SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ साघु भावना देता है जिससे उसकी सरलता पूर्ण रूप से समताभाव रूप आत्मशक्ति विकशित होती हैं, समता भाव में सभी आत्मिक गुण सभाये हुए हैं ही। अब जो बाकी के कर्मों का तथा शरीरादिका जो पर संगीपन जीव के बच रहा है वह पहले के संचित कर्मों के प्रभाव से है, लेकिन जीव अब उनका कर्ता भोक्ता नहीं रहा । साधनभाव प्रथम थी नीपजेरे, तेहोज थाये सिद्ध । द्रव्यत साधन विघन निवारणा रे, नैमित्तिक सुप्रसिद्ध ॥ १० ॥ भावार्थ- सम्यगदृष्टि होने के बाद आत्मा के जो साधनभाव- समताभाव उत्पन्न होता है, उसे ही साधते साधते जब वह सिद्ध हो जाता है तब आत्मा ही परमात्मा बन जाता है । पंच महाव्रतादि द्रव्य साधन तो आत्म-साधन मार्ग में आनेवाले अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसर्गों से बचाने में ढाल का काम करते हैं । लड़ाई में अपने बचाव के उपयोगी वस्तु की आवश्यकता है ही । जो कि निमित्त कारण नाम से जिन वाणी में प्रसिद्ध है ॥ १० ॥ भावे साधन जे इक चित्तधीरे, भाव साधन भाव सिद्ध सामग्री हेतु ते रे, निस्संगी भावार्थ- समताभाव को जो मन, वच, काया पूर्वक एक समरसी होकर साधते हैं, वही भावसाधन है, है । विशुद्ध आत्मस्वरूप परमात्मस्वरूप की सिद्धि के निर्विकल्प निरंजन, निराकारभाव साधक मुनि के लिये हेय त्याग थी ग्रहण स्वधर्म नो रे, करे भोगवे साध । स्वस्वभाव रसिया ते अनुभवे रे, निज सुत्र अन्याबाध ||१२|| आत्मा का शुद्ध स्वभाव लिये निसंग निर्विकार आदेय है ॥ ११ ॥ Jain Educationa International निज भाव । मुनिराय ॥ ११ ॥ की स्थिरता - एकाग्रता For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003824
Book TitlePanch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy