रात्रि में शेष साधुओं के सो जाने पर मुनि कायोत्सर्ग करके बैठे । उस समय उपाश्रय में गाढ अंधकार होने से रात्रि परिभ्रमणशील जानवरों ( चूहे बिल्लियाँ आदि ) द्वारा स्पृष्ट होने से अथवा काटे जाने से रोंगटे भी खड़े न हो, इस प्रकार का सत्व ( साहस ) रखे । इस तरह अगली २ प्रतिज्ञाओं में देवता - मनुष्य तिर्यञ्च आदि के विशेष भय पैदा होने पर भी डरे नहीं । ! श्रुत से कालमान -तोसरी सूत्र - भावना में कहा है कि, यद्यपि Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ पंच भावना सज्झाय अपने नाम की तरह ही मुनि को सारा श्रुत कण्ठस्थ है। फिर भी कालपरिमाण के लिये श्रुताभ्यास करे। श्रुत-परावर्तन के आधार पर उछ्वास का काल मान जाना जाता है । फिर उछ्वाससे निःश्वास, निःश्वाससे प्राण,प्राणसे स्तोक, स्तोक से महत, मुहूर्त से पौरुषी, पौरुषी से दिवस और निशा का परिज्ञान होता है। काल मान की आवश्यकता--जब कभी आकाश मेघाच्छन्न हो, तब मुनि को उभय काल की क्रियाओं के प्रारम्भ और परिसमाप्ति का शान श्रुत परावर्तन से करना पड़ता है । श्रुत परावर्तन से कालमान निकालने की महत्ता इसलिये है कि जब आकाश निर्मल हो तब धूप और छाया से काल-माप निकालने से श्रुताभ्यास में विघ्न आता हैं । श्रुताभ्यास में इतना सूक्ष्म साक्षात भी क्यों होने दिया जाय, जब कि काल मापने का साधन स्वयं अत परावर्तन है। सबसे बड़ा तप-श्रत---भाष्य की ११६६ वीं गाथा में श्रुत-स्वाघ्याय को सब से बड़ा तप कहा है. (नवि अस्थि नवि होही सभाय समं तवोकम्म ) इसलिए सूत्र भावना का विशेष महत्व है। - चौथी एकत्त्व-भावना में कहा है कि दीक्षित होने से स्वजनों का स्नेह तो छूट जाता है। किंतु सम्प्रदाय, आचार्य, गुरु श्राता, तथा शिष्यों के साथ स्निग्ध अवलोकन, आहार उपधि आदि का लेन देन, सूत्र, तथा अर्थ की प्रतिपृच्छा, समवयस्कों से किंचित हास्य तथा बातें करते रहने से एक विशेष प्रकार का ममत्व हो जाता है। इस राग का निवारण के लिये एकलविहारी बनना उचित है, संघ, आचार्य, शिष्य आदि का स्नेह छूट जाने के पश्चात् आहार और उपधि का ममत्व क्षीण होने लगता है। तत्पश्चात् शरीर का ममत्व छोड़ने का समय आ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (क) जाता है। निर्ममत्व की दिशा में संकेत करते हुये कहा है कि किसी वषक द्वारा अपने को तथा स्वजनादि को भी मारते देखकर निश्चित स्थान और ध्यानासन से विचलित न हो। पांचवीं बल-भावना में कहा गया है कि, अपत्य, कलत्र, आदि स्वजन वर्ग में जो अप्रषास्त स्नेह है, उसे, तथा गुरु-गच्छ-शिष्य-उपधि-शरीर आदि पर 'जो प्रशस्त राग है, उसे छोड़ देने का नाम मानसिक बल है । मानसिक बल में शारीरिक बल की भी अपेक्षा है। संक्षेप में सारी भावनाओं का मूल सत्त्व और बल को बतलाया है। संघ में रहता हुआ भी तीसरे प्रहर में गोचरी तथा प्रान्त आहार करें । इन भावनाओं से भावितात्मा मुनि जिनकल्पी के पूर्व रूप की साधना करे। फिर जिनकल्प, परिहार विशुद्ध कल्प, तथा महालंद कल्प आदि में से एक को अंगीकार करे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (ख) = पांच अप्रशस्त-भ‍ त-भावनायें= पूर्वोक्त पांचों भावनायें प्रशस्त होने से मुनि के लिये आदरणीय हैं । और निम्नोक्त पांचों - भावनायें अप्रशस्त होने से सर्वथा त्याज्य हैं । अपनी आत्मा का उत्तरोत्तर विकास चाहने वाले को चाहिये, कि इन अप्रशस्त भवनाओं से परे रहे । संक्षेप में इनका स्वरूप तथा भेद इस प्रकार है । (१) कांदर्पी भवना=अट्टहास्य करना, गुरुजनों के साथ निष्ठुर तथा वक्र बोलना, काम की कथा - काम की प्रशंसा तथा काम का उपदेश करना, भांड की तरह कायिक तथा वाचिक कुचेष्टाओंसे गौरोंको हँसाना कांदर्पी भावना कहलाती है । ऐसा करनेवाला मुनि संयमका विरोधक होकर बिङ्ग प्राय ( कंदर्प - विट प्राय ) देवता में जन्म लेता है – (१) (२) देवकिल्विषी भावना) = ज्ञान की, केवलज्ञानी की, धर्माचार्य की, साधुओं की निंदा करना " दैवकिल्विषी" भावना कही जाती है। इस भावना वाला मुनि किल्विष ( अत्यज स्थानीय ) देवता का आयुष्य बाँधता है .।... (२) (३) आभियोगी भावना = भूतिकर्म, ( डोरा बांधना ) प्रश्न, ( रमल प्रश्नावली प्रश्नाप्रश्न, ( विद्याधिष्ठित देवी का कहा हुआ उत्तर प्रश्नकर्त्ता को बतलाना ) निमित्त, ( अष्टांग निमित्त ) आदि से आजीविका करनेवाला मुनि आयुष्य पूर्ण करके आभियोगिक ( भृत्य स्थानीय ) देवयोनि में उत्पन्न होता है ... (३) (४) आसुरी - भावना - कलह करना, पूजा प्रतिष्ठा के लिये तपस्या करना, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच अप्रशस्त भावनायें दया रहित होना, आसुरी भावना है। इस भावना वाल मुनि असुर ( भुवनपति ) देवता में उत्पन्न होता है ।—४ (५) साम्मोही भावना - T- उन्मार्ग का उपदेशक, सत्यमार्ग का निन्दक, उन्मार्ग को ग्रहण करनेवाला अपनी तथा औरों की आत्मा को मूढ बनानेवाला “साम्मोही - भावना" का अधिकारी होकर अगला जन्म सम्मोह ( देव - विशेष ) देवता में लेता है ॥ ५ ॥ फलितार्थ यह है, कि भावनाओं के आधार पर ही आयुष्य-कर्म का बंध होता है । अतः विवेकशील व्यक्ति का यह कर्त्तव्य हो जाता है, कि वह अपनी भावनाओं का निरीक्षण करता रहे । यदि अशुभ कमदय तथा गंदे वातावरण से अप्रशस्त भावनायें आती हों । उन्हें तत्काल निकाल कर सत् - साहित्य, सत्संगति, सद्धर्म - ध्यान द्वारा भावनाओं को प्रशस्त बनाने का प्रयास करता रहे। " भावना भव नाशिनी" भावना से संसार - भवभ्रमण का नाश होता है । Jain Educationa International ३७ For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (ग) द्वितीय ढाल की प्रथम गाथा में निर्दिष्ट तप भावनामें उल्लिखित तपस्याओं की विधियां १ स्त्नावली तप की विधि: सर्व प्रथम एक उपवास, एक बेला, एक तेला, फिर लगातार तत्पश्चात् एक उपवास से लेकर सोलह उपवास तक चढता जाये। ( ३४ ) बेले करे । तत्पश्चात् सोलह उपवास करके एक उपवास तक उत्तर बाये । फिर आठ बेले करे। फिर एक तेला, एक बेला, एक उपवास करके पूर्णाहुति कर डाले । इसमें तपस्या के दिन तीनसौ चौरासी ( ३८४ ) और पारणे अठ्यासी ८८ होते हैं । कुल मिलाकर पन्द्रह महीने और बाईस (२२) दिन लगते हैं । इस तपकी चार परिपाटी हुआ करती हैं। पहली परिपाटी में पारणे के दिन विगयादिक भी लिया जा सकता है । दूसरी परिपाटी में विगय (घृत- दूधदही - मिष्टान्नादि ) का सर्वथा त्याग रहता है । तीसरी परिपाटी में निर्लेप ( विना बघार ) आहार लेना । चौथी परिपाटी में आयंबिल ( किसी एक प्रकार के अनाज की बनी चीज, वह भी पानी में डुबोकर ) करना आवश्यक हैं। इस प्रकार की कठिन तपस्या राजा श्रेणिक की रानी "काली" नामक" आर्या ने की थी । - ( सूत्र - अंतगड़० वर्ग आठवाँ ) २ " कनकावली - तप" पूर्वोक्त रत्नावली तप में जिस जगह आठ बेले करने का विधान है, वहां कनकावली में आठ तेले तथा चौंतीस वेलों की जगह Jain Educationa International आठ बेळे । फिर चौतीस For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (ला चौलीस तेले करने पड़ते हैं। बाकी सोलह उपवास तक मारोहण और अवरोहण उसी प्रकार का है। तपस्या के दिन पारणे भी उतने ही हैं। परिपाटियाँ भी चार है। यह तप राजा श्रेणिक की दूसरी रानी "सुकाली" ने किया था (नंबर आठवाँ वर्ग) ३ "मुक्तावली-तप" एक उपवास के बाद एक बेला, फिर एक उपवास के बाद एक तेला । ऐसे एकर उपवास के अंतर से पन्द्रह उपवास तक चढना। फिर सोलह उपवास करके एक उपवास, पन्द्रह करके एक उपवास, यूँ बेला करके एक उपवास तक उत्तर जाना । इसमें तप दिन २८६ और ५६ पारणे होते हैं। कुल इम्पारह मास और पन्द्रह दिन लगते हैं। चारों परिपाटियों को पूर्ण करने में तीन वर्ष दस महीने चाहिये । पारणे की विधि रत्नावली तप के ही तुल्य है। यह तप श्रेणिक की नौवों रानी "प्रियसेन कृष्णा" ने किया था। -(40 वा.) ४ "गुण-रल-संवत्सर-तप" प्रथम महीने में एकान्तर उपवास करना। दिवस में सूर्य कैसम्मुख दृष्टि रख कर जहां धूप आती हो वहां "आतापना-भूमि" में बैठ रहना। रात्रि में किसी भी वस्त्र को ओढे या पहने विना वीरासन से बैठना । इस प्रकार दूसरे मास में बेले२ पारणा। तीसरेमें तेले तेले । चौथे में चोले-चोले, पांचवें, छठे, सातवें, आठवें नौवें, दसवें, ग्यारहवें ,बारहवें,तेरहवें ,चौदहवे,पन्द्रहवें ,सोलहवें मासमें बमशः पांच, छः, सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, पन्द्रह, सोलह, सोलह उपवास करना । इस तप में कुल तेरहमास और सित्तर दिन उपवास के और तिहत्तर दिन पारणा के होते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच भावना सज्झाय ... श्री स्कंधक मुनि ने यह तप किया था। ( भगवती-शतक२; ) ५ "जव मध्य तप" जैसे शुक्लपक्ष में एक-एक कला करके चांद बढता है । वैसे जव मध्य तप करने वाला प्रतिपदा के दिन सिर्फ एक कवल आहार ले। दूसरे दिन दो कवल । यू पूर्णिमा के दिन तक पन्द्रह कवल का आहार : बढाये। फिर कृष्ण पक्ष के चन्द्रमा की कलाओं की तरह कवल संख्या घटाता चले। अर्थात् प्रतिपदा को पन्द्रह कवल । द्वितीया को चवदह । यों अमावस्या को एक कवल तक आहार लेकर इस तप की समाप्ति करे। इस तप में एक महीना लग जाता है। ६ "वज्र मध्य तप" जैसे. “जव मध्य तप शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होकर कृष्ण पक्ष की अमावस्या को पूर्ण होता है। वैसे ही उससे विपरीत यह वज़ मध्य तप, कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को पन्द्रह कवल, अमावस्या को एक कवल फिर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को एक कवल, पूणिमा को पन्द्रह कवल आहार लेने से एक महीने में समाप्त होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [] तपस्वी मुनिओं की जीवनियाँ [१]मुनि ढंढरण कुमार ढा० २गा० ८ में निर्दिष्ट द्वारकाधीश श्रीकृष्ण वासुदेव के पुत्र का नाम ढंढण कुमार था । आप बड़े गुणवान और लावण्य वाले थे । श्री नेमिनाथ भगवान की वैराग्य-मयी वाणी सुनकर एक सहस रानियों का त्याग करके आप साधु बने। दोक्षा के साथ ही आप ने पह अभिग्रह किया, कि यदि मुझे अपनी लब्धि (भाग्य ) का आहार मिले तो लेना नहीं तो तपस्या चालू :रखनी। मैं अन्य साधुओं द्वारा लाया हुआ आहार न लूंगा, न मेरा लाया हुआ किसी को दूंगा । इस प्रकार का सम्भोग प्रत्याख्यान करके प्रतिदिन गौचरी जाते हैं । परन्तु पूर्वोपार्जित अंतराय कर्म के उदय से शुद्ध आहार तो क्या, पानी तक नहीं मिला। इतने पर भी मुनि सोचते हैं । मेरे सहज-सहज तप हो रहा है। उत्सर्ग मार्ग को आराधना से पुद्गलों का संग छूट रहा है ! पूर्व-भव वर्णन ___ मुनि ने एक दिन प्रभु से पूछा, कि भगवन् ! मेरे ऐसा क्या अन्तराय कर्म बंधा हुआ है ? आहार-पानी भी नहीं मिलता । प्रभु बोले-तू किसान के जन्म में राजा की आज्ञा से पांच सौ हलों द्वारा खेती करवा रहा था। एक वक्त उन बलों और आदमियों के भोजन का समय हो जाने पर भी, तूने लोभ के कारण अपने निजी खेत की एक चास मुफ्त में निकलवाई थी। इस प्रसंग से बड़े वीन रस के साथ तेरे अन्तराम कर्म बंध गया । यहां आहार पानी न मिलना, उसी कर्म का फल है ! अब इसे समता से सहकर काट डालो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच भावना सज्झाय ___सर्वोत्कृष्ट मुनि श्री कृष्ण वासुदेव ने प्रभु से पूछा कि भगवन् आप के अठारह हजार साधुओं में सर्वोत्कृष्ट कौन है ? प्रभु ने फरमाया, कि ढंढण मुनि सर्व श्रेष्ट है। इसका कारण यह है कि छ: महीने होने आये हैं नितप्रति गौचरी को जाना और आहारादि न मिलना, तिस पर भी समता में लीन रहना, लोगों के प्रति द्वष और अपने प्रति दीनता न होने देना, कर्मों को न कोसना; प्रमुख २ विशेषतायें है। ऐसा सुनकर प्रसन्न होते हुये श्रीकृष्ण महल को लोट रहे हैं। राज मार्ग पर सामने से श्रीढंढण मुनि को पधारते देखकर श्री कृष्ण ने हाथी से उतर कर मुनिजी को वंदना की। इस प्रसंग को देखकर किसी सेठ ने मुनिजी को मोदकों की मिक्षा दी। मुनिजी भगवान के पास पहुंचकर आहार दिखलाते हुये बोले-आज अंतराय कर्म टूट गया। प्रभु बोले-यह आहार तेरी लब्धि का नहीं है; यह तो श्री कृष्ण की लब्धि का है। ढंढण मुनि ने इस बात का यह गुण लिया; कि आज प्रभु की कृपा से ही मेरे अभिग्नह की सुरक्षा हुई है । नहीं तो टूट जाता । कर्मों का चूग-प्रभुकी आज्ञा लेकर लाया हुआ मोदक परठने को चले। जिस आहार को परठना पडता है, उसे इस तरह मिट्टी या राख में मिलाया जाता है; कि उस पर चीटियाँ आदि न आवे इसलिये मुनिजी मोदकों का मिट्टी के साथ चूरा कर रहे हैं । और भावना से कर्म रूपी पुद्गलों का चूरण करते हैं । जब तक मेरा अभिग्रह फला नहीं है तब तक आहार कैसे ग्रहण करू: ? तथा साधक आहार तभी लेता है; जबकि साधना में अभिवृद्धि हो। इस प्रकार के चितन के साथ आत्म-तत्त्व में इतनी एकाग्रता बढो; कि उसी क्षण केवलज्ञान प्रगट हो गया। इस प्रकार श्री ढंढण मुनि ने अपना कल्याण कर लिया। ढंढण मुनि के सम्बंध में श्रीमद् देवचंद्र जी रचित एक महत्वपूर्ण सझाय भी प्राप्त है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) श्री खंधक मुनि (ढा० २ गा० ८ में निर्देश ) श्रावस्ती नगरी के :"गर्दभालि" नामक परिव्राजक के शिष्य का नाम खंधक संन्यासी था। वह चार वेद इतिहास और निघण्टु ( कोष ) का सांगोपांग ज्ञाता था। एक वक्त श्रमण भगवान महावीर के श्रावक ( उपदेश सुनानेवाला) पिंगल नामक निग्न थ ने परिव्राजक के स्थान पर जाकर निम्नोक्त प्रश्न-पूछे । हे स्कंधक | लोक; जीव; सिद्धशिला और मुक्त जीव अंत सहित हैं या अंत रहित, तथा किस प्रकार के मरण से संसार (जन्म-मरण ) बढता या घटता है। इन प्रश्नों को दो तीन बार दुहराने पर भी स्कंधक को उत्तर नहीं आया। तब लोगों की कहते हुये सुना कि श्रमण भगवान महावीर समीपवर्ती "कयंगला नगरी" में आये हुये हैं । अतः स्कंधक ने वहां जाकर इन प्रश्नों का समाधान पाना उचित समझा । इसी भावना के साथ वह उधर चला। उधर श्रमण भगवान महावीर ने श्री गौतम गणधर से फरमाया कि आज तुम्हें तुम्हारा पूर्व स्नेही मित्र मिलेगा। गौत्तम बोले-भगवान् ! वह कौन होगा ? प्रभु बोले-उसका नाम है खंधक संन्यासी। गौतम बोले-उनके मिलने में कितनाक समय है ? प्रभु बोले-बस ! थोड़ा सा। वह अभी इन २ प्रश्नों का समाधान पाने के लिये यहां आ रहा है। गौतम बोले- क्या वह आपके पास दीक्षित होगा ? प्रभु बोले-हां .. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच भावना सज्झाय ___ यह सुनकर पूर्वराग से प्रेरित; अथवा प्रभु की ज्ञानातिशय बताने के लिये; श्री गौतम स्वामी खंधक के सम्मुख जाकर बोले । भो ! स्कंधक ! स्वागतम्-सुस्वागतम् । फिर प्रभु के मुख से सुनी हुई बात का स्पष्टीकरण करते हुये कहने लगे कि; क्या आप इसीलिये आये हैं। स्कंधक ने आश्चर्य के साथ कहा कि; तुम्हें इन बातों का पता कैसे चला ?। गौतम बोले मेरे धर्माचार्य श्री श्रमण भगवान महावीर ने मेरे से कहा था;। वे सर्वज्ञ हैं; अनंत ज्ञानी हैं। चलिये अब उनके पास चलें। प्रभु के पास पहुंचते ही खंधक सन्यासी ने तीनबार प्रदक्षिणा पूर्वक भगवान को नमस्कार किया। प्रभु ने इन के वाहों प्रश्नों का समाधान कर दिया। इससे प्रभावित होकर खंधक संन्यासी ने भगवान के पास जैनी दीक्षा ले ली। फिर उन्होंने ग्यारह अंगों का अभ्यास किया साधु की बारह प्रतिमाएं ( प्रतिज्ञायें) धारन की; गुण रत्न संवत्सर नामक तपस्या की और बारह वर्ष की दीक्षा-पर्याय का पालन कर अंत में विपुलगिरि पहाड़ पर पादोपगमन संथारा करके बारहवें देवलोक में गये । (भगवती-शतक २) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) मुनि कुरुदत्त ( निर्देश – ढाल २ गाथा ८ ) तक ध्यान करने हस्तीनागपुर के निवासी कुरुदत्त नामक एक कुमार ने जैनी दीक्षा ली। फिर गुरुजी के पास आगमों का अभ्यास करके एकलविहारी होने की आज्ञा ली । आपने विहार करते २ एक उद्यान में पांच प्रहर की प्रतिज्ञा लेकर पद्मासन लगा लिया । उस वक्त कई चोर किसी के यहां से गौओ कर को चुराकर मुनि के पास से निकले । पीछे से गौओं का मालिक वहां पहुंच कर मुनि से पूछूने लगा कि, बतलाइये चोर किधर गये। मुनि ने सोचा बोलने से हिंसा की संभावना है, अतः ऐसे प्रसंग पर मौन ही श्रेयकर है। तब गौओं के मालिक ने नोकरों से कहा, इस मुनि के सिर पर अंगारे रखो, फिर अपने आप बतलायेगा। नोकरों ने तत्क्षण गीली मिट्टी लेकर मुनि के सिर पर पाल बांध डाली । और उसमें जाज्वल्यमान अंगारे भर दिये । सिर भावना के बल से अडिग बैठे रहे । और सोचने लगे, I जलते हुये भी मुनि सत्त्व जलनेवाली वस्तु तो पुद्मल है । मेरी आत्मा तथा आत्मा के गुण ज्ञान, दर्शन चारित्र आदि तो कभी नहीं जलाये जा सकते । इस तरह एकत्त्व - भावना द्वारा समस्त कर्मों का क्षय करके : मुक्ति पहुंच गये । ( उत्तराध्ययन २ ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) मुनि मेतार्य (निर्देश ढाल० ३ गा० २३) मुनि मेतार्य महान तपस्वी थे। एक वक्त पारणा लेने के लिये किसी सुनार के घर पहुंच गये। उस समय वह किसी की 'जवमाला' बनाने के लिये सोने के जव पड़ रहा था। उन जवों को खुले ही छोड़ कर मुनि को आहार देने के लिये उठ गया । पीछे से पास में बैठे हए एक क्रौंच पक्षी ने वे जब खा लिये, और उड़ कर सामने एक वृक्ष की डाली पर जा बैठा । मेतार्य मुनि ने इस पक्षी का यह काम देख लिया। अब गौ-चरी लेकर मुनि जाने लगे। इधर सुनार देखता है कि घड़े हुए जव नहीं है । सुनार का वहम मुनि पर गया और उन्हें पकड़ कर लाया । पहले तो धीमे से बोला मेरे जव लेकर कहां चले हो । लामो मेरे जव। मुनि मौन रहे । तब वह जोशसे बोला, अव देते हो या नहीं। मुनि ने पंखी का नाम इसलिये नहीं बताया कि हिंसा की सम्भावना थी। मुनि द्वारा कुछ भी उत्तर न मिलने से वह मुनि को पीटने लग पया। मुनि तो फिर भी मौन। तब उसने रस्सी से हाथ पैर बांध कर गरमागरम रेत में बिग दिया। फिर भी मौन रहे । अन्त में चमड़े की रस्सी को गीली करके मुनि का सिर बांध दिया । ज्यों-ज्यों रस्सी सूखने लगी त्यों-त्यों सुनार का मुस्सा और मुनि की वेदना बढ़ती ही गयी। मेतार्य मुनि ने तो जीवदया के लिये अपना बलिदान करना ही श्रेष्ठ समझ रखा था। मुनि की आत्मा तो देहाध्यास से अपर उठी हुई थी। इनको ' शारीरिक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनियों की जीवनियाँ धर्मों का अनुभव ही नहीं रह गया था। सिर फटने के साथ-साथ कर्मों के बन्धन टूट गये। एक जीवदया के लिये ऐसे महान मुनि ने अपना बलिदान करके सत्व भावना का महान आदर्श उपस्थित कर दिया। पीछे से सुनार के घर के सामने किसी लकड़हारे ने विश्राम लेने के लिये अपना भारा इतने जोर से जमीन पर फेंका, कि उस आवाज के धक्के से डर कर क्रौंच पक्षी ने सारे जव वापिस कर निकाल दिये। सुनार ने अब समझा कि निष्कारण ही मेरे द्वारा एक महान तपस्वी मुनि की हत्या हो चुकी । अब मेरा क्या होगा ? इस भय से घबरा कर मेतार्य मुनि का वेष पहन कर घर से निकल गया। अन्त में इसने भी अपना कल्याण कर लिया। (५) कार्तिधर और सुकोसल (निर्देश ढा० ३ गा० २३) अयोध्या के नरेश कीर्तिधर अपने पुत्र को राजगद्दी देकर साधू बने । इससे महारानी को बड़ा दुख लगा । कालान्तर से कीर्तिधर मुनि पारणा लेने के लिये अयोध्या में आये । झरोखे में बैठी हुई महारानी ने मुनि को देखकर सोचा आप मुझे छोड़कर चला गया अब मेरे लड़के को भी साधु बना कर ले जायगा। यों सोच कर सेवकों से मुनि को नगरी से बाहर निकालने की आज्ञा दे दी। उन्होंने वैसा ही किया । तपस्वी और राजर्षि के साथ में ऐसा व्यवहार देखकर देखकर सारी जनता रानी को धिक्कारने लगी। राजमहलों में रहने वाली एक धाय माता ने सुकोसल राजा को इस बात की सूचना दे दी। राजा घबराया हुआ उठा और मुनि को वंदन करने के लिये चल पड़ा। मुनि ने उसे उपदेशा. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच भावना सज्झाय मृत का पान करवाया । अपनी माता के व्यवहार से संसार का स्वार्थीपन देखकर राजा सुकोसल संयम लेने को तैयार हो गया । तब सुकोसल की रानी चित्रमाला ने कहा, हे राजन । आप का वंश कैसे चलेगा ? राजा बोला--अभी तू गर्भवती है, मैं तेरे उदरस्थ को राज्य देता हुँ । मेरे इस शुभ कार्यों में कोई विघ्न मत करो। यों समझा कर राजा सुकोसल ने अपने पिता मुनि कीर्तिधर के पास दीक्षा ले ली। इस प्रकार की दीक्षा का पता चलते ही सुकोसल की माता रानी सहदेवी महलों से गिर कर मर गयी । और विशेष आध्यान के कारण जंगल में बाघिनी हुई। घोर उपसर्ग-. अब कीर्तिधर और सुकोसल मुनि ने चौमासी तप के साथ गुफा में चौमास बिताया। फिर पारणा लेने के लिये दोनों मुनि शहर की तर्फ आ रहे हैं । रास्ते में वह ( पूर्वजन्म की मां ) बाघिनी आ गयी। पिता बोले-वत्स ! भयंकर कष्ट आ रहा है। अत: मुझे आगे आ जाने दो और तुम पीछे हो जाओ ! पुत्र बोला--पिता जी ! क्षत्रिय का यह धर्म है कि युद्धक्षेत्र में पीछे पग न देना । मैं क्षत्रिय हूं, साधु हूं और तपस्वी भी हूं। इसलिए वीरतापूर्वक कर्मों से युद्ध करने का समय आया है । मैं समभाव से उपसर्ग को सहकर मोक्ष को साधुगा । आप अपने पुत्र का वीरत्व देखिये । इतना कहकर 'मुनि ध्यान लगा कर खड़े हो गये । अब वह बाघिनी पूर्व वैर के कारण मुनि ( अपने पुत्र ) पर टूट पड़ी। नखों से कोमल चमड़ी को विदार-विदार कर लोही पीने लगी। सुकोसल मुनि एकत्व भावना में लीन बने हुए सोचते हैं, देह से मैं भिन्न हूँ। देह जड है, मैं चेतन हूँ। देह विनाशशील है, मैं अविनाशी हूं । देह के टुकड़े हो सकते हैं, मै अखण्ड हूं। देह को बुढापा आता है, मैं अजर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पान्त सुधारस भी अब तेरा घर में रहना इन्हे भारी लगेगा अरे ! अब तो इस शरीर को छूना भी पाप मानेंगे यह अछूत हो जाता है। देख ले, तेरे बिना इस शरीर का यह मूल्य है। ऐसे संसार से शीघ्र निवृत हो । हे जीव ! मात्र अपने एकान्त सुख स्वभाव को भुलाकर ही तू इन शुभा-शुभ कर्माधीन विकारों में अनुरागी तथा अरुचिकर सामग्री में खेद खिन्न बना है। अब विवेकी बन कर इस राग द्वेषात्मक परिणतिसे मुक्त होकर परमानन्द प्राप्त कर । हे जीव ! इष्ट अनिष्ट संयोगों में तू आध्यान रौद्रध्यान करता है । उस आतध्यानके चार पाए-यानी प्रकार है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्तध्यान के चार पाए १-संयोगात ध्यान, २–इष्टवियोगार्तध्यान, ३-चिन्तार्तध्यान, ४-भोगात निदानात ध्यान । संयोगा-ध्यान अग्नि, जल, विष, के संसर्ग से शस्त्र, तलवार, तोप, बन्दूक, कटार के प्रहार से । बाघ, शेर, सर्प के स्पर्श से आक्रमण से, जलचर, मगर, गेंडादि की पकड़ से उत्पन्न भयसे, शत्रु ओं के उपद्रव से, राजकोप से दुष्टजन सम्पर्क से, धन सम्पत्ति के नष्ट होने से, दारिद्रय से पीड़ित संयोग से दुखात चित्त की एकाग्रता। इष्टवियोगात ध्यान धन, ऐश्वर्य, स्त्री-पुत्रादि के वियोग से बन्धु-बान्धवों के मरण से, सौभाग्य, महत्ता के भ्रंश से, रुचिकर, मनोज्ञ, आशापूर्ण सम्बन्ध भंग से। मोह मुग्ध दशा में भय-भ्रान्त हाय, कलाप करते हुए शोकात परिणाम । चिन्तार्तध्यानमहाव्याधि, श्वास, खांसी, भगंदर, पेटशूल, कोढ़, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुहास निर्विकारी संयमी को जो सुख उपशम भाव में शाम होस है, वह सुख इन्द्र को भी दुर्लभ है। जिस समय विकारमुक्त होकर निजत्व के अज्ञान का विलय करता है उस समय मिथ्यात्व मुक्त होकर निर्वाण पथ पर अग्रसर होता है जब तक निजत्व का अज्ञान मौजूद है तबतक जप, तप, संयमसाधनाएँ परमपद की हेतु नहीं बल्कि संसार परिभ्रमण का कारण मात्र है। हे पथिक ! जब तक तू अपने आप को भूलकर चौरासी में भटक रहा है, तब तक चाहे जितना धीर-वीर पराक्रमी मुनि बन कर व्यवहार संयम का पालन कर, किन्तु मुक्ति नहीं मिलने की। द्रव्यलिंगी भावलिंग के अभाव में सर्वथा निष्परिग्रही होकर एकान्त हिमालय कन्दग में अथवा निर्जन तटिनी तट पर चाहे जितना तप करे फिर भी कर्म पास तोड़ने असफल ही रहेमा । उसका सारा का सारा साधन संसार भ्रमण का कारण होगा। अतः हे चेतन अपनी लन्धि की रक्षा कर शान्त रस चख । ताकि परमपद प्राप्त हो । हे चेतन ! भले, सुन्दर शुभ शरीर, मनोहर रूप, अच्छे ये-अच्छा संयोग मिल जाय, किन्तु जिसे अपने आप के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ शान्त सुधारस अस्तित्व का ज्ञान नहीं, वह बहिरात्मा ही है। मोहनिद्रा में पड़े प्राणी को आत्मानन्द की अनुभूति कहां पड़ी है ? जिस समय मोह निद्रा टूटेगी आत्म-ज्ञान होगा और ऐसा समझ में आएगा कि ये विषय विकार, शरीर सम्बन्ध मुझे बंधनरूप है, महान बेड़ियां है, न जाने कब इनसे मुक्ति मिलेगी तभी आत्मानन्द की अनुभूति उपलब्ध होगी। रे मन ! जिस सुख, धन, वैभव, राज्य-सम्पदा के लिये पिता-पुत्र और पुत्र-पिता की हत्या तक करने पर उतारू हो जाय ऐसे निकृष्टतम संसारी सुखों के भूलभुलैये में फंसा तू स्वयं यमराज की सबल दाढ़ों में दबोचा पड़ा है। ये हलाहल विषय-विष .जिनके लिये क्यों तू अपना अमृत भण्डार लुटा रहा है ? हे परस्वभाव रक्त ! तू क्यों नहीं जान लेता कि इन पुत्र, बन्धु-बान्धव, इष्टवर्ग के सम्पर्क में किसी ने भी सुख नहीं पाया है। अरे ! जबतक स्तन्यकी पूर्ति होती है ये प्रेमी बने फिरते हैं, जिस दिन स्वार्थ पूर्ति करने में तू असमर्थ हो जायगा इन्हें दुश्मन बनते देर नहीं । यदि तू अभी चल बसा तो ये प्रिय निकट सम्बन्धी तेरे इस शरीर को श्मशान में ले जा कर फूंक आयेंगे । एक क्षण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस क्षणों वाला, आतध्यानति दुर्गत का हेतु है। अतः मनीषी को इसका त्याग कर ही देनाचाहिये ।। विपरीत बुद्धिवश ही जीव रौद्रध्यान करता है । दुष्ट परणामी, दुष्ट चिन्तन वाला जीव रौद्रध्यानी कहाता है । इसके भी चार पाए हैं। रौद्रध्यान के चार पाए १-हिंसानुबंधी रौद्रध्यान, २--मृषानुबंधी रौद्र ध्यान ३--चौर्यानुबंधी रौद्रध्यान, ४--परिग्रह--संरक्षणानु बंधी रौद्रध्यान १-हिसानुबधी रौद्रध्यान किसी भी प्राणी को बध किया बंधन में देख कर खुश होना । छोटी जगह में किल-विलाने अनेक प्राणियों को दुखात बिल-बिलाते देखकर खुश होना । तमाशा देखने जैसा मनोरंजन मानना। स्वयं किसी को मारना-मरवाना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस मारनेवाले की प्रशंसा करना, शाबासी देना। दयाहीन, मदोन्मत्त पापमतिपूर्ण, हिंसादि कार्यों में कुशल, नास्तिक, सदैव मारने व मरवाने की घात में ही लगे रहना। पापोपदेशी मारने-मरवाने में ही सुख माननेवाला। ऐसों का ही संग चाहनेवाला, कोई शूरवीर का संग मिल जाय तो मैं इन सारे जीवों को एक ही साथ खत्म कर डालूँ, इनकी चटनी बना द, इनका बलिदान कर ब्राह्मण देव-दैवी कुल गुरूओं को प्रसन्न करूं। मेरी कीर्ति होगी, इसीसे मुझे शान्ति मिल सकती है। तभी मेरा जीवन सफल है। इत्यादि महारौद्र परिणाम, जिससे कि दुर्गति प्राप्त हो, ऐसी एकाग्रता को हिंसानुबंधी रौद्रध्यान कहते है। २.-मृषानुबंधी रौद्रध्यान असत्य भाषण, अनर्थकारी मनः परिणाम, पाप मल से मलिन हृदय, दुष्ट परिणाम। वंचक, झूठा, छली, प्रपंचपूर्ण युक्ति प्रयुक्तियों से नए शास्त्रों का विधान कर, अथवा अपनी इच्छानुसार अर्थ निकाल कर, दयाहीन धर्म मार्ग का प्रवर्तन करें। धर्म की आड़ लेकर निवध विषय भोगों का सेवन करें। मायाचार से भोलेमाले सरल भद्रं प्रकृति लौंगों की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस अतिसार, ज्वर, पित्तप्रकोप श्लेष्मविकार, गठिया, संधिवात आदि भयंकर रोगों से उत्पन्न मरणान्त वेदनावश आकुल-व्याकुलता। हाय ! स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी कि ऐसी वेदना भोगनी पड़ेगी ? इससे कैसे जल्दी मुक्त बनू ? क्या करूं? कौन-सी दवा लू? आदि चिन्तामें ही अहर्निश व्यस्त परिणाम । भोगात-निदानात-ध्यान मुझे देव-देवेन्द्र, सम्राट, चक्रवर्ती की विलास सम्पदा कब प्राप्त होगी ? त्रैलोक्य में श्रेष्ठ ऐसा सुभग रूप यौवन कैसे प्राप्त हो ? मेरे सब शत्र ओं का विनाश कब होगा ? न जाने कब सुन्दर--स्त्रीसंग से खूब तृप्त होकर भोग भोगूगा? सब शत्र ओं को नष्ट कर कब निश्शंक विश्व पर राज्य करूगा ? देवांगनाएं कब मेरे समक्ष नृत्य करेगी! वगैरह विकल्पों में चित्त की एकाग्रता। तप, संयम, इन्द्रियादि दमन, के प्रतिफल में इन्द्रादि पदवी की वांछा, मेरे तप के प्रभाव से मेरे शत्रु का नाश हो जाय। उसका पूरा कुल खत्म हो जाय, कोईनाम लेवा न बचे, तभी मुझे शान्ति होगी ! इस प्रकार क्रोधाधीन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस होकर, तपादि के प्रतिदान में संसार वृद्धि करनेवाले, महा दुख के कारणरूप, संकल्प विकल्प करना । इस प्रकार के निदान करने से जीव प्रतिपल दुख दावानल में जलता ही रहता है। हे जीव ! बिना पुण्य किसी के भी मनोरथ सिद्ध नहीं होते, तू मिथ्या विकल्प मत कर । अपथ्य सेवन से जैसे रोग उग्र हो जाता है, वैसे ही निदान करने से सुकृत नष्ट हो कर, जन्म-मरण रूप व्याधि बढ़ जाती है। ... इस आत्त ध्यान रूप व्याधि की उपस्थिति की सम्भावना, मिथ्यात्व से लेकर पंचम देशविरतीय गुणस्थान तक रहती है। आगे कृष्ण, नील, कापोत लेश्या के कारण, छठे गुणस्थान में भी आतध्यान मुनि को उपसर्ग कर सकता है। आत ध्यान में यदि आयुबंध हो जाय तो गुणस्थानों से पतित होकर तिर्यश्चगति में आता है। ___ यदि अन्तर्मुहूर्त मात्र जीव को अत्त ध्यान हो तो उसकी दशा सशंक सी हो जाती है। शोक, पीड़ा, भय, प्रमाद, कलह, भ्रम, उन्माद, अतिनिद्रा, कषाय, कामपीड़ा, ऐसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कान्त सुधारस कल्पना करता है, चाप से बाण से वैरियों के हृदय वेध डालू, ग्राम नगर जलाकर लूटकर, सारी सम्पदा अपने अधिकार में करलू ? अपने पराक्रम से अनेक कुल संहार कर, गढ़ किले ढाह कर, समुद्र खाइयां पार कर, जहां भी मेरे शत्रु हैं, उन्हें जीतकर ना प्रताप फैलाऊ, राजा बन जाऊ । परिग्रह प्राप्ति लिए अनेक विकल्प करता है । एक अंग को पीडित करता है, किन्तु यह लालसा तो सर्वांग वेदना करती है । धन के लिए अपने परिणामों का, भावनाओं का, अन्तरध्वनि का गला घोंटता है । कृष्ण लेश्या वाले जीव को रौद्रध्यान होता है । परिणाम में नरक प्राप्त होता है । यह ध्यान पंचम गुणस्थान पर्यन्त रह सकता है । रौद्रध्यानी का वचन उग्र, तीक्ष्ण, कठोर, भयोत्पदाक होता है । हत्या उसके बांए हाथ का खेल है। आंखें क्रोध के अंगारे उछालती रहती हैं। शरीर कांपता ही रहता है । हे चिदानन्द ? आर्त्त रौद्रध्यानानि से धर्म कल्पतरू झुलस जाता है । इन्द्र; चक्रवर्ती, तीर्थकर पद देनेवाले धर्म ध्यान का आलम्बन लेना चाहिए । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस ___ जो मूर्ख होते हैं वे ही परिग्रह विषय विकार सामग्री देखकर खुश होते हैं। परिग्रहधारियों को सुखी मानना वज्राग्नि को शीतल मानने जैसी मूर्खता है। इन्द्रिय जन्य विषय भोगों में आनन्द मनाना काल कूट विष पानकर अमर होने की लालसा जैसी भूल है। शरीर को तारमर मानना चपला की कोंध में रत्न की परीक्षा जैसा साहस, हे जीव ! भले अज्ञानाधीन होकर इन नश्वर सुखों को रगोय-मनोज्ञ मान, परंतु वास्तव में ये इन्द्रजाल जैसे मायावी ही हैं । स्वमवत् मिथ्या हैं। आत और रौद्र ध्यान अनादिकाल से जीव के साथ लगे हैं इनका फल दुर्गति ही है । यह स्वयं पापवृक्ष है भला इस के फल मधर कहां से होंगे? अतः सम्यगदर्शन, ज्ञान पूर्वक विचार कर आत-रौद्र परिणामों से मुक्त होजा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस श्रद्धा का अनुचित लाभ उठा कर, उन्हें कुमार्ग पर चढ़ा कर, भ्रम में डाल कर, विश्वास जमा कर; अपना उल्ल-सीधा करे। भोग-मार्ग में भी धर्म है, ऐसी रहस्यपूर्ण भाषा से अपना मनोभिलषित प्राप्त करे । असत्य मार्ग से भोग-भोगने में शंकित न हो, लोकलाज भी जिसे नहीं। मद्य, मांस, पर-- स्त्री संग में रत । अनुचित सम्बन्ध गांठनेवाला । धन ठग कर भोगोपभोग सम्पदा पाने की अभिलाषा । ऐसी बोली बोले जिस से स्वयं को सुख और दूसरों को कष्ट हो । ऐसी अनर्थमय दुखप्रद विडम्बना वाला विकल्प 'मृषानुबंधी रौद्र ध्यान कहाता है । ३-चौर्यानुबंधी रौद्रध्यान : महा दुष्ट पल्लीपति, भयंकर डाकू, लटेरे, इनके दल को, सरदार को, साथ लेकर निर्दोष प्रजा को लूट्रॅगा । इन लोगों को धन ऐश्वर्य, सुख भोगते बहुत समय हो गया "अब इनके दिन पूरे हो गए, एक न एक दिन मैं अवश्य इनके धन का मालिक बनके रहूंगा। इनके ये हाथी, घोड़े, दास,-दासी, सुन्दरी कोमलांगी स्त्रियां एक दिन जरूर छीन कर सुखी बनूंगा। चोर लटेरों के सहयोग से यह सारी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस श्रीमंताई मेरे चरणों तले होगी । ज्यों-ज्यों धनी, मानी, गुणवंतों को देखता है, त्यों-त्यों मन ही मन इर्षा, द्वष डाह से जलभुन कर खाक हो जाता हैं। परसुख असहिष्णुता से सतत पीडित रहता है । कैसे इस सुख को चुराकर अपना बनाऊ इसी मनोरथ में गर्क चित्त चौर्यानुबंधी रौद्रध्यान करता है। ४-परिग्रह संरक्षणानुबंधी रौद्रध्यान: घोर आरंभ समारंभ से परिग्रह संग्रह करू । जीव हिंसा करके भी धन को बचाकर किसी भी उपाय से हो मैं धनवान बनू । कोई मेरा धन चुरा न जाय; ऐसी शंका से सभी को चोर समझे, धन के मामले में अपने स्त्री, पुत्रादि का भी विश्वास न करे, अत्यधिक लोभाभिभूत स्वयं अन्यों को ठगता है, अपने जैसा सभी को ठग मानता है । हाथी, घोड़े रथ, दास, दासी, स्वर्ण रत्न धन, धान्यादि असीम परिग्रह को देख-देख फूला नहीं समाता, ऐसा मानता है मानो स्वयं साक्षात् परमात्मा ही हो। मेरे जैसा संसार में कोई नहीं, जो हूँ मैं ही हूं। इस प्रकार गर्वोन्मत्त न करने योग्य आचरण करता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस में गंडासी से पकड़ कर जल में डुबा देने पर वह स्वभाविकता की ओर असर होता है फिर भी जल में डालने के साथ एक दम ही न तो वह शीतल ही हो जाता है, और न चिकना व कठोर ही बनता है। कुछ समय जल - निवास करने के पश्चात् ही उसमें सहजता आती है । उसी प्रकार सुखपिण्ड आत्मा, मोहाधीन, मिथ्यात्व अविरति आदि अग्नि में दहकता है । उसे सम्यग् दर्शन, चारित्र रूप गंडासी से पकड़ कर उपशम रूप ज्ञानजल में डुबा देने पर भी एकाएक मोहजन्य ताप से मुक्त नहीं हो पाता - धीरे-धीरे ही स्वस्थ होता है । I हे जीव, तूं व्यर्थ ही अनादिकाल से मिथ्यात्व, अविरति आदि तापों से तपता रहा, । किन्तु, कोई चिन्ता नहीं ! तेरे जैसी ही एक नहीं, अनेक आत्माएँ, इसी उपशम जल में डुबकी लगाकर, शान्त हुई है । मात्र एक बार मोहनिद्रा से जागृत होजा ! फिर अपने सहज शान्तरस में अवश्य समाधि प्राप्त करेगा । Jain Educationa International ४७ हे चेतन तू अपने से भिन्न जो भी पदार्थ देखता है वे सभी चेतनाशून्य है । उन्हें सुखानुभव नहीं होता । लेकिन । For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान सुधारस जो ज्ञाता दृष्टा सुखानुभूति का अनुभव करने वाला है वह चमदृिष्ट से दिखाई नहीं देता फिर भी उसके अभाव में जगत निष्क्रिय है। रूपी पदार्थ नाना प्रकार के विकारों से युक्त है, शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श जिसके गुण है, और तू ज्ञान दर्शनादि संयुक्त है तेरा इसका प्रेम कैसा ? इस जड में तो प्रेमानुभूति ही नहीं है और न इसे निज पर का ज्ञान ही है। फिर यह तेरे अनन्त गुणों से कैसे परिचित हो सकता है ? फिर प्रेम कैसा ! जिस प्रकार तूं सर्वस्व भुलाकर पुद्गल पर आशक्त हैं उसी प्रकार यदि यह भी तेरे पर अनुरक्त हो तब वो इस प्रेम में मजा है शोभा भी है, । वर्ना जड और चेतन की जीवित और मृतक की कैसी प्रीत ? सती का प्रेम मूढ़ नहीं जानता, वैसे तेरा प्यार यह जड नहीं समझता। हे जीव ! संतोष से विश्वास कर कि तू अकेला है यह सब संसर मिथ्या है, ऐसा जानने वाला ही स्वभावरस में रमण कर शान्तरस आस्वादन करता है। हे चेतन । आज पर्यन्त तू अपने गुणों से, महिमा से अनभिज्ञ रहकर बाह्य सुखों में भटकता रहा है। मन में विकल्प करता रहा कि कौन से मान को ग्रहण करू ? किस क्रिया से मुक्ति होगी। मिथ्या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन लिंग हे चेतन! रूपी पदाथों का द्रव्य दृष्टि से अवलोकन करने पर लिंग तीन प्रकार के दृटि गोचर होते हैं। इन्हीं लिंगों में विश्वास करके तू अपने पराये के मोहजाल में आबद्ध होता है। किंतु जो लोग लिंगजाल से मुक्त भावदृष्टि से आत्म स्वरूप देखते हैं, वे लैंगिक विषय विकारों से अनाशक्त रहते है । वह आत्मा को शन्दादि विषय से पर देखते हैं। लिंग दो प्रकार के हैं। १भावलिंग २द्रव्यलिंग १-भावलिंग भावलिंग का स्वरूप अभ्यन्तर परिणामों के अधार पर निश्चित किया जाता है । ( परमात्मा ) पुरुषलिंग ( अन्तरात्मा स्त्रीलिंग बहिरात्मा:नपुश लिंग २-द्रव्य लिंग... द्रव्य दृष्टि से दिखाई देने वाले अवयवों की भिन्नता से जो भेद पुरूष, स्त्री, नपुसंक के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं वे द्रव्यलि। किन में द्रन्य लिंग की प्राप्ति का आधार भाव लिंग एगद.। यों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस माया प्रपंच रहित, सरल-शुद्ध चिच, दयालु, कोमल हृदय; संयम की भावना शुभ लेश्या, ऐसे भावोंसे "पुरुषलिंग" का बंध होता है। ___ मायाचार, अनाचार, कुटिलता करके भी सच्चे-सीधे बने रहना, मुख से मीठी-मीठी बातें करना, हृदय में सदा घात लगाए रहना । इत्यादि परिणामों से "स्त्रीवेद" का बंध होता है। महाक्लेश, कंकास, कलह, आत-रौद्र परिणाम, 'निरंतर कामपीडित मन से 'नपुंसक वेद' का बंध होता है। हे जीव ! तू अरूपी है, अनादि सिद्ध है, वचनातीत अगोचर है । सर्व विकारमुक्त ऐसा अपना लिंग जानकर लैङ्गिक विकार तजकर आत्म प्रेम जागृत कर शांतरस चख । हे चिदानन्द ! अनादिकाल से तू मिथ्यात्व, अविरति रूप भ्रममें पडा है अतः एकाएक इस अनादि पाप मूल यंकर याधि से मुक्त होना कठिन है। क्योंकि जिस प्रकार "हे" गोले को अग्नि में तपा कर सूर्ख अग्नि जैसा ही मार्ग को कहा बना पर, उस की स्वाभाविकता नष्ट हो जाती है। बाद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनियों की जीवतियों इससे सेठ वगेरे सुसमा के शव को देखकर रोते-रोते घर लौट आये। सुसमा के मुंड के लोही से चोर का सारा शरीर पुत गया । दौड़ते-दोड़ते चोर का सारा शरीर शिथिल हो गया। जिस सुसमा को पाने की तीव्र अभिलाषा थी' उसी का सिर हाथ से काटना पड़ा, इसलिये मन भी ग्लानि से भर गया। भय तो था ही, कि सेठ वमेरे पीछे आ रहे होंगे। इन कारणों से घबराहट का कोइ पार नहीं था। इतने ही में एक वृक्ष के नीचे एक मुनि को कायोत्सर्ग करते हुये देखकर उनके पास आकर कहने लगा, हे मुनि ! जल्दी से धर्मोपदेश दीजिये, नहीं तो देखिये, इस तलवार से इस कन्या के सिर की तरह तुम्हारा ही गला उतार देता हूं। मुनिने चोर का रौद्ररूप देखेकर सोचा, कि धर्म सुनने की इतनी त्वरता योग्यता को व्यक्त करती है । यथा इसे कोई उग्न भय अथवा आवश्यक कार्य है, अतः इतनी 'स्वरता है। उपदेश लेने का तरीका भी तलवार से बता रहा है। इसलिये ध्यान को छोड़ कर धर्म का अत्यंत संक्षेप रूप करते हुये बोले-भाई । १ उपशम-रविवेक और ३संबर ही धर्म है । मुनिजी तो इतना सा, परन्तु सारभूत उपदेश देकर नमोक्कार बोलते हुये जंघा पर हाथ रख कर आकाश मार्ग से उड़ गये। पापी से धर्मी--अब चिलातीपुत्र सोचने लगा कि इन तीन पदों का क्या अर्थ हो सकता है। फिर समझ में आया कि उपशम का अर्थ है क्रोध की शान्ति । मेरे हाथ में तो क्रोध का प्रतीक खङ्ग है । यदि मुझे उपशम चाहिये तो खङ्ग को फैकना होगा। विवेक का अर्थ है अच्छे कामों में प्रवृत्ति और बुरे कामों से निवृत्ति। मेरे एक हाथ में जो सुसमा का सिर है, यह दुष्टता का सूचक है। इसे भी छोड़ना होगा। इन दोनों को बड़ी दूर फेंक दिया । संवर का अर्थ है रोकना। मैं किसे रोकू ? फिर पांच इन्द्रियाँ और मन को रोकने का ध्यान आगया। यों सोचकर जैसे साध खड़े थे, ठीक उसी प्रकार उसी स्थान पर ध्यान लगाकर खडा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ पंच भावना सज्झाय 1 हो गया । तथा यह नियम कर लिया कि जब तक इस स्त्री हत्या की स्मृति भी मेरे मन में रहेगी, तब तक कायोत्सर्ग करके खड़ा रहूंगा । अर्थात् तब तक मेरे शरीर को वोसिराता हूँ | इस प्रकार भावनाओं में साधुपन आने से चोर, जुआरी, शराबी, पल्लीपति वगेरे पापसूचक विशेषण हटकर मुनि चिलातीपुत्र बन गया । मुनिजी का शरीर सुसमा के रुधिर से पुता हुआ था, इसलिये उसकी गंध से बिलों में से निकल- निकल कर असंख्य चींटियाँ मुनि के शरीर को काटने लग गई । काटा भी तो इतना काटा कि पैरों की ओर से काटती२ मस्तक की तफ सुराक बनाकर निकलने का मार्ग बना डाला । सारा शरीर चलनी की तरह विध गया इतनी उग्र वेदना होते हुये भी, अपनी प्रतिज्ञा के पक्क े, ध्यान और योग में लीन, आत्मा और शरीर की भिन्नता विचारते हुए श्री चिलाती मुनि मेरु पर्वत की तरह अडोल ही खड़े रहे । इस अवस्था में केवल अढाई दिन की अल्प अवधि में ही आयुष्य समाप्त करके आठवें स्वर्ग में देवता बन गये । सार- इस कहानी में एकत्त्व - भावना और सत्त्व-भावना साकार रुप से पाठकों के सामने आरही है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) श्री अनाथी मुनि (ढा० ४ गा० १७) कौशांबी नगरी के धनसंचय नामक इभ्य-सेठ के आप सुपुत्र थे। आप माता, पिता, भाई, बहन, पत्नी आदि स्वजन समूह की ओर से भी महान सुखी कहलाते थे। किन्तु एक दिन आप की आँखों में ऐसी असह्य वेदना उत्पन्न हुई, जिससे सारा शारीर भार स्वरुप प्रतीत होने लगा। पिताने अपने लाडले लड़के को स्वस्थ करने के हेतु उपचार तथा सेवा करवाने में कोई कमी नहीं उठा रखी। अच्छेअच्छे अनुभवी चिकित्सक बुलवाये गये, पानी को नाई पैसा बहाया गया, परन्तु शान्ति की बजाय पीडा तो उत्तरोत्तर बढती ही चली। दिन की भूख और रात की नींद हराम हो गई । एक दिन आपने सोचा, पीड़ा का मूल कारण कर्म है । कारण मिटने से तज्जन्य कार्य स्वयं समाप्त हो जायगा । अतः मै यह संकल्प करता हूं। यदि मेरी यह वेदना मिटकर आज रात को मुझे नींद आजाय, तो मैं संसार का परित्याग करके चारित्र ग्रहण कर लूंगा। संयोग ऐसा हुआ, कि वेदना समाप्त हो कर रात को नींद आगई। फिर आपने सूर्योदय होते हो परिवार के सम्मुख अपना निश्चय प्रगट करके दीक्षा लेलो । राजा श्रेणिक भी अनाथ-फिर श्री अनाथी मुनि विहार करते२ राजगृही नगरी के मंडीकुक्षि नामक उद्यान में आ ठहरे। मगधाधीश ने जब इन मुनि जी को देखा, तब उनके रूप और लावण्य पर विस्मित होता हुआ घोड़े से उतर कर पूछने लगा कि, भगवन् ! आप कौन हैं ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच भावना सज्झाय मुनि ने कहा-मैं अनाथी नामक निग्नथ हूँ। राज बोला-आप जैसे व्यक्तियों का कोई नाथ न हो, तो मैं आप का नाथ बन सकता हूँ। मुनि-बोले-राजा ! जब तू आप ही अनाथ है, तब मेरा नाथ कैसे हो सकता है। राजा बोला-आप असत्य तो नहीं बोल रहे हैं न ? आप को ज्ञात रहे मैं मगघ नरेश हूँ। मेरे पास करोड़ों की संपत्ति है और लाखों का नाथ हूँ। ___ मुनि बोले --मेरे कहे हुये अनाथ शब्द का आशय तुम अभी तक नहीं समझ सके हो। __ राजा बोला-कृपया समझाइये । मुनि ने अपना जीवन वृत्तान्त सुनाते हुये कहा कि धन, संपत्ति, परिवार, माता, पिता, भाई, बहन, पत्नी के होते हुये भी मेरी अक्षि-वेदना को कोइ नहीं मिटा सका । यह मेरा अनाथीपन था। तब से मैने समझा कि सारे प्राणी अनाथ हैं । कोइ किसी का नाथ नहीं। यदि कोई नाथ है, तो अपने आप का नाथ अपनी आत्मा ही है। जो संयमी है, इन्द्रियों के विषय भोगों का दास नहीं, बल्कि उनको जीतने वाला है, सर्वजीवों को अभय दाता है, मेरी व्याख्या के अनुसार वह सच्चा नाथ है। राजन् ! अब सोचलो ! तुम नाथ हो, या अनाथ । मुनि के इस उपदेश का ऐसा असर हुआ कि राजा का नाथ बनने का मोह नष्ट होते ही अंतर की आँखें खुल गई। अब राजा श्रेणिक श्री अनाथी मुनि का उपासक बन गया । सार:--कोइ किसी का नाथ नहीं है, यह अन्यत्व-भावना इस कथा में बिलकुल स्पष्ट है। इति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) भरत चक्रवर्ती (ढौ०५ गा० १६,) अयोध्या नगरी में श्री ऋषभनाथ भगवान के पुत्र श्री भरत चक्रवर्ती हुये । उनकी पच्चीस हजार देवता और बत्तीस हजार मुकुट बंधराजा सेवा बजाते।थे । उनके चौरासी लाख रथ, तथा छिन्नवे करोड़ पैदल सेना थी। और एक लाख छिन्नवे हजार रानियाँ थी। इस प्रकार छ: खंड की ऋद्धि और विपुल भोगों को भोगते हुये भी अंतरात्मा से विरक्त और अनासक्त थे । एक दिन का प्रसंग है कि चक्रवर्ती आरीसा-भवन में बैठे-बैठे अपनी सुन्दरता निरख रहे थे। इतने में एक अंगुली से अंगूठी के निकल जाने पर अन्य अंगुलियों के सामने वह अंगुली शोभा-विहीन नजर आने लगी। इस की पुष्टि के लिये अपने एक-एक करके सारे आभूषण उतार डाले । फिर सोचा, वस्त्र भी पुद्गल, गहने भी पुद्गल, शरीर भी पुद्गल, और क्या संसार का सारा खेल ही पुद्गलमय और क्षणभंगुर है । यों आरीसाभवन में ही अनित्य-भावना के बल से नित्य और शाश्वत आत्म तत्व को पाते ही केवल-ज्ञान हो गया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) इलापुत्र (ढा०५ गा० १६, ) इलावर्धन शहर में धनदत्त नाम का सेठ था। इलादेवी की आराधना से उसके एक पुत्र हुआ, अतः उसका नाम इलापुत्र रखा। एक दिन वह लड़का अपने मित्रों के साथ नाटक देखने को चला गया। वहाँ पर वह नटराज की लड़की को देखकर उस पर मुग्ध होगया । घर आकर माता पितासे कहने लगा कि मैं नटकन्या के साथ विवाह करना चाहता है। इस कार्य के लिये माता पिता के इन्कार होने पर इसने लड़की के पिता को बुलाकर अपनी राम-कहानी सुनादी वह बोला यदि तुम घर छोड़कर हमारी टोली में आ मिलो, और नाट्यकला सीखलो तो मैं मेरी न्यात की अनुमति से मेरी कन्या तुम्हें दे सकता है । इलापुत्र सब कुछ स्वीकार करके अंत में एक कुशल नाटककार हो गया, परन्तु बारह वर्ष व्यतीत होने पर भी अभी तक विवाह को कोई बातचीत ही नहीं हो रही है । एक दिन इलापुत्र के पूछने पर नटराज ने कहा, तुम अपनो अध्यक्षता में एक नाटक सम्पादन कर एक लाख रुपये ले आओ। फिर विवाह हो जायेगा । अब नाटक का सारा साज बाज लेकर इलापुत्र विवाह की आशा से धन कमाने को वह चल पड़ा। नया नाटक--एक राजा की आज्ञा से राजमहल के सामने बड़े मैदान में नाटक को तैय्यारी होने लगी। एक बहुत लंबा वांस गड़ा हुआ, है रस्सियाँ तनी हुई है, वांस के ऊपर लकड़ी का एक फट्टा रखा है, फट्टे पर लोहे की कील है। उस कील पर अपनी नाभि टिकाकर एक हाथ में तलवार और एक हाथ में ढाल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनियों की जीवनियाँ ळेकर इलापुत्र नये-नये खेल दिखा रहा है। नीचे खड़ी२ नटराज को लकी ढोल वजा रही है । हजारों की संख्या में दर्शक लोग बड़ी तन्मयता से देख रहे हैं राजा और रानी भी महल के झरोखे मै बैठे२ खेल देख रहे हैं । राजा का ध्यान उस नट कन्या पर जाते ही वह उसे पाने की और इलापुत्र के मरजाने की मन ही मन कामना करने लगा। तथा एक बार और, एक बार और, कह कह कर राजा ने इलापुत्र को तीन वार वांस पर चढाकर खेल देखे। परन्तु इलापुत्र सकुशल नीचे उतर आया। अब धन को आशा से राजा का मुंह देखने लगा। तब राजा ने कहा, एक खेल और दिखलाओ। इलापुत्र तीन२ वार खेल दिखाने से इतना थक गया था, कि अब मन और शरीर दोनों ने उत्तर दे दिया । सोचा, यह कंजूष राजा कुछ देना नहीं चाहता, प्रत्युत मुझे वार-वार वांस पर चढाकर, नीचे गिरकर मरजाने से मेरी भावी पत्नी इस नटकन्या को हड़पना चाहता है। धिक्कार है इस कामी नरेश को। किन्तु नटकन्या ने अपने भावी पति की मनो भावना को भाँपते हुये कहा, घबराइये मत ! चढजाइये ! सफलता आपके चरण चूमेगी । इस प्रकार अपनी भावी पत्नी द्वारा प्रेरणा पाकर इलापुत्र चौथीवार खेल करने को वांस पर चढ ही गया। वांस पर केवलज्ञान--वांस इतना ऊंचा था, कि आस पास के घरों का भीतरी भाग आसानी से नजर आरहा था। एक घर में एक अत्यन्त रूपवती नवयौवना सेठानी अपने आंगन में भिक्षार्थ आये हुये मुनिके सामने मोदकों का थाल भर कर खड़ी हुई कह रही है। भगवन् ! लीजिये । भगवन् ! कृपा करो। किंतु मुनि की नजर अपनी संयमी-भावना के अनुसार आहार की ओर है, स्त्री सौंदर्य की ओर कोइ लक्ष्य ही नहीं है। इस प्रसंग को देखकर नाटक करते२ ही इलापुत्र ने सोचा धन्य है इस मुनिजी को । जो कि एक अत्यन्त रूपवती स्त्री के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ .पंच भावना सज्झाय सम्मुख आंख उठाकर भी नहीं देखते। जब कि मैं इस नट कन्या पर मुग्ध हुआ 'क्यार नहीं कर रहा है, धिक्कार है मेरी वासनावृत्ति को । इन विषय विकारों ने ही तो मुझे नट बनाकर वांस पर चक्कर लगाने को बाध्य किया है। इन विषयों से मेरा क्या संबंध है। ये सारे विषय अनित्य, अशाश्वत और अशुचिमय पौद्गलिक पदार्थ हैं । मैं तो एक, नित्य, अखंड, अजर, अमर, अविनाशी, सिद्ध स्वरूप आत्मा ह। आत्मभावों के सिवाय विभावों का कर्ता तथा भोक्ता मैं नहीं हूं। मैं तो मेरे शुद्धस्वभाव का धनी हूँ । इलापुत्र स्थूल शरीर से तो वांसपर चक्कर लगता। हुआ लोगों को नजर आरहा है और अंतर में अन्यत्व भावना का वेग इतना बढा कि वांस पर ही केवलज्ञान हो गया। फिर वांस से नीचे उतर कर जनता के सामने अपना जीवन वृत्त सुनाने से राजा-रानी और उस नटकन्या ने आत्म ज्ञान पाकर संसार का परित्याग कर दिया। इलापुत्र मुनि की मुक्ति हो चुकी । सार--वांस पर खेल दिखलाते२ केवलज्ञान का होना-अन्यत्व-भावना के महान फल का सूचक है। इति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) अमात्य तेतलीपुत्र ( ढा०५ गा० १६) तेतलीपुर के राजा कनकरथ के अमात्य का नाम तेतलीपुत्र था। इसी शहर के मूषिका दारक सुनार की एक पोट्टिला नाम की कन्या को इसने पसन्द करके अपनी अर्धाङ्गिनी बनाया था। कालांतर से अमात्य तेतली का प्रेम पोट्टिला पर से समाप्त हो गया। उस दिन से वह उदासीन सी रहती हुई दिवान के घर आये हुये श्रमण ब्राह्मणों को दान देती हुई अपना शेष जीवन बिताने लगी । एक दिन गौचरी के लिये आई हुई जैन साध्वी को इसने फिर से पति को प्रिय बनने के लिये कोइ मंत्र बतलाने को कहा। आर्या बोली, यदि तुम चाहो तो हम धर्म का उपदेश दे सकती हैं, किंतु वशीकरणादि मंत्र नहीं बतला सकती। इसने कहा, यह ही सही। तब आर्या ने श्रावकोचित बारह व्रतों का उपदेश देकर संसार की अनित्यता तथा वैषयिक सुखों की क्षणिकता की ओर इसका ध्यान आकृष्ट कर दिआ । इस उपदेश से प्रभावित होकर इसने अमात्य तेतली से साध्वी बनने की आज्ञा मांगी। तेतली बोला-तुम स्वर्ग से आकर मुझे प्रतिबोधित करने का वचन दो तो दीक्षा ले सकती हो। इसने अपना वादा पका करके सुव्रता नामकी गुरुणी के पास दीक्षा लेली । फिर गुरूणी जी की सेवा में रहते हुये इसने ग्यारह अंगों का अध्ययन कर लिया। तथा अंत में अनेक प्रकार की तपस्याओं द्वारा अपने चित्त को विशुद्ध बनाकर, समाधि पूर्वक पंडित मरण करके देवता बन गई। अपने पति को प्रबोध-- फिर अपने पूर्वजन्म के पति अमात्य ते तली को प्रतिबोध देने के लिये ऐसा किया मंत्री जब राजसभा गया, तब राजा कनकध्वज ने इसका किंचित भी सम्मान नहीं किया। इससे वह मन ही मन अनेक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ पंच भावना सज्झाय प्रकार के भावी भय को सोचता हुआ उसी वक्त घर को लौट आया। वहां पर भी माता पिता ने तो क्या, किंतु किसी तुच्छ सेवक ने भी आज इसका कोई सत्कार नहीं किया । इस प्रकार के अपमान को देखकर मंत्री ने आत्महत्या करने के लिये विष खा लिया, परन्तु मरा नहीं। फिर गले पर छुरा चलाया, परंतु गला कटा नहीं। फिर फांसी लेने लगा तो फंदा ही टूट गया, परंतु मरा नहीं फिर एक बड़ा वजनदार पत्यर गले में बांध कर पानी में डूबने गया, परंतु मरा. नहीं । फिर एक घास के ढेर में आग सुलगाकर उस में कूदा, परंतु जला नहीं । . हाय !! मौत भी इतनी महंगी कि आत्महत्या के लिये किये गये इतने सारे उपाय भी निष्फल चले गले। यों सोचता हुआ सिर पर हाथ रखकर बेठ गया। तब वह देवता पोट्टिला का रूप बनाकर कहने लगा; वे अमात्य तेतली ! मानो, कि सामने तो एक बड़ा गहरा खड्डा हो, दायें और बायें गाढ़ अंधकार हो, पीछे से एक मदोन्मत्त हाथी आ रहा हो, बीच में सन-सन करते हुये बाणों की वर्षा हो रही हो, ऐसी स्थिति में मानव कहां जाय और क्या करे। इसके उत्तर में दिवान बोला-जसे भूखे को अन्न का, प्यासे को पानी का, रोगी को औषध का, थके हुये को वाहन का, सहारा होता है, ठीक उसी प्रकार जिसके चारों ओर भय हो, उसे प्रव्रज्या का सहारा है। क्योंकि प्रवजित व्यक्ति को किसी प्रकार का भय नहीं सताता। हे अमात्य ! जब तुम इस प्रकार जानते हो और कहते भी हो, तो तुम्हें संयम का आश्रय ले लेना ही उचित है। इतना कहकर देवता तो अंतर्धान हो गया। पीछे से अमात्य तेतली को जातिस्मरण ज्ञान होने से संयम ग्रहण करने को तत्काल तैयार हो गया। फिर संयम लेकर, शुद्धभावों द्वारा इसका पालनकर, अष्ट कर्मो को खपाकर अमात्य तेतली मुक्तिपुरी में जा विराजे । . सार-संयम के सिवा कोई भी शरण-स्थान नहीं है। इस तरह अशरणभावना का आदर्श स्वयं चमक उठता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री देवचन्द्र जी महाराज कृत प्रभंजना नी सज्झाय ढाल १-पहली “नाटकिया नी नंदनी" ए देशी गिरि वैताढ्य ने ऊपरे-चक्रांका नयरी लो। अहो चक्रांका चक्रायुध राजा तिहां-जीत्या सवि वयरी लो-अहोजीत्या॥१॥ भावार्थ-वैताब्य पर्वत के ऊपर चक्रांका नाम की नगरी में सर्वशत्रुओं को जीतनेवाला चक्रायुध नाम का राजा था ......१ मदनलता तसु सुन्दरी-गुण शील अचंभा लो । अहोगुण । पुत्री तास प्रभंजना-रूपे रतिरंभा लो । अहो रूपे । २ । भावार्थ-उस राजा के मदनलता नामकी महारानी थी। उसके शील और गुण आश्चर्यकारी थे। उनकी पुत्री का नाम प्रभंजना था। वह रूप और सौन्दर्य में रति अथवा इन्द्राणी के समान थो......२ . विद्याधर भूचर सुता बहु मिली इक पंते लो । अहो बहु । राधावेध मंडावियो-वर वरवा खंते लो ।अहो वर ।६। भावार्थ-प्रभंजना ने अन्य विद्याधरोंएवं राजाओं की एक हजार कन्याओंकेसाथ मिल कर एक ही पति वरने के लिये राधावेध का आयोजन करवाया था। इसका अर्थहै. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभंजना नी सज्झाय कि जो कोई व्यक्ति नीचे तलकुंड में झांकता हुआ ऊपर घूमते हुये चक्र में राधा नाम की पुतली की एक आंख को बाण से वींधेगा, वह इनका पति होगा ॥३॥ कन्या एक हजार थी, प्रभंजना चाली लो । अहो प्रभं०। आर्यखंड मां आवतां, वनखंड विचाली लो । अहो वन०४। भावार्थ-अब एक हजार कन्याओं के परिवार से प्रभंजना कुमारी चलपड़ी। जहां राधावेव का आयोजन किया हुआ था, वहां आर्य खंड में आते हुये वीच में एक वनखंड अर्थात् बाग आगया......४ निर्ग्रन्थी सुप्रतिष्ठिता, बहु मुणणी संगे लो ।अहो बहु० साधु विहारे विचरता, वंदे मन रंगे लो। अहो वंदेश भावार्थ-वहां अनेक साध्वियों के साथ साधु धर्म का पालन करती हुई सुप्रतिष्ठिता नामकी साध्वी को देखकर वे कन्याएं बड़े उमंग से उन्हें वंदना करने लगी५॥ आर्या पूछे एवड़ो, उमाहो श्यो छै लो । अहो उमाहो। विनये कन्या वीनवे, वर वरवा इच्छै लो। अहो वर०।६। भावार्थ-आर्यिका ने उन्हें सहज स्वभाव से पूछा, कि आज तुम्हारे चित्त पर इतनी प्रसन्नता किस बात की है । तब कन्याओं ने विनय के साथ कहा आज हम सभी सहेलियाँ अपने जीवन साथी को वरने के लिए जारही हैं । ६ ए श्यो हित जाणो तुम्हें, एथी नवी सिद्धि लो। अहो एथी। विषय हलाहल विष जिहां, शी अमृत बुद्धि लो । अहो शी०१७॥ भावार्थ-साध्वीजी बोली, बहनों ! इसमें तुमने अपना क्या हित देखा है। इससे कौनसी सिद्धि होने वाली है । जिस में पांचों इन्द्रियों के विषय हलाहल विष है उस वैवाहिक संबंध में अमृत की कल्पना करना नितान्त भ्रम है । ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभंजना नी सज्झाय भीग संग कारमा कहा, जिनराज सदाई लो । अहो जिन। राग द्वष संगे वधे, भवभ्रमण सदाई लो। अहो भव०। ८ ___ भावार्थ-श्रीजिनेश्वर देवने भोगों के संग को अस्थिर कहा है। इनके संग से राग और द्वेष को बृद्धि होती है जिससे सदा भव भ्रमण होता है ॥८॥ राजसुता कहै साच ए, जे भाखो वाणी लो । अहो जे०। पण ए भूल अनादिनी, किम जाये छंडाणी लो ।अहो किमाई भावार्थ-भोगों की अस्थिरता तथा विषयों की विष तुल्यता सुनकर प्रभंजना बोली जो आप फर्मा रही हैं वह वास्तव में सत्य है ! परंतु इस जीवात्मा का अनादि काल, से पड़ी हुई यह टेव अब एकदम कैसे छोड़ी जा सकती है ? ॥६॥ जेह तजे ते धन्य छ, सेवक जिनजी ना लो । अहो सेवक। हमे जड़ पद्गल रस रम्या, मोहेयललीना लो । अहो मोहे०१० ___ भावार्थ-जो कोई श्री जिनेश्वर देव का भक्त व्यक्ति इन भोगों को ठुकराता है, उसे वार-वार धन्य है। हम सब तो मोहाशक्त होकर उन पुद्गलों के रंगरस में रमने वाली हैं ॥१०॥ अध्यातम रस पान थी, भीना मुनिरायालो । अहो भीना। ते पर परिणितरति तजी, निज तत्वे समाया लो । अहो निजा११ भावार्थ-अध्यात्म रस के पान से जिनका अंतर भीग गया है, ऐसे त्यागी मुनि पुद्गल परिणति को छोड़कर आत्मतत्व में समाये हुये रहते हैं ॥११॥ अमने पिण करवो घटे, कारण संयोगे लो। अहोकारण । पण चेतनता परिणमे-जड़ पुदगल नाभोगेलो । अहोजड़ ॥१२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ प्रभंजना नी सज्झाम ___ भावार्थ-हमें भी यही उचित है कि.ऐसे निमित का संयोग मिलने पर त्यागमा का आश्रय लें। परन्तु अभी तो चेतन पुद्गलों के भोगों में फंसा हुआ है । ॥१२॥ अवर कन्या पण उच्चरे, चिंतित हिवे कीजे लो। अहोचिं०। पछी परम पद साधवा, उद्यम साधीज लो। अहो उद्यम०१३ ___भावार्थ-इसी बीच दूसरी कन्याओं ने भी प्रभंजना से कहा, अभी तो जिस इच्छित काम के लिये हम जारही हैं, वही कर लीजिये। उचित अवसर आने पर परमपद साधने का उद्यम करेंगी । ॥१३॥ प्रभंजना कहै हे सखि, ए कायर प्राणी लो । अहो ए कायर। धर्म प्रथम करवो सदा, देवचन्द्रनी वाणीलो।अहो देवचन्द्र०१४ ___ भावार्थ-पूर्ण संवेग रग में रंगी हुई प्रभंजना ने कहा, कि हे सखि ! यह तो कायरों का काम है जो भोगों को भोग कर पीछे त्याग करने की सोचता है। मानव को सबसे पहले धर्म करना चाहिये क्योंकि मृत्यु का कोई ठिकाना नहीं है। यह वाणी श्री. देवचन्द्र जी महाराज की है ॥१४॥ ढाल २-दुसरी हूँ वारी धन्ना तुज्झ जाण न देस" ए देशी . कहै साहुणी सुण कन्यका रे धन्या । ए संसार कलेश । एहने जे हित करी गिणे रे । धन्या । ते मिथ्या आवेश रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभंजना नी सज्झाय सुज्ञानी कन्या ! सांभल हित उपदेश । जग हितकारी जिनेशरे सुज्ञानी०! कीजे तसु आदेश रे । सुज्ञानी०। ए आंकडी। १ । भावार्थ-राजकुमारी प्रभंजना की बढ़ती हुई संवेगधारा को सुदृढ़ बनाने के लिये साध्वीज़ी बोलो कन्याओं। यह संसार ही क्ले शमय है । भोग विलासमय जीवन को जो कोइ अपनाता है:, वह उसका आवेश ( विचार ) मिथ्या है मृग मरीचिका मात्र है समझदार बालिकाओं ! हित का उपदेश सुनो और जगत का हित करने वाले श्रीजिनेश्वर देव के उपदेश का पालन करो......१...... खरडी ने जे धोयवरे, कन्या तेह न श्रेष्ठाचार । रत्नत्रयी साधन करो रे । कन्या । मोहाधीनता वार रे सुज्ञानी २ भावार्थ-अभी आपकी सहेलियों ने जो मुक्त भोगी बनकर त्यागी बनने की बात कही थी, वह अनुचित है । जैसे अपने आपको जानबूझ कर कोचड़ में फंसाना, और फिर बाहर निकल कर शरीर वस्त्र आदि को धोने का प्रयास करना, यह श्रेष्ठ पुरुषों का आचार नहीं है। वैसे ही अपनी आत्मा को पहले तो विषय वासना रूपी कीचड़ में फंसाकर फिर उसे त्याग रूपी जल द्वारा शुद्ध बनाने की कोशिश करना ठीक नहीं है। उत्तम पुरुष का काम तो यह है कि पहले से ही विषय वासना से अपनी आत्मा को मलिन न होने दे । अतः मोह की आधीनता छोड़कर रत्नत्रयी अर्थात् ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना में लग जाइये।। जे पुरुष वरवा तणी रे। कन्या । इच्छ छैते जीव ।। श्ये संबंध पणे भणो रे । कन्या । धारी काल सदोव । सु३॥ . भावार्थ-हे बाला जिस किसी पुरुष को वरने की इच्छा है, वह जन्मान्तर के कौन से संबंध से मिला है । यह जीव तो एक बार नहीं अनादि काल से इस संसार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभंजना नी सज्झाय में अनेक वार अन्य जीवों से सम्बंध स्थापित कर अपना जन्म मरण रूप ससार बढाया है। इस पर जरा विचार करके देखिये ॥३॥ तब प्रभंजना चिंतवे रे। अप्पा । तूंछे अनादि अनंत । ते पण मुज सत्ता समो रे । अप्पा। सहज अकृत सुमहत ।सु०४ ____ भावार्थ-साध्वीजी के इस वक्तव्य के बाद प्रभंजना सोचने लगी हे आत्मा ! तं तो अनादि अनंत है, सहज है, अकृत्रिम है; तथा निजी गुणों से महान है । अब जिस को मैं वरने के लिये चली है। वह भी उपरोक्त गुण वाला आत्मा ही तो है । फिर मुझे इस वैवाहिक संबंध की लालसा क्यों हो रही है ॥४॥ भव भमतां सवि जीव थी रे । अप्पा । पाम्या सवि संबंध । माता, पिता, भ्राता, सुता रे । अप्पा । पुत्रवधू प्रतिबंध सु।५ । भावार्थ-संसार में जन्ममरण रूप भ्रमण करते हुये इस जीव ने अनेक जीवों के साथ में सारे संबंध स्थापित कर लिये । अर्थात् यह जीव माता, पिता, भाई, पुत्र, वधू, पुत्रवधू आदिब न चुका है ॥५॥ श्यों संबंध कहूं इहां रे । अप्या। शत्र मित्र पिण थाय । मित्र शत्रता वलि लहेरे । अप्पा । इम संसार स्वभाव । सु॥६॥ भवार्थ- इन सबंधों के विषय में क्या कहू ? जो शत्रु है वही मित्र बन जाता है तथा आज जो मित्र है स्वार्थ सिद्ध नहीं होने से वही शत्रु बन जाता है संसार का ऐसा ही स्वभाव है ॥६॥ सत्ता सम सवि जीव छ रे । अप्पा । जोतां वस्तु स्वभाव । ए माहरो ए पारको रे । अप्पा । सवि आरोपित भाव । सु॥॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभंजना नी सरकार भावार्थ-बस्तु स्वभाव को देखते हुये सारे जीव सत्ता की दृष्टि से एक समान हैं। यह मेरा और यह पराया, यह सब आरोपित अर्थात् कल्पित भाष है ॥७॥ गुरुणी आगल एहवं रे। अप्पा। जुठ केम कहवाय । स्व पर विवेचन कीजतां रे अप्पा । मांहरो कोई न थाय ।सु॥८॥ भावार्थ-निज का और पर का विवेचन करने पर यह निश्चित है कि इस आत्मा और आत्मधर्म के सिवाय मेरा कोई नहीं है। फिर गुरुणी जी के सम्मुख झूठ कैसे बोला जाय, कि इस दुनिया में दूसरा भी कोई मेरा है ॥८॥ भोगपणो पण मूल थी रे। अप्पा । माने पुदगल खंध । हूं भोगी निजभाव नो रे । अप्पा ।पर थी नहीं प्रतिबंधासु॥६॥ भावार्थ-वैवाहिक संबंध के अंदर भोगीपन का जो भाव है वह भी पुद्गलों का स्कंध ( समूह ) है अर्थात् पुद्गलों का भोगो पुद्गल ही है। मैं तो अपने आत्म स्वभाव का भोगी हूँ। पुद्गलों से अथवा दूसरों से मेरा कोई सम्बंध रुकावट ) नहीं है ॥६॥ सम्यक् ध्याने व्हेंचतां रे । अप्पा । हूं अमूर्त चिद्र प । कर्ता भोक्ता तत्त्व नो रे ।अप्पा। अक्षय अक्रिय अनूप रे-सु॥१०॥ भावार्थ-पुद्गल को और आत्मा को सम्यग् ध्यान पूर्वक भेद-ज्ञान द्वारा अलगर छांटा जाये तो मैं अमूर्त और ज्ञान स्वरूप है। आत्म स्वभाव का ही कर्ता और अनुपम सुख का भोक्ता हूं। तथा अक्षय और अक्रिय हूं। ॥१०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभंजना नी सज्झाय सर्व विभाव थकी जुदो रे । अप्पा । निश्चिय निज अनुभूति । पूर्णानन्दी परिणमे रे । अप्पा । नहि पर परिणति रीति सु॥११॥ __ भावार्थ-आत्मा को जो अपने स्वरूप का अनुभव होता है, वह सर्व विभावों से निश्चित ही पृथक है । ऐसा विकल्प रहित निर्विकल्प पूर्णानन्द का रसास्वादन करने वाला परमात्मा फिर विभाव में कभी परिरमण नहीं करता। जैसे अमृत का स्वाद लेने वाला जहर नहीं चखता ॥११॥ सिद्ध समो ए संग्रहे रे । अप्पा। पर रंगे पलटाय । संयोगी भावे करी रे | अप्पा । अशुद्ध विभाव अपाय ।सु १२। भावार्थ- संग्रह नय की दृष्टि से आत्मा सिद्ध परमात्मा के समान है। किन्तु विभाव का रंग चढ़ जाने से आत्मा विकृत हो गया यानि कर्म पुद्गल के संयोग के कारण आत्मा अशुद्ध तथा विभाव दोषवाला कहा जाता है ॥१२॥ शुद्ध निश्चय नये करी रे । अप्पा । आतम भाव अनंत । तेह अशुद्ध नये करी रे । अप्पा । दुष्ट विभाव महंत ।।१३। __ भवार्थ-शुद्ध और निश्चय दृष्टि से तो आत्मा के शुद्ध भाव अनंत हैं । अर्थात् अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, अनंत सुख आदि आत्म स्वरूप है । वही आत्मा अशुद्ध नय की दृष्टि से अनेक दुष्ट विभावों अर्थात् विकारोंवाला भी कहा जाता है १३॥ द्रव्य कर्म कर्ता थयो रे । अप्पा । नय अशुद्ध व्यवहार । तेह निवारो स्वपदे रे । अप्पा । रमता शुद्ध व्यवहार सु ।१४। ... भावार्थ-आत्मा को द्रव्य कर्म का कर्ता 'अशुद्ध व्यवहार नय' की दृष्टि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभंजना नी सज्झाय ५३ से कहा जाता है। पर में कर्त्तापन निवारण करके स्वपदे अर्थात स्वभाव में रमण करने से शुद्ध व्यवहार नय कहलायेगा ॥ १४ ॥ व्यवहारे समरे थके रे । अप्पा । समरे निश्चय तिवार प्रवृत्ति समारे विकल्प ने रे ।अप्पा। तेथी परिणति सार सु।१५॥ भावार्थ-समता रूप आचरण से आत्मा अवश्य शुद्ध होता है। उस शुद्ध नय की प्रवृत्ति से आत्मा के विकल्प समाते हैं । विकल्पों की समाप्ति से आत्मतत्त्व की परिणति अर्थात निविकल्प दशा प्राप्त होतो है ॥ १५ ॥ पुद्गल ने पर जीव थी रे । अप्पा । कीधो भेद विज्ञान । बाधकता दूरे टली रे । अप्या । हवे कुण रोके ध्यान ।सु।१६। भावार्थ---अत: आत्मा को भेद विज्ञान के द्वारा ऐसा सम्पग् ज्ञान हो जाने से कि मेरी आत्मा पुद्गल शरीरादि एवं अन्य जीवों से पृथक हैं, सभी बाधक परिणाम नाश हो गये, अतः अब आत्मा के शुद्ध स्वरूप के ध्यान को कौन रोक सकता था ॥१६॥ आलंबन भावन वसे रे । अप्पा । धरम ध्यान । प्रगटाय । देवचन्द्र पद साधवा रे । अप्पा । एहिज शुद्ध उपाय ।सु।१७ भावार्थ-टे आत्मन् ! आत्मसिद्धि साधने के लिये यही शुद्ध उपाय है कि भावना का आलम्बन लेकर के धर्म ध्यान प्रगट किया जाय। ऐसा श्री देवचन्द्र जी महाराज कहते है ॥ १७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल ३ तीसरी 'तूठो तूठो रे मुज साहेब जग नो तूठों' ए देशी आयो आयो रे अनुभव आतमचो आयो । शुद्ध निमित्त आलंबन भजतां आत्मालंबन पायो रे | अनुभव | १ | भावार्थ- बढ़ती हुई संवेगधारा से उसी समय महासती प्रभंजना को अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का साक्षात्कार - अनुभूति हुई । सद्उपदेश रूप शुद्ध निमित्त का आलम्बन कर घ्यान करने से उन्हें अपने शुद्ध आत्म-स्वरूप में रमणता रूप अवलम्बन मिल गया ॥ १ ॥ आतमक्षेत्री गुण परजाय विधि, तिहां उपयोग रमायो । पर परिणति पर री ते जाणी, तास विकल्प गमायो रे । अनु २। भावार्थ — अन्तरात्मा में ( जीवके आठ रूचक प्रदेशों ) सत्ता में रहे हुए केवलज्ञान गुण और पर्याय अवस्थाओं में अपने उपयोग को रमाया, साथ ही विभाव रूप उपयोग को अपने आत्म स्वभाव से भिन्न जान कर तत्सम्बन्धी संकल्पविकल्प को हमेशा के लिये त्याग दिया ॥ २ ॥ पृथकत्व वितर्क शुकल आरोही, गुण गुणी एक समायो । परजय द्रव्य वितर्क एकता, दुर्द्धर मोह खपायो रे । अनुभव३ । भावार्थ — शुक्ल ध्यान के चार भेद हैं । - २ - एकत्व - वितर्क - अविचार, ३ सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति, और ४ – समुच्छिन्न Jain Educationa International १ - पृथक्त्व - वितर्क - विचार For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभंजना नी सज्झाय है । क्रिया । पहले भेद में एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ का चिंतन करना अर्थसंक्रान्ति एक व्यञ्जन ( अक्षर ) से दूसरे व्यञ्जन का विचार करना व्यञ्जन संक्रान्ति है । एक योग से दूसरे योग में गमन करना योग संक्रान्ति है । पृथक् अर्था अलग-अलग, वितर्क अर्थात श्रुत, विचार अर्थात् संक्रमण यह शाब्दिक अर्थ है । ध्याता जिस प्रकार संक्रमण करता है उसी प्रकार वापिस लौट आता है प्रथम शुक्ल ध्यान द्वाराबाल ब्रह्मचारिणी प्रभंजना का चित्त निर्मल एवं शान्त हो जाने से वे दूसरे शुक्ल ध्यान को ध्याने की अधिकारणी हो गई । एकत्व - वितर्कअविचार' अर्थात् यह ध्यान पृथक्त्व रहित विचार रहित और वितर्क सहित है । इस ध्यान से गुण और गुणी का भेद मिटा कर गुण गुणी में समा गया । परजय अर्थात सर्व विकल्पों पर विजय प्राप्त करके अपने चिर शत्रु दुर्द्धर मोह को खपा दिया ॥ ३ ॥ Jain Educationa International + For Personal and Private Use Only ₹ अनन्तानुबन्धी सुभट ने काढी, दर्शन मोह गमायो । तिरि-गति हेतु प्रकृति खय करी, थयो आतमरस रायो रे । अनु४ । द्वितीय तृतीय चोकड़ी खपावी, वेद युगल खय थायो । हास्यादिक सत्ता थी ध्वंसी, उदयवेद मिटायो रे । अनु ५ ॥ भावार्थ -- अब इस मोह कर्म को खपाने का क्रमानुसारी वर्णन करते हैं । सबसे पहले अनन्तानुबंधी क्रोध - मान-माया-लोभ को तथा दर्शन मोहनीय अर्थात सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय, और मिश्र मोहनीय को खपाया । फिर अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी कषाय को खपाते समय इन्हें आधा खपा करके नरकगति की आनुपूर्वी २, तिर्यञ्चगति की आनुपूर्वी ४, एकेन्द्रिय जातिनाम, बेइन्द्रिय जाति नाम, ते इन्द्रिय जाति नाम तथा चौइन्द्रिय जाति नाम ८. भातप दश् Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभजना नी सज्झाय नाम उद्योत नाम १० स्थावर नाम ११ सूक्ष्म नाम १२ साधारण नाम१३ निद्रानिद्रा १४ प्रचलाप्रचला १५ और स्त्यानर्द्धि १६ इन सोलह कर्म प्रकृतियों को खपाते हैं। फिर अधबीच में छोड़ी हुई कषाय अर्थात द्वितीय तृतीय चौकड़ी ( अप्रत्या ख्यानो चतुष्क और प्रत्याख्यानी चतुष्क का नाश किया है। उसके बाद युगल वेद अर्थात अपने चालू वेद को छोड़ कर शेष दो वेदों को खपा कर हास्य-रतिअरति-भय-शोक- दुगु छा की सता को मिटा करके अपने वेद ( अर्थात् स्त्रीवेद ) को खपाया ) ॥ ४-५ ।। थइ अवेदी ने अविकारी, हण्यो संजलनो कषायो । ८६ मारयो मोह चरण खायक करी, पूरण समता समायो रे । अ०६ । भावार्थ तत्पश्चात् अवेदी और अविकारी होकर के संज्वलन क्रोधमान माया लोभ खपा करके चारित्र - मोहनीय कर्म को सर्वथा खपादिया । अर्थात् यथाख्यात चारित्र को पालिया । इससे पूरण समता में समा गई ॥ ६ ॥ घनघाती त्रिक योद्धा लडिया, ध्यान एकत्व ने ध्यायो । ज्ञानावरणादिक भट पडिया, जीत निशान घुरायो रे । अनु७ । भावार्थ-अब क्षीण मोहनीय के अंतिम दो समयों में से पहले समय में निद्रा प्रचला को खपाकरके अंतिम समय में एकता रूपी ध्यान से तीन घन घाती अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अंतराय कर्म रूपी योद्धाओं को मार कर जीत का निशान घुरा दिया ॥७॥ केवल ज्ञान दरसन गुण प्रगट्या, महाराज पद पायो । शेष अघाती कर्मक्षीण दल, उदय अबंध दिखायो रे । अनु ८ । भावार्थ — तत्पश्चात् केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रगट होने से वीतराग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभंजना नी सज्झाय ८७ महाराज का पद पालिया। बाकी रहे हुए जो बातो कर्म हैं, उनका उदय रहते हुये भी अबंकाल है । अर्थात् मोहनीय कर्म के नाश होने के पश्चात् कर्मो का बंध नहीं पड़ता। यद्यपि केवलियों के ई-पथिक कर्म का बंध बतलाया है, परंतु पहले समय में बंध और दूसरे समय में निर्जरा होने से उसे अबंध ही कहा है ॥८॥ सयोगी केवली थया प्रभंजना, लोकालोक जणायो । तीन काल नी त्रिविध वर्णना, एक समे ओलखायो रे ।अनुः । ___ भावार्थ-कुमारो प्रभंजना अब सयोगो केवली बन गई। जिससे लोक और अलोक का समग्न स्वरूप प्रत्यक्ष हो गया । तीनकाल अर्थात् अतीत अनागत और वर्तमान की तीन प्रकार की प्रवृति अर्थात् उत्पाद व्यय और ध्रौव्य को एक ही समय में ओलख लिया। ऐसा कोई भाव अवशिष्ट नहीं रहा जो केवलज्ञानोपयोग से नहीं जाना गया हो ॥६॥ सर्व साधविये वंदना कीधी, गुणी विनय उपजायो । देव देवी तव स्तुवे गुणस्तुति, जगजय पडह वजायो रे।अनु१०॥ ____भावार्थ-पूर्व परंपरागत क्रम के अनुसार देवों ने जब प्रभंजना केवली को साधुवेष दे दिया तब सारी साध्वियों ने उन्हें वंदना को । यद्यपि ये साध्वियाँ दीक्षा पर्याय की दृष्टि से बड़ो थी परंतु केवली का पद साधुपद से बड़ा है अतः इन्होंने वंदना करके गुणी का विनय किया कहा जायेगा। उसी क्षण देव और देवियों ने भी केवलज्ञान का महोत्सव मनाते हुये प्रभजना केवली के गुणों की स्तवना की। यहो जगत में जीत का पडह बजाया कहा जाता है ॥१०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ प्रभंजना नी सज्झाय सहस कन्यका दीक्षा लीधी, आश्रव सर्व तजायो। जग उपगारी देश विहारे, शुद्ध धर्म दीपायो रे । अनु ११ । __ भावार्थ-इस प्रकार केवलज्ञान की उत्पति से प्रभावित होकर इसके साथवाली एक सहस कन्याओं ने भी सर्व आश्रव का परित्याग करके दीक्षा लेली । उसके बाद देश देशान्तरों में विहार करते हुए शुद्ध धर्म को दिपाकर जगत का उपगार किया ॥११॥ कारण जोगे कारज साधे, तेह चतुर गाइजे । आतम साधन निर्मल साधे, परमानंद पाइजे रे । अनु १२ । भावार्थ-इस तरह किसी सत्पुरुष या सत्संग का निमित्त कारण मिलने पर को आत्मा अपना कार्य साध लेता है, वही चतुर कहा जाता है। आत्मा की निर्मलता जो साध्य है उसे आत्मिक साधनों द्वारा साध करके पूर्ण आनंद पाना चाहिये ॥१२॥ ए अधिकार को गुण रागे, वैरागे मन भावी । 'वसुदेवहिंडी'तणे अनुसार, मुनि गुण भावना भावी रे ।अ०१३। भावार्थ-वैराग्य और गुणानुराग से प्रेरित होकर मैंने “वसुदेव हिंडी' के अनुसार मुनिगुणों की भावना रूप यह वर्णन कहा है । ॥१३॥ मुनिगुण थुणतां भावविशुद्ध, भवविच्छेदन थावे ।। पूर्णानन्द पद एहथी उलसै, साधन शक्ति जमावे रे। अनु१४ । भावार्थ-विशुद्ध भावना अन्तर रुची से मुनिगुणों की स्तुति करने से आत्मा का भव-विच्छेद होता है । तथा इससे पूर्णानन्द पद प्रगट होता है। ऐसा करनेवाला अपनी आत्मा की साधनशक्ति को मजबूत बनाता है ॥१४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभंजना नी सज्झाय मुनिगुण गावो भावो भावना, ध्यावो सहज समाधि। रत्नत्रयी एकच्चे खेलो, मिटे अनादि उपाधि रे । अनु १५ । ___ भावार्थ-हे भव्यो ! मुनियों के गुण गावो । शुद्ध आत्म भावना भावो । और सहज समाधि लगावो । फिर ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप रत्नत्रयी की एकता में खेलो। जिससे अनादिकाल से आत्मा के साथ लगी हुई कर्मों को उपाधि मिट जाये ॥१५॥ राजसागर पाठक उपगारी, ज्ञानधरम दातारी । दीपचन्द पाठक खरतर वर, देवचन्द्र सुखकारी रे । अनु १६ । भावार्थ-राजसागर उपाध्याय बड़े उपगारी थे। उनके बाद ज्ञानधरम उपाध्याय ज्ञान और धर्म के बड़े दाता थे । तत्पश्चात श्री दीपचन्द्र नामक उपाध्याय हुए। इसी सुखकारी और श्रेष्ठ खरतर गच्छ में पण्डित मुनि श्री देवचन्द्र हुए । १६ । नयर लींबडी मांहे रहीने, वाचंयम स्तुति गाई । आत्म रसिक श्रोताजन मनने,'साधन रुचि उपजाई रे ।अनु१७ ____ भावार्थ -सौराष्ट्र प्रदेशान्तर्गत लींबड़ी नगर में रहकर यह मुनि गुणों की स्तुति की। इससे आत्मतत्व के रसिक लोगों को आत्म साधन करने की रुचि उत्पन्न करवायी गयी । १७ । इम उत्तम-गुण-माला-गावो, पावो हरष वधाई । जैन धर्म मारग रुचि करतां, मंगल लील सदाई रे । अनु १८ । भावार्थ-इस प्रकार उत्तम पुरुषों के उत्तमोत्तम गुणों की माला रूप स्तुति गावो। जिससे तुम हर्ष और बधाई के पात्र बन सको ! जैन धर्म के मार्ग की रूचि रखने से सदा लीला और मंगल होते हैं । १८ । __ इति पंडित-श्री देवचन्द्र जी महाराज विरचित प्रभंजना की सज्झाय समाप्त । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्रजी कृत साधु भावना पद । जगत में सदा सुखी मुनिराज । पर विभाव परणत के त्यागी, आगे जात्म समाज । जगता निजगुण अनुभव के उपयोगी, योगी ध्यान जहाज जगत०१। ___ भावार्थ:-इस त्रासमय संसार में वास्तविक सुखी मुनिराज ही हैं। क्योंकि न उन्हें शारीरिक सुखों में ही रुची रही, न इन्द्रियों के विषय भोगों की कामना। जब कि किसी चीज की कामना ही नहीं, इच्छा ही नहीं , तो आकुलता ही कैसे रहेमी ? आकुलता-अतृप्ति ही मनुष्य को अशान्त करती है । उसके सहज-सुखमय जीवन में बाधक है। मुनिराज ने जब इच्छाओं पर ही विजय प्राप्त कर लिया है, तब सहज सुख तो उन्हें स्वयं प्राप्त है । मुनिराज सांसारिक-पौद्गलिक-जड़ वस्तुओं में आसक्त नहीं हैं । उसमें वे मोहममता-राग या द्वेष नहीं करते, तद् विषयक संकल्प विकल्प भी नहीं करते । वे तो अपने मन को अन्तर्मुखी बनाकर अपने आत्म समाज में ही विचरण करते हैं । सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र और सहज सुख, शान्ति ही उनका समाज इस प्रकार अन्तर्मुखी मुनिराज का केवल ज्ञानमय आत्म-प्रदीप प्रज्वलित हो माने से, वे अपने आत्मिक गुणों का ही अवलोकन, चिन्तन करते रहते है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु भावना उनका दर्शनोपयोग, ज्ञानोपयोग मात्र ही अपनी शक्ति है। वे अपने उपयोग को. बाहर अन्य पदार्थों में नहीं लगाते, व्यर्थ नहीं गंवाते; उनसे उदासीन रहते हैं । वे तो आत्म-ध्यान रूपी जहाज के खेवैये हैं, शुद्ध-आत्म ध्यान ही एकमात्र इस संसार रूपी भवजल से तरने का ही आलम्बन हैं । मुनिराज शुद्धात्म-ध्यान के योगी बन कर जन्म मरण से छुटकारा पाने के मार्ग की ओर अग्नसर हो रहे हैं । हिंसा मोस अदत्त निवारी, नहीं मैथुन के पास । द्रव्य भाव परिग्रह के त्यागी, लीने तत्व विलास ।२। जगत। भावार्थ- इस प्रकार मुनिराज ने पोद्गलिक-सुख में मोह-ममता-राग या द्वष त्याग दिया हैं। उनके सम्बंध में मन के संकल्प विकल्प को छोड़कर निर्विकल्प बन गये हैं। वे भाव से अहिंसक बन गये हैं। अनादिकाल से अज्ञानवश. होती हुई अपनी आत्मा की हिंसा के कारणों को सम्यग् ज्ञान से जान कर शुद्धात्म ध्यान रूप सम्यक् चारित्र के द्वारा नष्ट कर रहे हैं । मुनिराज सभी देहधारो आत्मा को अपनी आत्मा के समान जानते हैं, मानते हैं। अत: वे किसो प्रकार के देहधारी आत्मा को मन, वचन, काया से कष्ट नहीं देते, हिंसा नहीं करते। इसलिये वे परम दयालु हैं, पूर्ण अहिंसक हैं। - ऐसे उच्च कोटि के आत्म साधक असत्य-झूठ, अदत्त-चोरी से तो कोशों दूर रहते हैं । ऐसे निवृह साधक को मैथुन-पंच इन्द्रियों को विषय वासना कैसे लुभा सकती है। ब्रह्मचर्य के तेज के सामने विषय वासना ठहर ही नहीं सकती। ___ जो महापुरुष अपने शरीर को श्मसान की होने वाली राख मानते हैं, हीरे, मानिक को पत्थर का टुकड़ा जानते हैं, वे उन्हें अपनायेंगे, यह असम्भव है। आत्म-साधक मुनिराज इन सब से परे रहकर अपने अन्तरात्मा में विराजमान केवल ज्ञानस्वभाव को अवस्थाओं के विलास में तल्लीन रहते है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु भावना निर्भय निर्मल चित्त निराकुल, विलगे ध्यान अभ्यास । देहादिक ममता सवि वारी, विचरे सदा उदास । जगत० ३। भावार्थ-मुनिराज सप्तभयों पर विजय प्राप्त कर निर्भय हो गये है । शुद्धात्म स्वरूप का ध्यान करते रहने से जिनका मन निर्मल हो गया है । कामनाओं-इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने से निराकुल बन गये अब मुनिराज मन-वचन, काया को स्थिर करके अपने शुद्धात्म स्वरूप के चिन्तन में, ध्यान के अभ्यास में सदा तल्लीन रहते हैं । अब शरीर में ममता न रहने से शारीरिक-सुख सन्मान आदि की इच्छा नहीं रही । अतः इनसे वे हमेशा उदासीन रहते हैं। ग्रहे आहार वृति पात्रादिक, संयम साधन काज । देवचन्द्र आणानुजाई, निज सम्पति महाराज । जगत० ४। भावार्थ-बचे हुए आयुष्य में शरीर धारण के लिये, आत्म साधन रूप संयम पालने के लिये आहार लेना आवश्यक है। और निर्दोष आहार लाने के लिये वस्त्र पात्र आवश्यक हो जाते है । सद्गुरू देवचन्द्रजी फर्माते है कि वीतराग सर्वज्ञ भगवान के आज्ञानुसार जो मुनि आत्म कल्याण रूप संयम की आराधना करते है, वे महान साधक अपने केवलज्ञानादि अनुपम सम्पति के स्वामी बनकर जगतपूज्य बन जाते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु भावना सज्झाय साधक साधज्यो रे निज सत्ता इक चित्त । निज गुण प्रगट पणे जे परिणमें रे, एहिज आतम वित्त ।। भावार्थ-हे साधक ! ( जिन आज्ञानुसार चलनेवाले मुनिराज ) अन्तर में रहे हुए अपने अव्यक्त शुद्धात्म स्वरूप को ध्यान द्वारा एकाग्र मन से साधिये । साधते-साधते जब अपना केवलज्ञान प्रगट होगा, वही परमात्मा का सहज स्वभाव है ॥ १॥ पर्याय अनंता निज कारण पणे रे, वरते ते गुण शुद्ध । पर्याय गुण परिणामें कर्तृ तारे, ते निज धर्म प्रसिद्ध ।२। ___ भावार्थ-अपने सहज ज्ञान में परिरमण को पर्याय कहते हैं। अनन्त ज्ञान की समय-समय में होनेवाली अनन्त पर्यायों-अवस्थाओं में परिरमण करनेवाले परमात्मा का केवलज्ञानादि गुण विशुद्ध है। ऐसे विशुद्ध गुणों में वर्तन रूप परिणामों का कर्ता परमात्मा है, फलस्वरूप परमानन्द का भोक्ता भी। जिन प्रवचन में आत्मा के दर्शन, ज्ञान, चारित्र वीर्य रूप गुण धर्म नाम से प्रसिद्ध हैं। परभावानुगत वीरज चेतनारे, तेह वक्रता चाल । करता भोक्तादिक सवि शक्ति मां रे, व्याप्यो उलटो ख्याल।३ भावार्थ-किन्तु अनादिकाल से जीव अज्ञानवश अपने शरीरादि के सुखकी लालसा में पड़ा हुआ अपनो शक्ति का दुरुपयोग कर रहा है ! यही उसकी विषय परिणति है, यही टेढ़ी चाल है। पुद्गल जड़ से उत्पन्न गरीरादि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु भावना का जीव खुद कर्ता बन कर उसके सुख दुख का भोक्ता बनता है। इस प्रकार जीव पर में अहं और मम को बुद्धि करता आ रहा है। ऐसे विपरीत बुद्धि के कारण ही वह उलटे रास्ते चलता है, संसार में जन्म मरण रूप भ्रमण करता है ॥ ३ ॥ 'क्षयोपशमिक ऋज ताने ऊपने रे, तेहिज शक्ति अनेक । निज स्वभाव अनुगतता अनुसरे रे, आर्यव भाव विवेका४। भावार्थ-संसार में भ्रमण करते-करते जीव को जब क्षयोपशमिक लब्धि विशेष आत्मिक शक्ति प्रगट होती है, जिससे उसके लम्बी-लम्बी स्थितिवाले सातों कर्मों की अवधि एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम से भो कम रह जाती है तब जीवके भावों की शुद्धि होती है, जिससे सरल-सहज भाव उत्पन्न होते हैं, उस सहज भाव की अनेक शक्तियाँ हैं जैसे दशर्न, ज्ञान, चारित्र, वीर्य । जिससे आत्म स्वभाव के अनुकूल आचरण होता है, और उसे सहज-सरल मोक्ष मार्ग का विवेक-ज्ञान हो जाता है। अपवादें परवंचकतादिका रे,ए माया परिणाम । उत्सर्गे निज गुणनो वंचना रे, परभावे विश्राम ।। भावार्थ-विशेष कथन है कि यदि जीव लोभवश माया-प्रपंच कर दूसरों को ठगता है तो सामान्यतया वह अपने ही सहज गुणों को प्रगट नहीं होने देता, उनसे वचित रहता हैं, तथा आर्त, एवं रोद्र ध्यान में व्यस्त रहता है। साते वरजी अपवादे आजवी रे, न करे कपट कषाय । आतम गुण निज निज मति फोरवेरे, ए उत्सर्ग अमाय ।६ भावार्थ-आत्म दर्शन में बाधक सातों दर्शनमोहनीय कर्मों को तीन करण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु भावना के द्वारा क्षय करके जब विशेष रूप से सरल-सहज स्वभावो बन जाता है, तब, वह कपट-कषाय नहीं करता है। अपने आत्म गुण सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र वीर्य को अपने-अपने कार्य में प्ररित कर मोक्षमार्ग-उत्सर्ग मार्ग साधते हैं । सत्तारोध भ्रमण गति चारमें रे, पर आधीने वृत्ति । वक्रचाल थी आतम दुःख लहे रे, जिम नृप नीति विरत्त । भावार्थ-ऐसा नहीं करने वाला जीव पोद्गलिक-विषय वासनाओं में आसक्त मनोवृति वाला होता है तथा अपने सत्ता में रहे हुए अन्तरात्मा को अष्ट कर्म रूपी बादलों से ढंका रखता है, फल स्वरूप चार गति में भ्रमण करता रहता है। अपनी इस प्रकार की टेढ़ी विपरीत चाल से जोव अनादिकाल से संसार भ्रमण करता हुआ दुख पाता है । जैसे कि राजा अन्याय एवं अनीति कर दुख पाता है । ते माटें मुनि ऋजतायें रमेरे, वमे अनादि उपाधि । समता रंगी संगी तत्त्वना रे, साधे आत्म समाधि ॥ ८ ॥ भावार्थ-इसलिये साधक मुनि अपने अनादिकाल के मिथ्या-दृष्टिपन (वक्रत्ता) को त्याग चुके हैं, तथा सम्यग्दृष्टिपन ( सरलता ) में स्थित है। वे वक्रचाल-अविरती को छोड़कर, मुनि-सर्वविरती बनकर विचर रहे हैं। अब पर में ममता न रहने से मन में समता का ऐसा रंग चढ़गया है कि वे अपने सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप निज तत्व में एक रस होकर अपने साध्य-विशुद्ध आत्म स्वरूप में समाधिस्थ रहने की साधना कर रहे हैं। मायाक्षये आर्जवनी पूर्णतारे, सवि गुण ऋज तावंत । पूर्व प्रयोगें परसंगी पणोरे, नहीं त सु कवित्त ॥६॥ भावार्थ · माया मिथ्यात्व नष्ट हो जाने पर, जीव अविरति-वक्रचाल छोड Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ साघु भावना देता है जिससे उसकी सरलता पूर्ण रूप से समताभाव रूप आत्मशक्ति विकशित होती हैं, समता भाव में सभी आत्मिक गुण सभाये हुए हैं ही। अब जो बाकी के कर्मों का तथा शरीरादिका जो पर संगीपन जीव के बच रहा है वह पहले के संचित कर्मों के प्रभाव से है, लेकिन जीव अब उनका कर्ता भोक्ता नहीं रहा । साधनभाव प्रथम थी नीपजेरे, तेहोज थाये सिद्ध । द्रव्यत साधन विघन निवारणा रे, नैमित्तिक सुप्रसिद्ध ॥ १० ॥ भावार्थ- सम्यगदृष्टि होने के बाद आत्मा के जो साधनभाव- समताभाव उत्पन्न होता है, उसे ही साधते साधते जब वह सिद्ध हो जाता है तब आत्मा ही परमात्मा बन जाता है । पंच महाव्रतादि द्रव्य साधन तो आत्म-साधन मार्ग में आनेवाले अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसर्गों से बचाने में ढाल का काम करते हैं । लड़ाई में अपने बचाव के उपयोगी वस्तु की आवश्यकता है ही । जो कि निमित्त कारण नाम से जिन वाणी में प्रसिद्ध है ॥ १० ॥ भावे साधन जे इक चित्तधीरे, भाव साधन भाव सिद्ध सामग्री हेतु ते रे, निस्संगी भावार्थ- समताभाव को जो मन, वच, काया पूर्वक एक समरसी होकर साधते हैं, वही भावसाधन है, है । विशुद्ध आत्मस्वरूप परमात्मस्वरूप की सिद्धि के निर्विकल्प निरंजन, निराकारभाव साधक मुनि के लिये हेय त्याग थी ग्रहण स्वधर्म नो रे, करे भोगवे साध । स्वस्वभाव रसिया ते अनुभवे रे, निज सुत्र अन्याबाध ||१२|| आत्मा का शुद्ध स्वभाव लिये निसंग निर्विकार आदेय है ॥ ११ ॥ Jain Educationa International निज भाव । मुनिराय ॥ ११ ॥ की स्थिरता - एकाग्रता For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु भावना भावार्थ-परसंग त्याग, रागद्वेष विकार त्याग कर समताभाव सहित जो अपने विशुद्ध आत्मस्वरूप केवल ज्ञान स्वभाव का एकाग्न चित से ध्यान करता है, अनुभव करता है वह केवल अपने स्वभाव सुख का रसिया हैं वही अपने विघ्न बाधा रहित परमानन्द स्वरूप का अपने सिद्ध-बुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है ॥१२॥ निःस्पृह निर्भय, निर्मम निर्मला रे, करता निज साम्राज । देवचन्द्र आणायें विचरतारे, नमिये ते मुनिराय ॥१३ ॥ भावार्थ-समता भाव की साधना करते हुए जो साधक मुनि स्पृहा रहित भय रहित, ममतारहित होकर निर्मल स्वभावी बन गये हैं वे अपने केवलज्ञानादि साम्राज्य को प्रगट करने में तत्पर है श्रीमद् देवचन्द्रजी फरमाते हैं कि ऐसे उत्तम साधक मुनिराजों को जो जिनाज्ञानुसार विचर रहे हैं उन्हे बारम्बार सविनय वंदना करें ! ॥ १३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु समस्या द्वादश दोधक पर गुण से न्यारे रहे, निज गुण के आधीन | चक्रवर्त्तितैं अधिक सुखी, मुनिवर इह निज इह पर वस्तु की, जिने चक्रवत्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर जिणहुँ निज निज ज्ञान सूँ, ग्रहे चक्रवर्त्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन | ३ | दस विध धरम धरइ सदा, शुद्ध चक्रवर्त्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित ज्ञान परी कीन । | ४ | रहे ज्युं मीन । चारित लीन |५| समता सागर में सदा, झील चक्रवर्त्तिते अधिक सुखी, मुनिवर आशा न धरै काहू की, न कबहू पराधीन Į चक्रवर्त्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन | ६ | तप संयम पावस बसै, दहै प्रमाद दुख झीन । चक्रवर्त्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन |७| पुद्गल जीव की शक्ति सब, जात सप्त भय हीन । चक्रवर्त्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन |८| रहे, कीयो मोह मसकीन | सप्तम गुणथानक Jain Educationa International चारित लीन |१| परीख्या कीन । चारित लीन |२| परिख तत्व लीन । For Personal and Private Use Only लीन Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर संसह चक्रवर्ति से अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन है। क्षयकोपशम पयड़ी चढ, आतम रस सुधीन । चक्रवत्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन १० तूर्य ध्यान ध्यावत समै, कीयै करम सब छीन । चक्रवति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ॥११॥ देवचन्द्र वावै सदा, यह मुनिकर गुनः बीन । चक्रवत्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ॥१॥ इति प्राकृत भाषायासमस्या दोधक द्वादस कृता पं० 'देवचन्द्रण पद संग्रह (१) पंचेन्द्रिय विषय त्याग-पद चेतन छोड़ दे, विषयन को परसंग। मिरोइ फिरत विलोल फरस वश, बंधोइ फिरत मातंग।१चे। कंठ छिदायो मीन आपनो, रसना के परसंग। नेत्र विषय कर दीप शिखा पै, जल जल मरत पतंग ।रचे। षटपद जलज मांहे फंस मूरख, खोयो अपनो अंग। वीणा शब्द सुण श्रवण ततखिन, मोही मर्यो रे कुरंग ।३चे। एक एक इन्द्रिय चलत बहु दुःख, पायो है सरभंग। पाँचों इन्द्रिय चलत महादुख, भाषत १ देवचन्द चंग।४चे। १ इम भाषत देवचन्द - - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद संग्रह (२) मेरे जिउ क्या मन मइ तं चिंतइ।। इक आवत इक जात निरंतर, इण संसार अनन्तइ ।१। मेरे जिउ० करम कठोर करे जिउ भारी, पर त्रिया धन निरखंतइ । जनम मरण दुख देखे बहुले, चउ गइ मांहि भभंते ।२। मे० काम भोग क्रीड़ा मन करता, जे बांधत हरपते । बेर बेर तेहिज भोगवता, नवि छूटे विलवंतइ ।३। मे० क्रोध कपट माया मद झूलइ, भूरि मिथ्याति भभंतइ। कहें देवचन्द सदा सुखदाई, जिन धूम एक एकतइ ।४। मे० मेरे प्रीउ क्युन आप विचारौ । कइसै हो कइसे गुणधारक, क्या तुम लागत प्यारो । १ टेक । तजि कुसंग कुलटा ममता कौ, मानौ वयण हमारो । जो कछु झूठ कहूं इनमें तौ, मोकू सूंस तुम्हारो ।२ मे० यह कुनार जगत की चेरी, याकौ संग निवारौ।। निरमल रूप अनूप अवाधित, आतम गुण संभारो ।३। मे० मेटि अज्ञान क्रोध दसम गुण, द्वादस गुण भी टारो।। अक्षय अबाध अनंत अनाश्रित राजविमल पद सारो।४। मे० राग-मारू पीयु मोरा हो सांभलि प्रीयु मोरा हो । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद संग्रह १०१ निज अनुभव घर में बसौ, ए मानि निहोरा हो । १। सां० मिथ्यामत दूरै हरौ, करौ ज्ञान सजोरा हो । पर त्रीय की मति लाग कै, क्यूं भूलत बौरा हो । २। सां० समता कहै साहिब अम्हे, सेवक नित तोरा हो। ए कुलटा आइ आई बूढ़ा, सो तो कहो भोरा हो ।३। सां० राचि रहे इन संगत सुज्य, शशि चित्त चकोरा हो । मुंह मीठी दिल री धीठी, ए अनुभव की चोरा हो। ४। सां० देवचन्द अरु सुमति मिले जब, भागे भ्रम सोरा हो । तब निज गुण इक वल्लभ लागत, अवर न लाख करोराहो ।५ सां० दिरागाजी खान भंडार जयपुर, बनारसीविलास गुटके से] आतम भाव रमो हो चेतन ! आतम भाव रमो। पर भावे रमता हो चेतन ! काल अनंत गमो हो । रागादिक सुमलीने चेतन ! पुद्गल संग भमो । चउगति मांहे गमन करंतां, निज आतम ने दमो हो चे०।२। ज्ञानादिक गुण रंग धरी ने, कर्म को संग वमो। आतम अनुभव ध्यान धरंतां, शिवरमणी सुरमो हो चे०३। परमातम नु ध्यान करंतां, भव स्थिति मां न भमो। देवचन्द्र परमातम साहिब, स्वामी करी ने नमो हो चे०॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ ढंढणमुनिजनी सज्झाय ॥ ॥ वनिता विहसीने विनवें । ए देशी ॥ धन धन ढण मुनिवरु, कृष्ण नरेसर पुत्तो रे; गुणमणि लवणिम शोभतो, लखमी लीला जुत्तो रे, धन० १ कोमल कमलो का मिनी, मूकी एक हजारो रे, नैमिवचने वैरागीयो, लीधो संयम भारो रे. ग्रहणा ने आसेवना, सीखी शिक्षा सारो रे, विचरता आन्याजी द्वारिका, नेमि साथै सुखकारो रे धन० ३ एक दिन गोचरी संचर्या, करता गवेषणा शुद्धि रे, आहार hit मिल्यो नही, मुनि मन समता बुद्धि रे, धन० ४ मुनि चिंते पुद्गल बलें, श्यो निज गुण अभ्यासो रे, उतसर्गे (उछंरंगे ) आतम बलें, कीजे शिवपद वासो रे, धन० ५ शक्ति यथा में आदरे, अपवादें अनेको रे, सहजे जो संवर वधे, तो न ग्रहे पर टेको रे, धन० ६ नितप्रति गोचरी संचरे, न मिले अन्नने पानो रे, प्रभुचरणे आवी नमी, पूछे तजी अभिमानो रे धन० ७ यु कारण कहो नाथ जी, एवडो ए अंतरायो रे, Jain Educationa International धन० २ For Personal and Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढंढ़ण मुनि सज्झाय जिन भाखे कृत कर्मनो, एहवो छ व्यवसायो रे. धन० पूरवभव धन लोभथी, कीधो क र अपायो रे, तीवरसें जे बांधीयां, तेहनो फल दुःखदायो रे. धन०६ नृप आदेशे पाँचसे, हल खेडवा अधिकारो रे, चास एक निज क्षेत्रनी, खेडावी धरी प्यारो रे धन० १९ भात चारीनो सर्वने, तुम्हे कीधो अंतरायो रे, तीव्ररसें जे बांधीयो, तसु विपाक ए आयो रे. धन० ११ मुनिवर अभिग्रह आदर्यो, एह करम क्षय कीधे रे, लेश्यु हवे आहारने, धीरज कारज सीधे रे. धन० १२ मास गया षट इणिपरे, पण मुनि समता लीनो रे, अणपामें अति निर्जरा, जाणे तिणे नवि दीनो रे. धन० १३ वासुदेव जिन वंदीने, पूछे धरी आनंदो रे, साधक साधु में निरमलो, कवण कहो जिनचन्दो रे. धन० १४ नेमि कहे ढंढण मुनि, संवर निर्जरा धारी रे, सहु साधु थकी अधिक छ, समता शुद्ध विहारी रे धन० १५ निजघर आवतां नरपति, वंद्यो मुनि शमकंदो रे, दीठो तब इक गृहपति, पाम्यो हरख आनंदो रे धन० १६ मुनि आल्या तसु आंगणे, पडिलाभ्या मन रागरे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ढंढण मुनि सज्झाय मोदक सूजता मुनि ग्रही, चढते मन वैरागे रे धन० १७ जिन वंदीने पूछियो, त्रव्यो ते अंतरायो रे, नाथ कहे जदुनाथ ने, कारणथी तुम्हे पायो रे धन० १८ सांभली मुनि अति हरखीया, धन धन ए गुरुराजों रे, वीतराग उपगारिया, कृपा करी मुज आजो रे. धन० १६ साध्य अधुरे कुण करे, ए आहार असारो रे, पुद्गल जगनी एंठ ए, किमल्ये मुनि सुविचारो रे धन० २० साधन वधते आदरे, ए साधक व्यवहारो रे, निःकारण परवस्तु ने, छीपे नहीं अणगारो रे धन० २१ इम चिंतवी शुद्ध थंडिले, परठवतो ते पिंडो रे, पुदगल संगनी निंदना, निजगुण रमण प्रचण्डो रे धन० २२ पर परिणति विच्छेदतां, निज परिणति प्राग्भावो रे, क्षपकश्रेणि ध्याने रम्या, पाम्यो आत्म स्वभावो रे धन० २३ आतमतत्व एकाग्रता, तन्मय वीरज धारे रे, घन घाती सवि खरव्या, रत्नत्रयो विस्तारे रे धन० २४ क्षीणमोह करी चरणनी, क्षायिकता करी पूरी रे, केवलज्ञान दर्शन वर्या, अंतराय सवि चूरी रे धन० २५ परम दान लाभ नीपनो, कीधो कारज सुधो रे, समवसरण में आवीया, साध्य संपूरण सीधो रे. न० २६ एहवा मुनि ने गाइये, ध्याइयें धरी आणदो रे, देवचंद पद पाइये, लहिये परमानंदो रे. धन० २७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री समकितनी सज्झाय ॥ समकित नवि लह्योरे, ए तो रुल्यो चतुर्गति मांहे, सथावर की करुणा कीनी, जीव न एक विराध्यो, तीन काल सामायिक करतां, शुद्ध उपयोग न साध्यो, स० १ जूठ बोलवाको व्रत लोनो, चोरी को पण त्यागी, व्यवहारादिक महा निपुण भयो, पण अंतरदृष्टि न जागी स० २ उर्ध्व बाहु करी उधो लटके, भस्म लगाइ धूम घटके, जटा जुट शिर मुंडे जूठो विण श्रद्धा भव भटके, स० ३ निज परनारी त्यागज करके, ब्रह्मचारी व्रत लीनो, स्वर्गादिक याको फल पामी, निज कारज नवि सिध्यो स०४ बाह्य क्रिया सब त्यागि परिग्रह, द्रव्य लिंग धरि लीनो, देवचंद कहे या विध तो हम, बहुत वार कर लीनो, स०५ गजसुकुमाल मुनीश्वर सज्झाय ॥ ढाल (१) ॥ आस फली मेरी आस भली ॥ ए देशी ॥ द्वारिका नगरी ऋद्धि समृद्ध, कृष्णनरेश्वर भुवन प्रसिद्ध, चेतन सांभलो (ए टेक) वसुदेव देवकी अंग सुजात, गजसुकुमालकुमर विख्यात चे० १ नयरी परिसरें श्रीजिनराय समवसर्या निरमम निर्माय, यादव कुल अवतंस मुणिंद, नेमिनाथ केवल गुण वृंद, चे० २ Jain Educationa International • For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गजसुकुमाल मुनीश्वर सज्झाय त्रिभुवनपति श्री नेमजिणंद, आव्या सुणी हरख्या गोविंद, सजी सांमईयो वंदन काज, हरखें बांधा श्री जिनराज, चे० ३ लघु चयें पण श्री गजसुकुमाल, रूप मनोहर लील विशाल, वीतराग वंदन अतिरंग, सुविवेकी आवे उछरंग चेतन० ४ समवसरण देखी विकसंत, त्रिकरणजोर्गे अति हरखंत, धन धन माने निज मनमांहि, गयो पाप हुँ थयो सनाह. चे०५ कुमरे वंदी जिनवर पाय, आनंद लहरी अंग न माय, निःकामी प्रभु दीठा जांम, विसरी वामा ने धन धाम चे० ६ जिन मुख अमृत वयण सुगंत, भाग्यो मिथ्या मोह अनंत, दरशन नाण चरण सुखखांण, शुद्धातम निज तत्व पिछाण चे०७ परपरिणत संयोगी भाव, सर्व विभाव न सुद्ध स्वभाव, द्रव्यकर्म नोकर्म उपाधि, बंध हेतु पमुहा सवि व्याधि च े० ८ तेही भिन्न अमूरति रूप, चिन्मय चेतन निज गुण रूप, • श्रद्धा भासन थिरता भाव, करतां प्रकटे शुद्ध स्वभाव चं० ६ नेमि वचन जाग्यो वडवीर, धीर वचन भाषे गंभीर, देहादिक ए मुजगुण नांहि, तो किम रहेवु मुजए मांहि चे१० जेहथी बंधाये निजतत्व, तेहथी संग करे कुण सत्व, प्रभुनी रहेकुँ करि सुपसाय, हुं आबुं माता समजाय. चे० ११ १०६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गजसुकुमाल मुनीश्वर सज्झाय १०७ ॥ ढाल (२) ॥ वहिलडा आवज्यो ॥ ए देशी ॥ माता जी नेमि देशन सुणो, मुज थयो आज आणंद रे, मनुज भव आज सफलो थयो, आज शुभ उदय आणंद रेमा१२ देवको चित्त अति गहगही, इम कहे मधुर मुख वाणि रे, धन्य धन्य मति ताहरी, जेणे सुणी नेमि मुख वाणि रे मा०१३ माताजी एह संसारमां, सुखतणो नहीं लवलेश रे, वस्तुगत भाव अवलोकतां, सर्व संसार कलेश रे. मा० १४ कर्मथी जन्म, तनु कर्मथी, कर्म ए सुख दुःख मूल रे, आतम धर्म नविए कदा, आज मुज टली सवि भूल रे. मा०१५ नेमि चरणे रहि आदरु, चरण गुण शिवसुखकंद रेः विषय विष हिवें मुज नवि रुच, सांभले अमृतानंद रे मा १६ माताजी अनुमति आपीये, हवें मुज एम न रहाय रे, एक खिण अविरत दोषनी, वातडी वचन न कहायरे मा० १७ मोहवशे मुझी देवकी, विलवती इम कहे वात रे, पुत्र ते ए किश्यु भाखियु, तुज विरह मुज न सुहात रे मा० १८ वत्स ! संयम अति दोहिलं, तोलवो मेरु एक हाथ रे, प्राण जीवन मुज वालहो, माहरे तुहिज आय रे मा० १६ मात तुंमे एक श्राविका नेमिनी, तुमें एम न कहाय रे, मोक्ष सुख हेतु संयमतणो, किम करोमात अंतराय रे मा० २० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ गजसुकुमाल मुनीश्वर सज्झाय वत्स ! मन भाव दुक्कर घणो, जीपवो मोह भूपाल रे, विषय सेना सहु वारवी, तमे छो बाल सुकुमाल रे. मा० २१ मातजी निज घर आंगणे बालक रमे निरबीह रे, तेम मुज आतम धर्म में, रमण करतां किसी बीह रे मा० २२ मोह विष सहित जे वचनडा, ते हिवें मुज न छिबंत रे, परम गुरु अमृत वचनथकी, हुँ थयो उपशमवंत रे मा ० २३ भवतणो कंद हवें भाजवो, साधवो मोह अरिवद रे, आतमानंद आराधवो, साधवो मोक्ष सुखकंद रे. मा० २४ नेमथी कोई अधिको होवे (तौ) मानिये तास वचन्न रे, माताजी कांई नवि भाखिये, माहरे संयमें मन्न रे मा० २५ ॥ढाल (३) ॥ धन धन साधु शिरोमणि ढंढ गौ ॥ धन धन जे मुनिवर ध्याने रम्या रे, समतासागर उपशमवंत रे विषय कषायें जे नडिया नहीं रे, साधक परमारथ सुमहंतरे धन० जादवपति परिवारे परिवर्यो रे, नेमि चरणे पहुंता गजसुकुमाल रे मात पिता भ्रातें वहिराविया रे, नंदन बाल मनोहर चाल रेध० प्रभुमुख सर्वविरति अंगीकरी रे, मुकी सरव अनादि उपाधिरें पूछे स्वामी कहौ केम नीपजे रे, मुज ने वहेली सिद्धिसमाधिरे ध० प्रभुभाखे निज तत्व एकाग्रता रे, उदय अव्यापकता परिणाम रे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गजसुकुमाल मुनीश्वर सज्झाय १०६ संरवाधे साधे निर्जरा रे, लघुकालें लहिये शिवधाम रे. धन धन जे० २६ एगराई पडिमा तुमे आदरो रे, धरजो आतम भाव सुधीर रे समतासिन्धु मुनिवरें तिम कर्यो रे, शिवपद साधन वडवीर रे. धन धन जे ०३० शिर उपर सिगडी सोमिलें करीरे, समता शीतल गजसुकुमाल रे, क्षमा नीरें न्हवराव्यो आतमारे, श्यं दाझे तेहनै ए झाल- रे. धन धन जे० ३१ दहनधर्म ते दाह जे अगनिथी रे, हुं तौ परम अदाज अगाह रे; जं दाझे तेतौ माह धन नथी रे, अक्षय चिन्मय तत्व प्रवाह रे, धन धन जे० ३२ क्षपकश्रेणि ध्यान आरोहणें रे, पुद्गल आतम भिन्न स्वभाव रे निजगुण अनुभव वली एकाग्रता रे, भजतां कीधौ कर्म अभाव रे, धन धन जे० ३३ निरमल ध्याने तत्व अभेदता रे, निर्विकल्प भ्याने तद्रूप रे पातकक्षयें निजगुण उल्लस्यां रे, निर्मल केवलज्ञान अनूप रे. धन धन जे० ३४ थई अजोगी शैलेसी करी रे, टाल्यौ सर्व संजोगी भाव रे, आतम आतम रूपें परिणम्या रे, प्रगट्यौ पूरण वस्तुस्वभाव रे, धन धन जे० ३५ सहज अकृत्रिम वली असंगता रे निरुपचरित वली निर्द्वन्द रे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० गजसुकुमाल मुनीश्वर सज्झाय निरुपम अन्यावाध सुखी थया रे, श्री गजसुकुमाल मुनींद रे. धन धन जे० ३६ नित्यप्रति एहवा मुनि संभारीये रे, धरीये एहनु मनमांहींज ध्यान रे इच्छा कीजे ए मुनिभावनी रे, ज्यु लहीये अनुभव परमनिधान रे, धन धन जे० ३७ खरतर गच्छ पाठक दीपचन्दनों रे, देवचन्द्र वंदे ए मुनिराय रे सकल सिद्ध सुखकारण साधुजी रे, भव भव होज्यो सुगुरु सहाय रे धनधन जे ३८ इति श्री गजसुकुमाल सज्झाय समाप्त ध्यानी निर्ग्रथ सज्झाय दोहा परमारथ निश्चय करी, वधते मन इन्द्रिय सुख निस्पृह थका, साधु इसा भाव शुद्धि भव भ्रमण थी, छटा जो काम भोग थी ऊभग्या, तन नी स्पृहा न रोश ॥ २ प्राण त्याग पण ध्यानथी, छूटे नहीं लगार । पर त्यागी मुनिवर तिके, ध्यान तणा आधार || ३ महा - परिषह साप थी, जन निंदा थी जास । क्षोभ न पामें मन तनक, वसता निज गुण वास ॥ ४ राग द्वेष राक्षस थकी, भय नवि पामे जेह । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only वैराग । बड़भाग ॥ १ जोगीश । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानी निथ सज्झाय नारी थी मन नवि चले, अक्षय निज रस गेह ॥ ५ तप दीपक नी ज्योति थी, बाल्या कर्म पतंग । ज्ञान राज्य त्रय लोक नो, विलसे जेह निःसंग ॥ तप थी तन ने पीड़वे, उपशम रस भंडार । लोक सर्व सुखकार जे, मोह अग्नि जलधार ॥ ७ निज स्वभाव आनन्दमय, शांत सुधारस ठाम । योग महागज जीप ने, व्रतधारी शम धाम ॥ ८ ढाल-तार मुझ तार संसार सागर थकी महा शमधार सुखकार मुनिराय जे, ध्यान ध्यावा भणी जोग थावे; देह आधार संसार सुख निस्पृही, तेह जोगीश निज देव पावै; म० १ शुद्ध विज्ञान रस पान थी शांत मन, थावर जंगम दया धारी; मेरू जेम अचल आकाश जेम निर्मला, पवन जेम संग विण लोभ वारी; म० २ भव्य सारंग सुखकार उपदेश थी, देह शोभा तजी मोक्ष साधे ज्ञान शक्ति करी आत्म निज ओलखे, शुद्ध निज ध्यान ते मुनि आराधे; म० ३ अम निज देह नै मोक्ष गृह चढण ने, कही सोपान सम साधु सेवा; ध्यान ते साधू ने मोक्ष कारण कह्यो, विमल विख्यात निज गुण वहेवा; म०४ दांत मन विहग इंद्रिय भणी जे दमे, ज्ञान ना गेह पातक विडारे; कर्म दल गंज ने चित्त निर्मल थका, एम जोंगीश शिव मग सुधारे; म० ५ गिरि नगर कंदरा गेह शव्या शिला, चंद्र कर दीप मृग संग चारी; ज्ञान जल तप अदीन शांत आत्मा थका, धन्य निनथ सुविहित विहारी; म०६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ध्यानी निन थ सज्झाय प्राण इन्द्रिय वली देह संवर करी, रोको संकल्प मन मोह भंजी; धन्य निज ध्यान आनन्द आलम्ब धरी, शुद्ध पद आत्मनी ज्योति रंजी; म० ७ हेय आदेय त्रिभुवन गणे साधु जे, क्षय करे पुण्य ने पाप केरो; आत्म आनन्द स्याद्वाद थी विषय ने, विष गणी भंजता कर्म घेरो, म० ८ कार्य संसार ना साधता ज्ञान विण, जगत में एहवा :बहुत दीसे; कापी भव दुख बली ज्ञान जल झीलता, एहवा साध दोय तीन दीसे; म० ६ बड़े प्रासाद में नरम पल्यक पर, रात जे पोढता नारी संगे; तेह गिरि कंदरा कठिन शिला परे, रहे नित जागता ध्यान रंगे; म० १० चित्त थिर राग ने द्वेष नों क्षय करी, जीप इन्द्रिय आरंभ छोड़ी; ज्ञान उद्दीपना थकी आनंदमय, देखो निज देव ने कर्म मोड़ी; म० ११ छोड़ो परसंग आत्मा-भणी सिद्ध सम, घ्यावता सुमति सुं मोह वारे; आत्म स्वभावगत जगत सहु अन्य गणी, ज्ञान निधि मोक्ष लक्ष्मी सुधारे; म० १२ तत्व चिंता करे विषय ने परिहरे, स्वहित निज ज्ञान आनंद दरीयो; सुमति संयुक्त तप ध्यान संयम सहित, एहवो साध चारित्र भरीयो; म० १३ एहवा पंडितो वचन रचना थकी, नित थुणे आत्म ने बहुत ऐसा; शुद्ध अनुभूति आनंद सु राचीगा, कटे भव पास दुरलभ तसा; म० १४ एहवा योग धारी जिके मुनिवरु; ध्यान निश्चल ते केईज राखे; ध्यान ने योग अणयोंग नी ए कथा, ग्रंथ अनुसार देवचन्द भाखे; म० १५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ م ع پ श्री अभय जैन ग्रन्थमाला के महत्वपूर्ण प्रकाशन 1 ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 2 बीकानेर जैन लेख संग्रह 3 दादा जिनकुशलसूरि 4 युग प्रधान श्री जिनदत्तसूरि 5 समय सुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि 6 ज्ञानसार ग्रन्थावली सादूल राजस्थान रिसर्च इन्स्ट्रीट्य ट के प्रकाशन 1 विनय चन्द्र कृति कुसुमाञ्जलि 2 पद्मिनी चरित्र चौपाई 3 धर्मवद्धन ग्रन्थावली 4 सीताराम चऊपई (समय सुन्दर) 5 समय सुन्दर रास पञ्चक 6 जिन राजसूरि कृति कुसुमाञ्जलि 7 जिन हर्ष ग्रन्थावली श्रीमद् देवचन्द्र ग्रन्थावली 1 चौवीसी वोसी स्तवन 2 अष्ट प्रवचन माता सज्झाय सार्थ ३पंच, भावनादि सज्झाय साथै 4 शान्त सुधारस उपाश्रय कमेटो प्रकाशन राई देवसी प्रतिक्रमण J31 पूजा सग्रह Serving JinShasan, 2J50 ک ک ک ک ه . پاپاا ब्रदर्स मल्लिक लेन 102891 gyanmandir@kobatirth.org श्री हरि प्रसाद उपाध्याय द्वारा प्रभाकर प्रेस 74 पथरियाघाट स्ट्रीट कलकत्ता-६ से मुद्रित www.alnelibrary.org